“डायन होने का कोई प्रमाण थोड़े होता है.”

अंधविश्वास या साजिश - बिहार में डायन हिंसा पर किए सर्वे से उजागर नई सच्चाइयां

डायन हत्या
द थर्ड आई के लिए बारान इजलाल द्वारा बनाया गया चित्र

मशहूर साहित्यकार महाश्वेता देवी अपनी कहानी ‘डायन’ में लिखती हैं, “मुरहाई गांव का रहने वाला सोदन गंजू अपनी बुढ़िया मां को रात में उठकर बाहर जाते देख, उसके पीछे लग गया. मां हमेशा की तरह बाहर से निपटकर कोठरी में आई, आकर दरवाज़ा बंद किया. मां के दरवाज़ा बंद करने पर अचानक सोदन को लगा कि कोठरी में आकर जो पुआल के बिस्तर पर लेटी है वह उसकी मां नहीं है. डर के मारे सोदन चिल्लाता हुआ निकल गया और पड़ोसियों को पुकारा. पड़ोसी लोग सोदन की मां को बत्ती जला-जलाकर देखते कि उसके पैर धरती पर पड़ रहे हैं या नहीं, ज़मीन पर छाया पड़ रही है कि नहीं? इसके बाद सोदन की मां का हाथ सबके सामने नहन्नी (पोस्तो की ढोंढ़ को चीरने वाला एक छोटा हथियार) से काटकर देखा गया कि खून लाल है या काला? उसके बाद बुढ़िया को मुक्ति मिली लेकिन उसके अपने बेटे ने उसे डायन समझा, इस दुख के मारे सोदन की मां हरम देउ के थान (मंदिर) पर जा बैठी.”

भारतीय कथाकारों की दुनिया में डायन विषय पर ढेरों कहानियां मौजूद हैं. एक महानगर के क्लासरूम में बैठ इन कहानियों को पढ़ते हुए यही लगता था कि ये एक काल्पनिक दुनिया के पात्र हैं, कहीं दूर की कौड़ी, लेकिन दिसंबर 2023 में एक दिन बिहार की राजधानी पटना में एक मंच से 75 साल की जुलेखा को बोलते सुना तो ऐसा लगा जैसे, सन्नों, सोदन की मां, पूनो और तमाम पात्र किताबों से निकलकर सामने आकर खड़े हो गए हों.

फर्क इतना था कि यहां कुछ भी काल्पनिक नहीं था!

जुलेखा अपनी आपबीती बताते हुए कहती है, “मैं घास काटने गई थी. एक छोटी पहाड़ी पर थोड़ा नीचे की तरफ खड़ी थी और मेरे से ऊपर एक औरत थी. पता नहीं कैसे, मैंने हसुआ उठाया तो उसकी नाक पर लग गया. उसके बाद तो गांव में सब मुझे डायन-डायन बोलने लगे और मार-मार कर मेरा हाथ-पैर तोड़ दिया. अब तो दूसरे टोले के लोग भी मेरे घर के दरवाज़े पर आकर गाली देते हैं, ‘मेरे घर की तरफ तुम क्यों देखी?’ बोलकर मुझे मारने के लिए हमेशा तैयार रहते हैं. कोई त्यौहार, काज-कर्म में नहीं बुलाता, न कोई मेरे घर आता है.” जुलेखा, एक विधवा महिला है. उसका एक ही बेटा है जो मानसिक रूप से थोड़ा कमज़ोर है. जुलेखा के बाएं हाथ की हड्डी हमेशा के लिए टेढ़ी हो गई है जो अब कभी सीधी नहीं होगी. त्यौहारों के समय उसके दरवाज़े पर कोई नहीं आता, जैसे उसका घर गांव का हिस्सा नहीं.

वहीं, एक दूसरी महिला लीलावती अपनी जेठानी के बारे में बताती हैं, वे कहती हैं कि उनकी सास को लोग डायन बोलते थे. जब जेठानी ब्याह कर ससुराल आई तब सास बहुत बीमार थी. देखने में सांवली और मृदुभाषी जेठानी ने सास की सेवा का ज़िम्मा उठाया पर कुछ ही महीनों में उनकी मृत्यु हो गई. सास के मरने के एक साल के भीतर ही देवर की मौत हो गई और उसके कुछ महीने बाद ही जेठानी के भाई की मौत हो गई. जेठानी की भाभी ने उन्हें डायन बोलना शुरू किया और धीरे-धीरे नाते-रिश्तेदारों से होते यह बात आसपास के गांवों तक फैल गई. लीलावती कहती है, “मेरी जेठानी हमेशा डरी हुई रहती है. एक दिन पड़ोस में एक छोटा बच्चा बीमार था. उसे डॉक्टर के पास न ले जाकर, झाड़-फूंक करने वाले बाबा के पास लेकर गए. आखिर बच्चे की मृत्यु हो गई. इसपर लोग मेरी जेठानी को मारने पहुंच गए कि इन्होंने बच्चे की जान ली है, इनको डायन विद्या आती है. मैं लड़ी, पुलिस में गई, शिकायत की. लेकिन लोग फिर भी जेठानी को ‘डायन’ बोलते हैं. ऐसे तो कल को मुझे भी कोई डायन बोल सकता है!”

लीलावती के शब्दों में गहरा डर छिपा था, वहीं इस अधेड़ उम्र में जुलेखा को समझ नहीं आ रहा कि आखिर उसने किया क्या है, उसके साथ ऐसा क्यों हो रहा है!?

