द थर्ड आई के वर्तमान संस्करण में हम यौनिकता में ‘मज़ा और खतरा’ की छानबीन कर रहे हैं. उन जगहों की तलाश जहां विमर्श और व्यवहार एक जगह आकर मिलते हैं. इस संस्करण में, अबतक प्रकाशित सामग्रियों में एक समान बात है. वह ये कि सभी ज़िंदगी में हमारी इच्छाओं की जो बेतरतीबी (गड्ड-मड्डपन) है उसके बहुत करीब हैं. असल में ये अस्तव्यस्तता या गड्ड-मड्डपने का अहसास ही ज़िंदगी के तमाम पहलुओं में शामिल है. हमारी ज़िंदगी स्याह-सफेद से इतर इन दोनों की मिलावट से बनी स्लेटी रंग की है. ये ही ज़िंदगी का असल रंग है. यह गड्ड-मड्डपना ही उस मिथक को तोड़ने का काम करता है, जिसकी वजह से हम यह मानते हैं कि हम सिर्फ तर्क से संचालित होते हैं और क्योंकि इस बेतरतीबी को समझना राजनैतिक कार्य भी है.
हमारी यही छानबीन हमें हिंदी की उन कहानियों तक खींच लाई जिनकी कथावस्तु हमारे विचार को आगे बढ़ाने में मददगार साबित होती है. लेखक प्रियंवद की कहानी ‘खरगोश’ कामना के भंवर में उपजे तनावों की कहानी है, तो वहीं, एक किशोर मन में उपजी सैकड़ों भावनाओं की कहानी भी है. एक कस्बाई शहर की गलियां, गंध, धूप, छत, सीढ़ियों और उसके रिदम में बंटू, बंटू के अविनीश भाई और अविनीश भाई की मृत्यु – ‘खरगोश’ इन्हीं किरदारों के इर्ग-गिर्द घूमती है.
हमारे घर बिल्कुल सटे हुए थे. किसी पुरानी हवेली को ज़बर्दस्ती बांटकर बनाए गए दो हिस्से छत… छज्जे… आंगन… फटी दरारों वाली दीवारें… उखड़े फर्श और ऊंची-ऊंची छतों और हवादार खिड़कियों वाले विशाल पुराने कमरे. दोनों हिस्सों को बांटने वाले आंगन के बीच में एक दीवार और उस दीवार में एक छोटा-सा दरवाजा था, जिससे एक-दूसरे के घरों में जाया जा सकता था. एक घर में मैं था और दूसरे में अविनीश भाई.
उस समय मेरी उम्र ऐसी थी जिसमें हर बालक का एक महानायक होता है. दुर्धर्ष… अदम्य… अपराजेय… दिव्य. अविनीश भाई मेरे नायक हुआ करते थे. साफ सफेद रंग… विद्वान… संतुलित… स्थितप्रज्ञ युवक का आभास देते थे वह. मेरी दृष्टि में संसार का कोई पराक्रम नहीं था जो अविनीश भाई न कर सके. मेरे लिए वह किसी भी देवता से सुंदर थे. जैसी कि वह अवस्था होती हे, मैं उन पर मोहित था. चुपचाप बैठकर उनको देखने में भी एक सुख मिलता था. उनकी भंगिमाएं, उनकी मुद्राएं… बातचीत में कांपते होंठ… हाथों की उंगलियां… विचारवान आंखें. अविनीश भाई मेरी अंतिम शरण थे. उनकी बात मेरे लिए सृष्टि का अंतिम सत्य थी. पतंग के कन्ने बांधने से लेकर पिशाच साधने तक मैं हर गुत्थी के लिए अविनीश भाई के पास दौड़ता था.
हमारे घरों में बीच का वह छोटा दरवाजा हर समय खुला रहता था. सुबह या शाम या रात, किसी भी समय में आंगन पार कर उसी दरवाजे से होता हुआ ऊपर अविनीश भाई के कमरे में घुस जाता था. अविनीश भाई भी दुलार करते थे मेरा. बिस्तर में दुबकाकर चिपका लेते थे और दुनिया भर की बातें बताते थे. उनका कमरा किताबों से भरा रहता था. अविनीश भाई मेरे खाने के लिए हमेशा कुछ रखते. मीठी गोलियां… काजू या किशमिश. जेब से कुछ न कुछ निकालकर मुझे दे देते.
मैं अपने घर में कम अविनीश भाई के साथ ज्यादा लटका रहता था. “अविनीश भाई,” मैं शाम को चार बजे तपती धूप में उनके कमरे में पहुंच जाता. वह कुछ पढ़ रहे होते.
‘आओ बन्टू’ वह मुस्कराकर मुझे चिपका लेते और फिर पढ़ने लगते. मैं किताब छीन लेता.
“पढ़ना बन्द अविनीश भाई,”
“क्यों?”
“पास की नीली छत वाले ने कल मेरी तीन पतेंगें काट दीं.”
“तो?”
“आज उससे हिसाब बराबर करना है… तुम चलो.”
“कहां?” अविनीश भाई पूछते.
“छत पर… पहले उसकी तीन पतंगें काटो चलकर.”
“पर ज़रूरी नहीं है कि काट ही दूं… कट भी सकता हूं.”
“नहीं” मैं अंधविश्वास से उनको देखता “तुम्हें कोई नहीं काट सकता, चलो.” मैं उनको खींचता.
“पर शाम तो होने दो.”
शाम को मैं छत पर अविनीश भाई को ले जाता. सीना फुलाए… श्रेष्ठता के विजयी भाव से भरा. मैं चरखी दिखाता… अविनीश भाई पतंग बढ़ाते. नीली छत वाला भी उड़ाता. अविनीश भाई एक के बाद एक उसकी पांच पतंगें काटते. मैं उत्तेजना… उत्साह और आनंद से हर बार चीखता… तालियां पीटता. मेरी आत्मा में अविनीश भाई की शक्ति उतर आती, इसलिए कि जो सामर्थ्य… जो श्रेष्ठता अविनीश भाई के पास है वह सब मेरी है… क्योंकि अविनीश भाई मेरे हैं.
अकसर शाम को अविनीश भाई ऊपर छज्जे से मुझे आवाज देते. उनकी आवाज सुनते ही मैं सब छोड़कर दौड़ पड़ता. “चल घूम आयें” वह नीचे आकर मेरा हाथ पकड़ लेते, “मां से कह दे.” मैं आंगन से ही चीखकर मां को बता देता. मां मेरे पीछे बकती… झकती… माथा पीटती… मेरे घूमने को कोसती, पर मैं कूदता हुआ अविनीश भाई के साथ निकल जाता. हम बहुत देर तक घूमते रहते. डूबते सूरज की लाली में… ठंडी कांपती रातों में… कभी बारिश में भी. बाजारों में… गंगा किनारे… नाव पर… कभी पुराने किले में… कब्रिस्तान में और कभी किसी पेड़ के नीचे. अविनीश भाई मुझे कितना कुछ बताते रहते. “इंसान का दिल उसकी पूरी ज़िंदगी में दो हजार करोड़ बार धड़कता है…कि मादा मच्छर बस तीन दिन जिंदा रहती है और इन तीन दिनों में लाखों मच्छर पैदा करके मर जाती है… कि हाथी के पैर में कोई हड्डी ही नहीं होती…कि केवल जिराफ ऐसा जानवर है जो तैर नहीं सकता…कि चांद से जमीन को केवल चीन की दीवार दिखती है… कि दुनिया के किसी भी राडार या कंप्यूटर से तेज दिमाग चमगादड़ का होता है जो अंधेरी छोटी गुफाओं में तेज रफ्तार से उड़ता रहता है, पर कभी किसी दीवार से नहीं टकराता.” मैं हैरानी से मन्त्रमुग्ध-सा सुनता रहता. कहां सीमा है अविनीश भाई की… कितना जानते हैं…. क्या कोई उनसे भी श्रेष्ठ हो सकता है?
वे जाती हुई सर्दियों के दिन थे. दिन भर तेज हवाएं चलतीं और पेड़ों के सूखे पत्ते टूटकर गिरते रहते. पांवों के नीचे चटकते… चीखते…. दिन खाली खाली, लंबे और उबाऊ होने लगे थे. मैं सुबह से ही शाम होने का इंतजार करने लगता, क्योंकि सर्दियों के बाद के साफ खुले आसमान पर पतंगें उड़ना शुरू हो गई थी.
उन्हीं दिनों एक शाम को अविनीश भाई मुझे ऊपर से आवाज दी.
“बन्टू.”
मैं बाहर आंगन में आ गया. छज्जे पर अविनीश भाई थे.
