डॉ. प्रियदर्श तुरे, एक दशक से भी अधिक समय से महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के ग्रामीण एवं आदिवासी इलाकों में कम्यूनिटी स्वास्थ्य पर काम कर रहे हैं. एक डॉक्टर होने के नाते उन्होंने केदारनाथ त्रासदी, केरल बाढ़ आपदा सहित कई संकटों और आपदाओं में लोगों की मदद की है. पिछले साल लॉकडाउन के दौरान वे छत्तीसगढ़ की सीमारेखा पर खड़े होकर, अप्रवासी लोगों एवं उनके परिवारों को बिहार, झारखंड और उड़ीसा में अपने घरों तक पहुंचने में मदद कर रहे थे.
वे लंबे समय से यूमेटा फाउंडेशन के साथ जुड़े हुए हैं. साथ ही वे 2019 से छत्तीसगढ़ में स्थित शहीद अस्पताल में भी अपनी सेवाएं दे रहे हैं. जन स्वास्थ्य व्यवस्था सीरीज़ में द थर्ड आई के साथ बातचीत में उन्होंने विकेन्द्रीकृत एवं कम्युनिटी द्वारा संचालित स्वास्थ्य मॉडल और उसकी प्रक्रिया पर विस्तार से चर्चा की.
शहीद अस्पताल के साथ जुड़े अपने काम के बारे में हमें कुछ बताएं. इसका उद्देश्य क्या है और यह कम्यूनिटी स्वास्थ्य मॉडल के भीतर कैसे काम करता है?
शहीद अस्पताल की नींव 1983 में रखी गई थी. ‘मेहनतकशों के स्वास्थ्य के लिए मेहनतकशों का अपना कार्यक्रम’ इसी विश्वास के साथ भिलाई स्टील प्लांट, बालोद, छत्तीसगढ़ में इसकी स्थापना हुई. दिवंगत यूनियन लीडर शंकर गुहा नियोगी ने एक सपना देखा था कि मेहनकश जनता का अपना अस्पताल हो, जहां उनकी हैसियत और पहुंच के भीतर अच्छी से अच्छी स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हों. यह अस्पताल इन्हीं सपनों का जीता-जागता आकार है. इसे बनाने वालों में कारीगरों के साथ स्टील प्लांट में काम करने वाले कर्मचारी भी शामिल थे.
अस्पताल के अलावा शंकर नियोगी ने शिक्षा, साक्षरता और नशा-मुक्ति केन्द्र के लिए भी सार्वजनिक ढांचों के निर्माण में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था. हम पिछले 25 से 30 सालों से न केवल दल्ली राजहरा के खदान मज़दूरों बल्कि बालोद के आसपास के गांव और आदिवासी समुदायों के लोगों को भी उचित एवं किफ़ायती दर पर स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवा रहे हैं.
एक संस्था के रूप में शहीद अस्पताल हमेशा से व्यापक स्वास्थ्य आंदोलनों का हिस्सा रहा है. हम अपने उद्देश्य – लोगों की पहुंच के स्तर पर एक बेहतरीन, नैतिक रूप से मज़बूत, आधुनिक उपकरणों से लैस, सभी के लिए समान स्तर की स्वास्थ्य सुविधाएं प्रदान करने में लगातार अग्रसर हैं. हम स्वास्थ्य के व्यवसायीकरण और इसमें बड़ी फार्मा कंपनियों की घुसपैठ का भी लगातार विरोध करते रहे हैं.
शहीद अस्पताल में रोज़ के करीब 150 मरीज़ों का इलाज योग्य डॉक्टरों और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं के समूहों द्वारा किया जाता है.