2023 में निरंतर ट्रस्ट के कार्यक्रम में बिहार फेडरेशन की महिलाएं भाग लेती हुई

जुलेखा और लीलावती जिस मंच से अपनी बात कह रही थीं उसे बिहार फेडरेशन से जुड़ी महिलाओं ने निरंतर संस्था के साथ मिलकर तैयार किया था. इस कार्यक्रम का उद्देश्य डायन हत्या एवं प्रताड़ना के खिलाफ संघर्ष कर रही संस्थाओं, इन मामलों में कोर्ट में पैरवी करने वाले वकीलों और सरकारी संस्थाओं से जुड़े लोगों को एक साथ, एक मंच पर लाना था ताकि ‘डायन कुप्रथा’ के मुद्दे को सिर्फ अंधविश्वास के मकड़जाल में फंसे रहने से बाहर निकाला जा सके और इसे जेंडर आधारित हिंसा के विभिन्न रूपकों के आधार पर देखने का दृष्टिकोण विकसित हो सके.

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याद करें तो गर्मी की छुट्टियों में नानी-दादी के घर के किस्सों में डायन का भी एक घर होता था. दीपावली में बनाए गए घरौंदे के भीतर डायन भी रहती थी. फिल्म पीपली लाइव में महंगाई डायन है (सखि सईंया तो खूब ही कमात हैं, महंगाई डायन खाए जात है) तो लेखक रांगेय राघव की कविता में अंग्रेज़ सरकार डायन है, तो वहीं किसी और की कल्पना में ‘रात’ डायन होती है, कवि नागार्जुन पूछते हैं, “जाने, तुम कैसी डायन हो!”

लेकिन इन अमूर्त शब्दों और किस्सों से परे असल दुनिया में हज़ारों महिलाएं ऐसी हैं जिन्हें डायन बताकर या तो मार डाला जाता है या फिर वे शारीरिक और मानसिक हिंसा के डर के साए में ज़िंदगी जीने को मजबूर होती हैं.

डायन बताकर कुल्हाड़ी से हमला कर महिला की हत्या, डायन बताकर महिला को जबरन पिलाया मैला, हाथ ही अंगुली काटी, ओझा ने बताया डायन तो पड़ोसियों ने बीमार बेटे को ठीक करने के लिए वृद्धा को मार डाला… टीवी पर तो नहीं लेकिन अखबारों में इस विषय पर छपने वाली तमाम खबरें कुछ इस तरह पेश की जाती हैं जैसे ये किसी दूर देश के टापू पर घटित हो रही हैं. अक्सर ये एक तयशुदा अंधविश्वास के खांचे से निकली और गंधाई सोच से भरी होती हैं. बस इसमें नाम और जगह बदल दिए जाते हैं.

भारत के राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, वर्ष 2000 से अब तक 2,500 से अधिक महिलाओं को डायन बताकर उनकी हत्या कर दी गई है. यह संख्या और भी अधिक होने का अनुमान है क्योंकि ढेरों ऐसे मामले हैं  जो दर्ज तक नहीं होते.

2023 में बिहार के 10 ज़िलों में 6 महिला फेडरेशन ने निरंतर संस्था के साथ मिलकर डायन कुप्रथा पर एक सर्वेक्षण किया. यह सर्वेक्षण अपने आप में बहुत खास है क्योंकि इसे तैयार करने का काम किसी शहरी शोध संस्थान ने नहीं किया है बल्कि इसकी परिकल्पना से लेकर ज़मीनी स्तर पर डाटा इकट्ठा करने और उसका विश्लेषण करने का काम फेडरेशन की सदस्य और लीडर्स ने मिलकर किया है.

महिलाओं से मिलकर उनकी आपबीती जानना, सर्वे के फॉर्मैट को भरना और इसके आधार पर आंकड़ों के साथ एक मुकम्मल रिपोर्ट तैयार करना – ये सारा काम उन महिलाओं द्वारा किया गया जो गांव-देहात में अपने स्तर पर इन मुद्दों से रू-ब-रू होती हैं और जो आगे बढ़कर बदलाव लाना चाहती हैं.

पर क्या इस मुद्दे पर बात करना आसान है? मुख्यधारा में अक्सर जो डेटा उपलब्ध होता है वह उन महिलाओं का है जो डायन कुप्रथा की वजह से मारी जा चुकी हैं लेकिन जो इससे प्रताड़ित हैं, रोज़ शारीरिक और मानसिक हिंसा के डर के बीच रहते हुए अपनी ज़िंदगी जी रही हैं, उनके लिए इसपर बात करना कितना संभव है? और सबसे पहले तो सर्वे में कौन महिला राज़ी होगी ये स्वीकारने के लिए कि लोग उसे ‘डायन’ कहते हैं?

आखिर कौन हैं ये महिलाएं जिन्हें डायन बताया जाता है?

जेंडर आधारित हिंसा के रूप में महिलाओं को डायन बताकर उनके साथ हिंसा करना या जात-समाज से बाहर कर देना कोई नई बात नहीं है. इस कुप्रथा का आधार यह विश्वास है कि ये महिलाएं गंभीर बीमारियों, संपत्ति की हानि और यहां तक कि मृत्यु जैसी आपदाओं का कारण बनती हैं. न सिर्फ इंसान बल्कि जानवरों के साथ होने वाली आपदाओं के लिए भी ‘डायन’ बताकर महिला के साथ हिंसा की जाती है.

