वो दिन पुराने हो गए हैं जब एक मिडिल क्लास फैमिली रिक्शे में बैठकर, हर संडे अपने पास के पुराने बाज़ार जाती और पूरे महीने का राशन एक साथ ख़रीद कर लाया करती थी. अब घर बैठे, मोबाइल के टच से ही सब कुछ आ जाता है. अब कहीं बाहर जाना हो तो मोबाइल के टच से गाड़ी आपके घर के बाहर आकर खड़ी हो जाती है. पार्किंग से लेकर खुद की गाड़ी न होने या ड्राइविंग न आने तक की समस्याओं का समाधान मिनटों में हो जाता है. लेकिन इन सुविधाओं को मुहैया करवाने वाली भी एक दुनिया है. अंग्रेज़ी में इसे गिग इकॉनमी कहते हैं. ये व्यवस्था पूरी तरह कॉन्ट्रैक्ट या पार्ट टाइम कामों पर आधारित हैं जो देश की अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है. भारत जैसे देश में पहले से ही मौजूद बड़ी संख्या में असंगठित मज़दूरी ने इसके लिए खाद-पानी की तरह काम किया. मनमाफ़िक काम करने की छूट, आकर्षक बोनस जैसे कई सुनहरे सपनों ने असंगठित मज़दूरी की ग़ैर बराबरियों और परेशानियों के ऊपर पर्दा डाल दिया. 2020 में जारी की गई फेयरवर्क इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 11 सबसे ज़्यादा प्रचलित एप्प आधारित कंपनियों के साथ 3 करोड़, 3 लाख लोग काम कर रहे हैं.
काम की इस नई व्यवस्था ने जहां सभी के लिए नए-नए मौके तराशे वहीं जेंडर और काम के खांचों को पुख्ता भी किया. द थर्ड आई के शहर संस्करण में हम गिग इकॉनमी सीरीज़ में इसके सभी पहलुओं की पड़ताल करेंगे. इस सीरीज़ की शुरुआत फरीदाबाद के रहने वाले कैब ड्राइवर नरेश की एक दिन की दिनचर्या से कर रहे हैं. नरेश, हमें अपने साथ सफ़र पर लेकर जा रहे हैं. वे पिछले कई सालों से ओला के साथ जुड़े हुए हैं और इस लेख के ज़रिए वे ओला ड्राइवर के बतौर अपने जीवन के एक दिन से हमारा परिचय करवा रहे हैं. कोशिश यही है कि इसके ज़रिए हम गिग इकॉनमी के मानवीय पहलुओं की झलक देख सकें.
कैब ड्राइवर नरेश शाह ‘द थर्ड आई’ के लिए बने वीडियोग्राफर और अपनी ज़िंदगी से दिखाईं कुछ झलकियां.
कल रात सोने में देर हुई इसलिए सुबह देर से उठा. दातून करने, नहाने जैसे रोज़ के कामों को निपटा कर एक दो लोगों से फोन पर बात की, एक सेब काटकर नाश्ता किया और तैयार होकर कमरे से बाहर आ गया. बाहर मेरी गाड़ी खड़ी थी. उसपर कपड़ा मारने के बाद अपने काम पर निकल पड़ा.
घर से निकलते ही फोन की घंटी बजी पहला काम आया. एक मां और बेटे को पास के एक अस्पताल पहुंचाना था. गाड़ी में बैठते ही बेटे ने ए.सी. चलाने की डिमांड की. मैंने ए.सी. ऑन कर दिया. थोड़ी देर में हम अस्पताल पहुंच गए. 150 रूपए किराया मिला. इसमें से 50 रूपए ओला के खाते में जाएंगें. अभी अस्पताल से निकला ही था कि एक और घंटी बजी और आज की दूसरी बुकिंग आई. क्रिकेट खेलने वाले एक लड़के को स्टेडियम से घर पहुंचाना था. दूसरी राइड भी जल्दी ही पूरी हो गई. इस बार किराया मिला 100 रूपया. इसमें से भी 30 पर्सेन्ट कमीशन ओला के खाते में चला गया.