दरअसल, यहां के स्वास्थ्य कर्मचारियों का भी अपना अनूठा इतिहास है. हमारे बहुत सारे सहायक एवं स्वास्थ्यकर्मी पहले खदानों में काम किया करते थे. उन्हें विशेषज्ञ डॉक्टरों द्वारा फ़ील्ड में काम करने के लिए बक़ायदा प्रशिक्षित किया गया और बाद में वे अस्पताल के रोज़ ब रोज़ कामों में बतौर वॉलिन्टियर हाथ बंटाने लगे. कोई अकाउंट संभालता है, तो कुछ मरीज़ों की सहायता के लिए उन्हें मेडिकल भाषा की शब्दावलियों और ज़रूरी जानकारियों को उनकी भाषा में समझाने का काम करता है.
शहीद अस्पताल को चलाने के लिए वास्तव में हमें किसी बाहरी फंडिंग की ज़रूरत ही नहीं. हमारे यहां अस्पताल के एक बिस्तर की कीमत मात्र 10 रुपए है, वो भी यहां इतने मरीज़ आते हैं कि हमारी सारी लागत पूरी हो जाती है. कुछ हद तक आर्थिक ज़रूरतें सरकारी बीमा योजनाओं से मिलने वाली इंश्योरेंस की रक़म से पूरी हो जाती हैं. वैसे, सरकारी बीमा योजना में जिन्होंने रजिस्टर करवा रखा है उन्हें भी इलाज के लिए बहुत भारी ख़र्च नहीं करना पड़ता. उदाहरण के लिए एक सामान्य प्रसव की कुल लागत 1000 रुपए हैं, और अगर ऑपरेशन के ज़रिए बच्चे को निकालना पड़ा तो कुल ख़र्चा 5000 रुपए का होता है. जटिल से जटिल सर्जरी की कीमत भी अधिकतम 15000 रुपए है.
मतलब आपका कहना है कि एक अस्पताल चलाने के लिए इतना पैसा काफ़ी है? क्योंकि आश्चर्य की बात है कि शहरों के ज़्यादातर प्राइवेट अस्पताल डिलीवरी के लिए ही 30,000 रुपए से कम फ़ीस नहीं लेते हैं?
अगर आप शहीद अस्पताल के बनने की प्रक्रिया का इतिहास देखें, तो आपको पता चलेगा कि इसे बनाने वाले मज़दूर सुबह खदानों में काम करते थे और रात में अस्पताल के निर्माण कार्य में लग जाते थे. यहां तक कि इसे बनाने के लिए वे हर महीने अपने वेतन का एक हिस्सा दान करते थे. आज भी हमारी ट्रस्ट के सदस्यों में ज़्यादातर मज़दूर और कामगार ही शामिल हैं.
इतने सालों में भी हमारे वित्तीय ढांचें में कोई बदलाव नहीं आया है, और न ही हमने ओपीडी या किसी अन्य बीमारी के इलाज की फ़ीस ही बढ़ाई है. हमें सरकारी बीमा योजनाओं के ज़रिए भी इंश्योरेंस की रकम मिल जाती है, इसलिए आर्थिक रूप से कमज़ोर और हाशिए पर खड़े लोगों से बीमारी के नाम पर बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं के लिए मोटी-मोटी रक़म वसूलना हमारे उसूलों के ख़िलाफ़ है. हां, कभी-कभार ऐसा भी हुआ है कि वित्तीय घाटे में होने की वजह से लोगों को वेतन देने में एक या दो महीने की देरी हो गई है.
आज, हम अपने अस्पताल के 100 किलोमीटर के दायरे में रहने वाले समुदायों के लोगों को सभी प्रकार – प्रसूति, दांतों की चिकित्सा, बाल रोग से लेकर सर्जरी, स्त्री रोग और मेडिसिन से जुड़ी सभी प्रकार की स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवा पाने में सक्षम हैं. साथ ही हमारे यहां राष्ट्रीय एड्स नियंत्रण सेंटर (ICTC) के तहत एड्स एवं टीबी के मरीज़ों के लिए डीओटी (DOT) सेंटर की व्यवस्था भी है. समय-समय पर हमारे विभिन्न हस्तक्षेपों, विशेष रूप से बस्तियों में स्वच्छता और सामुदायिक स्वास्थ्य से जुड़े कार्यक्रमों ने कई युवाओं, ख़ासकर वे जो विकास के वैकल्पिक मॉडल में यक़ीन रखते हैं, को प्रोत्साहित किया और वे खुशी-खुशी हमारे साथ बतौर वॉलिन्टियर काम भी करते हैं.
