ग्रामीण महिला पत्रकार और उनके ट्रोल्स, भाग-2

इंटरनेट की दुनिया में ग्रामीण महिला पत्रकार के अनुभव.

चित्र साभार: खबर लहरिया

द थर्ड आई पर खबर लहरिया की पूजा पांडे और सुनीता प्रजापती के बीच बातचीत जारी है. जिसमें वे बात कर रही हैं ग्रामीण पत्रकार होने के अनुभव पर, एक ग्रामीण पत्रकार के ऑनलाइन होने पर, ट्रोल्स व प्रशंसकों के बीच अंतर (या उसके न होने) पर, हिंसा पर और उस मोलतोल पर जो ऑनलाइन दुनिया के असली दुनिया में मिल जाने पर पैदा होते हैं.

इसे पहली बार पॉइंट ऑफ व्यू और द इंटरनेट डेमोक्रेसी प्रोजेक्ट द्वारा 2019 में इमेजिन ए फेमिनिस्ट इंटरनेट पर प्रकाशित किया गया था.

सुनीता अपने ‘जासूस या जर्नलिस्ट’ शो में

एक नट के जैसे ऑनलाइन ऑफलाइन की दुनिया के बीच चलना

“देखिए, जब मैं छोटी थी तब भी मेरी लड़कियों के मुक़ाबले लड़कों से ही ज़्यादा बनती थी.”

पूजा पांडेय: जिन मर्दों के साथ आपकी दोस्ती है, क्या उनमें से ज़्यादातर मीडिया क्षेत्र के ही साथी हैं.

सुनीता प्रजापति: हां, उनमें से ज़्यादातर. कुछ पढ़ रहे हैं, कुछ दिल्ली में हैं, एक-दो प्राइवेट टीचर हैं. मगर हां, ज़्यादातर मीडिया से हैं.

पूजा: पत्रकार सुनीता 22 साल की सुनीता भी हैं. 22 साल की सुनीता एक औरत भी है. यह 22 साल की सुनीता उत्तर प्रदेश के महोबा में भी रहती है. आप कैसे इन सब को अपनी डिजिटल पहचान में एक साथ लाती हैं?

सुनीता: एक बार मैंने अपनी तस्वीर पोस्ट की और एक बंदे ने जिसे मैं बहुत अच्छी तरह जानती भी नहीं थी, उस पर ‘आई लव यू’ कमेंट किया. मैं एक दिन उसे रास्ते में मिली और इस हरकत के लिए डांटा – कि उसे कुछ भी लिख देने से पहले उसके नतीजों पर सोचना चाहिए, ये पूरी दुनिया के सामने जा रहा है और मैं इस हरकत के ख़िलाफ़ कार्यवाही कर सकती हूं, वगैरह. उसने ज़ाहिर है माफ़ी मांगी और बहाने बनाए – कि कैसे कोई और उसके अकाउंट मे घुस गया था और उसने लिख दिया. ख़ैर, मैंने अपने आप से उस कमेंट को डिलीट कर दिया क्योंकि आप ऐसा कर सकते हैं, जो अच्छा है. मगर मैंने उससे सफ़ाई ज़रूर मांग ली, फिर चाहे इसके लिए मुझे उसका सामना ही क्यों न करना पड़ा.

मैं अपने अकाउंट को खुद चलाती हूं और मेरे परिवार में से, कोई इस पर नज़र नहीं रखता. मगर परिवार की तरफ़ से यही प्रतिक्रिया आती कि तुम्हारी ही ग़लती है.

ख़ैर, एक बात साफ़ है, लोकल में, मैं अपनी छवि के लिए ज़िम्मेदार हूं. मुझे इस पर ध्यान देना है और इसे बना कर रखना है क्योंकि मैं यहां काम करने के लिए हूं. मुझे अपनी ज़िंदगी में अभी बहुत ऊपर जाना है, आगे बढ़ना है. मैं इस सब में नहीं पड़ सकती.

पूजा: जिस छवि की तुम बात कर रही हो वो कैसी होनी चाहिए?