जो महिला अकेले रहती है या जिसके पति या बेटे की मृत्यु हो गई है या पति छोड़कर चला गया है, विधवा, बुजुर्ग – ऐसी महिलाओं पर डायन बताए जाने का खतरा सबसे ज़्यादा होता है. लेकिन क्या यह पूरा सच है? क्या परिवार में रह रही शादीशुदा औरतों को भी डायन बोला जाता है और इसका जाति, धर्म और वर्ग की पहचान से क्या रिश्ता है?

बिहार फेडरेशन और नारी अदालत से जुड़ी महिलाओं द्वारा जिन 114 गांवों में सर्वेक्षण किया गया उनमें डायन बताई गई सिर्फ एक महिला सामान्य श्रेणी से है. 82 महिलाएं (56 फीसदी) पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग से हैं और 51 अनुसूचित जाति से हैं. इसमें मुस्लिम महिलाओं की संख्या 7 है.

क्यों इनपर ये आरोप लगाए जाते हैं? आरोप लगाने वाले कौन लोग हैं?

सबकी खातिर हैं यहां सब अजनबी और कहने को हैं घर आबाद सब

नवंबर 2022 में बिहार के मुज़फ्फरपुर में हुई एक दर्दनाक, दिल दहला देने वाली घटना ने बिहार में फेडरेशन की औरतों और निरंतर को यह सर्वे करने पर मजबूर किया. 

पर बात यहां से शुरू नहीं होती है. असल में अगर थोड़ा पीछे जाकर देखें तो बिहार फेडरेशन की शुरुआत महिला समख्या कार्यक्रम से जुड़ी हुई है.

कर्नाटक में महिला समाख्या संघ की बैठक। छवि सौजन्य: Scroll.in

नब्बे के दशक में ग्रामीण इलाकों में हाशिए पर जी रही महिलाओं की शिक्षा, आर्थिक सशक्तीकरण और सामाजिक विकास एवं उसमें मूलभूत बदलाव को लेकर सरकार द्वारा महिला समाख्या कार्यक्रम की शुरुआत की गई थी.

इस कार्यक्रम ने ग्रामीण से ज़िला स्तर तक महिलाओं के समूह तैयार किए जिन्होंने लगभग एक दशक बाद औपचारिक फेडरेशन का रूप लिया.

26 साल के बाद जब सरकार ने इस कार्यक्रम को 2014 में बंद किया तो ज़मीनी स्तर पर काम करने वाले इन फेडरेशन के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा. उस वक्त महिलाओं ने आगे बढ़कर यह तय किया कि वे खुद से इन समूहों को जारी रखेंगी. फेडरेशन की महिलाएं ही नारी आदालत भी चला रही थीं जो जेंडर आधारित हिंसा के मुद्दे दखल देने का काम करती है. ये समुदाय और न्याय व्यवस्था के बीच एक महत्त्वपूर्ण कड़ी थी. फेडरेशन की महिलाओं ने तय किया कि वे अपने बूते पर इसके काम को भी जारी रखेंगी. निरंतर संस्था फेडरेशन एवं इन समूहों के साथ मिलकर उनके नेतृत्व विकास, शिक्षा एवं जेंडर से जुड़े कार्यों में लगातार सहयोग करती आ रही है.

ऐसी ही एक बैठक में बिहार के गया ज़िले में फेडरेशन से जुड़ी महिलाओं के लिए जेंडर आधारित हिंसा के मुद्दे पर प्रशिक्षण का कार्यक्रम चल रहा था. इस दौरान ही महिलाओं को पता चला कि पास के ही डुमरिया ब्लॉक के पचमह गांव में डायन बताकर एक महिला के साथ पहले मार-पीट की गई फिर उसपर पेट्रोल छिड़क कर उसे ज़िंदा जला दिया गया. महिलाओं को पता चला कि इस हादसे से दो दिन पहले पंचायत की बैठक हुई थी जिसमें एक ओझा को बुलाया गया था. ओझा के यह कहने पर कि यह महिला डायन है, गांव वाले उसे मारने पर उतारू हो गए. महिला ने पुलिस में इस बात की शिकायत भी की लेकिन, पुलिस द्वारा किसी तरह की कोई कार्रवाई नहीं की गई. आखिरकार गांव वालों ने महिला को उसी के घर में ज़िंदा जला दिया.

सभी स्तब्ध थे. नारी अदालत से जुड़ी औरतों ने अपने यहां रजिस्टर्ड मामलों को उलट-पलट कर यह पता लगाया कि पिछले कुछ सालों में डायन कुप्रथा से जुड़ी घटनाओं में लगातार इज़ाफा हुआ है. समूहों की मीटिंग्स में इस मामले पर लगातार होती चर्चाओं में महिलाओं के बीच से ही यह बात निकली की इस मुद्दे पर कुछ महत्त्वपूर्ण डाटा इक्ट्ठा करें जो समकालीन परिस्थितियों को उजागर कर सके. इस तरह डायन कुप्रथा पर सर्वे ने आकार लिया. इस काम में अन्य एनजीओ जैसे ईजाद, परिवर्तन विकास और बिहार लीगल नेटवर्क भी शामिल हुए.

पर यह काम इतना आसान नहीं था. एक भयानक प्रतिकूल माहौल में इसके ऊपर सर्वे कैसे किया जा सकता है? इसपर एक मुक्कमल बातचीत करने के लिए किस तरह ही तैयारी की ज़रूरत होती है?