शहीद अस्पताल के साथ काम करने के आपके अनुभवों में, जन स्वास्थ्य को लेकर आपकी समझ कैसे बनी और समय के साथ इसमें क्या बदलाव आए?
सार्वजनिक स्वास्थ्य का विस्तार बहुत बड़ा है, यह एक व्यापक शब्द है. मेरी नज़र में ये एक ऐसा तंत्र है जहां हर एक व्यक्ति, विशेष रूप से हाशिए पर धकेल दिए गए समुदायों में भी सबसे अंतिम पंक्ति में खड़े, आख़िरी इंसान तक स्वास्थ्य सुविधाओं को पहुंचाना है. लेकिन, मदद का अर्थ सिर्फ़ नाम के लिए पहुंच होना नहीं, बल्कि सभी तरह से आख़िरी व्यक्ति के जीवन के स्तर में सुधार से है.
देश में टैक्स देने वाले किसी भी व्यक्ति को यह नहीं मानना चाहिए कि जिनके पास इलाज के लिए पैसे हैं, स्वास्थ्य सेवाओं की पहुंच उन्हीं तक होनी चाहिए. स्वास्थ्य हमारा मौलिक अधिकार है और जन स्वास्थ्य प्रणाली सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध होनी चाहिए,
फिर चाहे वो किसी भी जाति, धर्म, लिंग या वर्ग से ताल्लुक रखते हों. सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की ज़िम्मेदारी है कि वो समाज में सभी तरह की ऊंच-नीच को ध्यान में रखते हुए एकरूपता बनाए रखने का प्रयास करे तथा उसमें इतनी क्षमता होनी चाहिए कि कोविड जैसी महामारी की मार भी वो झेल सके.
भारत में, मुझे नहीं लगता कि हम जन स्वास्थ्य को वास्तविक सच की श्रेणी में रख सकते हैं. आज़ादी के 74 साल बाद भी (और उससे भी पहले से), कई राष्ट्रीय स्तर के आयोगों ने प्राइवेट सेक्टर के विस्तार को रोकने तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की क्षमता को और विकसित करने तथा उसे सुचारू रूप से चलाने से जुड़ी कई अच्छी सिफ़ारिशे दीं. जैसे, कम से कम 50 बिस्तरों वाले प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों की स्थापना, 600 से 700 बिस्तरों की क्षमता वाले द्वितीय श्रेणी के अस्पताल, 2500 बिस्तरों की क्षमता वाले तृतीय श्रेणी के अस्पतालों की स्थापना. बुनियादी ढांचों में मूलभूत सुधार के साथ ही, इन सिफ़ारिशों ने यह भी सुझाया है कि हमारे मानव संसाधन – उदाहरण के लिए एमबीबीएस पूरा करने वाले डॉक्टरों को सार्वजनिक अस्पतालों में भी भर्ती कर लेना चाहिए ताकि प्राइवेट अस्पतालों को मौका ही न मिले कि वे इन्हें अपने में शामिल कर सकें.