सुनीता: सबसे पहले, वह एक अच्छी पत्रकार है. वह अपने काम में चुस्त है. मुझे इसके लिए जाना जाना चाहिए. और फिर, जैसी मैं हूं, यह मेरा स्वभाव है, हंसने बोलने का, सबसे बात करने का चाहे वह पुरुष हो या महिला. मेरे स्वभाव में है हंसी मज़ाक करना, सबसे बातें करना, वे किसी भी जेंडर के हों. मैं नहीं चाहती कि कोई सोचे कि मैं बस एक ही बंदे से बात करती हूं क्योंकि मैं ऐसी नहीं हूं. मुझे सबसे बात करना पसंद है. मैं चाहती हूं कि कुछ हद तक मैं सभी को जानूं और सबसे ज़रूरी मैं सबसे बहुत कुछ सीखना चाहती हूं. मैं ऐसी ही हूं और मैं चाहती हूं कि ये बात लोग मेरे बारे में जानें कि ये सुनीता है. यही सब है जो सुनीता को सुनीता बनाता है.

सुनीता के ‘डियूटी पर शराब पीते पुलिसवाले’ ट्वीट का स्क्रीनशॉट.

पूजा: मैं ज़िंदगी जीने के इस तरीके को समझती हूं – कि आप जैसे हैं वैसे ही जाने और पसंद किए जाएं. जिन्हें इससे परेशानी है वे जाएं भाड़ में. मगर ऐसा हो पाना औरतों के लिए ज़्यादा मुश्किल होता है. है न?

सुनीता: मुश्किल तो है ही मर्दों को ये समझा पाना कि ज़रा सा मैं उनके साथ हंस-बोल क्या ली इसका मतलब यह नहीं कि वे मेरे होंठों, आंखों के बारे में बात करने लगें. मेरी समझ में नहीं आता कि कैसे एक बात इतनी आगे बढ़ जाती है.

व्हाट्सएप्प पर, अगर मैं अपनी तस्वीर (डीपी) डालती हूं, लोग उसे डाउनलोड करके ‘प्यारी तस्वीर है’/ ‘नाइस फोटो’ लिख कर मुझे ही भेज देते हैं. और ज़ाहिर है कि मैं कैसी दिखती हूं, मेरे आंखों, होंठों पर भी कमेंट आते हैं. इस वजह से मैंने अपनी तस्वीर (डीपी) लगानी ही बंद कर दी है. मुझे पहले से ही पता है कि मैं कैसी दिखती हूं, कितनी आकर्षक नज़र आती हूं. मगर मुझे यह तुम्हारी ज़ुबान से नहीं सुनना. यह मूर्खता से भरा है.

पूजा: तो कुछ लोग यह भी बोल सकते हैं कि अगर वो तस्वीरें सार्वजनिक हैं, तो इसमें क्या बुरा है अगर कोई उनकी तारीफ़ कर देता है? कब आपको और आपके काम को सच्चे दिल से पसंद किया जा रहा है या तारीफ़ की जा रही है और कब वह हिंसा या अतिक्रमण है, यह रेखा आप कब और कैसे खींचती हैं?

सुनीता: इसके कई पहलू हो सकते हैं, है न? जैसे मैंने अभी अपने शो की शुरुआत की है, ठीक? मैंने इसे कई लोगों को भेजा. कई लोगों की प्रतिक्रिया सकारात्मक रही, ‘बहुत अच्छा है, बहुत बढ़िया लगा, आपके बोलने का तरीका बहुत बढ़िया है, एडिटिंग बहुत अच्छी है, कहानी बढ़िया सुनाई’. और कुछ ऐसी तारीफ़ें भी आईं जो व्यक्तिगत चीज़ों को लेकर थीं, जैसे – ‘आपके कपड़े बहुत अच्छे हैं’, ‘आपके कान का बहुत सुंदर है’, ‘आपके होठों की लिपस्टिक अच्छी लग रही है’, इस तरह के कमेंट. अब ऐसा तो नहीं कि ये लोग मैं जो बोल रही हूं, मेरे शो का जो विषय है उसमें दिलचस्पी ले रहे हैं. सही?