घर से निकले एक-डेढ़ घंटे हो गए हैं, इसी बीच तीसरा काम आया. फरीदाबाद की प्रमुख मार्केट से एक दुकानदार को अपना कुछ सामान किसी दूसरी मार्केट में भेजना था. उसने अपने नौकर को सामान के साथ गाड़ी में बिठा दिया. मार्केट के भीतर भीड़ बहुत थी. भीड़ से निकलने में ही आधा घंटा बीत गया. ख़ैर,
बाज़ार से निकल हम मेन सड़क से होते हुए दूसरी मार्केट की तरफ पहुंचे, वहां भी बहुत ज़्यादा भीड़ थी. सवारी को ड्रॉप करने में मेरा आधा घंटा यूं ही बर्बाद हो गया. भीड़ में अक्सर बहुत ज़्यादा समय खराब होता है लेकिन कमाई कुछ खास नहीं होती. सामान सहित इस सवारी को ड्रॉप करने के मिले सिर्फ 100 रुपए!
फोन ऑन करने के पांच मिनट बाद ही एक और बुकिंग आई. साउथ अफ्रीका के एक नौजवान, जो शायद यहां कहीं पढ़ाई कर रहे थे, उन्हें मार्केट से उनके कमरे पर छोड़ना था. डेस्टीनेशन की तरफ़ बढ़ते हुए उन्होंने बीच रास्ते में एक दुकान के किनारे गाड़ी रुकवा कर कुछ सामान खरीदने की कोशिश की, लेकिन उन्हें सामान मिला नहीं. निराश मन से वे वापस गाड़ी में बैठ गए और मैंने उन्हें उनके कमरे तक पहुंचा दिया. एप्प में किराया 190 रुपए दिखा रहा था. उन्होंने 200 रुपए का नोट दिया. मैंने उन्हें 10 का एक सिक्का वापस दिया तो उन्होंने सिक्का लेने से मना कर दिया. बोले “पेपर में पेपर नोट”. मेरे पास कागज़ वाला 10 का नोट नहीं था. ऊपर से हम दोनों को एक दूसरे की भाषा ठीक से समझ नहीं आ रही थी. इशारों से बात समझ रहे थे. अंत में उन्होंने 10 का सिक्का ले लिया और मुझसे पूछा, “आर यू इंडियन?” मैंने कहा, “या या” उन्होंने कहा, “स्टेट?” मैंने जवाब दिया, “बिहार” उन्होंने “ओके ओके” कहा और वह चले गए. विदेशी नागरिक का चेहरा-मोहरा, पहनावा, भाषा इत्यादि सब कुछ नयापन का एहसास करा रहा था. कुछ अनोखा अहसास हो रहा था.
छोटी-छोटी ड्यूटी करके 4-5 घंटे बीत चुके थे और काम सिर्फ़ 400 रुपए का हुआ था. थोड़ी निराशा और थकान का अनुभव हो रहा था. मैं गाड़ी एक तरफ लगाकर, गाड़ी में ही लेट कर थोड़ा आराम करने की सोच रहा था. 2 मिनट ही बीते थे कि एक और घंटी बजी, काम आया. मैंने उन्हें फोन कर पूछा, “कहां जाना है?” उन्होंने कहा, “रोहिणी, दिल्ली”. ये थोड़ी लंबी ड्यूटी थी इसलिए अच्छा लगा. काम की तरफ चल पड़ा. हाई-फाई सोसाइटी दिख रही थी लेकिन सोसाइटी में नक्शा काम नहीं कर रहा था, इसलिए सवारी तक पहुंचने में थोड़ा टाइम लगा. कई बार फोन करने पड़े. उसके बाद सोसाइटी से एक अधेड़ उम्र की महिला गाड़ी में बैठीं और हम चल पड़े फरीदाबाद से रोहिणी.
