संपादकीय

अंक 006

मज़ा और खतरा

June 2025

हमने एक पूरा संस्करण सिर्फ यौनिकता (सेक्सुअलिटी) पर क्यों निकाला? द थर्ड आई में जो सोच हमें सबसे ज़्यादा आकर्षित करती है, हमें ऊर्जा देती है, उसके मूल में यह है कि जेंडर और यौनिकता (सेक्सुअलिटी) हर चीज़ में निहित है. 

इसका दूसरा कारण ये भी है कि हमें सच में नहीं पता कि आज के समय में सेक्सुअलिटी पर बातचीत या सोच किस मुकाम पर खड़ी है?

क्या यह अब भी उसी जगह पर है जिसे इसने पूरी शिद्दत, मौलिकता और जोश के साथ हासिल किया था? क्या अब यह अक्षरों (LGBTQIA+) के धागों में उलझती और फंसती जा रही है? क्या ये वह सुबह है जिसमें ये अपना चेहरा आईने में पहचान नहीं पा रही है? 

एक नारीवादी के रूप में, जिनकी रूचि सीखने-सिखाने में है, ज़मीनी प्रक्रियाओं को जानने-समझने में है, उन दिलचस्प जगहों पर जहां विमर्श और व्यवहार आपस में मिलते हैं, और वो मुश्किल जगहें जहां फील्ड पर काम करते हुए इन विमर्शों को चुनौती दी जाती है – या कभी पूरी तरह छोड़ भी दिया जाता है – इन सब जगह हमारी उठा-पटक यही रही है कि जेंडर और यौनिकता कैसे एक दूसरे से संवाद करें? 20 साल इस क्षेत्र में काम करने के बाद हमारे लिए यह जानना ज़रूरी हो गया है कि हम कहां पहुंचे हैं?

एक समय था जब समलैंगिक (लेस्बियन) महिलाओं को 8 मार्च के कार्यक्रमों में शामिल नहीं किया जाता था. फिर एक ऐसा भी समय आया जब बाल अधिकार कार्यकर्ता, सार्वजनिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ, महिलाओं के अलग-अलग समूह और क्वीयर कलेक्टिव सभी कदम से कदम मिलाकर एक साथ चले. धारा 377 हटाई गई. क्वीयर लोगों की ज़िंदगियां, उनकी खुशियां, उनकी पार्टियां हाशिए से मुख्यधारा की ओर बढ़ीं और वहां से नवउदारवादी प्रलोभनों की ओर. गे लोगों ने अपने घर बनाए, नए तरह के परिवार बनाए. पर, वहीं 30-40 साल की उम्र में कई सारे क्वीयर लोगों की मौत हो गई. कइयों ने अपनी जान ले ली. ट्रांस लोगों की ज़िंदगियां रील्स और रियाल्टी शो में दिखाई देने लगीं लेकिन एक मेडिकल सर्टिफिकेट पर उनकी पूरी पहचान बंध गई.

ओटीटी प्लेटफॉर्मस पर अब शायद ही कोई ऐसा शो या सीरीयल है जिसमें एक क्वीयर किरदार, एक गे किस, एक लेस्बियन प्यार, या ट्रांस त्रासदी दिखाई न गई हो. पर असल दुनिया में इन विभिन्न पहचानों के लिए कोई नौकरियां नहीं हैं. एक तरफ मद्रास हाई कोर्ट ने कहा कि “चुना हुआ परिवार” भी एक मान्य परिवार है पर फिर भी हर कोई शादी ही करना चाहता है क्योंकि वे अपने परिवारों की भयानक हिंसा से भागना चाहते हैं. हम सभी को दूसरों की ज़रूरत है पर बहुत कम लोग ही प्यार में पड़ रहे हैं. हम किसी महंगे रेस्तरां या बार में प्राइड थर्सडे मनाते हैं, लेकिन प्राइड मार्च में शामिल होने वाले लोग कम होते जा रहे हैं. लोगों की आर्थिक हालत बद से बदतर होती जा रही है – लेकिन ‘पिंक मनी’ (क्वीयर समुदाय की उपभोक्ता शक्ति) जैसी चीज़ें भी मौजूद हैं.

पहले दुख सबको मांझता था पर अब हमारा गम भी बंट सा गया है – क्वीयर लोगों का गम, कोविड महामारी का गम, व्हाट्सएप्प पर मैसेज के पढ़े जाने के बावजूद उसका जवाब न मिलने का गम, ‘उसने मुझे अपनी क्लोज़ फ्रेंड्स स्टोरी से हटा दिया’ वाला गम.