“क्या कर रहे हो?”
“पतंग जोड़ रहा हूं.”
“चल… बाहर चलें.”
मैंने सर हिलाया. नीचे आकर अविनीश भाई ने मेरा हाथ पकड़ा और गली के बाहर ले आए.
हमारी गली के बाहर सड़क की दुकानों के आगे कई चबूतरे बने थे. कई तरह के कई आकार के. रात को उन चबूतरों पर मुहल्ले के हलवाइयों की दुकान पर काम करने वाले छोटे लड़के… या भिखारी सोते थे. दिन भर चलते-फिरते लोग कुछ देर बैठकर दम लेते…पानी सिगरेट पीते या मुहल्ले के बेकार लड़के शतरंज खेलते… ताश पीटते या सस्ती किताबें पढ़ते. वहीं एक चबूतरे पर अविनीश भाई बैठ गए. मैं भी उनके साथ चिपक गया. अविनीश भाई कुछ बोल नहीं रहे थे, चुपचाप सामने देख रहे थे. कितनी देर यूं ही देखते रहे. कभी-कभी गर्दन घुमाकर दाएं देख लेते.
मैं ऊबता-सा कभी सामने सड़क पर गुजरती भीड़… कभी धूप की बढ़ती छाया और कभी ऊपर आकाश की पतंगें देख रहा था. अचानक अविनीश भाई उठ गए.
“चल…पतंग उड़ाएं.”
“पर अब तो सब उतार रहे हैं.” मैंने बुरा-सा मुंह बनाया.
“अभी अंधेरा होने में देर है…चल.”
“पर क्यों… हम अभी कहीं घूमने भी नहीं गए?”
“फिर कभी.” अविनीश भाई ने मुझे पकड़ा और लगभग घसीटते हुए घर ले आए.
पतंग… मांझा… चरखी लेकर मैं उनके साथ छत पर पहुंच गया. छत की एक ऊंची मुंडेर पर अविनीश भाई बैठ गए.
“तुम बढ़ाओ… मैं देख रहा हूं.”
मैंने पंतग बढ़ानी शुरू की और बढ़ाता गया. बीच-बीच में अविनीश भाई को देख लेता. वह मेरी तरफ पीठ किए बैठे थे…सामने मकानों को देखते हुए. थोड़ी देर बाद ही अंधेरा घिरने लगा. चीखते हुए तोते पेड़ों को वापस लौट रहे थे.
“एक तोता फैसाऊं?” मैंने चिल्लाकर पूछा.
“नहीं…चलो…” अविनीश भाई अब उठे, “लाओ, मैं चरखी कर लूं.” मैंने पूरी पतंग खींची… अविनीश भाई ने चरखी की. लगभग होते हुए अंधेरे में हम नीचे आ गए.
यही दूसरे दिन भी हुआ… तीसरे दिन भी फिर हम शाम होने लगा. मैं ऊब गया इससे.
“यहां क्यों बैठते हो अविनीश भाई?” एक दिन मैंने पूछ लिया.
“बताऊं.” अविनीश भाई ने मुझे देखा.
“हां.”
“अपनी मृत्यु देखता हूं.”
“मृत्यु?” मेरी आंखें फैल गई.
“हां.” अविनीश भाई मुस्कराए.
“क्या मृत्यु दिख सकती है?”
“हां?”
“सच बताओ.” मैं डरकर उनसे और सट गया.
“सच कह रहा हूं.”
“मुझे भी दिखाओ.”
अविनीश भाई हंस दिए.
मैं चुपचाप सामने सड़क पर देखने लगा. कहां हो सकती है अविनीश भाई की मृत्यु ? सामने ठेले वाले जल्दी-जल्दी फुटपाथ पर बिछा अपना सामान समेट रहे थे. मदारी झोले में रंगीन पत्थर, जड़ी-बूटियां भर रहा था. सांडे का तेल बेचने वाला टूटी रीढ़ वाले गिरगिटान, छिपकलियां, लिजलिजे निचुड़े छोटे-छोटे सांप, तेल की शीशियां, झोले में भर रहा था. सब्जियां… फलों के छिलके, हड़बड़ाते हुए दुकानदार उठा रहे थे. हलवाई की दुकान पर छोटा लड़का ऊंघता हुआ बर्तन मांज रहा था. दूसरा भट्ठी की राख साफ कर रहा था.
एक सांड़ लंगड़ाता हुआ जा रहा था. एक बूढ़ा खंभे से चिपका घाव की मक्खियां उड़ा रहा था. कोने में एक जवान औरत दूसरी बूढ़ी औरत के सर की जूं बीन रही थी. एक बच्चा चूहे की पूंछ को रस्सी से बांधकर उछाल रहा था. सब जीवित था. मृत्यु कहां थी? कहां थी अविनीश भाई की मृत्यु?
“देख.” अचानक अविनीश भाई ने मेरी बांह दबाई. “वह आ रही है.”
“कौन?”
“मृत्यु.”
मैंने दाई तरफ देखा जिधर अविनीश भाई इशारा कर रहे थे. सड़के के एक ओर सुंदर लड़की धीरे-धीरे हमारी तरफ आ रही थी. हाथों में दबी किताबें छाती से चिपकाए… गोरा रंग… खुले बाल… चमकदार फरफराते कपड़े… और कपड़ों के बीच पेट का थोड़ा-सा खुला हिस्सा. सफेद मुलायम… धीरे-धीरे हिलता, सांस लेता… एक छोटे खरगोश जैसा.
“कौन… यह लड़की?” कुछ देर मैं उसे देखता रहा फिर धीरे से पूछा मैंने.
“हां.”
“यही तुम्हारी मृत्यु है?”
“हां”
“कैसे?”
“उसे देखते ही मेरे प्राण निकल जाते हैं.” अविनीश भाई धीरे से हंसे.
“तो तुम रोज इसको देखने के लिए बैठते हो?” मैंने हैरानी से पूछा.
“हां.”
“धत्.” मैंने मुंह बनाया.
वह लड़की हमारी सामने से निकली. सर घुमाकर उसने एक बार अविनीश भाई को देखा फिर पास की गली में चली गई.
“चलो…छत पर चलते हैं.” अविनीश भाई चबूतरे से उतर गए.
“अब वहां क्या है?” मैंने ऊबते हुए कहा “वह तो गई.”
“गई नहीं… चलो.”
हम दौड़ते हुए छत पर आए. मैं अपने गुप्त स्थान से पतंग लेने के लिए लपका.
“नहीं… पतंग रहने दे अब.” अविनीश भाई ने रोका, “मेरे साथ बैठ जा और चुपचाप देख.” अविनीश भाई ने उसी मुंडेर पर मुझे अपने साथ बैठा लिया.
सामने घरों के बीच एक छत पर कमरे के बाहर कुछ लड़कियां खड़ी थीं. उनमें वह भी थी. अलग सी, दीवार पर झुकी.
“अरे वही है यह तो… और हमें देख रही है.” मैं चिल्लाया.
“हमें नहीं सिर्फ मुझे.” अविनीश भाई मुस्कराए.
“उसे पता है?”
“क्या?”
“यही कि तुम उसे देखने के लिए रोज बैठते हो.”
“हां.”
“उसे पता है कि वह तुम्हारी मृत्यु है?”
“नहीं.”
“फिर?”
“फिर क्या?”
“कब तक ऐसे बैठोगे?”
अविनीश भाई कुछ नहीं बोले.
“छत पर क्या है?” मैंने उंगली उधर दिखाई.
“नाच सिखाने का स्कूल है.”
मैं चुप हो गया. मैं उसे बिल्कुल साफ देख पा रहा था. तेज हवा में उड़ते उसके खुले बाल… गोरा रंग…. उसने एक बार अविनीश भाई को देखा फिर, अंदर चली गई.
“वह क्यों चली गई?” मैंने पूछा.
“उसकी क्लास शुरू हो गई और हमारी क्लास खत्म” अविनीश भाई ने मुझे ढकेला. मैं मुंडेर से कूदकर उतरा और अविनीश भाई के साथ लटक गया. तोते फिर घरों को लौट रहे थे. आज पतंग नहीं थी इसलिए मैंने उन्हें फंसाने के लिए अविनीश भाई से नहीं पूछा.
अब शाम को अविनीश भाई के आवाज देने से पहले ही मैं तैयार रहता. कभी खुद ही उनके पास चला जाता.
“चलो अविनीशी भाई… मृत्यु आती होगी?”
अविनीश भाई खिलखिला पड़ते.
“यू टू… ब्रूटस.”
हम उसी तरह चबूतरे पर बैठते रहे.
“हम कब तक इस तरह बैठते रहेंगे?” एक दिन मैंने पूछ लिया.