रोहिणी पहुंचने में पूरे 3 घंटे 20 मिनट लगे. रास्ते में बहुत ज़्यादा जाम था और बहुत सारी लाल बत्ती पर रुकना पड़ा था. मैडम परेशान हो रही थीं. मुझ पर भी थकान चड़ रही थी. लेकिन आखिरकार पहुंच गए. पूरे 3 घंटे के सफर में मोहतरमा ने सिर्फ़ ए.सी. चलाने की डिमांड करने के अलावा और कोई बात नहीं की. अच्छी भी नहीं, बुरी भी नहीं. पहुंचने पर उन्होंने मुझसे पेटीएम नंबर मांगा, 850 रुपए किराया पेमेंट किया और चली गईं. जाते-जाते महिला ने पेटीएम पर मेरा पूरा नाम पढ़कर मुझसे पूछा कि “भैया कहां के रहने वाले हैं आप?” मैंने उनसे कहा बिहार. वो महिला बंगाली थीं, उन्होंने अच्छा, अच्छा कहते हुए कहा, “मैं आपके पड़ोसी राज्य कलकत्ता से ही हूं.” मैंने भी खुश होकर कहा कि दोनों राज्य में बहुत कुछ एक जैसा है. उनके जाने से पहले ही एक और ड्यूटी आ चुकी थी.
अच्छा लग रहा था कि कुछ कमाई हुई लेकिन,
इस राइड में एप्प कंपनी के 30 पर्सन्ट काटने के बाद जो पैसे मेरे खाते में आए उससे ही मुझे 100 रुपए दिल्ली सरकार को टोल टैक्स के देने पड़े.
अब, मैं अगली ड्यूटी की तरफ बढ़ चला. एक पति पत्नी को 10 किलोमीटर दूर शायद किसी से मिलने जाना था. उस रास्ते में भी एक जगह भयंकर जाम लगा हुआ था. जाम में कुछ नौजवान लड़के परेशान होकर उत्तेजित हो रहे थे, वो बिना मतलब के मुझे भी डांटने की कोशिश कर रहे थे. मैंने शांति से कहा कि जाम सब की समस्या है, सब परेशान हैं थोड़ा ठंडा रहें, थोड़ी देर में जाम खाली हो जाएगा. विनम्र व्यवहार से वे थोड़ा शांत हो गए. थोड़ी देर पति-पत्नी अपनी जगह उतरे, उन्होंने कैश पेमेंट किया और चले गए.
अगली ड्यूटी भी आ चुकी थी. अब बहुत ज़्यादा प्यास लग रही थी.
घर से जो पानी लेकर चला था वह खत्म हो चुका था. आसपास कहीं पानी दिख नहीं रहा था, तो मैं अगली ड्यूटी के लिए चल पड़ा. लोकेशन पर पहुंचने से पहले ही सवारी का फोन आया, “भैया गुड़गांव चलेंगे ना?”
अब, रात के 11 बज चुके थे. शरीर थकान से चूर हो रहा था. घर जाने की इच्छा होने लगी थी. लेकिन, अभी भी एक ड्यूटी पूरी करनी बाकी है. मैंने गाड़ी अगली ड्यूटी की तरफ मोड़ ली,
इस बीच कुछ काम आए लेकिन वे मेरे गंतव्य की तरफ के नहीं थे इसलिए न चाहते हुए भी ड्यूटी कैंसिल करनी पड़ी. सवारियां नाराज़ हो रही थीं, उनकी अपनी परेशानियां थीं लेकिन मेरी भी अपनी पीड़ा थी. कोई किसी की पीड़ा को समझने की कोशिश नहीं कर रहा था. सब अपनी समस्या सुलझाने में लगे थे. मैं निराश होने लगा कि अब घर की तरफ जाने का काम नहीं मिलेगा, खाली ही जाना पड़ेगा और अपनी जेब से गैस-पेट्रोल का ख़र्च देना होगा. साथ ही गुड़गांव से फरीदाबाद जाने के रास्ते में टोल भी देना होगा.
