शब्दों का पिटारा

सामाजिक विज्ञान और जेंडर से जुड़े शब्द और भाषा अक्सर समझने में मुश्किल होते हैं। अगर हम ज्ञान और ज्ञान निर्माण को नारीवादी बनाना चाहते हैं, ताकि वह सभी के लिए सुलभ हो, तो इन शब्दों को समझना पहला कदम है. इसलिए हम लेकर आए हैं ‘शब्दों का पिटारा’ जिसमें हमारी कोशिश है जटिल शब्दों को आसान बनाने की. अगर आप नए-नए शब्दों को जानने के इच्छुक हैं या सामाजिक विज्ञान या जेंडर अध्ययन के छात्र हैं तो हमारा शब्दों का पिटारा खास आपके लिए ही है.

स्कूलिंग

स्कूलिंग व्यवस्थागत ढांचे में रहकर, नियंत्रित शिक्षण−प्रशिक्षण की प्रक्रिया है. ज़्यादातर स्कूलिंग को एक ऐसी प्रक्रिया के रूप में देखा जाता है जिसमें लोग, आमतौर पर बच्चे कुछ सीखते-पढ़ते हैं.

अक्सर यह शिक्षक और सीखने वालों के बीच होती है. इसके लिए आपसी बातचीत, गतिविधियों, पाठ्य पुस्तकों का इस्तेमाल किया जाता है. ज़ाहिर है इस प्रक्रिया में एक खास तरह की दर्जाबंदी की जाती है और सत्ता-संबंध भी बनाए जाते हैं. स्कूलिंग की प्रक्रिया में एक ऐसे माहौल को भी गढ़ा जाता है जहां सीखने वाले खास नियमों या कायदे-कानूनों का पालन करना और अनुशासन में रहना सीखें. अगर वे उन नियमों का पालन नहीं करते हैं या उनको तोड़ते हैं तो उनको दंडित या बहिष्कृत भी किया जा सकता है.

स्कूलिंग का क्षेत्र कुछ भी हो सकता है. फिर वह स्कूल या कॉलेज जैसे औपचारिक या मुख्यधारा के संस्थान हों या व्यवसाय से संबंधित बातें सिखाने वाले स्कूल, या गैर-औपचारिक, वैकल्पिक जगह हो.

स्कूल और स्कूलिंग की प्रक्रिया एक ऐसा मंच होती है जहां समाज में प्रचलित प्रभुत्वशाली राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक विचारों के बारे में सिखाया जाता है.

नारीवादी विचारों ने स्कूलिंग की प्रक्रिया को केवल स्कूल और कॉलेज तक नहीं बांधा है. लड़कियों का औपचारिक स्कूलिंग के ज़रिए सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओं में जुड़ना केवल 200 साल पुराना है. इससे पहले उनकी स्कूलिंग घर के अंदर ही की जाती थी. जहां एक आदर्श पत्नी और मां बनने के नियम, कायदे और हुनर सिखाए जाते थे. यहां तक की कैसे उठना-बैठना है, कितनी तेज़ आवाज़ में बात करना है, खाना कैसे बनाना है – ये भी इसका हिस्सा थे. इसमें जाति, धर्म और वर्ग के नियम भी शामिल थे.

स्कूलिंग की प्रक्रिया को ज़्यादा प्रभावशाली और आदर्शवादी बनाने के लिए कई बार एक ‘आदर्श’ व्यक्ति को गढ़ा जाता है जिनसे प्रेरणा ली जा सके. उदाहरण के तौर पर, हमारी पाठ्य पुस्तकों में अक्सर ऐसे स्वस्थ, चुस्त-दुरुस्त लड़कों को दर्शाया जाता है जो देशभक्त हैं, अपने माता-पिता का सम्मान करते हैं, और जो भविष्य में ऐसे काम करेंगे जिनसे देश की तरक्की होगी. या फिर आदर्श पत्नियों की कथा, धार्मिक किताबों को पढ़ने वाली, तीज-त्यौहार मानने वाली महिलाओं के चरित्र.

हमारे समाज में मौजूद सत्ता के संबंधों को स्कूलिंग की प्रक्रिया के ज़रिए समझा जा सकता है. पर, यह प्रक्रिया इन संबंधों पर सवाल खड़ा करने को प्रोत्साहित नहीं करती. स्कूलिंग के ज़रिए विद्यार्थी या फिर सीखने वाले यह भी समझ सकते हैं कि सत्ता की विभिन्न स्थितियों के बीच वे किस तरह अपनी जगह बना सकते हैं.