पूजा: और अगर औरतों ने ये बातें आपके शो के बारे में कही होती जैसे – आपकी लिपस्टिक का रंग वगैरह, फिर?

सुनीता: आपको पता है, औरतों की बातों में एक हलकापन होता है. ख़ासकर, गांव की औरतों में – वे चीज़ों को ज़्यादा गंभीरता से नहीं लेतीं. वे आपकी खिचाई करना पसंद करती हैं, उनकी हंसी मज़ाक की आदत होती है. यह उनका आपको जानने का तरीका भी है. अगर आपने उनके लिपस्टिक को लेकर कमेंट पर घमंडी व्यवहार दिखाया तो वे आप पर अक्खड़ होने का तमगा लगा देंगी. और, औरतें कभी भी हिंसा की वजह नहीं हो सकती. ज़्यादा से ज़्यादा वे भी लिपस्टिक का वही रंग लगाना चाहेंगी. हो सकता है वो मेरे जैसा स्वेटर ख़रीदना चाह रही हो. उनके कमेंट करने की ये वजहें हो सकती हैं. मर्दों के साथ किस्सा अलग है, वे सिर्फ कमेंटबाज़ी करते हैं कि महिला है तो मज़े लो, बस.

पूजा: आप ऑनलाइन और ऑफ़लाइन अपनी निजी और व्यावसायिक ज़िंदगी के बीच रेखा कैसे खींचती हैं? क्या आप मुझे कुछ उदाहरण दे सकती हैं?

सुनीता: उदाहरण के लिए, दरोगा वाली घटना में, एक पत्रकार होने के नाते यह मेरी ज़िम्मेदारी है कि मैं इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाऊं. ये जाति आधारित भेदभाव हमारे देश से ख़त्म हो जाना चाहिए. तो, मेरा फर्ज़ है कि मैं इसको दुनिया के सामने लाऊं. लेकिन अगर दो लोग रेस्टोरेंट जैसी चीज़ को लेकर बहस कर रहे हैं कि वहां के खाने का स्वाद कैसा है. ऐसे में, मुझे इस बहस में दख़ल देने या अपनी राय बताने की ज़रूरत नहीं है. यह एक निजी और मेरे नज़रिए से फालतू बहस है जिसमें मेरी कोई दिलचस्पी नहीं. और अगर मैं इसमें पडूंगी तो फालतू की प्रतिक्रियाओं का शिकार बनूंगी.

ऑफ़लाइन भी ऐसा ही कुछ है – अगर मैं कहीं जा रही हूं और रास्ते में दो मर्दों को बहस करते देखती हूं, तो मुझे उसमें दख़ल देने की ज़रूरत नहीं है. ख़ासकर अगर ये ड्रिंक वाली लड़ाई (जब लोग लड़ने लगते हैं क्योंकि उन्होंने शराब पी हुई है) है, जो सबसे आम है, वहां जाने की ज़रूरत ही क्या है? वे हिंसा पर उतरेंगे ही और आप भी इसकी चपेट में आएंगे. लेकिन हां, अगर मुझे लगता है कुछ ऐसा है जिस पर मुझे ध्यान देना चाहिए, तो ज़ाहिर है कि मैं इसमें दख़ल दूंगी. अगर कहीं महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा पर बात होगी, तो मैं ज़रूर बोलुंगी. मैं एक औरत हूं और यह मेरे ख़िलाफ़ भी हो सकता है. तो, मैं जो सोचती हूं सबके सामने रखूंगी. फिर चाहे वो ऑनलाइन हो या ऑफ़लाइन.

जब लोग चुटकुले साझा करते हैं तब भी आपस में बहस करने लगते हैं. हां, अगर कोई सेकसिस्ट चुटकुला है जिसमें किसी व्यक्ति के लिंग के आधार पर भेदभाव और पक्षपात दिखाई देता है, तो मैं कमेंट ज़रूर करूंगी क्योंकि मेरी नज़र में यह हिंसा है.