प्रताड़ित महिलाओं का सर्वे एवं सर्वेकर्ता

यह सर्वे बिहार राज्य के 10 ज़िलों में किया गया. इसमें 114 गांव से 145 महिलाओं ने भाग लिया जिन्हें डायन बताकर प्रताड़ित किया जाता है.

सर्वे करने वालों में इन ज़िलों की फेडरेशन से जुड़ी महिलाएं ही थीं जो अपने या आसपास के गांवों में ‘डायन’ बताए जाने की घटनाओं का पता लगाकर वहां जातीं और महिला से बात करने की कोशिश करतीं. सर्वे करने से पहले सभी सर्वेकर्ताओं के साथ इससे जुड़ी रणनीतियों पर विस्तार से चर्चा हुई. सर्वे में भाग लेने वाली सभी महिलाएं किसी न किसी तरह से फेडरेशन से जुड़ी हैं और एक नेतृत्वकारी भूमिका का भी निर्वहण करती हैं.

सबसे पहले सोचा गया कि गांवों में लोगों के समूहों और पंचायत के ज़रिए डायन प्रताड़ना के मामलों को जानने की कोशिश की जाए. पर जल्द यह बात समझ आई कि लोग खुलेआम इस मामले के बारे में बात नहीं करेंगे और न ही जो महिला प्रताड़ित हो रही हैं वे खुलकर बात करेंगी. फिर रणनीति बदली गई. ब्ल़ॉक स्तर पर मीटिंग्स हुईं जिनमें फेडरेशन और नारी आदालत की सदस्यों ने भाग लिया, वहीं से बहुत सारे मामले सामने आने लगे.

बिहार में डायन-बिसाही के बारे में मिथकों को तोड़ने के लिए समुदाय में चर्चा सत्र. फोटो साभार - शशिकला, शिवहर फाउंडेशन

इन रणनीतियों में कुछ खास बिंदू शामिल थे, जैसे – डायन के आरोप से पीड़ित महिला की सहमति से ही उस से जुड़े सवालों पर उसकी राय लेना, सर्वे के दौरान ऐसा कोई सवाल न करना जो महिला के आत्मसम्मान को ठेस पहुंचाने वाला हो, किसी भी पक्ष के बारे मैं कोई टिप्पणी न करना, महिला और बाकी पक्षधरों को स्पष्ट बताना की यह सर्वे क्यों किया जा रहा है. 

एक सर्वेकर्ता संगीता ने बताया कि वो एक दिन काम के बाद घर लौट रही थी और जान-पहचान की एक महिला को बस के लिए इंतज़ार करते देखा, वो उसके साथ हो ली. बातचीत के दौरान संगीता को उसके बारे में पता चला कि पति के मरने के बाद कैसे उसके ससुराल वालों ने उसे डायन बोलना शुरू कर दिया है. संगीता ने कहा, “वो महिला खुद ओझा के पास गई और उससे कहा कि अगर मेरे भीतर कुछ ऐसा है तो इसे मिटा दीजिए, मैं इसके लिए पैसा देने को तैयार हूं.”

सर्वेकर्ता जशोदा ने बताया, “एक दीदी से मैंने पूछा कि मुझे इस महिला का पता बता दीजिए आप तो उधर ही रहती हैं. उन्होंने कहा, ‘अरे! वो तो डायन है, हम नहीं बता सकते, कुछ हो जाएगा.’ मैं किसी तरह पूछ-पूछ कर उस महिला के घर पहुंची.” जब वो महिला से बात कर ही रही थी तो देखा कि जिस दीदी से उसने पता पूछा था वो दरवाज़े के पीछे कान लगाकर खड़ी है और उनकी बातें सुन रही है. कहीं ये महिला उसकी बुराई तो नहीं कर रही!

इस तरह ब्लॉक, गांव स्तर पर महिलाओं ने डायन प्रताड़ना के मामलों को ढूंढ-ढूंढ कर उनसे बात की, सर्वे का फॉर्मैट भरा, एक-दूसरे को उनके इलाके के मामले के बारे में बताया और मिलकर सारी जानकारियों को इक्ट्ठा किया.

कबीरा खड़ा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर फूंके आपने चले हमारे साथ

इस सर्वे में जो अनोखी बात है वह यह कि इसे करने वाली महिलाएं भी उसी गांव, देहात, समाज के रोज़मर्रा में पली-बढ़ी-ढली हैं, उसका हिस्सा हैं जिसकी हदबंदियों, जातिगत क्रूरताओं पर पड़े पर्दे को वे हटाने की कोशिश कर रही हैं. उसे चुनौती दे रही हैं.

जशोदा के अंदर मान्यताओं धारणाओं को तोड़ने की इच्छाशक्ति बहुत हद तक कबीर के फक्कड़पन से मिलती-जुलती दिखी. उनके घरवालों का कहना है कि वो ‘उल्टे दिमाग वाली हैं.’ आमतौर पर वह कोई व्रत-त्यौहार नहीं करतीं और सारे वैसे काम करती हैं जिनके लिए कोई उन्हें रोकता-टोकता है.

जशोदा का मानना है कि महिलाओं के साथ होने वाली इस प्रकार की हिंसा में अंधविश्वास एक ओट है, असल में तो यह पितृसत्ता की ताकत को बनाए रखने, जाति के वर्चस्व को मज़बूत बनाने और महिलाओं को संपत्ति के अधिकार से दूर रखने के लिए किया जाता है.