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उपकरणवाद

समाज विज्ञान या विकास के क्षेत्र में जब कोई योजना, नीति या कार्यक्रम केवल उन परिणामों को ध्यान में रखकर बनाए और लागू किए जाते हैं जिन्हें हासिल करके मापा जा सके, तो उन कार्यक्रमों को हम ‘उपकरणवादी’ कहते हैं.

उपकरणवाद किसी सिद्धांत के अंतिम योगदान को ही महत्त्व देता है. इसमें ‘प्रक्रियाओं’ यानी काम करने के तरीके और उससे निकले प्रमाणों के बजाए बंधे-बंधाए ‘अंतिम परिणामों’ पर ज़ोर दिया जाता है. उदाहरण के लिए, अगर कोई व्यक्ति शिक्षा के बारे में उपकरणवादी रुझान रखता है तो उसे इस प्रक्रिया में हासिल किए गए ज्ञान के बजाए परीक्षा में प्राप्त हुए अंकों से खुशी मिलती है. उसे इस बात से खुशी नहीं मिलती कि उसने जो सीखा है उससे उसकी सोच, जीवन, पसंद-नापसंद, संबंधों में क्या फर्क पड़ा है.

उपकरणवाद, जिसे अंग्रेज़ी में इंस्टूमेंटलिस्म कहा जाता है, यह शब्द दरअसल दर्शनशास्त्र से निकला है. उपकरणवाद ऐसी प्रक्रियाओं पर ध्यान देने के लिए ज़्यादा गुंजाइश नहीं छोड़ता जिनके परिणामों को मापा नहीं जा सकता, जैसे सीखने का आनंद या लोकतांत्रिक प्रक्रिया के साथ जुड़ा सशक्तीकरण.

अगर हम डेवलपमेंट सेक्टर या विकास की दुनिया की बात करें, तो उपकरणवाद हमें कहां नज़र आता है?

अक्सर सामाजिक विकास से जुड़े ऐसे कार्यक्रम तैयार किए जाते हैं जिनमें ‘लक्ष्य समूह’ की अपनी ज़रूरतों और संदर्भ का ध्यान नहीं रखा जाता. बल्कि इन कार्यक्रमों में दूसरी तरह के हित शामिल होते हैं. उदाहरण के लिए जनसंख्या की रोकथाम के लिए शुरू किए गए एसआरएचआर – यौन एवं प्रजनन स्वास्थ्य कार्यक्रम के तहत युवाओं के साथ सिर्फ़ यौन और प्रजनन संबंधित जानकारियां ही साझा की जाती हैं. वहां उनके अपने सवाल, अपने विशेष संदर्भ, ज़रूरतें या चाहतें इसके केंद्र में नहीं हैं.

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क्रिटिकल पेडागोजी अथवा आलोचनात्मक शिक्षा शास्त्र

शिक्षाशास्त्र या पेडागोजी शब्द का इस्तेमाल सीखने-सिखाने के तरीकों और दृष्टिकोणों के लिए किया जाता है. क्रिटिकल पेडागोजी यानी आलोचनात्मक शिक्षाशास्त्र भी सीखने-सिखाने का एक तरीका है. जो यह सवाल करता है कि ज्ञान को किस तरह रचा जा रहा है और इसे सीखने वालों तक किस तरह पहुंचाया जा रहा है.

हमारी पारंपरिक समझ यह कहती है कि ज्ञान देने वाले शिक्षक और ज्ञान हासिल करने वाले विद्यार्थी के बीच प्रभुत्व और ताकत का रिश्ता होता है. विद्यार्थियों से यह उम्मीद की जाती है कि वो दी गई शिक्षा या तालीम के बारे में बहस या सवाल न करें.

दूसरी तरफ़, आलोचनात्मक शिक्षाशास्त्र का उद्देश्य ही यह है कि शिक्षार्थी या सीखने वाले अपनी वास्तविकता और समाज में चले आ रहे सत्ता के रिश्तों के ढांचों, मान्यताओं, और गहरी आस्थाओं पर सवाल उठाएं.