आज यौनिकता विमर्श क्या है? हम किस चीज़ के लिए लड़ रहे हैं? हम जाना कहां चाहते हैं? हमारा ये टूटा हुआ, घायल दिल जो अब पराया तो महसूस नहीं करता पर फिर भी अकेला है. कितनी सारी लड़ाइयां जीती हैं लेकिन फिर भी ऐसा क्यों लगता है कि हम युद्ध हार गए?

***

‘मज़ा और खतरा’ नाम के हमारे इस एडिशन की अतिथि संपादक, जया शर्मा हैं. वे एक नारीवादी, क्वीयर , किंकी एक्टिविस्ट और लेखक हैं. यौनिकता को जानने-समझने का उन्होंने हमें एक नज़रिया दिया है, जो न सिर्फ हमारे संपादन के काम में बल्कि जेंडर और यौनिकता की ट्रेनिंग की जगहों पर भी एक अनोखा अवसर बन कर उभरा है.

इस संस्करण के ज़रिए हम मानवीय अनुभवों को समझने और देखने का प्रयास कर रहे हैं – खासकर हमारी इच्छाएं, यौनिकता, सेक्स, शरीर, उम्र, हिंसा, भूख और प्यास जो आपस में एक-दूसरे से टकराते हैं – इन्हें हम अवचेतन की नज़र से देखने की कोशिश करेंगे.

शायद इस संस्करण का नाम मज़ा-खतरा (प्लेज़र-डेंजर) होना चाहिए क्योंकि इनके बीच में जो “और” है, वो उस गड्ड-मड्डपने को ज़ाहिर कर पाने में उतना सक्षम नहीं है, जितना असल में ये एक-दूसरे में गुत्थमगुथा हैं. या शायद इस संस्करण का नाम यमी-यकी (लज़ीज़-नागवार) होना चाहिए, जो जया द्वारा दिए गए शब्द हैं और जो हमें हमारी खुद की हैरानियों को समझने में मदद करते है. (वैसे, हिंदी में यमी-यकी के समानांतर शब्द की तलाश अभी भी जारी है). सामूहिक रूप से दिमाग की सारी बत्तियों को जलाने के बावजूद हम – लज़ीज़-घिनौना, रसभरा-विषभरा, चटकारा-चुभन, दही का बड़ा-घिन का घड़ा जैसी उपबल्धियों तक ही पहुंच पाए, जो यमी-यकी के पायदान तक नहीं पहुंच पाईं इसलिए फिलहाल हम यमी-यकी या लज़ीज़-नागवार के साथ ही इसकी भावना को प्रकट कर रहे हैं. बतौर टाइटल शायद ये इतना वज़नदार और वैचारिक न लगे लेकिन यमी-यकी इस संस्करण की मूल भावना को बहुत अच्छी तरह से व्यक्त करता है – भीतर की उलझनें और उनके बाहरी रूप. प्रेम और घृणा, चाहत और घिन.

इस संस्करण में प्रकाशित होने वाले लेख, पॉडकास्ट और वीडियो – इन सभी में एक समान बात है. ये सभी ज़िंदगी में हमारी इच्छाओं की जो बेतरतीबी (गड्डमड्ड) है उसके बहुत करीब हैं और ये बहुत ज़रूरी भी है क्योंकि ये अस्तव्यस्तता या मिले-जुले होने का अहसास ही ज़िंदगी के तमाम पहलूओं में शामिल है. असल में हमारी ज़िंदगी स्याह-सफेद से इतर इन दोनों की मिलावट से बनी स्लेटी रंग की है. ये गड्डमड्डपना ही ज़िंदगी का असल रंग है. यह गड्डमड्डपना ही उस मिथक को तोड़ने का काम करती है जिसकी वजह से हम यह मानते हैं कि हम सिर्फ तर्क से संचालित होते हैं और क्योंकि इस बेतरतीबी को समझना राजनैतिक कार्य भी है. इसके साथ हम ये भी जानते हैं कि राजनैतिक अपने आप में भी बहुत गड्डमड्ड है.

