अनुभव अत्रेय पेशे से वकील हैं और असम के शोध-संगठन स्टूडियो नीलिमा के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं. स्टूडियो नीलिमा भारत के उत्तर-पूर्वी इलाके में क़ानून, टकराव और शासन जैसे विषयों पर काम करता है. सुधार-गृहों में अपने काम के ज़रिए अनुभव नीतियों पर शोध के साथ ही न्यायिक सेवाओं और ज़रूरी मुक़दमों में भी मदद करते हैं. दुनिया के बहुत सारे हिस्सों समेत भारत के बहुत से राज्यों में ‘जेल’ शब्द की जगह ‘सुधार-गृह’ शब्द इस्तेमाल किया जाता है जो यह ध्वनित करता है कि सजा का उद्देश्य दंड नहीं, बल्कि सुधार है.
सुधार गृह या जेलों में उचित स्वास्थ्य सुविधा जैसे महत्त्वपूर्ण नीतिगत मुद्दे पर उन्होंने द थर्ड आई से बातचीत की.
स्टूडियो नीलिमा में आप लोगों का काम जन-स्वास्थ्य से कैसे जुड़ता है?
स्टूडियो नीलिमा में हम सुधार-गृहों को एक व्यवस्था के नज़रिए से देखते हैं. 2017 से अब तक मानवाधिकारों व न्यायिक सेवाओं की प्रक्रिया पर जो हमने काम किया है, उससे पता चलता है कि उनमें बहुत से सवाल जन-स्वास्थ्य के मुद्दे से भी जुड़े थे. जब भी हम किसी मुवक्किल से मिलते हैं और किसी समस्या से जूझते हैं, हर बार सतह के नीचे से जन-स्वास्थ्य का मुद्दा उभर आता है.
पहली बार जेल-अस्पताल जाने का अनुभव मुझे अब भी याद है. अपने मुवक्किल से मिलने के मौक़ों के बावजूद वहां की पूरी व्यवस्था से अमूमन आपका साबका नहीं पड़ता. क़ाग़ज पर देखने से तो लगा था कि वह सुविधाओं के साथ संचालित एक बढ़िया जेल-अस्पताल होगा जहां सौ रोगियों का इलाज किया जा सकता है पर अंदर जाते ही भ्रम टूट गया. वहां अस्पताल के नाम पर एक कमरे में एक मेज थी और एक कुर्सी. शायद दवा देने वाला एक फार्मासिस्ट भी था जो चूंकि जेल-परिसर में नहीं रहता था, सो रात के वक़्त वहां मौजूद नहीं होता था.
इसी सिलसिले में एक और घटना मुझे याद आई. एक सुधार-गृह में हम अस्सी साल के एक बुज़ुर्ग से मिले. अगले हफ़्ते जब हम वहां पहुंचे तो पता चला कि वे नहीं रहे. पता चला कि उन्हें रात में दिल का दौरा पड़ा था और चूंकि अस्पताल में एक ही एम्बुलेंस थी और वह भी बिगड़ी पड़ी थी, इसलिए उन्हें इलाज नहीं मिल सका. इस तरह की घटनाओं के चलते हमने महसूस किया कि इस विषय पर नीतिगत हस्तक्षेप की बड़ी गुंजाइश है.
जेल में बंद लोगों के हालात जन-स्वास्थ्य का मुद्दा क्यों है?
न्याय व्यवस्था से अंजान किसी व्यक्ति के लिए यह समझना बहुत मुश्किल है कि शासन चलाने की समस्या के लिहाज़ से सुधार-गृह कैसे महत्त्वपूर्ण हैं.
हमारे विचार-विमर्श से आमतौर पर यह बात ग़ायब हो जाती है पर सुधार-गृहों में स्वास्थ्य का मामला भी जन-स्वास्थ्य का मामला है.
पहले तो हमें यह बात समझनी होगी कि जेल समाज से अलग-थलग पड़ी कोई जगह नहीं है. यह हमारे समाज से रोज़-ब-रोज़ अंतःक्रिया में रहने वाली संस्था है. रोज़-ब-रोज़ लोग सुधार-गृहों में जा रहे हैं, सुधार-गृहों से वापस आ रहे हैं. यह ऐसा दरवाज़ा है जिससे समाज में लगातार आना-जाना होता है.