यह पेडागोजी सत्ता और ज्ञान के बीच के रिश्ते को खंगालती है. साथ ही यह शिक्षा की पारंपरिक व्यवस्था पर भी सवाल उठाती है जो दर्जाबंदी को कायम रखने के पक्ष में खड़ी दिखाई देती है.

एक आलोचनात्मक पाठ्यक्रम अलग-अलग सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ से आने वाले लोगों, जैसे महिलाएं, दलित, आदिवासी, समलैंगिक, इत्यादि के ज्ञान को महत्त्व देता है. इसमें यह भी समझने का प्रयास होता है कि इन अलग-अलग जगहों पर सीखने-सिखाने की प्रक्रिया कैसी हो सकती है.

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हेट्रोनोर्माटिविटी (विषमलैंगिकता का कायदा)

हेट्रोनोर्माटिविटी शब्द नब्बे के दशक में समाज वैज्ञानिकों और समाज शास्त्रियों द्वारा प्रचलित किया गया. इस शब्दावली ने हमें उन तमाम सवालों और आम लोगों में बसी हुई मान्यताओं (और भावनाओं) को समझने में मदद की, जो बताती थीं कि विषमलैंगिकता ही सामान्य या प्राकृतिक हैं.

हेट्रोनोर्माटिविटी, विषमलैंगिकता को मान्यता देती है, यानी विपरीत सेक्स के प्रति रूमानी और यौनिक आकर्षण को सामूहिक रूप से अपनाने की वकालत करती है. इसका यक़ीन केवल विषमलैंगिकता में है; और यह, इसी को ‘सामान्य’ और ‘प्रकृति-अनुरूप’ मानती है. विषमलैंगिकता को मानने वाले यह दावा करते हैं कि क्योंकि विषमलैंगिकता ही प्रकृति का नियम है और मर्द-औरत के बीच एक-पत्नीक और प्रजनशील रिश्ते ही समाज का आधार हैं जिससे वंशबेल लगातार आगे बढ़ाई जाती रह सके. इसलिए केवल उसी को समाज में मान्यता दी जानी चाहिए. इस मान्यता को स्वीकार करने वाले किसी अन्य कामुक अभियाक्तियों और पहचानों के लोगों को समाज में मान्यता नहीं देते. इसके पीछे यह भी एक कारण है जिसकी वजह से समाज, कुछ ख़ास तरह के रिश्तों को बुरा मानता है और उन्हें समाज में मान्यता नहीं देता.

समाज में विषमलैंगिकता की मान्यता को बल मिले इसके लिए ग़ैर-विषमलैंगिक पहचानों को नज़रंदाज़ किया जाता रहा है. यह प्रयास इतिहास का सहारा लेकर किए गए हैं. ग़ैर-विषमलैंगिकों की उपस्थिति को नकारने और उनकी वास्तविकता को दबाने के लिए उनको नियम और कायदों में बांध देने की कोशिश की जाती ही है. यह नियम भी इसी विषमलैंगिकता को कायम रखने के लिए मुख्यधारा समाज द्वारा बनाए गए हैं..

हेट्रोनोर्माटिविटी केवल लैंगिकता की निगरानी ही नहीं करती, बल्कि जेंडर भूमिकाओं के विभाजन को बनाए रखने का भी काम करती है. मिसाल के तौर पर, एक औरत को कुछ ख़ास तरह के काम करने चाहिए और मर्दों को दूसरी तरह के. समाज को संगठित रखने के सिद्धांत के रूप में स्त्रीत्व और पुरुषत्व की पहचानों को बनाए रखना ही ‘हेट्रोनोर्माटिविटी’ का मूल उद्देश्य है.

हेट्रोनोर्माटिविटी से जुड़े विचार और मान्यताएं इतनी सशक्त हैं कि एलजीबीटी परिवार जो इसे चुनौति देते हैं उनमें भी इसका साफ़ असर दिखाई देता है. एलजीबीटी समुदाय के लोगों में समलैंगिक विवाह के लिए संघर्ष इसका एक उदाहरण है. एलजीबीटी परिवारों में हेट्रोनोर्माटिव मान्यताओं के चलन पर हाल के वर्षों में बहुत लेखन और शोध हुआ है. इससे हमें पता लगता है कि इस सोच की समाज में कितनी मान्यता है.