छवि स्रोत - blog.ipleaders.in

वहीं कलकत्ता महानगर में पली-बढ़ी सर्वेकर्ता प्रेमशीला का डायन शब्द से सामना उस वक्त हुआ जब शादी के बाद वो बिहार अपने ससुराल आईं. उस वक्त वह 9वीं कक्षा में पढ़ रहीं थीं. प्रेमशीला ने डायन शब्द सबसे पहले अपनी सास से सुना, जो काला-जादू करने के नाम पर पड़ौस की एक महिला को बुरा-भला कह रही थीं. वहीं चंपारण की रहने वाली लक्ष्मी ने बताया कि बचपन में जब उसके एक छोटे भाई की बहुत कम उम्र में मृत्यु हो गई, तब उसकी मां ने पड़ोस की एक महिला को डायन बताया था. उस वक्त पहली बार लक्ष्मी ने इस शब्द को सुना था.

ये सिलसिला परिवारों तक ही सीमित नहीं था. फेडरेशन में काम करने के दौरान भी डायन का आरोप महिलाएं एक-दूसरे पर लगाती थीं. लक्ष्मी कहती हैं, “गांव में महिलाओं का समूह बनाते हुए अक्सर किसी महिला के लिए कहा जाता कि फलां को ग्रुप में मत जोड़िएगा वो डायन है, कुछ कर देगी. हम उनसे यही कहते थे कि आपको कैसे लगा कि वो डायन है? हम भी इतना बोलते-चालते हैं हमको तो कभी कुछ नहीं की.”

प्रेमशीला और लक्ष्मी लगातार इस कोशिश में रहती हैं कि फेडरेशन की मीटिंग्स और ग्रुप्स में उन महिलाओं को शामिल कर सकें जिन्हें डायन कहा जाता है. अपने अधिकारों और जेंडर आधारित हिंसा पर काम करते-करते उनका सवाल करने और महिलाओं की स्थिति समझने का एक नज़रीया बना है. जिन महिलाओं को डायन बुलाया जाता है लक्ष्मी आगे बढ़कर उन्हें पास बिठाती हैं ताकि और लोग भी उनसे मिलें, साथ बैठें, उनके हाथ से पानी पीना, साथ बैठकर खाना – इसका असर बाकि महिलाओं पर भी हुआ. रोज़मर्रा में न  सिर्फ अपने हाव-भाव, बोलचाल के ज़रिए बल्कि फेडरेशन से जुड़ी ये महिलाएं, डायन प्रताड़ना के मामले में आगे बढ़कर खतरों का भी सामना करने के लिए हमेशा अग्रणी रहती है. ऐसा ही एक वाकया जशोदा ने बताया.

पर, किसी को डायन कहना और उसके बारे में खुलकर बात करना सिर्फ फेडरेशन के भीतर का मामला नहीं है. ये महिलाएं गांवों में ऐसी घटनाओं का संज्ञान लेती हैं और उन्हें चुनौती देती आ रही हैं, जो अक्सर खतरों से भरा होता है और कभी-कभी जानलेवा भी साबित हो सकता है.

ऐसी ही एक घटना बिहार के मुज़फ्फरपुर ज़िले के एक उपनगर गायघाट में हुई. कुछ साल पहले यहां के जाता पछियारी पंचायत के लोगों ने गांव के हर एक घर से तीन-तीन सौ रूपए चंदा इक्ट्ठा कर झारखंड के खगड़िया से एक ओझा (तांत्रिक) को बुलाया. बात यह थी कि गांव में एक साल के अंदर चार युवा लड़कों की मौत हो गई थी. इसके बाद अफवाहें फैलने लगीं कि गांव में ही कोई महिला ‘डायन’ है जो यह सब कर रही है, “क्यों सिर्फ युवा लड़के ही मर रहे हैं, बच्चे या बुजुर्ग नहीं?” ओझा को बुलाया गया ताकि वो ‘डायन’ का पता लगा सके.

लगभग 1 लाख 80 हज़ार रूपए चंदा इकट्ठा किया गया जिसमें से 1 लाख रुपए ओझा को दिए गए. बकायदा एक मेले जैसे आयोजन की तैयारी शुरू हो गई. चारों तरफ जैसे त्योहार सा उत्साह था.

लोग कह रहे थे, "अब यहां से डायन निकलने वाली है." योजना यह थी कि ओझा चावल छानेगा और गांव की सभी महिलाओं को वह चावल खाना होगा. जो महिला इसे नहीं खा पाएगी, उसे 'डायन' घोषित कर दिया जाएगा.

बिहार में जागरूकता अभियान. फोटो साभार- रोहतास फाउंडेशन

गांव की एक महिला ने जशोदा एवं उनकी साथियों को इसके बारे में बताया. महिला का कहना था कि स्थानीय नेता टाइप का एक व्यक्ति (जो उच्च जाति से था) ये अफवाहें फैला रहा है कि कोई डायन है जो ये सब कर रही है. असल में, उसने उन चार मृतकों में से एक की पत्नी के साथ दुर्व्यवहार करने की कोशिश की थी, जिसमें वह असफल रहा था. उन महिला सदस्य को यकीन था कि यह अफवाह और आरोप बदले की भावना से लगाए जा रहे हैं.

