जेंडर आधारित हिंसा पर ज्ञान निर्माण की प्रक्रिया में केसवर्करों को शामिल करना क्यों ज़रूरी है?

ज़मीनी स्तर पर जो लोग जेंडर आधारित हिंसा पर काम कर रहे हैं, आज भी उनकी आवाज़ बहुत कम सुनाई पड़ती है. खासकर, गांवों, कस्बों या छोटे शहरों में ऐसे मुद्दों पर काम करने के अनुभवों को लेकर हमारी समझ बहुत सीमित है. वे कौन लोग हैं जो जेंडर आधारित हिंसा पर काम करते हैं? उनका खुद का अतीत क्या है? वह क्या है जो उन्हें इस मुद्दे से जोड़े रखता है? जेंडर आधारित हिंसा पर उनकी अपनी सोच या विमर्श क्या है?

इन सवालों को ध्यान में रखते हुए और इनकी तह में जाने के लिए हम 12 केसवर्करों को एकसाथ लेकर आए. यह केसवर्कर उत्तर-प्रदेश के अलग-अलग क्षेत्रों में हत्या, बलात्कार, अपहरण, यौन-शोषण, बच्चों का यौन शोषण, दहेज-हत्या और घेरलू हिंसा जैसे मुद्दों पर दशकों से काम कर रही हैं. वह इस बात को सुनिश्चित करने में जुटी रहती हैं कि महिलाओं और लड़कियों की न्यायिक व्यवस्था तक पहुंच बढ़े और उन्हें उचित कानूनी सहायता मिले. साथ ही, वह पीड़ित महिला और परिवार के बीच मज़बूत और सार्थक मध्यस्त का भी काम करती हैं ताकि उन्हें हिंसा से छुटकारा मिल सके.

पिछले एक साल में हमने इन 12 केसवर्करों के साथ बहुत काम किया है. लेखन, थियेटर एवं कला आधारित शिक्षाशास्त्र (पेडागॉजी) और ऑनलाइन/ऑफलाइन कार्यशालाओं के माध्यम से एक-दूसरे को सुना और समझा है. आत्मीयता के जज़्बे से भरी हमारी इसी गहन प्रक्रिया से कुछ शब्द निकले और उनपर चर्चा करते-करते हिंसा की शब्दावली ने जन्म लिया. यह शब्दावली केसवर्करों के काम, अनुभव और ज़िंदगी के प्रति उनकी समझ और ज्ञान को समेटे हुए है.

शब्दावली में जिन शब्दों को जगह मिली है, वह कोई नई ईजाद नहीं हैं, बल्कि आम बोलचाल की भाषा के शब्द हैं, जिन्हें हम अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में, घर, मोहल्ले, गली, नुक्कड़, थाना, कचहरी, दफ्तर आदि में खूब इस्तेमाल करते हैं. लेकिन, यही शब्द जब जेंडर आधारित हिंसा के संदर्भ में इस्तेमाल किए जाते हैं तो इनके अर्थ बदल जाते हैं. मसलन, शब्द का अर्थ इस बात पर निर्भर करता है कि इनको बोलने वाला कौन है, उसकी दृष्टि में जेंडर आधारित हिंसा के क्या मायने हैं?

उत्तर-प्रदेश के अलग-अलग क्षेत्रों से आने वाली इन 12 केसवर्करों के लिए इन शब्दों की महत्ता और बढ़ जाती है क्योंकि यह उन्हें एक-दूसरे से जोड़ने की ताकत रखते हैं. आखिर ये शब्द ही तो हैं जिनके ज़रिए वह परिवारवालों को समझती और समझाती हैं, किसी भी मामले की तह तक जाने की कोशिश करती हैं, और ऐसे माहौल में जहां लोग चुप्पी या खामोशी को तरजीह देते हैं, वहां न जाने कितनी बातें बनाती, सुनाती हैं. स्थानीय अधिकारियों से बातचीत, प्रधान सेवकों से सवाल करना, सरकारी अधिकारियों को कानूनी प्रक्रिया की याद दिलाना, हक की मांग करना, महिलाओं की काउंसलिंग करना और उनके लिए आवेदन पत्र लिखना, इन सब में शब्द ही तो हैं जो उनके औज़ार और साथी होते हैं.

इसलिए केसवर्करों के पास इन शब्दों को बरतने का सलीका है और उनकी एक सशक्त व्याख्या करने की समझ भी है. सच तो यह है कि ये केसवर्कर सिर्फ जेंडर आधारित हिंसा से जुड़े मुद्दों पर ही काम नहीं करतीं बल्कि इससे जुड़ी समझ और ज्ञान का निर्माण भी करती हैं. जेंडर आधारित हिंसा से जुड़ी घटनाओं पर काम करना, उनके लिए अपने आप को एक ऐसे मुकाम पर ले जाना है जहां सामान्य, असहनीय और असाधारण आपस में टकराते हैं.