क्वीयर

‘क्वीयर’ शब्द की कोई एक परिभाषा नहीं है. क्वीयर उन सभी लोगों के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है जो समान लिंग के व्यक्ति के प्रति आकर्षित हैं और जो ट्रांससेक्सुअल हैं. एलजीबीटी के बजाए ‘क्वीयर’ शब्द में यौनिकता और जेंडर के सभी रंग और सभी पहचानें शामिल हैं.

क्वीयर शब्द में वे लोग भी शामिल हैं जो समान लिंग के व्यक्ति के प्रति आकर्षित हैं या ट्रांससेक्सुअल हैं, लेकिन उनकी पहचान नहीं बनी है. ‘क्वीयर’ शब्द का प्रयोग करने में यह फायदा है कि कोई पहचान छूट नहीं जाती और न ही पहचान न रखने वाले लोग छूटते हैं. बहुत लोग अपने को किसी ख़ास यौनिक पहचान से जोड़ना भी नहीं चाहते.

‘क्वीयर’ शब्द का दूसरा अर्थ नज़रिए से जुड़ा है. इसमें वे सभी शामिल हैं जो यौनिकता और जेंडर की परिभाषाओं को चुनौती देते हैं. ‘क्वीयर’ नज़रिए के मुताबिक यौनिकता कोई बंधी-बंधाई चीज़ नहीं है. यह नज़रिया केवल ‘समान’ अधिकार की बात नहीं करता बल्कि जेंडर और यौनिकता से जुड़े समाज के विचारों और हेट्रोनोर्मिटीविटी के नियमों में बदलाव की बात करता है.

ज़रूरी नहीं कि क्वीयर नज़रिया रखने वाले समान लिंगवालों के प्रति आकर्षित हों या ट्रांसजेंडर हों, उसी तरह जैसे ज़रूरी नहीं कि महिलावादी नज़रिया रखने वाले स्त्री हों, वे पुरुष या ट्रांसजेंडर भी हो सकते हैं.

इसके अलावा, भाषा का सवाल भी है. क्वीयर शब्द अपने आप में नया है. इससे जुड़े व्यक्तियों को संबोधित करने के लिए हमारे सामने भाषाई चुनौतियां भी हैं. सवाल यह है कि स्त्रीलिंग और पुल्लिंग इन दो पहचानों से आगे क्वीयर लोगों की पहचान को कैसे भाषा में लाया जाएगा? क्या उन पर वही भाषा संबंधी नियम-कायदे लागू होंगे? लेकिन वे तो अपने आप को केवल स्त्रीलिंग और पुल्लिंग के रूप में ही अभिव्यक्त और संबोधित नहीं करते. जब क्वीयर लोग अपनी पहचान के आधार पर सामाज के नियमों और बुनियादी विचार को ही चुनौती दे रहे हैं तब उनके सामने भाषा का भी सवाल है.

एक रास्ता है जिसमें क्वीयर लोग जेंडर न्यूट्रल भाषा का इस्तेमाल करते हैं. यह बांग्ला भाषा में आसानी से हो सकता है, इसमें सभी पानी पीते हैं. लेकिन हिंदी भाषा में यह चुनौती ज़्यादा बड़ी हैI हिंदी में हर चीज़ का जेंडर स्पष्ट है चाहे वह दरवाज़ा हो या किताबI लेकिन जब हम पुरुषवाचक सर्वनाम जैसे हम, हमारे, तुम, आप, यह, वह, ये का इस्तेमाल करते हैं तो उसमें जेंडर (स्त्रीलिंग-पुल्लिंग) स्पष्ट नहीं होता. जैसे –
‘तुमसे घर की सफाई नहीं की गई’.
‘उनसे झूठ बोला नहीं जाता’.

कुछ लेखों में क्वीयर लोगों की पहचान को इस तरह से रखने की कोशिश की है जिस तरह क्वीयर लोगों ने स्वयं के लिए संबोधन का इस्तेमाल किया है. जैसे जहां उन्होंने अपने लिए स्त्रीलिंग या पुल्लिंग पहचान का इस्तेमाल किया है वहां हमने उन पहचानों को उसी रूप में रखा है.