वहीं गांव की कुछ और महिलाओं ने भी इस पूरी प्रक्रिया का विरोध किया और कहा कि पुरुषों को भी वह चावल खाना चाहिए, केवल महिलाएं ही क्यों खाएंगी? इस कारण उनके घर पर पत्थरबाज़ी भी हुई. जशोदा और उनकी साथी महिलाएं भी एक बीमार महिला बनकर, ओझा से मिलने के बहाने से पछियारी गांव पहुंचीं. वहां पहुंचकर सबसे पहले उन्होंने पुलिस थाने में इसकी पूरी जानकारी दी और उनसे कार्रवाई करने को कहा. पुलिस हरकत में आने लगी तो पुलिस स्टेशन पर भी पथराव हुए जिसमें चार पुलिसकर्मी घायल हो गए.

ओझा के कार्यक्रम से एक रात पहले हर तरफ अफरा-तफरी मची थी कि कल क्या होगा! अगली सुबह जब लोग जागे तो पता चला कि ओझा पैसे लेकर फरार हो गया है. गुस्साए गांववाले जिसमें लगभग 1,000 पुरुष थे उन्होंने इन 8-10 फेडरेशन सदस्यों को घेर लिया और अपना पैसा वापस मांगने लगे. यहां तक कि वहां मौजूद छुटभैये (छोटे-मोटे स्थानीय) नेताओं ने धमकी दी कि अगर उसने फेडरेशन की सभी महिलाओं को जेल में नहीं डाला, तो वह चुनाव से हट जाएगा, और लोगों ने तालियां बजाईं. पर गायघाट की महिला विधायक ने फेडरेशन की महिलाओं को धन्यवाद दिया कि उनकी वजह से ही हिंसा और दंगा होने से बच गया.

सर्वेक्षण: पद्धति और निष्कर्ष

निरंतर संस्था और बिहार फेडरेशन द्वारा किए गए इस सर्वेक्षण का उद्देश्य डायन के रूप में आरोपित महिलाओं के अनुभवों का दस्तावेज़ीकरण करना और सार्वजनिक मंचों पर इससे जुड़ी बहस को नए नज़रिए से देखने की कोशिश है. यह सर्वे बिहार राज्य के 10 जिलों में किया गया. इसमें 114 गांव से 145 महिलाओं के साथ बातचीत की गई जिनपर डायन का आरोप लगाया गया है.

ज़मीनी स्तर पर तीन महीने चले इस सर्वे में परिवार के भीतर और बाहर का सच, अपमान, हिंसा और सामाजिक बहिष्कार की भयानक कहानियां सामने आईं.

नैहर छूटो जाए

इस सर्वे से जो एक सबसे महत्त्वपूर्ण बात सामने आई वह यह है कि 145 महिलाएं जिन्होंने इसमें भाग लिया उनमें से 121 महिलाएं संयुक्त परिवार के भीतर रहती हैं जिनपर डायन का आरोप लगा. मतलब 83 फीसदी महिलाएं ऐसी हैं जो शादीशुदा हैं और बावजूद इसके, उनके पास किसी तरह की सामाजिक सुरक्षा नहीं है. आम जन-मानस में यह धारणा है कि अकेली महिला जिसके पति की मृत्यु हो गई है, या जिसे पति ने छोड़ दिया है, या जो विधवा है – इन महिलाओं को ही डायन बताए जाने का खतरा सबसे ज़्यादा है लेकिन यह सर्वे इस धारणा को चुनौती देने का काम करता है.

दूसरी बात जो इस सर्वे से सामने आती है वह यह कि कुल महिलाओं की संख्या में से 108 महिलाओं की उम्र 46 से 66 के बीच की है. साफ ज़ाहिर है कि वे महिलाएं जो प्रजनन की उम्र को पार कर चुकी होती हैं उन्हें आसानी से डायन बताकर प्रताड़ित किया जा सकता है. और यह काम सबसे ज़्यादा परिवार के भीतर से ही किया जाता है. सर्वे के अनुसार 43 फीसदी महिलाओं ने कहा कि डायन बोलने की शुरुआत परिवार के सदस्यों द्वारा ही की गई. उसके बाद आस-पड़ोस (19 फीसदी), और फिर पूरे गांव ने डायन बोलना शुरू किया.

मैं कहता आंखन देखी

सर्वेकर्ताओं से बातचीत में हमें कई बार यह सुनने को मिला कि ऊंची या सामान्य श्रेणी की महिला को डायन बोलने का जोखिम कोई नहीं उठा सकता! यही कारण है कि सर्वे में शामिल 145 में से सिर्फ 1 महिला सामान्य श्रेणी से है और सबसे ज़्यादा 56 फीसदी महिलाएं पिछड़े और अति पिछड़े वर्ग से हैं. इसमें से 108 महिलाएं पूरी तरह निरक्षर हैं और रोज़ की दिहाड़ी मज़दूरी कर (98 महिलाएं) अपना और परिवार का गुज़ारा चलाती हैं. इसे ध्यान से देखें तो शिक्षा और रोज़गार का जाति से सीधा संबंध साफ उजागर होता है.