ज़िंदगी में शामिल इस गड्डमड्डपने के लिए किसी सबूत की ज़रूरत नहीं, लेकिन एक नारीवादी होने के नाते हिंसा पर निरंतर के अध्ययन – एलिफेंट इन द रूम – के दौरान हमारा इस पहलू से सीधा सामना हुआ. 2014 में हिंसा पर किए गए इस अध्ययन ने इस बात को ज़ाहिर किया कि कैसे हमारी खुद की असहजता हमारे अपने पक्षपात और चीज़ों को अनदेखा करने की प्रवृति को उजागर करती है. हमें यह पता चला कि जेंडर आधारित हिंसा (GBV) से जुड़े हस्तक्षेप उन महिलाओं के लिए बनाए जाते हैं जो समाज के तय मानकों में फिट बैठती हैं (शादीशुदा और विषमलैंगिक) लेकिन यौनकर्मी (सेक्स वर्कर), क्वीर, एकल, दलित और मुस्लिम महिलाओं के लिए कोई जगह नहीं थी.

हमने पाया कि नारीवादी भी कहीं न कहीं ‘अच्छी औरत’ की छवि से प्रभावित हैं. महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा (VAW) से निपटने के लिए जो हस्तक्षेप किए जा रहे हैं, वे उन रिश्तों में होने वाली हिंसा को समझने और संभालने में सक्षम नहीं हैं जो सामाजिक मानकों से अलग हैं, मतलब जो विषमलैंगिक, या एकनिष्ठ नहीं है. उदाहरण के लिए, आधारभूत मूल्यांकन फॉर्म्स और सहभागी ग्रामीण मूल्यांकन फॉर्म्स (पीआरए) के ज़रिए यह सामने आया कि काउंसलिंग के लिए आने वाली महिलाओं में 8 से 10 फीसदी महिलाएं प्रेमिका या दूसरी पत्नी होती हैं, लेकिन उन्हें यह कहकर वापस भेज दिया जाता है कि उन्होंने ‘शादी जैसे पवित्र संस्थान’ को तोड़ा है. हिंसा के मामलों पर काम करने वाली केसवर्कर्स इन लोगों के मामलों को उठाती ही नहीं थीं, ताकि उन्हें ही कोई ‘बुरी औरत’ न मान ले.

जब निरंतर ने अंबा* (एक औरत जिसके पति ने उससे तलाक के लिए अर्ज़ी दाखिल की थी क्योंकि उसे पता चल गया था कि अंबा का किसी और के साथ रिश्ता है) का साक्षात्कार किया तब उसने कहा कि वो तलाक से खुश नहीं है. उसने कहा, “घर के किसी कोने में पड़ी रहती, मारता तो क्या हुआ.” जब हमने उससे पूछा कि क्यों वो इतने हिंसात्मक पति के साथ रहना चाहती है? इसके जवाब में अंबा ने एक वाक्य में कहा, “शादी के बाहर सेक्स एक कलंक है.” और उसे सेक्स चाहिए.

क्या हम बिना मज़ा के बारे में बात किए हुए, खतरों के बारे में बात कर सकते हैं?

***

10 साल बाद, हम अपने ही नारीवादी काम एवं सोच को आगे ले जाने की कोशिश कर रहे हैं, और शायद पहले से भी ज़्यादा जटिल तरीकों के साथ.

मज़ा और खतरा संस्करण, यौनिकता को किसी सुरक्षित दूरी पर नहीं रखता, बल्कि उसे मज़बूती से पकड़ कर रखता है, जैसा हम इसे अनुभव करते हैं. ये कोशिश करता है हमें मज़ेदार खतरों और खतरनाक मज़ों के बारे में समझाने की. ये हमें हमारे अवचेतन की ताकतों का रेखाचित्र बनाने में मदद करता है. 

बहुत लंबे समय से हम इस भ्रम में जीते आ रहे हैं कि सिर्फ तर्क ही मायने रखता है, और हम तर्क के बल पर बराबरी और न्याय हासिल कर सकते हैं. अगर ऐसा है तो हमें किसी को नीचा दिखाने में मज़ा क्यों आता है? हम खून-खराबे वाले वीडियो इतने ज़बरदस्त तरीके से क्यों साझा करते हैं? हमें राज़ छुपाना क्यों पसंद है? हम हिंसात्मक रिश्तों में क्यों टिके रहते हैं? हमें अपराध और घोटालों की लत क्यों लग जाती है? हमें बिग बॉस में ऐसा क्या दिखता है जो हम खुद को रोक नहीं पाते? और मेरी राजनीति मुझे दूसरों से ज़्यादा ‘श्रेष्ठ’ या ‘पाक’ क्यों लगती है?