दूसरे, समाज के कमज़ोर तबक़ों और जेल जाने को लेकर नैतिक समस्याएं भी हैं. जब समाज के कमज़ोर तबक़ों के लोग, मसलन महिलाएं [नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक जिनकी संख्या कुल क़ैदियों की 4.2 फ़ीसदी है] और बच्चे सुधार-गृहों में भेजे जाते हैं तब उन्हें दोहरी मुश्किलों का सामना करना पड़ता है.
हमने अपने शोध में पाया कि बाहर समाज में इन तबक़ों के साथ किया जाने वाला हर भेदभाव, सुधार-गृहों में कई गुना बढ़ जाता है.
नेशनल क्राइम रिकार्ड ब्यूरो [एनसीआरबी] के आंकड़ों के मुताबिक़ 2019 तक जेलों में कैद 4,78,600 लोगों में से लगभग 66 फ़ीसदी लोग अनुसूचित जाति/जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों से आते हैं. पत्रकार सुकन्या शांता ने विस्तार से बताया है कि जेलों के भीतर आपसे क्या काम लिया जाएगा, यह आपकी जाति पर निर्भर करता है. इन मसलों पर और बातचीत होनी चाहिए न?
समाज में विभिन्न तबक़ों के सम्बन्धों में जिस तरह के भेदभाव काम करते हैं, वैसा ही सुधार-गृहों के भीतर भी होता है. इन सुधार-गृहों में जेंडर सम्बंधी असमानता भी बहुत साफ़-साफ़ दिखती है. आप इसका एक उदाहरण स्टूडियो नीलिमा के उस काम से ले सकती हैं जो हमने सुधार-गृहों के वास्तुशिल्प पर किया है.
इन सुधार-गृहों के महिला वार्ड आमतौर पर अलग-थलग इलाक़े होते हैं. इसके चलते महिला क़ैदियों को सुधार-गृहों की आम सुविधाओं, मसलन पुस्तकालय या खुली सामुदायिक जगहों आदि तक पहुंचने में कठिनाई होती है. इसके चलते महिलाओं की जेंडर से जुड़ी स्वास्थ्य ज़रूरतों मसलन महिला डॉक्टर या नर्स या स्त्री-रोग विशेषज्ञ तक उनकी पहुंच भी बाधित होती है.
सुधार-गृहों के कर्मचारियों, खासकर अफ़सरों में महिलाओं का न होना भी महिला क़ैदियों के साथ भेदभाव के हालात पैदा करता है. यह दोहरा भेदभाव है, पहले वे क़ैदी के रूप में भेदभाव झेलती हैं और दूसरे उन्हें क़ैदियों में भी हाशिए के तबके का होने के कारण भेदभाव झेलना पड़ता है.
हमें सुनिश्चित करना होगा कि स्वास्थ्य सुविधाओं के मामलों में सुधार-गृह स्वतंत्र हों.
असम में तो अभी हमारे पास क़ैदियों में लिए स्वास्थ्य सुविधाओं का ढांचा पूरी तरह बाहरी सुविधाओं, ज़िला अस्पताल या इलाक़े के बड़े मेडिकल कॉलेजों पर निर्भर है. कोविड ने हमें बताया कि जब बाहरी दुनिया की स्वास्थ्य-सेवा बड़े दबाव में होगी, तब सुधार-गृहों के क़ैदी बिना किसी चिकित्सकीय सुविधा के अलग-थलग कर दिए जाएंगे.
संक्रामक रोग सुधार-गृहों में बहुत तेज़ी के साथ बढ़ते हैं. अगर हम इसे रोक नहीं पाते तो यह जन-स्वास्थ्य के लिए जोखिम बन जाएगा. साथ ही यह क़ैदियों के मानवाधिकारों का हनन होगा. सुधार-गृह, जन-स्वास्थ्य का हिस्सा होने चाहिए.