लेकिन इसे सिर्फ अशिक्षा और अंधविश्वास के चश्में से नहीं देखा जा सकता. सर्वेकर्ताओं के अनुसार जो सबसे महत्त्वपूर्ण कारक सामने आए हैं उनमें पहला, महिला एवं उसके परिवार की आय में बढ़ोत्तरी, और दूसरा खराब स्वास्थ्य, कुपोषण एवं मृत्यु (यानी परिवार के भीतर, आस-पड़ोस में किसी व्यक्ति या बच्चे की मृत्यु). सर्वे के अनुसार 42 फीसदी महिलाओं का कहना है कि उनके घर की आर्थिक स्थिति में सुधार होने की वजह से उन्हें परिवार, गोतिया के लोग और आस-पड़ोस के लोग डायन बोलने लगे. असल में यह हाशिए पर रहने वाले परिवारों में किसी के जीवन में आर्थिक सुधार से पनपी मानवीय भावनाएं जैसे ईर्ष्या, जलन है जो एक आरोप के रूप में उभरती है और उन्हें आगे बढ़ने से रोकने का हथियार बन जाती है.

यह उन राजनीतिक-सामाजिक-आर्थिक परिपेक्ष्यों को भी उजागर करता है जहां अपने घर-परिवार या आस-पड़ोस में होने वाली मृत्यु के लिए किसी को कारण बनाना ज़रूरी होता है और इसके लिए महिलाएं सबसे आसान लक्ष्य होती हैं. लोग यह नहीं सोचते कि बच्चे या व्यक्ति की मृत्यु सही समय पर इलाज न मिलने, गांव में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र की खराब स्थिति होने या डॉक्टर एवं नर्स के उपलब्ध न होने, या कुपोषण की वजह से हुई है. बजाय इसके वे इसे जादू-टोना, डायन विद्या से जोड़कर देखना ज़्यादा सही समझते हैं. ठीक इसी तरह न सिर्फ वे अपने आस-पड़ोस की महिला को कारण बनाते हैं बल्कि अगर उस महिला की आर्थिक स्थिति में किसी प्रकार का सुधार हो रहा हो या महिला खुद आगे बढ़कर कोई काम करने लगे, या किसी बुराई को लेकर खुलकर बोलने लगे तो भी वह आंख की किरकिरी बन जाती है.

इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि स्वास्थ्य व्यवस्था का कोई चेहरा नहीं होता, वो आपके सामने मानवीय आकार में नहीं खड़ी होता जो कि परिवार या आस-पड़ोस के लोग होते हैं. यह भी कारण है कि दुख की घड़ी में अपना गुस्सा किसी पर ज़ाहिर करना हो तो वो सबसे नज़दीकी में उपलब्ध व्यक्ति पर ही ज़ाहिर होता है या उसे प्रताड़ित करने पर बदले की भावना का सुख आसानी से प्राप्त किया जा सकता है. उदाहरण के लिए, बिहार फेडरेशन से जुड़ी और इस सर्वे में एक सर्वेकर्ता जशोदा ने हमें बताया कि बिहार का मुज़फ्फरपुर ज़िला लीची फल के उत्पादन के लिए विश्व प्रसिद्ध है. और लीची का मौसम वो एक समय है जब डायन बताकर महिलाओं को प्रताड़ित करने के मामले सबसे ज़्यादा सामने आते हैं.

इन दोनों बातों के बीच की कड़ी है चमकी बुखार जो कुपोषित बच्चे के शरीर में अचानक हाइपोग्लाइसीमिया (अचानक बहुत सारी मीठी लीची खाने से) के कारण होती है. यह उन बच्चों को अपना शिकार बनाता है जो कुपोषण के कारण अपनी भूख मिटाने के लिए काफी मात्रा में लीची खाते हैं, खासकर सुबह खाली पेट. इसलिए असल में लीची से होने वाली बाल मृत्यु दर का वास्तविक कारण गरीबी, कुपोषण और राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था है पर इसकी चोट वे महिलाएं झेलती हैं जिन्हें ये कहकर कि ‘वो मेरे घर के पास से गुज़री थी, वही मेरे बेटे को खा गई’, या ‘उसको डायन विद्या आती है’ उनके साथ किसी भी तरह की हिंसा की जा सकती है. जैसा कि फेडरेशन सदस्य लीलावती ने कहा भी था, “डायन होने का कोई प्रमाण नहीं होता!”

सर्वे में शामिल महिलाओं का कहना है जब से उन्हें डायन बताया गया, उसके बाद से वे शारीरिक और मानसिक रूप से अस्वस्थ हैं. निरंतर संस्था के साथ जुड़ी और इस सर्वे में भूमिका निभाने वाली रत्ना का कहना है कि मानसिक प्रताड़ना इतने गहरे स्तर पर असर करने लगती है कि कुछ समय बाद महिला खुद ये मान बैठती है कि वह डायन है. कई महिलाओं ने हमें कहा, “दीदी, मेरे भीतर सच में कुछ तो है इसलिए सबका बुरा होता रहता है” या “पूरा गांव कह रहा है तो गलत थोड़े ही कह रहा होगा.”

डायन बताकर महिलाओं के साथ की जाने वाली हिंसा, घरेलू हिंसा से बहुत अलग है. घरेलू हिंसा होने पर आपके पास किसी न किसी प्रकार की सहानूभूति होती है, मदद और सहयोग भी आपको मिल सकता है लेकिन डायन बोलकर प्रताड़ित करने पर अपमान, बहिष्कार, अकेले हो जाने या बदमानी का डर ये सब बहुत ज़्यादा होता है. यह भी वजह है कि कई मामलों में महिलाएं इसके खिलाफ शिकायत भी नहीं करतीं और एकांत में घुटती रहती हैं.”