“क्यों?”
“कुछ होता ही नहीं. बस आओ… यहां बैठकर देखते रहो… फिर छत पर बैठो, देखते रहो. इस तरह देखने से क्या मिलता है तुम्हें? न पतंग उड़ाना न घूमना….”
“तू भी तो देखता है.” अविनीश भाई ने जेब से एक मीठी गोली निकालकर मुझे दी.
“वह तो तुम दिखाते हो इसलिए देखता हूं… मुझे क्या.” मैंने गोली मुंह में रख ली.
“तुझे अच्छी नहीं लगती.”
“लगती तो है.” में झेंप गया. “पर इससे क्या होता है.”
“इसी से होता है…इतनी सुंदर कोई लड़की देखी है तूने कभी?” मैं चुप हो जाता. सच यही था कि उसके पेट का वह हिस्सा मुझे भी अच्छा लगता था. मन करता था… मुंह चिपका दूं उसमें…या चबा लूं.
“एक काम कर मेरा.” अविनीश भाई ने जेब से एक कागज निकाला.
“आज वह आए तो जाकर उसे यह दे देना.”
“क्या है यह?”
“चिट्ठी.”
“नहीं.”
“क्यों?”
“मारेगी.”
“नहीं मारेगी.”
“तो तुम दे दो न.”
“मुझे मुहल्ले में सब देखेंगे…तुम बच्चे हो… कोई कुछ नहीं कहेगा.”
“पर उसने पकड़ लिया तो?”
“बस हाथ में देना और भाग जाना.”
“कहां?”
“घर.”
मैंने कागज मुट्ठी में दबा लिया.
“एक गोली और दो.”
अविनीश भाई ने जेब से एक गोली और निकालकर मुझे दी. मैंने उस गोली को भी मुंह में रखा और चुपचाप उसका इंतजार करने लगा. थोड़ी ही देर में वह आती दिखाई दी. उसी तरह… कंधों तक खुले बाल, फरफराते कपड़े.
“चल तैयार हो जा.” अविनीश भाई ने मुझे चबूतरे से ढकेल दिया. कागज मुट्ठी में दबाकर मैं खड़ा हो गया. दौड़ शुरू होने के पहले वाली मुद्रा में. मेरी सांस तेज चलने लगी… बदन फूलने-पिचकने लगा. धीरे-धीरे वह मेरे सामने आ गई.
“दौड़.” अविनीश भाई फुसफुसाए.
मैं दौड़ा और बिल्कुल उसके सामने जाकर खड़ा हो गया. वह अचकचा कर रुकी और मुझे देखने लगी. मैं पहली बार इतनी पास से उसे देख रहा था. लाल शर्बत में घुला, गुंथा हुआ आटा हो जैसे. खुले बालों के बीच चौड़ा माथा… आँखों में वही जो मां की आंखों में होता है. हल्के सुनहरे रोओं वाला हाथ… बगल से आती कच्चे दूध की गंध के गुच्छे… और बिल्कुल पास उसके पेट का वह हिस्सा… बिल्कुल जिंदा.. एक छोटा खरगोश… धीरे-धीरे कांपते हुआ… गर्म सांस छोड़ता. मैं बिल्कुल उसके पास था. मेरा चेहरा उस तक आ रहा था…इतना पास कि मैं उसे छू सकता था; उसकी गर्मी महसूस कर सकता था. मैं सम्मोहित-सा उसे देखता रहा… जैसे अभी दौड़ेगा वह खरगोश. इतना सुंदर भी कुछ हो सकता है?
“क्या है?” वह थोड़ा झुकी और धीरे से बोली…हल्की फुसफुसाहट-सी. चौंककर मैंने हाथ का कागज बढ़ा दिया.
“क्या है यह?” उसने कागज ले लिया.
“पता नहीं.” मैंने कहा और मुट्ठी भींचे पूरी ताकत से दौड़ता हुआ घर तक भागता चला आया. अविनीश भाई को पलटकर देखा भी नहीं.
कुछ ही देर में अविनीश भाई भी दौड़ते हुए आए.
“क्या हुआ?” मैंने भय से पूछा, “कुछ बोली?” मैं अभी तक हांफ रहा था. भय… उत्तेजना से. अविनीश भाई ने मुझे कसकर चिपका लिया.
“चल, छत पर चलकर देखें कि क्या हुआ?”
हम छत पर आ गए और उसी मुंडेर पर बैठ गए. सामने वह खड़ी थी…उसी तरह. हम उसे… वह हमें देखती रही.
धीरे-धीरे अंधेरा उतरने लगा. तोते रोज की तरह चीखते हुए पेड़ों को लौटने लगे… वह खड़ी रही. फिर अंधेरा गहरा हुआ… रात हुई… आस-पास सितारे निकले और चांद चमकने लगा… वह खड़ी रही. फिर धीरे-धीरे हवा तेज होती गई… जाती हुई सर्दियों की पागल हवा में पेड़ चीखते हुए अपने पत्ते नोच-नोचकर फेंकने लगे… वह खड़ी रही.
परिंदों ने पेड़ों में सर छुपा लिए... घरों के चिराग एक-एक करके बुझते गए... वह खड़ी रही. सूरज डूबा, सूरज उगा... फूल खिले... फूल मुरझाए...ऋतुएं आई. ऋतुएं गई... कई जन्म हुए कई मृत्यु... वह खड़ी रही.

सुबह मेरी आंख खुली तो मैं बिस्तर पर था. पता नहीं कब तक हम बैठे रहे… कब मैं छत पर सो गया… कब अविनीश भाई मुझे गोद में उठाकर बिस्तर पर डाल गए.
दूसरे दिन शाम को मैं फिर निश्चित समय पर तैयार हो गया. उत्सुकता और रोमांच से भरा. अविनीश भाई की आवाज नहीं आई. मैं ही ऊपर उनके कमरे में चला गया. अविनीश भाई पलंग पर लेटे थे.
“अरे… चलना नहीं क्या?” मैं सिरहाने बैठ गया.
“कहां?”
“चबूतरे पर… मृत्यु के आने का समय हो रहा है.”
“अब उसकी ज़रूरत नहीं है बंटू…” अविनीश भाई ने मेरी तरफ करवट बदली.
“क्यों?”
“वह नहीं आएगी… आज उससे दूसरी जगह मिलना है.” अविनीश भाई ने मुझे थपथपाया. मैंने एक बार अविनीश भाई को देखा फिर उठा और नीचे चला आया.
अब मेरे पास करने के लिए कुछ नहीं था. अचानक मैं एकदम खाली-खाली-सा हो गया. हवा से जमीन पर दौडते पत्ते की तरह. दिशाहीन… उद्देश्यहीन… ढकेला जाता हुआ.
धीरे-धीरे मैं अकेला ही गली के बाहर आकर चबूतरे पर बैठ गया. ऊंचे पेड़ की पत्तियां हवा में कांप रही थीं. एक कौआ उस पर बैठा चीख रहा था. सामने सड़क पर सब कुछ वैसा ही था. वही ठेले वाले… गाय… जूतों का ढेर लगाए मोची… कूड़े के ढेर… बहती नाली… सामान बेचते फुटपाथ पर लोग. सामने सांडे का तेल बेचने वाला बैठा था. चादर बिछाए, अजीब-अजीब जड़ी-बूटियां… सूखे निचुड़े हुए गिरगिटान… सांप…रेंगने वाला कोई और गिलगिला जानवर… किसी डिब्बे से सांप…और गले में पतली रस्सी बांधे गिरगिटान. छड़ी से वह उन्हें छूता तो वे फुकारते… उछलते. तेल निकाले हुए निचुड़े सूखे को छूता तो वह वैसा ही पड़ा रहता. सामने ढेर में एक सफेद रंग का मोटा तंदरुस्त सांप था. कुंडली मारे… बीच-बीच में जीभ निकालता. वह आदमी उसको छड़ी से छूता हुआ चीख रहा था, “यह रेत का सांप है… बहुत भयानक… कभी काटता नहीं. चुपचाप मनुष्य की छाती पर बैठ जाता है और अपने जहर से आदमी की सांसें जहरीली करता रहता है. आदमी को पता भी नहीं चलता कि कब उसके अंदर पूरा जहर फैल गया और कब वह मर गया.” मैं जुगुप्सा और भय से उसे बहुत देर देखता रहा.