वैश्विक महामारी को तो छोड़ ही दीजिए, ऐसे में अगर कोई महामारी ही आ जाए तब उसकी रोक-थाम का क्या होगा?
उच्चतम न्यायालय ने देश के हर सुधार-गृह को निर्देश दिया था कि वे मॉडल प्रिजन मैनुअल 2016 अपनाएं. दुर्भाग्य यह है कि अभी कुछ महीने पहले तक असम ने यह मैनुअल नहीं अपनाया था. फिर सरकार ने एक बयान जारी करते हुए कहा था कि इसे अपना लिया गया है. अभी हमने वह अधिसूचना देखी नहीं है. इससे पहले असम में 19वीं सदी में बना असम जेल मैनुअल चलता था. उस मैनुअल में महामारी को लेकर खास प्रावधान थे जो निश्चित ही पुराने पड़ चुके हैं. उन प्रावधानों की मुख्य चिंता सुरक्षा थी इसलिए कई जगह उनके प्रावधान बहुत ही भयानक थे.
आज की बात करें तो हुकूमत असल में उस मेडिकल अफसर पर निर्भर है जिसे सुधार-गृह में मौजूद होना चाहिए. यह सुनिश्चित करना उसी का काम है कि महामारी की हालत में बीमार को अलग-थलग किया जाए या ज़रूरत के मुताबिक़ उसे अस्पताल भेजा जाए.
अच्छा यह है कि मॉडल प्रिज़न मैनुअल 2016 इन मामलों में ज़्यादा बेहतर है और कई राज्यों ने इसे अपना भी लिया है. कुछ राज्यों ने अभी भी इसे नहीं अपनाया है.
मॉडल प्रिज़न मैनुअल [एमपीएम] अपनाने का जन-स्वास्थ्य पर क्या असर होगा?
मॉडल प्रिज़न मैनुअल जो करना चाहता है, वह बहुत आदर्शवादी है. मसलन इस मैनुअल के मुताबिक़ हर जेल-अस्पताल में हर 100 क़ैदियों पर 50 मेडिकल बेड हर समय उपलब्ध होने चाहिए. यह आदर्शवादी लक्ष्य है पर यह जेल विभाग को जीवन-निर्वाह के आधुनिक स्तर के लिहाज़ से काम करने और उसे हासिल करने का मानक देता है.
दूसरे, एक बार जब आप इसे अपना लेते हैं तब इसका चरित्र वैधानिक हो जाता है. तब लोग इस मैनुअल के हिसाब से हमेशा न्यायालय जाने के लिए स्वतंत्र होंगे. एक बार जब ये मानक अपना लिए जाएं, तब इसे हर हाल में लागू करवाना नागरिक समाज का दायित्व होगा. इस लिहाज़ से यह मैनुअल बहुत महत्त्वपूर्ण है.
अभी के मानदंड क्या हैं? मसलन अपने एक लेख में आपने ज़िक्र किया है कि असम के 22 सुधार-गृहों से सूचना-अधिकार के तहत मांगी गई सूचना से आपको पता चला कि इनमें से सिर्फ 14 सुधार-गृहों में डॉक्टर लगातार जाते हैं. आपके पास असम के बारे में इस तरह के आंकड़े हैं पर क्या आप हमें राष्ट्रीय स्तर पर क़ैदियों की स्वास्थ्य-सेवा की बड़ी तस्वीर से वाकिफ करवाएंगे?
राष्ट्रीय स्तर पर स्वास्थ्य-सेवा के मामले में बहुत विविधता है क्योंकि 2016 के मॉडल प्रिज़न मैनुअल को न अपनाने वाले राज्यों में इस संबंध में अलग-अलग अधिनियम हैं. तेलंगाना जैसे कुछ राज्य क़ैदियों की स्वास्थ्य सेवा के उच्च मानकों और अन्य सुविधाओं के लिहाज़ से बहुत सक्रिय हैं. अभी असम की बात करें, या कम से कम मॉडल प्रिज़न मैनुअल के लागू होने के पहले की बात करें तो सुधार-गृहों में स्थाई डॉक्टरों की संख्या बहुत कम थी. अमूमन नज़दीक के सरकारी अस्पताल का कोई अस्थाई डॉक्टर दिन में कुछ घंटे, हफ़्ते में कुछ बार सुधार-गृह पहुंच पाता है. अगर 300 लोग एक बंद दुनिया में रह रहे हैं तो उनके लिए यह डॉक्टरी सहायता नाकाफ़ी है.