इसके साथ ही आरोपी द्वारा परेशान किए जाने का डर, शिकायत करने से कहीं ये न लगे कि वे खुद को डायन समझ रही हैं या ये पता ही नहीं कि कहां शिकायत करनी है, ऐसे कई कारण हैं जिनकी वजह से (69 फीसदी) महिलाएं इस प्रताड़ना के बारे में आधिकारिक शिकायत करने से बचती हैं. इनमें 58 फीसदी महिलाओं का कहना है कि वे बदनामी के डर से शिकायत करने नहीं जातीं. जशोदा का कहना है कि सारी कवायत महिला को भीतर से तोड़ने की है, “जब आप महिला की ज़मीन नहीं ले पा रहे या जो लाभ आप लेना चाह रहे हैं वो नहीं मिल पा रहा है तो लोगों के मन में ये मंशा होती है कि उसे ऐसा कुछ बोलो जिससे वो टूट जाए, सदमे में ही रहे. बहुत सारी महिलाएं सदमे की वजह से मर जाती हैं या गंभीर रूप से बीमार हो जाती हैं.”

सर्वे रिपोर्ट को विस्तार से यहां देखें.

क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न करोगे?

प्रेमचंद की कहानी ‘पंच परमेश्वर’ में जब जुम्मन शेख की खाला सरपंच अगलू चौधरी से न्याय की गुहार लगाते हुए यह पंक्ति कहती है तो, अगलू, जुम्मन के साथ अपनी दोस्ती को ताक पर रखकर इंसाफ करता है लेकिन असल दुनिया में महिला के खिलाफ होने वाली इस हिंसा में इंसाफ का रास्ता न सरपंच के पास से निकल रहा है, न पुलिस और न ही न्याय-व्यवस्था.

बिहार, देश का पहला ऐसा राज्य है जहां 1999 में एक महिला मुख्यमंत्री ने डायन प्रताड़ना के खिलाफ कानून लागू किया था. यह सती प्रथा के बाद देश का दूसरा कानून है जो अंधविश्वास के खिलाफ बना था.

निरंतर सर्वे से यही पता चलता है कि स्थानीय महिला संगठन इन मामलों पर सशक्त रूप से काम करने और पीड़ित महिला को शारीरिक और मानसिक रूप से मज़बूत करने में ज़्यादा सक्षम हैं. जशोदा और लक्ष्मी, दोनों का कहना है कि उनका काम सर्वे के साथ ही खत्म नहीं हुआ, वहां से तो उम्मीद की एक नई कोपल फूटी. सर्वे के दौरान वे जिन महिलाओं से मिलीं, जिनसे उन्होंने बात की. अब वे समय-समय पर फोन कर इनसे बातें करती हैं, अपना हाल साझा करती हैं. उन महिलाओं के लिए ठहरे हुए समय को एक गति मिली है, उम्मीद का सिरा मिला है.

डायन कुप्रथा से लड़ने में एक बहु-आयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है जो पितृसत्तात्मक मानदंडों को, परिवार और समाज में बसे आर्थिक और सत्ता के रिश्तों को ही नहीं, इसके साथ-साथ हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था को भी इसके दायरे में लाए. डायन कुप्रथा, सिर्फ अंधविश्वास का मामला नहीं है. फेडरेशन की महिलाओं का यह प्रयास एकजुटता और सामूहिक कार्रवाई की शक्ति को दर्शाता है जो डटकर जेंडर आधारित हिंसा का मुकाबला कर रही हैं. साथ ही यह इस बात को दर्शाता है कि ज़मीनी स्तर पर जब समुदायों के बीच महिलाएं अपने अनुभव रखती हैं तो एक साझा ज्ञान का निर्माण होता है.

आज, बिहार में लागू डायन प्रथा प्रतिषेध अधिनियम को लागू हुए 25 साल हो गए हैं और आज भी इस प्रकार की हिंसा को लेकर महिलाओं का संघर्ष जारी है. सर्वे में शामिल कुल महिलाओं में से 88 फीसदी महिलाओं का कहना है कि आज भी उनके साथ शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना जारी है.

2023 में डायन कुप्रथा पर किए गए सर्वे में निरंतर ट्रस्ट के साथ बिहार महिला फेडरेशन की निम्न संस्थाओं ने सर्वे करने का काम किया:

  • ज्योति महिला समाख्या, मुज़फ्फरपुर
  • स्वधा महिला समाख्या, पश्चिमी चंपारण
  • सृष्टि महिला समाख्या, शिवहर
  • प्रगति एक प्रयास, सीतामढ़ी
  • समृद्धि संस्थान, रोहतास
  • दीपमाला संस्थान, कैमूर
  • हमारी दृष्टि, गया

 

इस सर्वे को आकार देने में शामिल संस्थान:

सुमन परमार द थर्ड आई में सीनियर कंटेंट एडिटर, हिन्दी हैं.

संतोष शर्मा निरंतर ट्रस्ट के साथ एक वरिष्ठ प्रशिक्षक के रूप में कार्यरत हैं और ग्रामीण महिलाओं के मुद्दों पर काम करने का तीन दशक का अनुभव रखती हैं. वे भारत सरकार के महिला सशक्तीकरण के लिए शिक्षा आधारित प्रमुख कार्यक्रम, महिला समाख्या की राष्ट्रीय सलाहकार रही हैं. वे वर्तमान में निरंतर ट्रस्ट द्वारा असम और बिहार में चलाए जा रहे कार्यक्रमों में नेतृत्व की भूमिका में हैं. डायन प्रथा सर्वे में शुरुआत से लेकर अंत तक संतोष ने एक अहम भूमिका निभाई है.

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