फ़ोल्क्स (Folx)

हिंदी, अंग्रेज़ी और कई अन्य भाषाओं में पुराने शब्दों को एक नया अर्थ देकर उसे नवीन बनाने के लिए लगातार प्रयोग किया जा रहा है. जैसे-जैसे जेंडर और यौनिकता पर समझ बढती जा रही हैं वैसे-वैसे शब्दों के पारंपरिक इस्तेमाल की जगह नए प्रयोग देखने में आ रहे हैं. डिक्शनरी डॉट कॉम के अनुसार ‘जेंडर और यौनिकता संबंधी शब्दों का विस्फोट हो रहा है!’ अंग्रेज़ी का पारंपरिक ‘folks’ शब्द से निकलने वाला ‘Folx’ एक समावेशी एवं जेंडर निरपेक्ष शब्दावली है, जिसका इस्तेमाल विभिन्न पहचानों और मार्जिनालिआईज़्ड (हाशिए पर रहने वाले) लोगों के लिए किया जाता है. पहले से मौजूद शब्द में ‘x’ का जोड़ा जाना, समाज में बने क्रम से बाहर की पहचानों को दर्शाता है. अन्य शब्दों के साथ भी ऐसा किया गया है जैसे ‘womxn’ और ‘latinx’.

पहले folks शब्द का इस्तेमाल लोगों के लिए किया जाता था किंतु अब इन शब्दों में नवीन प्रयोग किए जा रहे हैं. शब्दों की वर्तनी बदलने के साथ उनके अर्थ भी परिवर्तित हो गए हैं. जैसे folks के लिए ‘Folx’ शब्द का इस्तेमाल हाशिए की यौनिकता वाले लोगों, जेंडर पहचानों तक ही सीमित नहीं है. बल्कि इसको राजनीतिक, सामाजिक, वर्गीय तथा नस्ली रूप से हाशियों पर धकेल दिए गए तबक़ों के लिए भी इस्तेमाल में लाया जाता है. वे सभी लोग जो स्वयं को हेट्रोनोर्माटिव पहचनों से अलग राजनितिक रूप से अभिव्यक्त करना चाहते हैं, वे सभी लोग सामूहिकता के साथ इस शब्द को अपना रहे हैं.

यह दिलचस्प है कि 17वीं शताब्दी में लेखकों ने ‘folks’ शब्द का इस्तेमाल समुद्री लुटेरों, डाकुओं, राजमार्ग लुटेरों और ख़ानाबदोशों के लिए किया. अर्थात समाज से बाहर के लोग.

राष्ट्र/ जेंडर

राष्ट्र का विचार लगभग दो-ढाई सौ साल पुराना है. आधुनिक युग में देशों और राज्यों ने जब नया राजनीतिक रूप लिया, तब राष्ट्र का विचार पैदा हुआ. आज राष्ट्र का विचार इतना ज़रूरी समझा जाता है कि हम यह सोच भी नहीं सकते कि हम किसी राष्ट्र का हिस्सा नहीं हैं.

राष्ट्र को एक काल्पनिक समुदाय के रूप में परिभाषित किया गया है. इस कल्पित समूह के सदस्यों का मानना है कि उनका आरंभ एक तरह से हुआ था, उनका इतिहास एक है और उनका भविष्य भी समान है. ऐसे समूह एक खास भौगोलिक क्षेत्र पर अपना कब्ज़ा स्थापित करते हैं और यह भी तय करते हैं कि उनके इलाके की राजनीतिक पहचान किस तरह की होगी – सांस्कृतिक रूप से स्वायत्त क्षेत्र के रूप में या राजनीतिक रूप से अलग राज्य के रूप में. यह भी कहा जा सकता है कि किसी भी राष्ट्र की रचना इस सोच के आधार पर की जाती है कि वह दूसरे राष्ट्रों से विशिष्ट और बेहतर है.

राष्ट्रवाद एक तरह का वैचारिक आंदोलन है. इसमें विचारों के ज़रिए राष्ट्र की पहचान रची जाती है. ऐसे क्षेत्रों की भी पहचान बनाई जा सकती है जिनके राष्ट्र बनने की संभावना है.

राष्ट्र का चित्रण अक्सर परिवार के रूप में किया गया है जिसमें पिता, माता, बेटे और बेटियां किरदार के रूप में शामिल हैं. पारिवारिक रिश्तों की इस भाषा की वजह से कई महिलाएं और पुरुष राष्ट्र के लिए जान देने तक को राज़ी रहते हैं. राष्ट्रवाद में कल्पित राष्ट्र के सदस्यों की वफादारी, समर्पण, त्याग और भावनाओं के आवेग की एक अहम भूमिका है.