धीरे-धीरे अंधेरा उतरने के साथ भीड़ छटने लगी. सड़क किनारे के लैंप पोस्ट. जलने लगे. ठेले वालों ने सब्जियां समेटी और लौटने लगे. खाली होती सड़क, ऊपर से गिरते पीले अंधेरे में गुंथे उजाले से ढक गई. अंधेरे के साथ तेज हवा चलने लगी. अब सामने कुछ भी नहीं था. खाली सड़क… अंधेरा और कहीं-कहीं कांपती परछाइयां. रिक्शे पर बैठी बिल्कुल नंगी एक पगली जा रही थी. तनी छातियां लिए… खिलखिलाती. रिक्शे वाला बदहवास रिक्शा दौड़ा रहा था… किसी अंधेरे कोने की और. सांडे वाले ने सब सांप गिरगिटान समेट लिए थे. मेरे ऊपर उदासी छाने लगी. धीरे-धीरे पंजों से रेंगती ऊपर चढ़ती. मैंने पांव झटके… फिर धीरे से उठा और थका-थका सा लुढकता हुआ घर आकर सो गया.
फिर मैं अकेला ही पतंग उड़ाने लगा. अविनीश भाई अकसर शाम को घर पर नहीं होते. रात को भी देर तक लौटते. कभी जल्दी आते भी तो किताबें लेकर बैठ जाते. छत की पतंगबाजी… गंगा किनारे घूमना… खंडहरों की सैर, सब धीरे-धीरे बंद होने लगा.
अविनीश भाई मुझे अकसर बेचैन से दिखते. कभी मैं उनके कमरे में पहुंचता तो मुझे लगता जैसे वह मेरी उपस्थिति से ही असहज हो गए हैं.
“तुम जाओ… मुझे कुछ सोचना है.” अविनीश भाई कहते.
“पर क्या?” मैं दुलार से उनसे चिपक जाता.” मृत्यु के बारे में सोचते हो?”
अविनीश भाई मुस्कराते, “तुम पढ़ो जाकर.”
धीरे-धीरे खाली दोपहर के लंबे होते दरख्तों के सायों में मैं अकेला घूमने लगा. शाम को जब शहर की पुरानी… बूढ़ी… बदरंग दीवारों के कोनों दरारों से अंधेरा टपकने लगता और कुहासे की ठंडक के साथ छोटे-छोटे घरों की छतों से धुआं उठता और किसी दूसरे घर की मुंडेर पर गुच्छा बनकर बैठ जाता… मैं अकेला चुपचाप उसे घूरता रहता. किसी पुराने खंडहर की टूटी दीवार के सहारे धूप में, किसी बुर्ज की सीढ़ियों पर सूखी घास की मैं अकेला नोचता रहता. कभी कोई चमगादड़ चीखता ऊपर से निकलता तो मैं बहुत देर तक खाली आंखों से उसे देखता रहता.
अविनीश भाई से बहुत कुछ पूछना होता, बहुत कुछ बताना. पर अविनीश भाई नहीं मिलते. कभी मिलते तो मैं उन्हें पकड़ लेता.
“अविनीश भाई… गणित का एक सवाल नहीं निकल रहा.”
“हो जाएगा… कोशिश करो.” अविनीश भाई कहते.
“अविनीश भाई आंख में आंसू कहां से आते हैं”…या ” अविनीश भाई फूल हरे रंग का क्यों नहीं होता”….या और कुछ. अविनीश भाई कभी-कभी झुंझला जाते. मैं तब सहम जाता. ऐसा भी हुआ कि गली में मैं और अविनीश भाई आमने-सामने हुए और अविनीश भाई इस तरह निकल गए जैसे मुझे देखा ही नहीं. बिखरे बाल… आंखें सूजी… होंठ सूखे… बहुत तेज चलते हुए. मैं तब रुआंसा होकर बहुत देर तक उन्हें पीछे से देखता रहता.
“क्या वह सचमुच अविनीश भाई की मृत्यु है?”
उस रात वसंत का चांद था. खाना खाकर मैं लट्ट नचा रहा था. अचानक अविनीश भाई की आवाज सुनाई दी… बहुत दिन बाद. मैं बाहर आंगन में आया. छज्जे पर अविनीश भाई खड़े थे.
“क्या कर रहे हो?” उन्होंने पूछा.
“लटटू नचा रहा हूं.”
“चलो घूम आएं.”
“नहीं…” मैंने मुंह घुमा लिया. “लड्डू नचाऊंगा.”
“मैं आ रहा हूं.”
अविनीश भाई नीचे आए… मेरे सर पर एक हाथ मारा और हाथ पकड़कर बाहर घसीट लाए. लंबी गली को पार कर हम फिर सड़क पर आ गए. हम चुपचाप सड़क के एक ओर चलने लगे. मैंने कुछ नहीं पूछा कि कहां जाना है.
“नाराज है मुझसे?” कुछ देर बाद अविनीश भाई खुद ही बोले.
“नहीं.” मैंने सर हिलाया.
“मुझे पता है तू नाराज है. तुझसे मिल नहीं पाता. तू अकेला घूमता है. वह जब बड़ा होगा तब समझाऊंगा. चल… गुस्सा थूक दे…” अविनीश भाई ने मेरे बालों में हाथ फेरा. अविनीश भाई का इतना दुलार बहुत था मेरे लिए. मेरा मन हल्का हो गया. मैंने हाथ पकड़ लिया अविनीश भाई का.
कुछ देर चलने के बाद हम शहर के पीछे वाली सुनसान सड़क पर आ गए थे. पूरी सड़क दिन भर के टूटे पीले पत्तों से भरी थी. दोनों ओर के पेड़ों की नंगी शाखों से चांदनी गिर रही थी. सफेद… ठंडी, खाली सड़क पर परछाइयों के जाले बुनती. पता नहीं कैसी हवा थी वह… पागलों की तरह भागती तो बदन कभी सिहर जाते, कभी हल्के आनंद से देर तक कांपते रहते.
अविनीश भाई चुप थे. मैं उसी तरह उनका हाथ पकड़े चल रहा था. अचानक मुझे वह चमकदार सांप याद आया.
“तुमने सांडे वाले का सांप देखा है?” मैंने अविनीश भाई का हाथ हिलाया.
“नहीं.”… अविनीश भाई बोले.
“अजीब है. चमकता है बहुत… रेत की तरह. आदमी को काटता नहीं… बस उसकी छाती पर बैठकर सांसों को जहरीला कर देता है. क्या जीभ है उसकी. बाहर निकालकर हवा में घुमता है. मरने वाले को पता भी नहीं चलता.”
“ऐसा ही यह जीवन है बन्टू.” अविनीश भाई धीरे से फुसफुसाए और मेरे गले में हाथ डालकर मुझे सटा लिया. मैंने सर उठाकर देखा. वह सामने देख रहे थे… कुछ सोचते हुए. धीरे से बोले फिर-
“तू छोटा है अभी, पर मेरी एक बात याद कर ले. मेरी बात कभी समझेगा. संसार का सबसे बड़ा रणक्षेत्र मनुष्य के अंदर है. अनवरत कोई न कोई भयानक युद्ध चलता रहता है वहां. हर युद्ध में सैकड़ों-लाखों, खून से लथपथ शव रोज गिरते हैं. सपनों के शव… भावनाओं, विचारों, आकांक्षाओं के शव. सब कुछ है वहां. भयानक उन्माद है… अपरिमित आनंद है… उत्सव है… मृत्यु है… जय… पराजय है. बाहर जो कुछ भी दिखता है, सब अंदर की इस सृष्टि की छाया है. सत्य अंदर की यही सृष्टि है. …और कितनी विराट, कितनी रहस्यमयी है यह. सैकड़ों जंगल पल रहे हैं वहां. अंधी गुफाएं हैं…उबलते ज्वालामुखी हैं… जाले हैं… सुरंगें है…. हम जीवन भी बस इस जगत का सूत्र ही ढूंढ़ते रहते हैं, पर उसे कभी पकड़ नहीं जाते. हर क्षण बदलता… नष्ट होता है यह. इसे समझने की कोशिश में ही हम एक-दूसरे को निरंतर कोई न कोई घाव देते या अपना कोई घाव चाटते ही रहे हैं. इन छायाओं को पकड़ने, इन छायाओं के बीच जाने को वास्तविकता समझने का भ्रम पाले. अपनी मृत्यु तक इसी तरह बल्कुल खाली हाथ पहुंचते हैं सब.” एक सांस लेकर चुप हो गए अविनीश भाई.
मैं स्तब्ध-सा सुन रहा था. अविनीश भाई जैसे खुद से ही बोल रहे थे. बहुत देर तक सन्नाटे का एक सूखा निचुड़ा हुआ टुकड़ा हमारे साथ चलता रहा.
एक मोड़ पर पहुंचकर अविनीश भाई रुक गए. मैं भी. “क्या हुआ?” मैंने पूछा. “हम कहां जा रहे थे?”