प्रावधान के मुताबिक़ किसी डॉक्टर को सुधार-गृह में रहना चाहिए. एक नर्स होनी चाहिए, एक स्त्री रोग विशेषज्ञ होना चाहिए और ऐसा कहीं भी नहीं है. आमतौर पर सुधार-गृहों में दवा देने वाला एक फार्मासिस्ट भर होता है. कहीं-कहीं पर तो सिर्फ प्राथमिक उपचार की सुविधा भर है.
इन सुधार-गृहों की अपने नज़दीकी अस्पतालों पर निर्भरता बहुत ज़्यादा है. इन अस्पतालों में बीमार को ले जाना बहुत मुश्किल होता है क्योंकि हर बार मरीज़ को अस्पताल ले जाने के लिए सुरक्षा जांच की प्रक्रिया पूरी करनी होती है, ज़िले के पुलिस आयुक्त को फोन करना पड़ता है. फिर पुलिस के पहरेदारों की व्यवस्था होती है. तब जाकर कहीं बीमार बाहर अस्पताल जा पाता है.
मॉडल प्रिज़न मैनुअल के पीछे कैसी सोच काम कर रही है?
इसको बनाने वाली कमेटी में विभिन्न पृष्ठभूमियों के लोग शामिल थे- सुधार-गृह चलाने वाले प्रशासक, अकादमिक लोग, क़ानूनी पृष्ठभूमि के लोग, नागरिक समाज के लोग. यह मैनुअल महत्वाकांक्षी है और यही हमारी ज़रूरत है. इस मैनुअल पर भी बहुत से मसलों में और काम किए जाने की निश्चित ज़रूरत है पर महत्त्वपूर्ण यह है कि यह मैनुअल बहुत सारे मुद्दों पर बात रखता है. मसलन यह जेंडर की दृष्टि से सुधार गृहों को देख पाता है, सुधार-गृहों में बच्चों के मुद्दों को उठाता है.
आपने कहा कि महामारी के दौर में यह और साफ़ हो गया कि सुधार-गृहों में स्वतंत्र स्वास्थ्य सुविधाएं होनी चाहिए. महामारी के चलते क्या इस तरह की और भी बातें समझ आईं?
हां. इस महामारी के चलते कई चीज़ें समझ में आईं. एक तो यही कि समाज की कमज़ोर आबादी किसी महामारी या वैश्विक महामारी से दोहरे स्तर पर प्रभावित होती है.
बुजुर्ग क़ैदियों का मामला ही देख लीजिए जिन्हें अक्सर पहले से ही कई रोग होते हैं.
अगर सुधार-गृह के भीतर किसी क़ैदी को कई बीमारियां हो जाती हैं तो उसे जेल के बाहर के किसी आम नागरिक की तरह अस्पताल चुनने तक का अधिकार भी नहीं है.
दूसरे, सुधार-गृहों के बारे में बनी सभी नीतियों के मामले में सुरक्षा के मुद्दे को हमेशा प्राथमिकता दी जाती है. इसका मतलब यह है कि महामारी के सामान्य निर्देशों जैसे शारीरिक दूरी या हाथ धुलने आदि को लागू करवाने के लिए भी जेल के अधिकारियों और कर्मचारियों को संक्रामक माहौल में जाना ही पड़ेगा. तीसरा, प्रशासनिक उदासीनता का मामला है. जब महामारी की पहली लहर में कोविड जांच शुरू हुई या बाद में टीकाकरण शुरू हुआ, सुधार-गृहों में कोई हलचल नहीं थी. गुआहाटी उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के बाद हालात बदले. चौथे, खाने-पीने में पोषण सामान्य स्तर से भी नीचे था. अच्छा पोषण संक्रामक रोगों से बचाव के लिए बहुत ज़रूरी है, वह संक्रमण रोकने का काम करता है.