राष्ट्र अपने आप में प्राकृतिक नहीं है. उसको रचा गया है, गढ़ा गया है, इंसान की कल्पना को साकार करने के लिए ज़मीन को आधार दिया गया है. इसलिए राष्ट्र का बयान करते समय जेंडर आधारित भाषा और प्रतीकों का गहरा असर होता है. जैसे नाज़ी (हिटलर) काल के जर्मनी के प्रतीक ‘फादरलैंड’ यानी पैतृक भूमि को राष्ट्र की उग्र ताकत का बयान करने में इस्तेमाल किया गया.

भारत में ‘भारत माता’ का प्रतीक इस्तेमाल किया गया. इसमें भारत के भौगोलिक नक्शे पर एक औरत शरीर को दिखाया जाता है. ऐसा शरीर जिसे चाहा जाता है, जिस पर कब्ज़ा बरकरार रखा जा सकता है और जिसकी रक्षा करना ज़रूरी है.
राष्ट्रवाद से जुड़ी लोक कला और साहित्य में भी इस प्रतीक को हम देख सकते हैं. राष्ट्र के गुण इस तरह से जेंडर के साथ गहरे रूप से जुड़े हैं. राष्ट्र की भूमि, बनावट, सीमा में स्त्रीत्व के गुण हैं जिस पर पौरुषपूर्ण आचरण दिखलाकर उसके द्वारा फतह होती है. जिस तरह स्त्री शरीर की रक्षा करना पुरूष का परम कर्तव्य है उसी तरह राष्ट्र को स्त्री रूप मानकर उसकी रक्षा का दायित्व उसके बेटों यानी पुरूषों का कर्तव्य है.

इसके अलावा राष्ट्र में काम का बंटवारा भी जेंडर आधारित है. महिलाएं राष्ट्र के लिए बच्चे पैदा करती हैं. बच्चों को देश के प्रति समर्पित करना और भक्ति भाव पैदा करना भी इन्हीं माताओं का काम है, साथ ही, राष्ट्र का प्रतीक कौन सा मूल्य होगा, राष्ट्र की संस्कृति क्या होगी, इसका भी महिलाएं उत्पादन करती हैं. इस तरह वे शारीरिक रूप से और प्रतीक के रूप में भी राष्ट्र को पुनरुत्पादित करती है यानी दोबारा रचती हैं. दूसरी तरफ पुरुष राष्ट्र की रक्षा करते हैं, उसका बचाव करते हैं और उसके लिए बदला भी लेते हैं.

राष्ट्र और जेंडर पर काफी अकादमिक विचार और लेखन उपलब्ध हैं. इसमें प्रायः माना यह जाता है कि जेंडर का राष्ट्रीय राजनीति से खास संबंध नहीं है. हाल के वर्षों में इस संबंध को समझने का काम कुछ नारीवादी बुद्धिजीवियों ने किया है. ये एशिया के उन देशों से हैं जो हाल में स्वतंत्र हुए हैं. इन लोगों ने महिलाओं और जेंडर की भूमिका को राष्ट्र की रचना और उसकी स्थापना की बुनियाद में देखा है.

नारीवादी नज़रिए से राष्ट्र का विश्लेषण करते समय सरहद के विचार को गहराई से परखा गया है. इससे यह समझ बनी है कि एक राष्ट्र की महिलाएं उसकी सरहद का प्रतीक बन जाती हैं. जिस तरह सरहद दो देशों के बीच की लकीर के ज़रिए उनकी अपनी-अपनी विशिष्टता स्थापित करते हैं, उसी तरह औरतें भी इन विशिष्टताओं को बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण होती हैं. इसी संदर्भ में हम हिंसा की उन घटनाओं को भी समझ सकते हैं जब भारतीय उपमहाद्वीप का बंटवारा हुआ था और सरहदें तय की गई थीं.