‘हिंसा की शब्दावली’ में वह महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा को एकदम नज़दीक से देखने, खुद उससे जूझने-उबरने से लेकर रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हिंसा की घटनाओं के एक आम घटना बन जाने की प्रक्रिया की तरफ हमारा ध्यान खींचती हैं. अपने काम और व्यक्तिगत संघर्षों के ज़रिए वे हमें बताती हैं कि कैसे महिलाओं पर होने वाली भयानक हिंसा और उनकी ज़िंदगी में रोज़-रोज़ घटने वाली छोटी-मोटी हिंसा एकसाथ गुथकर जेंडर आधारित हिंसा को एक आदत का रूप देकर सहनीय बना देती हैं.

इस शब्दावली पर काम करते हुए समाज में भयानक हिंसा कैसे किसी व्यक्ति या समुदाय के भीतर उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में शामिल हो जाती है, इस पहलू को समझने में लेखक एवं शोधकर्ता डॉ. वीणा दास के काम से हमें बहुत मदद मिली है.

इस शब्दावली में जेंडर आधारित हिंसा में इस्तेमाल होने वाले शब्दों की अपने अनुभवों से व्याख्या करने के साथ ही, केसवर्करों ने न्याय तक पहुंच के मुद्दे पर भी कई महत्त्वपूर्ण सवाल उठाए हैं. क्या न्याय और सुधार-कार्य का एक साथ होना संभव है? इसके साथ ही, वे तर्कसंगत होने की सीमाओं, सामाजिक न्याय और नारीवादी कानून से जुड़ी सोच, जो भारत के गांवों और कस्बों में बसने वाली आबादी के दिमाग में रची-बसी है, जो इनका मतलब अपने हिसाब से गढ़ते हैं - इन तमाम मुद्दों पर बात करती हैं.

टीम के बारे में

‘हिंसा की शब्दावली’ तैयार करने में हमारा सहयोग करने वाले हैं – बांदा और चित्रकूट से वनागंना, ललितपुर से सहजनी शिक्षा केंद्र और लखनऊ से सद्भावना ट्रस्ट. इसके साथ ही द थर्ड आई डिजिटल एजुकेटर्स भी इससे जुड़े हैं.

इन संस्थाओं से जुड़ी और ज़मीनी स्तर पर काम कर रही इन केसवर्करों में से कुछ तो तीन दशक से भी ज़्यादा समय से जेंडर आधारित हिंसा पर काम कर रही हैं. साथ ही, कुछ ऐसी केसवर्कर भी हैं जो पिछले चार-पांच सालों से इस क्षेत्र में सक्रिय हैं. ज़्यादातर केसवर्कर अपने कार्यक्षेत्र या उसके आसपास के इलाकों में ही रहती हैं. यह भी एक वजह है कि उनका अपने समुदायों से बहुत गहरा रिश्ता है.

इन 12 केसवर्करों में से कई ऐसी भी हैं जो कभी खुद भी एक ‘केस’ हुआ करती थीं. कुछ ने खुद अपनी ज़िंदगी में हिंसा को नज़दीक से अनुभव किया है. एक केसवर्कर बनने की उनकी यात्रा की शुरुआत भी वहीं से हुई. इस यात्रा की जड़ें बहुत गहरी और पुरानी हैं और इनका रिश्ता 90 के दशक में होने वाले उन ज़मीनी प्रयासों एवं कार्यक्रमों से जुड़ता है जो नारीवादी आंदोलनों से बहुत अधिक प्रभावित थे. आज भी ये केसवर्कर जेंडर आधारित हिंसा पर काम कर रही हैं, जबकि इनके पास संसाधनों का अभाव है. ऐसे में लम्बी और महंगी कानूनी प्रक्रिया, उनकी चुनौतियों को बढ़ा देती है क्योंकि वे जिन समुदायों के लिए काम करती हैं, वे आर्थिक रूप से बहुत ही कमज़ोर हैं.

शब्दावली निर्माण से जुड़ी 12 केसवर्करों के नाम

पुष्पा देवी, अवधेश गुप्ता, मंजू सोनी, शबीना मुमताज़, शोभा देवी, हमीदा ख़ातून, हुमा फ़िरदौस, तबस्सुम, कुसुम अहिरवार, मीना देवी, राजकुमारी, और राजकुमारी प्रजापति.

केसवर्करों ने इस शब्दावली का निर्माण द थर्ड आई टीम के साथ मिलकर किया है.

परिकल्पना

दिप्ता भोग

निर्माता

दिप्ता भोग और आस्था बाम्बा

फैसिलिटेटर

अपेक्षा वोरा

द थर्ड आई टीम के सहयोगी:

अंग्रेज़ी संपादकीय : शबानी हसनवालिया, निशा सूसन, रुचिका नेगी

शिवम रस्तोगी: वीडियो निर्माण और विजुअल डिज़ाइन

हिंदी संपादकीय: सुमन परमार, अपेक्षा वोरा

वीडियो निर्माता: शिवम रस्तोगी, गुरलीन, शबानी हसनवालिया

पॉडकास्ट निर्माता: माधुरी आडवाणी, जूही जोतवानी

सोशल मीडिया: कुलसुम निशा, सादिया सईद

वेबसाइट: सादिया सईद

इस प्रोजेक्ट के अंतर्गत पहली कार्यशाला आयोजित करने के लिए Maraa से जुड़ी एकता और अंगारिका का शुक्रिया.

वेब पेज डिज़ाइन: यशस चंद्रा

आर्टवर्कः उमा केथा

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