“पुल पर.”
“फिर रुक क्यों गए.”
“वह यहीं आएगी.”
“कौन?”
“मृत्यु.”
“वह आएगी?” मैंने थोड़ा हैरान होकर पूछा.
“हां.”
“फिर हमें क्यों लाए?”
“तुम हमारा कवच बनते हो. नैतिक और सामाजिक दोनों… तुम्हारा होना एक पारिवारिक दृश्य पैदा करता है, इसलिए.”
तभी एक रिक्शा रुका और वह उतरी. मुझे देखकर मुस्करायी फिर मेरे गालों को छुआ.
“पहचानते हो हमें?” वह बोली.
मैं झेंप गया.
उसने मुझे अपने साथ चिपका लिया. हम तीनों फिर चुपचाप सड़क के एक ओर चलने लगे. चलते-चलते मेरा मुंह अकसर उसके पेट से चिपक जाता.
जिसे मैं चुपचाप देखता था. अचानक ही वह खरगोश मेरे बिल्कुल पास था आज. मैं उसे छू रहा था…उसकी गंध पी रहा था. कोमल, स्निग्ध, चिकना और चमकदार था वह… किसी भी सुंदर चीज से सुंदर. जीवित भी था जैसे अभी बोल देगा… हिलता… कांपता. चलते हुए जब मुंह उससे छू जाता तो मैं सिहर उठता. हल्का गर्म… खुशबू छोड़ता हुआ था वह. मैं उससे चिपका सर से पांव तक एक तरह सुख में डूबा हुआ चल रहा था.
सड़क के दोनों ओर बने बंगलों की दीवारें खत्म हो चुकी थीं. उनके अंदर से छनकर आती रोशनियां भी. अब कुछ नहीं था सिवाय हमारे, खाली सड़क और चांद के. एक भारीपन हमारे साथ था. हम तीनों जैसे अपने-अपने कंधों पर अपनी कोई गोपनीय दुनिया लिए चले जा रहे थे… एक-दूसरे से बिल्कुल असंपृक्त. बीच-बीच में कभी मैं सर उठाकर अविनीश भाई को देख लेता… कभी मृत्यु को.
थोड़ी देर में पुल दिखने लगा. दूर तक फैला खाली खाली सा. कभी-कभी कोई गाड़ी उस पर से निकलती तो पूरा पुल थरथरा जाता. दोनों तरफ पैदल चलने वालों की अलग जगह बनी थी. रेलिंग के पास कुछ दूर चलने के बाद हम रुक गए. रेलिंग से चिपककर… उस पर झुके हुए.
नीचे गंगा बह रही थी. ठंडी सफेदी में झिलमिलाती. तेज हवा से उसका पानी शोर कर रहा था. सामने धार में एक नाव बह रही थी… धीरे-धीरे लकड़ी से नाव को धकेलता एक बूढ़ा मांझी था. एक बहती लाश पर बैठे गिद्ध उसको नोच रहे थे. एक ओर रेती पर कुछ फसलें खड़ी थीं. कुछ नावें उलटी पड़ी थीं. कुछ कच्चे घर चमक रहे थे. चार बांस लगाकर बनाई हुई कपड़े की छतें हवा में फड़फड़ा रही थीं. दो-तीन लकड़ी की खाट पड़ी थीं. जिन पर लोग सो रहे थे. सब कुछ साफ… एक तिलस्मी सफेदी में डूबा था. चांद बिल्कुल हमारे ऊपर था. पूरा पुल… नदी… सृष्टि सब उसके जादुई फंदों में कसा था. शांति थी… भरी, सिहरन पैदा करती. सब कुछ दिव्य था. इस लोक से परे…इतर.,
अविनीश भाई ने जेब से सिगरेट निकालकर जलाई और रेलिंग पर झुक गए. मृत्यु ने फिर मुझे चिपका लिया. मैंने सर घुमाकर देखा. वह खरगोश अब चांदनी में चमक रहा था. सहमते हुए मैंने धीरे से उस पर उंगली रखी. उसकी खाल कांपी. मैंने चुपचाप अपनी नाक खाल के उस टुकड़े में धंसा दी. गंध को अंदर तक निगलते हुए. चुपचाप देर तक मैं उसे निगलता रहा. किनारे पर ऊंचे मिट्टी के टीलों से कभी कोई टुकड़ा नदी में गिर पड़ता तो सब एक झटके से टूट जाता. वह सब मेरे अंदर उतर रहा था. नदी… चांदनी… खरगोश. बहुत देर हम ऐसे ही खड़े रहे.
अचानक खाल का वह हिस्सा धीरे-धीरे कांपने लगा. मैंने सर उठाकर देखा. वह रेलिंग पर झुकी थी. उसके एक हाथ पर अविनीश भाई का हाथ रखा था और वह धीरे-धीर हिल रही थी. मैं एक झटके से अलग हो गया. वह रो रही थी. अविनीश भाई को शायद मालूम नहीं था. मैं घूमकर अविनीश भाई के दूसरे हाथ की तरफ खड़ा हो गया. घबराकर अविनीश भाई को हिलाया मैंने. अविनीश भाई ने मुझे देखा. मैंने उसकी तरफ इशारा किया. अविनीश भाई ने सर घुमाकर देखा उसे “पागल मत बनो.” अविनीश भाई धीर-से फुसफुसाए.
उसने अविनीश भाई के तरफ मुंह घुमाया. सचमुच रो रही थी वह. उसके होंठ धीरे-से फैले.
“डरो मत…ये आनंद के आंसू है…गले तक पूरा आनंद भरा है.” वह बोली,
“कितना सुंदर है सब”… उसकी आंखें आधी बंद थीं, “देखों,” चांद की ओर इशारा किया. “मुझे पता है यह सब इसकी साजिश है.”
मैं भय और हैरानी से उसे देख रहा था. उसकी आवाज अचानक बदल गई थी-जैसे कोई दर्द से कराहते हुए बोलता है. अपनी हथैली पर रखी अविनीश भाई की हथेली उसने अपने दोनों हाथों में पकड़ ली. उसे पागलों की तरह चूमा. अपनी आंखों से छुआया… जैसे मां पूजा की माला के दानों को छुआती थी.
अविनीश भाई चुपचाप उसे देख रहे थे. उसने अविनीश भाई की हथेली अपने गले पर रख ली.
"इस क्षण...इसी क्षण... क्या तुम मेरा गला दबा सकते हो." वह फुसफुसाई. उसकी आंखें लगभग बंद थी... होंठ खुले थे. बदन कांप रहा था. अविनीश भाई मुस्कराए...और मैंने देखा कि अविनीश भाई ने उसका गला दबाना शुरू किया.
मैं भय से रोने और चीखने को हो रहा था. पर वह हंस रही थी. अविनीश भाई उसके गले पर अपनी उंगलियां कसते जा रहे थे. धीरे-धीरे उसके गले की नीली नसें मुझे दिखने लगीं. पर वह वैसी ही शांत थीं. कोई पीड़ा कोर्ट छटपटाहट नहीं. उसी तरह आनंद से बंद आंखें, होंठों पर मुस्कराहट. मुझे लगा कि वह अब किसी भी क्षण मर जाएगी. अचानक अविनीश भाई ने अपना हाथ हटाया और झुककर उसके गले का वह नीला हिस्सा चूम लिया.
“तुम पागल हो.” वह फुसफुसाए.
“और तुम कायर.” वह खिलखिलाई और एक झटके से अविनीश भाई से लिपट गई. उसने अविनीश भाई के गले की खाल अपने दांतों में दबा ली. अविनीश भाई हल्के से कराहे. वह उसी तरह लिपटी थी उनसे, जैसे पूरा खून चूस लेगी उनका… बोटी निकाल लेगी उनकी. उसके दांत अविनीश भाई के गले में धंसते जा रहे थे. अचानक चीखकर अविनीश भाई ने एक झटके से उसे अलग कर दिया. वह अलग हुई तो मैंने देखा उसे. वह हांफ रही थी. बाल खुलकर उसके चेहरे पर आ गए थे. चांद पूरी तरह उसके चेहरे पर था और उसकी रोशनी में उसकी आंखें भयानक तरीके से चमक रही थीं, जैसे शिकार को देखकर शेरनी की आंखें चमकती हैं. होंठ खुशी से फैले थे….
“… जंगली….” अविनीश भाई दर्द से बुदबुदाए.