नारीवादी नज़रिए से यह भी देखा गया है कि कैसे रीति-रिवाजों और प्रथाओं को गढ़ा जाता है और इनके ज़रिए राष्ट्र की खास पहचान और उसमें रहने वाले समूहों की ख़ास पहचान बनाई जाती है. उदाहरण के लिए 19वीं सदी में पवित्रता की पहचान से हमें यह पता चलता है कि भारतीय स्त्रियां दूसरी औरतों से कितनी महान हैं, ख़ासकर पश्चिम की औरतों की तुलना में वह बेहतर और उनसे ऊंचे मूल्य रखती हैं. इसी आधार पर यह स्थापित करने की कोशिश की गई कि भारत राष्ट्र भी पश्चिमी राष्ट्रों से श्रेष्ठ है. 19वीं सदी का राष्ट्रवादी आंदोलन इस सोच से काफी हद तक प्रेरित हुआ.

ऐसी सोच में जेंडर की भूमिका हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं. टकराव की स्थितियों में यौनिक हिंसा राष्ट्र की ‘इज़्ज़त’ को लूटने का हथियार बन जाती है. किसी राष्ट्र को नुक्सान पहुंचाने के लिए वहां की महिलाओं के साथ बलात्कार अहम घटना बन जाती है जिसे राष्ट्र के सम्मान से जोड़ा जाता है. औरतों के शरीर और उनके आचरण के द्वारा राष्ट्र की परंपराएं रची गईं. लेकिन राष्ट्रवाद अपने आप में पुरुषों द्वारा और पुरुषत्व की सोच के द्वारा तय किया गया होता है.

लंबे समय से राष्ट्र की सोच पुरुषों द्वारा गढ़ी जाती रही है. राष्ट्र के लिए अपना खून बहाना, बहादुर सिपाहियों की तरह लड़ना और भाईचारा निभाना – ये सब इसी सोच का हिस्सा हैं.

तर्कजाल (डिस्कोर्स)

पिछले कुछ सालों के दौरान तर्कजाल शब्द सामाजिक विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में इतना प्रचलित और इतना लोकप्रिय हो गया है कि अब इसका हवाला दिए बिना सामाजिक जीवन या संबंधों के बारे में बात करना ही मुश्किल हो गया है.
तर्कजाल (डिस्कोर्स) को एक ऐसी सामाजिक सीमा के रूप में समझा जा सकता है जो यह परिभाषित कर सकती है कि किसी मुद्दे के बारे में क्या कहा जा सकता है. किन चीजों को उस मुद्दे का ‘सत्य’ माना जा सकता है. यानी हम जिस यथार्थ यानी सच्चाई को जानते हैं, उसे कैसे परिभाषित किया जाता है.

विमर्श सारी चीजों के बारे में हमारे नज़रियों को परिभाषित करता है. मिसाल के तौर पर, दो बिल्कुल अलग-अलग तरह के तर्कजाल किसी रैडिकल आंदोलन में शामिल लोगों पर चर्चा करते हुए इस बात का उल्लेख कर सकते हैं कि वे ‘स्वतंत्रता सेनानी’ हैं या ‘आतंकवादी’ हैं. मतलब यह कि हम जो तर्क चुनते हैं उसी से यह भी तय होता है कि हमारे शब्द, अभिव्यक्तियां और संभवतः वह शैली क्या होगी जिसमें हम बात करेंगे. तर्कजाल विचारधाराओं, विचारों, रवैयों, क्रियाओं, मान्यताओं और व्यवहारों का एक जाल होते हैं. यह तर्कजाल परिवर्तनशील होते हैं. वे सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियों के साथ बदलते हैं और अपने अनुसार व्यक्तियों तथा उनके पूरे जगत को गढ़ते जाते हैं.

‘सत्य’ क्या है, यह बात एक खास तर्क के भीतर निर्धारित होती है. मिसाल के तौर पर, अगर हम अपने जीवन में इतनी गहरी जड़ें जमा चुके सुंदरता के मानदंडों को देखें, तो यह बताता है कि सुंदर व्यक्ति कौन होगा.
सुंदरता के प्रचलित मानदंडों के अनुसार सुंदर लड़कियां गोरी और पतली होती हैं, खूबसूरत लड़के, लंबे, गठीले बदनवाले और चुस्त-दुरुस्त होते हैं. हम लोगों की बातों, फिल्मों, टेलीविजन के विज्ञापनों में यानी जिंदगी के हर पहलू में इन कायदे-कानूनों को दोहराते हुए देखते हैं. ये विचार विवाह जैसे संस्थानों पर गहरा असर डालते हैं.