महामारी के दौरान यह बात भी उठी थी कि जेलों से भीड़ कम की जाए…
इस सिलसिले में उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित एक उच्चाधिकार प्राप्त कमेटी ने सुझाया था कि क़ैदियों को उदारतापूर्वक रिहा किया जाए. पर महामारी की दूसरी लहर में भी जेलों से भीड़ कम करने का काम स्वतः नहीं हुआ. फिर गुआहाटी उच्च न्यायालय ने आदेश दिया कि बिना कोई सवाल पूछे उन क़ैदियों को दूसरी लहर में भी रिहा किया जाए जिन्हें पहली लहर के दौरान रिहाई मिली थी. यह काम अब हो रहा है पर काम करने के लिए हमेशा राज्य को किसी तरह की निगरानी की ज़रूरत तो होती ही है.
और गैर-ज़रूरी गिरफ्तारियों के बारे में उच्चतम न्यायालय का आदेश?
आप 2014 की अरनेश कुमार दिशा-निर्देश [गाइडलाइन्स] की बात कर रही हैं न? इस दिशा-निर्देश का निचोड़ यह है कि पुलिस को गिरफ़्तारी करते हुए सावधान होना चाहिए और गिरफ़्तारी तभी होनी चाहिए जब वह एकदम ही ज़रूरी हो. महामारी के दौरान उच्चतम न्यायालय पुलिस को इन्हीं दिशा-निर्देशों की याद दिला रहा था.
हां, आप ठीक कह रहे हैं. इस दौर में सुधार-गृहों में जन-स्वास्थ्य को बेहतर बनाने के बारे में कौन से कदम उठाए जा रहे हैं, हम आप से जानना चाहेंगे.
काम-काज के शुरुआती दिनों में हम कई क़ैदियों से बात कर रहे थे. उन्होंने हमें बताया कि एक महीने तक उन्हें सेनेटरी नैपकिन नहीं मिले. हमने जांच-पड़ताल में पाया कि वहां सेनेटरी नेपकिन का भंडार पड़ा हुआ था पर वह महिला वार्ड में इसलिए नहीं भेजा जा सका क्योंकि कोई फ़ाइल कहीं अटकी पड़ी थी.
होता क्या है कि जब आप एक प्रशासक की तरह सोचते हैं तो चीज़ें आपके लिए एक फ़ाइल या प्रक्रिया भर बन कर रह जाती हैं. फ़ाइलें किस विषय से संबंधित हैं, यह आप सोचते ही नहीं. जबकि आखिरी सिरे पर मौजूद व्यक्ति के लिए यह सोच बेहद ज़रूरी है.
मॉडल प्रिज़न मैनुअल का मामला अलग है पर अभी बहुत से कानून उच्च स्तर पर बनाए जा रहे हैं. इन क़ानूनों में क़ैदियों या कर्मचारियों के अनुभव शामिल नहीं हैं. किसी भी नीति-निर्माण की पहली प्राथमिकता यह होनी चाहिए कि उस नीति से लाभान्वित होने वाले तबके के लोगों की बात ज़रूर सुनी जानी चाहिए.
आपने दो बार तेलंगाना का ज़िक्र किया. वहां किए गए सुधारों के बारे में कुछ और बताइए.
तेलंगाना एक उदाहरण के तौर पर देखा जाता है क्योंकि वहां इन मसलों में बड़े पैमाने पर नागरिक-समाज का हस्तक्षेप रहा है. वहां शोध और प्रशिक्षण पर सचमुच बहुत अच्छा काम हुआ है. वहां का सुधार-गृह प्रशासन संस्थान काफी नामी-गिरामी है और अफ़सरों के प्रशिक्षण के लिए जाना जाता है.
उन्होंने सुधार-गृह के बाद की देखभाल [आफ़्टरकेयर] में भी बहुत महत्त्वपूर्ण काम किए हैं. यह देखभाल सुधार-गृह में आने, बाहर जाने, और फिर लौट आने के दुश्चक्र को तोड़ देती है. किसी भी सुधार-व्यवस्था के पीछे यही आदर्श होता है.