हमें हैरानी होती है क्योंकि हम ये मानते हैं कि जो हम महसूस करते हैं, सोचते और समझते हैं वही सच है. पर, सच्चाई तो ये है कि हमारी निजी और सामूहिक ज़िंदगियों में बहुत कुछ है जो न तो हम महसूस करते हैं, न ही सोचते या समझते हैं, पर जो एक शक्तिशाली तरीके से हमारे हर एक काम को प्रभावित करता है. जो बातें हम करते हैं, जो चुनाव हम करते हैं, जैसे – हम क्या पढ़ते हैं, हमें कौन सा रंग पसंद है, हमें क्या खाना अच्छा या बुरा लगता है, हम किसे वोट देते हैं, हमारे सबसे करीबी दोस्त कौन हैं, या फिर हम किसी खराब रिश्ते को छोड़ पाते हैं या नहीं…इन सब चीज़ों पर उसका असर दिखाई देता है.

***

साइकी या अवचेतन के चश्मे ने न सिर्फ हमारे संपादकीय कमरे को असहज किया है बल्कि हमारी ट्रेनिंग की जगहों पर भी इससे उत्पन्न हुई बेचैनी देखने को मिल जाती है. इसने प्रतिरोध झेला है, न सिर्फ शब्दों के ज़रिए बल्कि चुप्पी के रास्ते भी और हमें लगता है कि हमारा यह संस्करण इसी असहजता पर आकर टिकता है.

एक तर्क यह भी है कि साइकी या अवचतेन को केंद्र में रखने का मतलब है, हमारी सच्चाई, संघर्ष और हमारे काम के “अधिक महत्त्वपूर्ण” सामाजिक और आर्थिक पहलूओं को नज़रअंदाज़ करना. इस नज़रिए को एक बहुत ही व्यक्तिगत, अभिजात्य, पूर्वाधिकार से भरपूर, ऐसे नज़रिए के रूप में जिसमें हम बार-बार अपने भीतर की उलझनों में ही उलझे रहते हैं के रूप में भी देखा जाता है. यह एक तरह से उस नवउदारवादी सपने के अनुरूप भी लग सकता है, जो हमारे दुखों को बेचने और भुनाने की कोशिश करता है. और यह हमारे उस सामूहिक प्रयास से अलग या विरोधाभासी भी प्रतीत हो सकता है, जिसमें हम दुनिया को बदलने और दूसरों को सशक्त बनाने के सामूहिक तरीकों से कोशिश करते हैं.

लेकिन, एक नारीवादी के रूप में, हमने लगातार इस मूलमंत्र – व्यक्तिगत ही राजनीतिक है – को नए-नए सिरे से, और जगहों में समझा और जाना है. आज की नवउदारवादी दुनिया में जहां व्यक्तिगत चीज़ों को लगातार कठोर रूप में एक वस्तु की तरह भुनाया जा रहा है, ऐसे में क्या ‘व्यक्तिगत को फिर से राजनीतिक’ तौर पर देखा जा सकता है? क्या हम व्यक्तिगत कहानियों के साथ दोबारा से जुड़ सकते हैं, अपनी सामूहिक नारीवादी इतिहास की सीमाओं को और आगे बढ़ाने के लिए?

क्या अवचेतन की नज़र से देखना हमें एक बार मौका दे सकता है कि भयानक सच को आंखों में आंखें डालकर देखें, इससे मुंह न फेरे?

यह भी एक तर्क है कि हम खतरनाक मज़े को मान्यता देकर हिंसा और नुकसान को सही ठहरा रहे होते हैं. और आज के तकनीकी ज़माने में, जब जेंडर आधारित हिंसा के नए डिजिटल रूप सामने आ रहे हैं, तो ऐसे में हम एक ही सांस में मज़े और खतरे की बात कैसे कर सकते हैं? जब औरतों को ये यकीन दिला दिया जाता है कि वे खुद अपनी मर्ज़ी से शोषण के लिए राज़ी हुई हैं, तो ऐसे में चाहत और गड्डमड्डपने की किसे पड़ी है? लेकिन, यह संस्करण हमें बताता है कि सत्ता के साथ खेलने का मतलब उसका दुरूपयोग करना नहीं है. हालांकि दोनों में फर्क बहुत साफ है, पर अक्सर इसे समझना बहुत मुश्किल होता है. खासकर तब जब ऐसा लगे कि सही बातें वही लोग कर रहे हैं जो असल में गलत हैं. मज़े और खतरे की जटिलता को समझना हिंसा के खिलाफ हमारे संघर्ष को कमज़ोर नहीं करता.