दरअसल, भारत में पब्लिक हेल्थ कई बहुस्तरीय समस्याओं से घिरी हुई है. हाल ही में जारी की गई नीतिगत पॉलिसी में ‘गुणवत्तापूर्ण सेवाओं’ में बढ़ोतरी एवं ज़िला अस्पतालों की देखभाल के लिए प्राइवेट सेक्टर से जुड़ी कंपनियों को इसमें शामिल किए जाने का प्रावधान किया जा रहा है. लेकिन कोई ये नहीं समझता कि प्राइवेट कंपनियां हमेशा अपना फ़ायदा पहले देखती हैं. वे पूरी तरह से बाज़ार के अनुसार काम करती हैं. आगे यही होगा कि जो लोग कल तक इन ज़िला अस्पतालों में इलाज कराने में सक्षम थे, उनके ऊपर फ़िर से ये मुसीबत आन पड़ेगी कि वे अपनी जान देकर इलाज के बिल का भुगतान करें या फिर निजी अस्पतालों की सेवाओं का इस्तेमाल न करें.
ग्रामीण और आदिवासी समुदायों के लोगों के स्वास्थ्य एवं उनकी मृत्यु दर में क्या संबंध है? शहरी क्षेत्रों के आपके अनुभवों से क्या ये अलग है?
मुझे लगता है कि ग्रामीण और आदिवासी समुदाय के लोग किसी भी परिस्थिति से जूंझने के लिए भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक रूप से ज़्यादा सक्षम और मज़बूत होते हैं.
ऐसा या तो जीवन के प्रति उनके दृष्टिकोण की वजह से हो सकता है या अपने घर-परिवार या समुदायों में तीमाहे-छमाहे होने वाली मौतों से गुज़रने से भी हो सकता है. इसके पीछे यह भी कारण है कि यहां के लोगों में निराशा और असहाय होने की भावना ने उनके लिए स्वास्थ्य को प्राथमिकता के स्तर पर दूसरे या तीसरे पायदान पर खड़ा कर दिया है. उन्हें झोलाछाप डॉक्टरों या इलाज के पारंपरिक तरीकों पर ज़्यादा भरोसा होता है और वे अपने मरीज़ को अस्पताल तब तक नहीं लाते हैं जब तक वह बिलकुल मरने की स्थिति में न पहुंच जाए.
सबसे ज़्यादा दुखी करने वाली बात यह है कि वे मान चुके हैं कि ये सबकुछ ऐसे ही चलता है और जो हो रहा है वही उनके नसीब में लिखा है. उन्हें इस बात पर ज़रा भी गुस्सा नहीं आता या ये सवाल उनके मन में नहीं आता कि क्यों उन्हें बुनियादी स्वास्थ्य सेवाओं से भी दूर रखा जा रहा है? या क्यों उनके परिवार के लोग डॉक्टर या अस्पताल की लापरवाही से मर रहे हैं? या क्यों प्राथमिक केन्द्रों में डॉक्टर कोविड के मरीज़ों को छूने और उनका इलाज़ करने से इंकार कर देते हैं?
आख़िर उन्हें गुस्सा क्यों नहीं आता?
गरीबों में ये डर भर दिया जाता है कि ग़लती उनकी है क्योंकि वे अपने मरीज़ को सही समय पर अस्पताल लेकर नहीं आए. लागातार होने वाले हीन व्यवहार ने उनके मन में यह विश्वास बिठा दिया है कि अस्पताल में भर्ती होना या बेसिक ऑक्सीज़न सिलेंडर मिलना बहुत बड़ी बात है जिसके लिए उन्हें कृतज्ञ होना चाहिए. मेरे ख्याल से स्वास्थ्य कभी भी हमारे लिए सबसे महत्त्वपूर्ण नहीं रहा है, इतिहास में भी इससे जुड़ा कोई उदाहरण देखने को नहीं मिलता.
आदिवासियों के लिए उनके जंगल और ज़मीन की लड़ाई महत्त्वपूर्ण है, वहीं दलितों के लिए स्वाभिमान और जातिगत भेदभाव के खिलाफ़ लड़ाई उनकी प्राथमिकता है. स्वास्थ्य कभी भी प्रमुख मुद्दा नहीं रहा, जो अब बदल रहा है. महामारी के बाद के समय में हो रहे राजनीतिक आंदोलनों को देखकर तो ऐसा ही लगता है.