इन मानदंडों के ज़रिए लोगों को जोड़ा या बेदखल किया जाता है. जिन लड़कियों का रंग गोरा नहीं है, उन्हें सुंदर नहीं माना जाता, उनकी शादी में भी अक्सर दिक्कत होती है.

डिस्कोर्स यानी तर्कजाल में सत्ता हमेशा मौजूद रहती है. सत्ता हासिल करने का अर्थ यह है कि आप उस विमर्श में स्थापित नियमों का पालन करें और कायदे-कानूनों के अनुसार चलें. उससे आप उस तर्कजाल में लाभ या सत्ता की स्थिति हासिल करने की कोशिश करते हैं.

विमर्श हमें किस तरह से सोचना और कदम उठाना है, यह सिखाने की ताकत रखता है. अनुशासित करने की यह प्रक्रिया हमेशा बल प्रयोग नहीं करती, जैसे स्कूल में कोई नियम तोड़ने पर विद्यार्थियों को दंडित किया जाता है.

सुंदरता के मानदंड में, हम यह देख सकते हैं कि किस तरह लोग खुद को अनुशासित करते हैं. जो लड़कियां गोरी नहीं होतीं वे अक्सर इस अहसास से परेशान रहती हैं कि वे खूबसूरत नहीं हैं. लिहाज़ा सुंदरता की हमारी अपनी सोच भी तर्कजाल से निर्धारित हो रही होती है.

कोई भी तर्कजाल लोगों के विकल्प सीमित कर देता है. इस तरह सुंदरता के मानदंडों में अगर आप सुंदर नहीं हैं तो औरों के लिए भी यह सोचना मुश्किल हो जाता है कि आप सुंदर हैं. तर्कजालों में सत्ता सारे व्यवहारों और संबंधों में निहित होती है. लेकिन हम हमेशा इन सत्ताओं से नियंत्रित नहीं होते. हम रचनात्मक प्रयोग कर सकते हैं या सत्ता को चुनौती दे सकते हैं या उसका विरोध कर सकते हैं.

विमर्श की यह अवधारणा मुख्य रूप से फ्रांसीसी दार्शनिक मिशेल फूको के विचारों पर आधारित है. तर्कजाल या डिस्कोर्स की अवधारणा 70 और 80 के दशकों में उस समय सामने आई, जब इस दावे को चुनौती दी जा रही थी कि एक सैद्धांतिक समझदारी के द्वारा समाज के सारे आयामों को समझा जा सकता है.

इस प्रक्रिया में किसी एक सच की तलाश करने के बजाए कोशिश यह की जा रही थी कि समाज के भीतर एक साथ कितने सारे सत्य हो सकते हैं और किस तरह ये अलग-अलग सच निर्मित किए जाते हैं और उनको स्थायित्व दिया जाता है. इन कोशिशों के पीछे मूल विचार यह था कि ‘सत्य’ और ‘ज्ञान’ एक नहीं, बल्कि अनेक होते हैं और वे संदर्भ से बंधे होते हैं. ये ‘सत्य’ और ‘ज्ञान’ भिन्न विमर्शों और तर्कों के ज़रिए ऐतिहासिक रूप से गढ़े जाते हैं.

पहले यह माना जाता था कि ‘सत्य’ क्या है यह सत्ताधारी तय करते हैं. लेकिन फूको ने सत्ता की समझ को ही बदल डाला. इससे पहले तक सत्ता को एक ऐसी चीज माना जाता था जो एक प्रभुत्वशाली समूह या वर्ग के पास दूसरे समूहों के ऊपर होती है. जैसे प्रजा पर राजा की सत्ता, मज़दूरों पर फैक्टरी मालिक की सत्ता. फूको ने सत्ता की जो अवधारणा दी उसका मूल आधार यह था कि सत्ता एक जाल की तरह होती है.

सत्ता सिर्फ एक जगह पर नहीं होती और सिर्फ एक दिशा में नहीं बहती. सत्ता हर जगह होती है, सारे संबंधों, सामाजिक संरचनाओं, स्कूल, धर्म, परिवार जैसे सारे संस्थानों में होती है. अलग-अलग अवसरों पर अलग-अलग लोग सत्ता का प्रयोग कर सकते हैं. सत्ता केवल दबाने वाली या नकारात्मक नहीं होती, बल्कि सकारात्मक भी हो सकती है. वह विचारों के रूप परिवर्तन का स्रोत भी बन सकती है.

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