तो, अब हम यहां हैं और हम अपनी ही कीचड़ में पैर देकर यहां तक पहुंचे हैं. यही कारण है कि अब अवचेतन के इस चश्मे को उन सभी के लिए खोलने का काम कर रहे हैं जो समुदायों में काम करते हैं, जो मनोविज्ञान के वैकल्पिक तरीकों का अभ्यास करते हैं (मुख्यधारा के साथ-साथ), जो लोगों की भीतरी और बाहरी दुनियाओं के साथ काम करने में यकीन रखते हैं. यह देखने के लिए कि क्या कुछ नया जन्म ले सकता है, और वे लोग जो हमारे चुनावों को लेकर गहरी चिंता और परवाह रखते हैं.

इस संस्करण में एक शिक्षक की आवाज़ है तो मनोविश्लेषक की भी है, ऐसे लेखक हैं जो फंतासियां लिख रहे हैं तो वे लोग भी शामिल हैं जो पहली बार लिखना सीख रहे हैं, सामाजिक कार्यकर्ता और विद्यार्थी, गृहणियां हैं और पिता भी, प्रशिक्षक हैं और कार्यकर्ता भी. ये सभी इस बात पर विस्तार से विचार कर रहे हैं कि मज़े को नज़रअंदाज़ करने के क्या खतरे हो सकते हैं, और खतरे के अपने क्या मज़े हैं. वे यह बता रहे हैं कि हमने क्या-क्या सीखा क्योंकि हम इस सच्चाई को नज़रअंदाज़ करते रहे कि मज़ा और खतरा आपस में गहराई से जुड़े हुए हैं.

ये संस्करण हम एक ऐसे समय में लेकर आए हैं जब हमें खुद दुनिया का कुछ अता-पता नहीं लग पा रहा कि वो किधर जा रही है. हम उम्मीद करते हैं कि अवचेतन हमें उसकी सच्चाई पर मनन करने का एक अवसर और देगा. खतरे का सामना करने के लिए हमें मज़े को भी समझना होगा. हिंसा का प्रतिकार तभी संभव है, जब हम यह समझें कि आनंद किन अदृश्य तरीकों से उसकी पृष्ठभूमि में सक्रिय हो सकता है.

इस संस्करण के ज़रिए एक उम्मीद यह भी है कि हमारी हैरानियां थोड़ी कम हों और ये हमें खुद को और दूसरों को कम कठोरता से आंकने में मदद करे. हर एक निर्णय के अंत में समझ का दरवाज़ा खुलता है. क्या पता, इंद्रधनुष के उस पार हमें क्या कुछ नया दिख जाए!

अनुक्रमणिका:

  1. क्या बगावत का मज़ा तभी है, जब कोई नियम तोड़ने के लिए हो? लेखक – एग करी (छद्म नाम): साहित्य की एक छात्रा अपने बचपन की यादों को खंगालते हुए एक ऐसा फॉर्मूला खोज लेती है, जो हर खुशी को मज़ेदार सनसनी में बदल देता है. 
  2. सर जो तेरा चकराए…यौनिकता और अवचेतन शृंखला – परिचय, लेखक – जया शर्मा: मनोविश्लेषण की दुनिया में एक कदम. 
  3. अवचेतन और यौनिकता शृंखला, भाग 1 – कमी, लेखक – जया शर्मा: हम उन इच्छाओं की ओर क्यों आकर्षित होते हैं, जो कभी पूरी नहीं होतीं? और हमारे मन में ऐसी चाहतें कैसे पनपती हैं?
  4. जो तुमको हो पसंद वही बात करेंगे: किंक क्या है? निर्माता: माधुरी अडवाणी और जूही जोतवानी: किंक और यौनिक आज़ादी के बारे में विस्तार से बात. 
  5. पार्क में रोमांस करना मना है लेखक – तबस्सुम अंसारी बंदिशों और चाहतों के बीच, कैमरे की नज़र से कुछ कहानियां.
Skip to content