फ़िर ख़्याल आया कि इफको चौक की तरफ चला जाए. वहां से सवारियां फरीदाबाद जाने के लिए इंतज़ार कर रही होती हैं. वहां से प्रत्येक सवारी 50 रूपए मिल जाता है. लेकिन
इफको चौक पहुंचते-पहुंचते रात के 12:00 बज चुके थे. वहां भी कोई सवारी नहीं मिली. एक बुज़ुर्ग मिले जो शराब पिए हुए थे. देखने में मज़दूर पृष्ठभूमि के लग रहे थे. उनको गाड़ी में बिठा कर और सवारियों का इंतज़ार करने लगा पर कोई नहीं मिला.
रास्ते में जो टोल आया वहां बेहद जाम लगा हुआ था. इस टोल पर फास्ट्रेक भी काम नहीं करता है. जिस तरह रात घनी होती जा रही थी उसी तरह थकान मेरे पूरे शरीर पर काबिज़ होती जा रही थी. चिंता होने लगी कि सारे ढाबे बंद हो चुके होंगे, अब रात भूखे ही सोना पड़ेगा. घर में बनाने-खाने का हिसाब थोड़ा बिगड़ा हुआ है और रात के डेढ़-दो बजे, थकान से चूर होने के बाद खाना कौन बनाएगा!
यही सब सोचता हुआ आगे बढ़ रहा था कि अचानक एक ढाबा खुला हुआ दिखा. लेकिन ढाबे के मालिक ने वहां बैठकर खाने से मना कर दिया कहा कि खाना पैक कर देंगे. प्लास्टिक की थैलियों में खाना लेकर जबतक कमरे पर पहुंचा तब तक खाना पूरी तरह ठंडा हो चुका था. जो भी था, भूख लगी थी. खाना खाया और थकान थी सो जल्दी ही नींद आ गई.
सुबह हुई. उठकर चाय बनाई. चाय पीने के बाद कल के दिन के बारे में सोचने लगा. कल रेडियो पर ज़ोमेटो के एक डिलीवरी वाले लड़के की सड़क दुर्घटना में मौत की ख़बर सुनाई दी थी. सोचने लगा कि हमारे जैसे और कितने ही लोग होंगे जिनके साथ दुर्घटनाएं होती रहती हैं. सबसे सामान्य दुर्घटना, गाड़ियां लड़ने की वजह से होती है. मैं ख़ुद भुक्तभोगी हूं. कई बार मेरे साथ सवारियों ने मारपीट की और मैंने उबर में फोन किया तो वहां से सिर्फ यह कहा गया कि नज़दीकी थाने में जाइए वहां रिपोर्ट लिखाइए. रेडियो पर बताया था कि मरने वाले ज़ोमेटो डिलीवरी वाले व्यक्ति किसी होटल के मैनेजर थे और कोविड की वजह से डिलीवरी का काम कर रहे थे.
कोविड में और भी बुरा हाल है. लोगों का आना-जाना कम हो जाता है तो हमें काम कम मिलता है. अब तो शनिवार-रविवार को सड़क पर कोई काम ही नहीं है. आफत ये भी कि गाड़ी में 4 सीट है तो हम दो ही सवारी बिठा सकते हैं, ऐसे में लोग अपना खर्च बचाने के लिए कैब की जगह पर बस या मेट्रो को चुनते हैं.
ख़ैर, थकान, आशा, निराशा, नई सुबह – ये रोज़ वाले काम का माहौल है. आज फिर एक नया दिन है. देखते हैं ये कैसा बीतेगा. कल,
लगभग 12 घंटे काम करने के बाद लगभग 2000 रुपए का काम किया जिसमें से 500 रुपए गैस और पेट्रोल में खर्च हो गए. 250 रुपए टोल टैक्स में गए, 130 रुपए खाने में खर्च किए. अब बचे 1150 रुपए. जिसमें - गाड़ी की मेंटेनेंस, इंश्योरेंस, सालाना टैक्स, फिटनेस पासिंग इत्यादि जैसे अन्य तरह के खर्च हैं. ये सारे खर्च निकाल देने के बाद जो बचता है वो मेरी एक दिन की कमाई होती है.