“हां.. तुम्हारी जंगली.” वह पागलों की तरह खिलखिलाकर हंसने लगी. मुझे लगा जैसे वह अभी एक पल में रूप बदल लेगी किसी जादूगरनी की तरह अपनी असली सूरत में आ जाएगी… जैसे कहानियों में कोई दुष्टात्मा रूप बदलकर किसी का खून चूस लेती है, उसी तरह उसके चेहरे की नसें सूजी हुई थी. मेरे अंदर का सारा खून बर्फ बन गया था. डर से मेरे पांव कांपने लगे थे. मैंने भय से इधर-उधर देखा. कोई नहीं था. पूरा पुल सन्नाटे में डूबा था. सफेद कफन ऐसी चांदनी से ढका था सब कुछ. मैंने चुपके से देखा. मेरा खरगोश भी.
मुझे पता भी नहीं कि कब ऐसा हुआ, पर वह खरगोश अब अकसर मेरे साथ रहने लगा था. कभी मेरी पलकों पर, कभी उँगलियों की पोरों पर और कभी नसों में बहते खून के अंदर. रात होती… सपने आते और वह फुदकने लगता… कभी चांद पर, कभी फूल के गुच्छे पर. रास्ते में चलते हुए वह कभी किसी सूखे टूटे पत्ते पर बैठ जाता… कभी किसी पत्ती की नोक पर टिकी ओस की बूंद में होता और कभी मेरी आत्मा की सलवटों पर.
मृत्यु धीरे-धीरे मेरे अंदर भी उतर रही थी.
एक दिन वह मेरे स्कूल के बाहर मिली मुझे. उसका चेहरा धूप से लाल था. हल्के पसीने में डूबा. माथे पर कुछ बाल चिपके थे. मैंने उसे देखा. वह मुझे ही ढूंढ़ रही थी. मुझे देखकर एकदम से वह मेरे पास आई.
“क्या हुआ… अविनीश कहां है?” उसने पूछा. मैं चुपचाप उसे देखता रहा. “दो दिन से मिला नहीं…”
“पता नहीं… मैं भी नहीं मिला उनसे.” मैंने कहा.
अचानक वह रूंआसी हो गई. उसका चेहरा फूल गया. आंखें धीरे-धीरे भींगने लगीं. “वह आया क्यों नहीं?”… वह बुदबुदाई. “ऐसा तो नहीं होता.”
“हमें नहीं पता.”
“अच्छा रुको.” उसने पर्स खोलकर एक कागज कलम निकाला. “तुम उसे यह चिट्ठी देना.” वह कागज पर कुछ लिखने लगी. मैंने इधर-उधर देखा. नीम के नीचे हम खड़े थे. स्कूल तेजी से खाली हो रहा था. बच्चे घरों को लौट रहे थे.
“लो.” उसने कागज मोड़कर मेरी जेब में ठूंस दिया, फिर पर्स से मीठी गोलियों का एक पैकेट निकाला.” यह भी लो.” वह धीर से मुस्कराई. मैंने सर हिलाया, “अरे.” उसने मेरी जेब में वह गोलियां भी ठूंस दीं और धीर से झुककर मेरा गाल चूम लिया.
घर आकर मैंने बस्ता फेंका और सीधे ऊपर अविनीश भाई के कमरे की ओर भागा. अविनीश भाई पलंग पर लेटे थे. कंबल में दुबके. पूरे कमरे में अंधेरा था… सिर्फ ऊपर के रोशनदान से थोड़ी सी रोशनी अंदर गिर रही थी. आहट सुनकर अविनीश भाई ने आंखें खोली. हल्के अंधेरे में मैंने उनके चेहरे को देखा. लाल हो रहा था… जैसे कोई चीज अंगारे पर तप रही हो. मुश्किल से आंखें खोल पा रहे थे अविनीश भाई…
“क्या हुआ?” पलंग पर चढ़कर मैंने उनका माथा हुआ. भयानक तरीके से गर्म था- “तुम्हें तो बहुत तेज बुखार है.”
“हां.” अविनीश भाई ने मेरे कंधे का सहारा लिया और थोड़ा उठ गए… अधलेटे से.
“खिड़की खोल जरा.” उन्होंने इशारा किया. मैंने उठकर खिड़की खोल दी. दोपहर बाद की धूप का बड़ा सा टुकड़ा अंदर कूद आया.
“स्कूल से सीधे आ रहा है क्या?”
“हां.” मैंने जेब से चिट्ठी निकालकर अविनीश भाई को दी.
“क्या है?”
“उसी ने दी है.”
“स्कूल आई थी?”
“हां…तुम उससे दो दिन से मिले नहीं… इसलिए.”
“कैसे मिलता… हालत देख रहा है.”
मैंने फिर उनके माथे पर हाथ रखा, “नीचे मां को बताया?”
“हां.” अविनीश भाई हंसे. “वह देख”, उन्होंने कोने की मेज की ओर इशारा किया. वहां शीशी में दवा… कैपसूल रखे थे. “सब ले रहा हूं.”
“मैं खाकर आता हूं.” मैं उठ गया.
“हां… फिर जरा सर दबाना मेरा.”
अविनीश भाई लेटे और कंबल में दुबक गए.
दूसरे दिन वह फिर मुझे स्कूल के बाहर मिली. उसी तरह धूप में खड़ी, पसीने से भीगी.
मुझे देखते ही तेजी से मेरी ओर आई.
“क्या हुआ… चिट्ठी दी तुमने?” वह बोली.
“हां… बीमार हैं अविनीश भाई… बुखार है.” मैंने कहा.
“बुखार.”… वह बुदबुदाई. “सुनो… एक काम करोगे मेरा.” … उसने मेरा चेहरा फिर अपने हाथों में दबा लिया… बिल्कुल झुक गई मेरे ऊपर, “मुझे ले चलोगे अविनीश के पास.” उसकी गर्म सांस मेरे चेहरे पर टपक रही थी.
“…पर तुम्हें भी तो घर मालूम है.”
“नहीं…तुम साथ चलो… मेरे अच्छे राजा.” उसने मेरा माथा चूमा और मुस्कराईं.
“चलो.” मैं भी मुस्कराया.
वह अचानक रुकी, “कोई पूछेगा तो क्या कहोगे?”
“क्या कहूं?”
“कह देना तुम्हारी टीचर हूं.”
मैंने सर हिलाया. वह मेरे साथ स्कूल के रिक्शा पर बैठ गई. एक हाथ बढ़ाकर उसने मुझे घेरे में ले लिया. मैंने उसे देखा. वह चुप थी बिल्कुल… आँखें गीली-सी थीं… जैसे कोशिश करके आंसू रोक रही हो. बाल हवा में उड़ रहे थे… वह होंठ दबा रही थी… उसके होठों के नीचे की खाल कांप रही थी. मैंने सर घुमा लिया. भीड़-भाड़ वाली सड़क से हमारा रिक्शा गुजर रहा था.
“घर में कौन होगा?” उसने धीरे से पूछा.
“अविनीश भाई की मां, बहन… छोटा भाई. उनके पिता नहीं होंगे.” मैंने अपनी सहज बुद्धि से उसको आश्वस्त करने के भाव से यह जोड़ दिया.
वह इस बात से कुछ आश्वस्त भी हुई, फिर चुपचाप सामने देखने लगी. कुछ देर में रिक्शा गली के सामने रुका. हम उतर जाए. उसने मेरा हाथ पकड़ लिया… कसकर. मुझे लगा उसकी हथेली पसीने से भीग रही है. भय या घबराहट से वह बेचैन थी…. वह इस तरह क्यों डर रही है, मैं समझ नहीं पाया.
अविनीशी भाई के कमरे में जाने के दो रास्ते थे. एक तो सीधा अविनीश भाई के घर से और दूसरा मेरे घर के आंगन के छोटे दरवाजे से. अविनीश भाई के घर से जाने पर नीचे उनके घर के सब लोग मिलते. मेरे घर के आंगन से कोई नहीं. चुपचाप छोटे फाटक से होकर सीढ़ीयां चढ़कर ऊपर अविनीश भाई के कमरे में पहुंच सकते थे.
“चुपचाप चलें?” मैंने पूछा.
“तुम ऐसा कर सकते हो?” उसने मुझे देखा.
“हां…हमें कोई नहीं देखेगा.” मैं धीरे से फुसफुसाया.
उसने राहत की एक लंबी सांस ली.
“आंओ.” मैंने उसका हाथ पकड़ा और अपने घर का दरवाजा खोलकर झांका. मेरे आने के समय मां दरवाजा खुला छोड़ देती थी. आंगन खाली था. मां रसोई में मेरे लिए खाना गर्म करती होती थी. मैंने उसका हाथ खींचा और तेजी के साथ लगभग उसे घसीटता हुआ छोटे फाटक से ऊपर की सीढ़ियों पर आ गया. वह हांफ रही थी. सीढ़ियों पर ठिठककर गहरी सांसे लेने लगी. सीढ़ियों पर अंधेरा भी था. हमेशा रहता था. हम अभ्यास से दौड़ते हुए चढ़ जाते थे.