लेकिन ज़्यादातर सुधार-व्यवस्थाओं में हम इसी विचार को गायब पाते हैं.
मेरी समझ से असम में सुधार-गृह के बाद की देखभाल बहुत सीमित है. कुछ मामलों में सज़ा काट कर बाहर आए व्यक्ति के लिए व्यावसायिक शिक्षा की व्यवस्था की जाती है या सुधार-गृह से बाहर निकलने पर एक बार कुछ आर्थिक मदद कर दी जाती है. जोहाट में हमारे पास एक खुली जेल भी है जिसका कोई खास इस्तेमाल हम नहीं कर पाए हैं.
यहां जोड़ता चलूं कि सुधार-गृह का अनुभव बहुत स्थानीय होता है इसलिए हमारे लिए भी पूरे असम के लिहाज़ से भी एक ढांचा बना देना बेहद मुश्किल है.
एक स्वास्थ्य रिपोर्टर के साथ बातचीत में उन्होंने कहा कि भारत में स्वास्थ्य के मामले में सारी ज़िम्मेदारी हमारे खुद के ऊपर है. हम सरकार से अपने लिए कुछ भी करने की उम्मीद नहीं रखते. स्वास्थ्य के सम्बंध में संवैधानिक नियम हमें क्या गारंटी देते हैं?
आपके सवाल का जवाब मैं सुधार-गृहों के आधार पर दूंगा. कैद किए जाते ही आप संविधान की धारा 21 के तहत मिला व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार खो देते हैं और धारा 19 के तहत मिला आवागमन की स्वतंत्रता का अधिकार भी. साथ ही मताधिकार का वैधानिक अधिकार भी समाप्त हो जाता है. जो अधिकार आप नहीं खोते हैं उनमें अधिकतम हासिल किए जा सकने वाले मानकों के आधार पर मिला स्वास्थ्य का अधिकार है जो कि अब धारा 21 के तहत संवैधानिक ढांचे का हिस्सा है.
अब तो
उच्चतम न्यायालय ने यह साफ़ कर दिया है कि स्वास्थ्य का अधिकार धारा 21 का हिस्सा है. यह अपरिहार्य अधिकार है जो हर व्यक्ति को हासिल है, चाहे वह सुधार-गृह के भीतर हो या बाहर.
चूंकि हम स्वतंत्रता की समाप्ति या नज़रबंदी [प्रिवेंटिव डिटेंशन] जैसे तात्कालिक चिंता के मुद्दों में बहुत व्यस्त हैं, इसलिए संवैधानिक क़ानूनों के विमर्श के दायरे में अकादमिक लिहाज़ से भी स्वास्थ्य के अधिकार पर कोई विचार-विमर्श मौजूद नहीं है.
अमरीकी सुधार-गृहों या अमरीकी संवैधानिक क़ानूनों से हासिल अंतर्दृष्टि को आप हमेशा भारतीय हालात में लागू नहीं कर सकते. जैसा कि आप कह ही रही थीं, बतौर भारतीय, निश्चित ही हमारी स्वास्थ्य सम्बंधी अपेक्षाएं बेहद कम हैं. और चूंकि सुधार-गृहों के भीतर आप बहुत शिकवा-शिकायत करने की स्थिति में नहीं होते, इसलिए वहां स्वास्थ्य हमेशा ही द्वितीयक मुद्दा बन कर रह जाता है.
प्राथमिकता इस बात की होती है कि अपने मुक़दमे में किसी तरह छूट हासिल की जाए, किसी तरह मुक़दमे की सुनवाई हो जाए या किसी तरह वकील मिल जाए.
सरकार से स्वास्थ्य संबंधी अपेक्षा की कमी, बाहरी दुनिया की तुलना में सुधार-गृहों के क़ैदियों में कई गुना ज़्यादा हो जाती है.
इस लेख का अनुवाद मृत्युंजय ने किया है. लेखक एवं अनुवादक मृत्युंजय आम्बेडकर विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में पढ़ाते हैं.