आपके अनुसार महामारी के दौरान वे कौन से सामुदायिक स्वास्थ्य मॉडल या रणनीतियां थीं जिन्होनें महामारी में सफलतापूर्वक काम किया है?
विकेन्द्रीकरण का मॉडल जहां अपना हित चाहने वाले समुदायों ने विशेषज्ञों के साथ मिलकर अपने लिए काम किया और अपने समुदायों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने की कोशिश की. महामारी के समय से हमारे कुछ सीनियर डॉक्टर्स आदिवासियों के स्वास्थ्य से जुड़े कार्यक्रमों के तहत महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में लंबे समय से काम कर रहे हैं, जहां ग्राम पंचायतों ने ज़िम्मेदारी लेते हुए एक सिस्टम तैयार किया. वे ये सुनिश्चित करते हैं कि कौन आइसोलेशन में रह रहे मरीज़ों की निगरानी करेगा, कोविड के मरीज़ों की कौन देखभाल करेगा, और हेल्थ वॉलिन्टियर्स और डॉक्टरों की किस प्रकार सहायता की जाए.
महामारी से जुड़ी सूचनाओं के प्रसार को भी बहुत ही व्यवस्थित ढंग से काम में लिया गया. लोगों को ये पता था कि अगर इमरजेंसी है तो किस नंबर पर संपर्क करना है या अगर दवाइयां चाहिए तो वे कहां मिलेंगी.
महाराष्ट्र में ग्राम पंचायतें हरकत में आ गईं और महामारी से बचाव के सभी तरीकों को उन्होंने अपने स्तर पर संभाला एवं उसकी रणनीतियां ख़ुद ही तैयार कीं. इससे कुछ क्षेत्रों में बीमारी को फैलने से रोकने में सफलता भी मिली. इससे यही पता चलता है कि समुदायों और स्थानीय सरकारों के बीच एक मज़बूत संबंध के ज़रिए सही दिशा में सफलता प्राप्त की जा सकती है.
क्षमता निर्माण एक ऐसी चीज़ है जिसे प्राथमिकता के आधार पर सबसे पहले किया जाना चाहिए, लेकिन हम देख रहे हैं कि सरकार फौरी तौर की सहायता जैसे उपायों पर पैसा लगा रही है और उसे भी वो अभूतपूर्व उपाय कह रहे हैं. उदाहरण के तौर पर, सरकार एक अस्पताल के लिए दो वेन्टिलेटर खरीदती है (बिना किसी को ट्रेनिंग दिए की उसे कैसे चलाना है), मीडिया में उसके प्रचार के लिए अधिकारी फोटो खिंचवा लेते हैं और फ़िर मीडियावाले एक-दो कॉन्सनट्रेटर और वैन्टिलेटर की खरीद के आधार पर रिपोर्ट तैयार कर देते हैं कि सरकार संकट की इस घड़ी का सामना कितने प्रभावी ढंग से किया है. जबकि उतने पैसे में एक पूरे गांव या कस्बे को प्रशिक्षित कर उनके भीतर परिस्थितियों से लड़ने की क्षमता का निर्माण किया जा सकता था.
क्या क्षमता निर्माण के कुछ उदाहरण आप हमसे साझा कर सकते हैं जिनका आप हिस्सा रहे हों और जिसे बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया हो?
हम, हमारी फाउंडेशन के ज़रिए छत्तीसगढ़ ज़िला प्रशासन के साथ गांवों में कुछ पायलेट प्रोजेक्ट्स शुरू करने को लेकर लगातार बातचीत कर रहे हैं. दूसरी लहर के वक़्त हमने देखा कि ज़्यादातर लोग अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दे रहे थे क्योंकि वे ये समझ ही नहीं पा रहे थे कि घर पर रहते हुए उनकी तबीयत कुछ ही पलों में ही भयानक तरीके से बिगड़ रही थी. इसलिए गंभीर मरीज़ों को जब अस्पताल लाया जाता तो उनको बचा पाना लगभग असंभव होता क्योंकि पहले ही बहुत देर हो चुकी थी.