“धीरे-धीरे आओ.” मैं फुसफुसाया. उसने मुझे फिर चिपका लिया और मेरे सहारे से धीरे-धीरे चढ़ने लगी. पुराने तरह की अंधेरी सीलन भरी वैसी सीढ़ियों पर दबे पांव हम चुपचाप चढ़ने लगे. कुछ सीढ़ियां चढ़ने के बाद बाएं हाथ पर दरवाजे में अविनीश भाई का कमरा था. कमरे के दरवाजे पर मैंने हाथ रखा. अंदर कल की ही तरह ऊपर के रोशनदान से हल्की रोशनी गिर रही थी. अविनीश भाई लेटे थे. दरवाजे पर रुककर मैं फुसफुसाया.
“अविनीश भाई.”
अविनीश भाई ने मुझे देखा और उठ गए.
“आ.” उन्होंने हाथ का इशारा किया. मैं दरवाजे से हट गया. वह एकदम से अविनीश भाई के सामने आ गई. अविनीश भाई उछलकर बैठ गए. वह वहीं दरवाजे पर खड़ी अविनीश भाई को देखती रही. एक क्षण के लिए कमरे में सन्नाटा छा गया. अंधेरे में रोशनदान से आती हल्की रोशनी कांप रही थी. तेज सांसें उछल रही थीं. उसकी… अविनीश भाई की और बेवजह मेरी भी…
वह चुपचाप अविनीश भाई को घूर रही थी. अविनीश भाई की दाढ़ी बढ़ गई थी. बाल उलझे थे. चेहरा सूख गया था. होठों पर पपड़ी जमी थी. आंखें दर्द से थोड़ी बंद सी थीं. मैं उसे देख रहा था. अब वह फिर बदल चुकी थी. उस तरह घबराती…चौंकती और कांपती हुई नहीं थी. उसके चेहरे पर एक लाजवाब मजबूती आ गई थी. आंखें बिल्कुल जमी थीं अविनीश भाई पर. धीरे-धीरे पांव बढ़ाती वह अविनीश भाई के पास आई… कुछ क्षण चुपचाप खड़ी रही.
“मुझे छुओ.” वह धीरे से बोली. उसकी आवाज, जैसे कोई सांप झाड़ी में सरसराता हुआ निकल गया हो.
“छुओ.” उसने फिर कहा. वह एकदम पास आ गई अविनीश भाई के. अविनीश भाई ने हाथ बढ़ाकर उसकी हथेली पकड़ ली. अविनीश भाई के छूते ही वह जैसे पागल हो गई. अविनीश भाई के हथेली अपने हाथों में दबाकर वह उनकी उंगलियां चबाने लगी… चूमने लगी… पुल की तरह अपनी आंखों से छुआने लगी. फिर एकदम से वह अविनीश भाई पर गिर पड़ी. बेजान… लाश जैसी. उसकी आंखों से आंसू बह रहे थे.

मैं चुपचाप सहमा-सा दरवाजे की आड़ में हो गया. बस्ता अभी तक मेरी पीठ पर लदा था. मैं भी कमरे में था, वह यह भूल चुकी थी. बस… बेसुध सी अविनीश भाई की देह पर हाथ फेर रही थी. अविनीश भाई थके, पस्त, चुप लेटे थे. वह खेल रही थी उनसे. जहां चाहती, जैसे चाहती. उनके बालों से, देह से, उन्हें सहलाती… चूमती… काटती… रोती हुई. उसके बाल खुलकर चेहरे पर बिखर गए थे. थोड़ी देर में वह हांफने लगी.
“बैठ जाओ…. कोई आ सकता है.” वह बुदबुदाए.
वह एकदम से सामान्य होने लगी. पलंग पर बैठकर अपने बाल बांधने लगी. आंसू पोंछे उसने. मैं दरवाजे के पीछे खड़ा सहमा-सा चुपचाप उसे देख रहा था. रोशनदान की धूप उसके चेहरे के एक हिस्से पर गिर रही थी. गले के नीचे वह अंधेरे में डूबी थी, जैसे एक कटा हुआ सर हवा में तैर रहा हो-धूप में चमक रहा हो.
“सुबह से कुछ खाया तुमने?” अविनीश भाई ने पूछा उनसे.
“नहीं.” उसने सर हिलाया.
उसके होठों पर पपड़ी जमी थी… सूखी चटकती हुई.
मुझे लगा उसने शायद पानी भी नहीं पिया है.
“कुछ खाओगी?” अविनीश भाई ने फिर पूछा. “बंटू ले आएगा.”
“नहीं.” वह उठ गई. “मैं चलूंगी”… उसने धीरे से सर झुकाकर कहा, “तुम्हें देख लिया…बस.”
अब वह फिर बदल चुकी थी. संयत… शांत और समझदार सी लगती हुई. अविनीश भाई पलंग से उतर गए और मेरे पास आए.
“इसे बाहर पहुंचा दो.” धीरे से कहा उन्होंने. मैंने सर हिलाया. अविनीश भाई ने उसके कंधे पर हाथ रखा और मुस्कराए-
“कल मैं आऊंगा.”
उसने एक बार अविनीश भाई को देखा फिर सर झुका लिया. मैंने उसका हाथ पकड़ा और सीढ़ी से चुपचाप उसी तरह छोटे दरवाजे से निकालकर बाहर छोड़ आया..
आंगन उसी तरह खाली था.
पतझर के बाद की नंगी शाखों पर नए पत्ते आ चुके थे. दिन लंबे, उबाऊ और धूल भरे होते थे. रात का आसमान साफ, असंख्य तारों से चमकता रहता था. मेरी परीक्षाएं शुरू होने वाली थीं. मैं किताबों में डूबा रहता. अविनीश भाई भी किसी बड़ी परीक्षा की तैयारी में जुटे थे. रात-दिन पढ़ते.
इस बीच दो-तीन बार वह मुझे स्कूल के बाहर मिली. अब वह तभी मिलती जब उसे अविनीश भाई के घर जाना होता. उसका भय धीरे-धीरे दूर हो गया था.
पत्र देने या कुछ कहने की अपेक्षा वह सीधे मिलने ही आ जाती. मैं उसे अविनीश भाई के घर पहुंचाने का माध्यम बन गया था.
उसी तरह स्कूल के रिक्शे पर हम बैठते, फिर अपने घर आकर मैं चुपचाप दरवाजा खोलता और ऊपर कमरे तक भी छोड़ने नहीं जाता. अब सीढ़ियों पर चढ़ने में उसे मेरे सहारे की जरूरत भी नहीं होती. उन अंधेरी, घूमती, सीलन भरी, पुरानी सीढ़ियों पर वह हमारी तरह अभ्यास से चढ़ने लगी थी. अकसर वह ज्यादा देर तक रुकने लगी थी. कभी-कभी मैं ऊपर देखने जाता तो अविनीश भाई के कमरे का दरवाजा बंद मिलता. मैं चुपचाप लौट आता. अविनीश भाई ही थोड़ी देर बाद ऊपर से मुझे आवाज देते… इशारा करते. वह सीढ़ियों से नीचे आती और मैं उसे घर के बाहर निकाल देता. कभी वह पहले से मुझसे तय कर लेती या अविनीश भाई से बता देते कि आज दोपहर को सोना मत, दो बजे वह आएगी. मैं भयानक लू और धूप में आंगन में घूमता रहता. मां अंदर चीखते चीखते सो जाती, पर मैं कर्त्तव्यबोध और उत्तरदायित्व के महत्त्व को समझता हुआ झुलसता रहता. बिल्कुल धीरे से कोई दरवाजा खटखटाता. मैं दौड़कर दरवाजा खोलता. वह धूल से भरी… पसीने से नहाई… सुर्ख चेहरा लिए खड़ी होती. थोड़ा सा सर ढके. मैं उसे जल्दी से सीढ़ियों पर ढकेल देता…उस लंबी खाली दोपहर में वह बहुत देर तक अविनीश भाई के साथ रहती.
मैं कितनी ही देर खाली आंगन में घूमता रहता. एक नई तरह की बेचैनी से, छटपटाता. मेरी उदासी के साथ-साथ चुपचाप फुदकता बस एक छोटा खरगोश होता.
उस दिन दोपहर से ही आसमान का रंग बदल गया था.
मृत्यु चुपचाप आई थी और हमेशा की तरह आज भी अविनीश भाई के कमरे में चली गई थी. मां मुझे बाद में एक रिश्तेदार के घर पकड़ कर ले गई, इसलिए लौटने में देर हो गई थी. अंधेरा होने से पहले ही हम लौट आए थे. अभी समय था. तोते लौटे नहीं थे, इसलिए मैं छत पर पहुंच गया था. लेकिन जैसे ही पहुंचा वैसे ही एक तरफ से आसमान भूरा होना शुरू हो गया था… और देखते ही देखते भयानक आंधी उठने लगी. क्षणभर में ही आकश की पतंगे उतर गई थीं. मैं चुपचाप बड़ी… खाली छत पर बैठा आंधी देख रहा था. अद्भुत था सब मेरे लिए. चारों तरफ एक विशाल रेत का बवंडर उठ रहा था. रेत की दीवार बनती… मेरी तरफ दौड़ती और पार हो जाती. कागज के टुकड़े… मिट्टी के कण… पेड़ों के पत्ते… सब आसमान तक उछल रहे थे. टीनें खड़खड़ करतीं… खिड़कियों के खुले दरवाजे चीखते… हिलते. कांपते पेड़ जैसे वहशी हो गए थे. अंधेरे में सब कुछ भयानक, रहस्यमयी और तिलिस्मी लग रहा था. मेरे अंदर एक खालीपन उतरने लगा. ठंडा… भारी और धीरे-धीरे नसों में लहू के साथ रेंगता हुआ. मैं वही मुंडेर पर लेट गया. धूल से ढका पूरा आकाश मेरी आंखों के आगे था… एक पर्दे में छुपता-निकलता. कुछ ही क्षणों में बिजली चमकने लगी… बादल गरजने लगे. मैं हैरान सा देख रहा था वह जादू… वह दुनिया. आकाश पर तड़तड़ाती एक लकीर चमकती और आर-पार हो आती…. आकाश का वह हिस्सा एक विराट चमक से भर जाता… हिस्सों में बंट जाता. बादल एक दूसरे से टकराते, चीखते. चारों तरफ भयानक सन्नाटा था… धूल थी… बिजली की चमक थी… बादल थे.
कुछ ही देर में बूंदें गिरने लगीं. आंधी की धूल उसके नीचे थम गई. सब कुछ साफ और नई महक में भर गया. तेज हवा के साथ मेरा पूरा शरीर बारिश से ढकने लगा. उस अंधेरी रात में छत पर अकेला लेटा मैं बारिश में भीग रहा था. मेरे चारों ओर सब कुछ कैपाने वाला, जादुई और सुंदर था. तेज हवाएं… भयानक पानी और आकाश पर कौंधता पीला फूल. धीरे-धीरे मेरी देह सुन्न होने लगी. एक बर्फ की नदी उतरने लगी अंदर. बारिश की बूंदों से और अधिक उफनती… गहरी होती. धीरे से आंख बंद कर ली मैंने. एक विराटता थी चारों ओर. अनन्त… असीमित. उस महाशून्य में धीरे-धीर मैं नष्ट हो रहा था. नष्ट हो रही थीं मेरी संज्ञाएं… चेतना… मैं स्वयं… मेरा होना…. सब कुछ खत्म हो रहा था…. बस एक अंधकार था… तरल… कैपता. उस अंधकार में कौंधता एक सफेद टुकड़ा… एक छोटा खरगोश…. चमकदार… हल्के सुनहरे रोओं वाला जिंदा सांस लेता… गर्म. उस पर रुकी चांदनी… कभी बारिश की बूंदें… कभी धूप. कटता… बढ़ता. कभी पूरी देह बनता हुआ… कभी कोई मांस-पिंड…. कभी घाटी… कभी पर्वत. नंगा… निर्वसन… बिल्कुल साक्षात. मैं छू सकूं… चबा सकूं… इतनी दूरी पर… मेरी बेसुध… सुन्न देह पर नाचता… फुदकता… मुझे रौंदता… मुझे चूमता… काटता… एक गंध के गुच्छे में डूबा.
धीरे-धीरे मेरी सांस रुकने लगी…. एकदम से छटपटा कर उठ बैठा मैं…. कुछ गहरी सांसें ली मैंने… फिर चारों ओर देखा. बारिश उसी तरह थी. मैं जहां लेटा था वहां पानी भर चुका था. हवा रुक गई थी. अब न बिजली थी न बादलों का शोर. एक भयानक सन्नाटा था चारों ओर. अंधेरे में डूबा… गीला सहमा-सा. मेरा सर भारी हो रहा था… बदन टूट रहा था. लड़खड़ाते हुए मैं उठा. मुंडरे से कूदा और छत से उतरकर नीचे सीढ़ी पर आ गया. अंधेरी, चौड़ी सीढ़ियों पर मैं दीवार का सहारा लेकर उतर रहा था. अविनीश भाई के कमरे के आगे से निकलता तो दरवाजा बंद था. मैं एक क्षण रुका…. मृत्यु तो दोपहर को आई थी…इतनी देर कभी नहीं रुकती थी…फिर…? एक दरार से रोशनी की लकीर बाहर गिर रही थी. कांपते हुए मैं आगे बढ़ा और चुपचाप दरवाजे की दरार से आंख चिपका दी.
मृत्यु अंदर लेटी थी…नंगी…सफेद बिल्कुल. अविनीश भाई झुके हुए मेरे खरगोश को चूम रहे थे. उसी सांप की तरह… कुंडली मारे. उनकी जीभ घूम रही थी उस पर. मेरी चीख निकल गई. मैं लड़खड़ाकर पीछे हटा. देह का खून जम गया था. पसीने में डूबा मैं देर तक हांफता रहा फिर दौड़ते हुए नीचे उतर आया.
पूरी रात वह सांप मेरी आंखों में नाचता रहा… जीभ निकाले एक खरगोश को कुंडली में दबोचे.
अगली दोपहर फिर भयानक सन्नाटा था. मृत्यु फिर आई. मैंने दरवाजा खोला. वह पसीने में भीगी थी… धूप से लाल. मुझे देखकर मुस्कराई वह. बीच के छोटे वाले दरवाजे से हम अंदर आए. सीढ़ियों पर अंधेरा था. एक क्षण ठिठके हम फिर वह ऊपर जाने लगी. अचानक मैंने उसका हाथ पकड़ लिया. उसने मुस्कराकर मुझे देखा. मैंने आंखें झुकाकर उस खरगोश को देखा. वह सांस ले रहा था… मुझे बुला रहा था. मैं जानता था कि वह मेरा है… उसकी चांदनी… बारिश… धूप… सब मेरा था. मैंने धीरे से उसे अपनी मुट्ठी में जकड़ लिया. एक क्षण वह कांपा… जैसे मेरी पकड़ से छूटना चाहता हो.
मैं उसे देखता रहा फिर मैंने अपने होंठ उस पर दिए…. उसे चूमा और अपने होंठ वहीं घिसता रहा. वह एकदम चौंकी फिर धीरे से उसने अपने हाथों से मेरा सर पकड़ा और अपने पेट में धंसा लिया… उस गंध के गुच्छे में मेरी सांस रुकने लगी. वह घूंसता जा रहा था मेरे अंदर. छटपटाकर मैंने सर उठाकर देखा. उसकी आंखें चमक रही थीं…जैसे उस रात पुल पर थीं. उसी आनंद से भरी… उसके होंठ हल्के खुले थे… हल्के से कराह रही थी वह. वह बदल रही थी… जादूगरनी की तरह. मुझे लगा कि बस अब वह मेरे गले में अपने दांत धंसाने वाली है…. “तो यह खरगोश मेरा ही है”… मैं बुदबुदाया “सिर्फ मेरा”… मैं एकदम से उससे अलग हुआ और उछलकर दरवाजे से बाहर निकल आया. पूरी ताकत से दौड़ता हुआ मैं गली के बाहर सड़क पर आ गया. रुककर मैंने खूब गहरी सांसें लीं… और फिर उसी चबूतरे पर बैठ गया.
सामने सांडे वाला उसी तरह सांप… गिरगिट बिछाए बैठा था. मैंने देखा, आज रेत का वह सांप और सांपों के बीच बिल्कुल निचुड़ा… सूखा पड़ा था.
उत्तर प्रदेश के कानपुर में जन्मे प्रियंवद 'प्राचीन भारतीय इतिहास एवं संस्कृति' में परास्नातक हैं. प्रियंवद हिंदी के अनूठे कथाकार हैं, लेखन के साथ-साथ वह प्रतिष्ठित पत्रिका 'अकार' का कई वर्षों से नियमित संपादन और प्रकाशन भी कर रहे हैं.