इसलिए हमने एक स्क्रीनिंग टूल तैयार कर, आशा वर्कर को इसे इस्तेमाल करने के लिए प्रशिक्षित किया. स्क्रीनिंग टूल में एक ऑक्सीमीटर और 6 मिनट वॉक टेस्ट शामिल है जो कोविड के मरीज़ की वास्तविक स्थिति को बताने में सहायक है.
आशा की रिपोर्ट के अनुसार अगर कोई रोगी रेड ज़ोन में आता है तो, उन्हें फौरन निकटतम प्राथमिक केन्द्र में रेफर कर दिया जाता है, जहां ऐसे मरीज़ों की इलाज के लिए डॉक्टरों को प्रशिक्षित किया गया जाता है.
प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों में ऑक्सीज़न सिलेंडर, कॉन्सनट्रेटर और दवाइयों की उपलब्धता सुनिश्चित की गई और डॉक्टरों को इसके लिए प्रशिक्षित किया गया कि कोविड का इलाज़ कैसे करना है. अगर, मरीज़ की तबीयत फ़िर भी ख़राब होती रही हो तो उन्हें सेकेन्डरी हेल्थ सेंटर (SHC) या कम्यूनिटी हेल्थ सेंटर (CHS) भेज दिया जाता है जहां उनकी स्वास्थ्य की स्थिति की नियमित रूप से निगरानी की जाती है. फिर भी सुधार न होने पर उन्हें ज़िला अस्पताल रेफर कर दिया जाता है.
हम गांव और ज़िला स्तर की स्वास्थ्य व्यवस्था के बीच संबंधों की कड़ी को विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं. साथ ही कोविड के मरीज़ों के लिए स्थानीय स्तर पर हेल्पलाइन की सुविधा भी उपलब्ध हो, ऐसी कोशिश है. फ़िलहाल हम इस मॉडल को प्रभावी ढंग से लागू करने में सफल रहे हैं और अब इसके अच्छे परिणाम भी दिखाई देने लगे हैं. इसलिए अगर कोई तीसरी लहर आती है तो हमें पता है कि उससे निपटने के लिए हमारे पास पहले से ही एक मॉडल तैयार है.
हाल ही में छत्तीसगढ़ सरकार ने गांवों में प्राइवेट हेल्थकेयर सेंटर्स खोलने के लिए ग्रांट देने की घोषणा की है. ऐसे में यह समुदायों के स्वास्थ्य को किस तरह प्रभावित करेगा?
शुक्र है कि इस घोषणा को अभी तक अंतिम रूप नहीं दिया गया है और कई कार्यकर्ता, सिविल सोसाइटी और राजनीतिक संगठन इसके खिलाफ़ लगातार विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं और इसे वापस लेने की मांग कर रहे हैं. इसलिए अभी भी इसे अमल में न लाने की संभावना को लेकर उम्मीद की किरण बची है. ये तो बहुत साफ़ है कि इस तरह के कदम यहां के लोगों के लिए बेहद विनाशकारी हैं. प्राइवेट सेक्टर कभी भी बराबरी और सभी की पहुंच वाली स्वास्थ्य व्यवस्था का आश्वासन नहीं देता.
इससे यह भी नुकसान होगा कि अभी जो स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं वो भी महंगी हो जाएंगी और बहुत अधिक संभावना है कि मध्यम और गरीब वर्ग के लोग, गरीबी रेखा से नीचे की ओर फ़िसलने पर मजबूर हो जाएंगे. पहले ही वे महामारी की वजह से आर्थिक रूप से कमज़ोर होते जा रहे हैं.
इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है.