मैंने कल रात ‘लिपस्टिक अंडर माई बुर्का’ फिल्म देखी. उसमें अभिनेत्री बता रही थी कि उसे जीन्स नहीं पहनने दी गई, वगैरह. मेरे लिए भी कुछ ऐसा ही है. अगर ये व्यक्तिगत आज़ादी के बारे में है जिसे कोई छीनना चाह रहा है, चाहे वह चुटकुले के रूप में हो या वास्तविक हिंसा, दोनों से मुझे फ़र्क पड़ता है और मैं इसके ख़िलाफ़ बोलुंगी.

पूजा: आप इसे जिस तरह बता रही हैं, सुनकर यह काफी सीधा-साधा और काफी व्यावहारिक (Practical) लग रहा है!

सुनीता: है ही! उदाहरण के लिए अगर आप ऑफिस जाती हैं तो इन समस्याओं से रोज़ जूझती हैं. मगर, आपको पता नहीं कि कौन इस चीज़ पर नज़र रख रहा है कि हर दिन आप कौन-सी सड़क से जा रही हैं या कौन-सा मोड़ मुड़ रही हैं. कौन कहां पर ताड़कर बैठा है, यह हमें नहीं पता है. मैं ऑनलाइन जितना सुरक्षित रह सकती हूं, उतना रहने की कोशिश करती हूं. कम से कम अब, जब मुझे इन चीज़ों का पता चल गया है. आगे बढ़ो, बहुत अच्छी बात है, लेकिन सुरक्षित रहते हुए – मतलब, सब जानते हुए आगे बढ़ो. मैं इसे इसी तरह देखती हूं. मैं ख़तरों को जानती हूं, उन्हें ध्यान में रखती हूं और सब जानते हुए आगे बढ़ती हूं. मगर जानना बहुत ज़रूरी है.

पूजा: आपको लगता है कि सुरक्षित रहना और आवाज़ उठाना, एक साथ हो सकता है?

सुनीता: हां, कुछ अर्थों में, क्योंकि सुरक्षित रहना, चुप रहने या अपनी आवाज़ दबा देने से अलग है. दब के नहीं रहो. और कभी ग़लत बात को या तुम्हारे साथ जो बुरा किया जा रहा है, उसे बर्दाश्त मत करो. अगर कुछ ग़लत होता देखो, तो अपनी आवाज़ ज़रूर उठाओ. लेकिन हर चीज़ में कूद पड़ने की ज़रूरत नहीं है सिर्फ इसलिए कि आप ऐसा करना चाहते हैं. समय के साथ, दरअसल, पिछले एक साल में ही मैंने फ़ेसबुक की सेटिंग्स को अच्छी तरह जान-समझ लिया है. कैसे मैं यह चुन सकती हूं कि कौन मेरी तस्वीरें देख सकता है या मुझे ढूंढ सकता है, वगैरह. मैंने फेसबुक सेटिंग्स को अपनी इच्छा के अनुसार बदल दिया है.

इंटरनेट बहुत अच्छी चीज़ है. मगर इसमें बहुत बुराई भी छिपी है. ज़्यादातर लोगों को इसके बारे में पता नहीं है. मुझे भी पता नहीं था और फिर जिसे हम जानते नहीं उससे डर भी लगता है. तो, अच्छा है कि हम चीज़ों को जान लें. यह भी सुरक्षित रहने का एक तरीका है.

पूजा: संतुलन क्या है? और इस संतुलन को बनाए रखने की ज़रूरत क्यों है? आपको क्या लगता है बुरे से बुरा क्या हो सकता है?

सुनीता: सोचिए, मेरी कोई तस्वीर बेहूदे तरीके से सामने आ जाती है. ऐसा संभव है, है न? यह मेरे लिए एक बड़ी समस्या बन सकता है. ऐसा क्यों? इसलिए नहीं कि मेरे और मेरे ‘बुरे’ चरित्र के बारे में झूठी अफवाहें फैलाई जाएंगी. जो होगा ही. मगर ये सब फालतू की चर्चा है और इससे मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता.

व्यक्तिगत रूप से मेरे लिए सबसे बड़ी समस्या यह होगी कि मेरी आज़ादी पर सवाल खड़ा हो जाएगा. इस समय, काफी मोल-भाव करके, मैंने और मेरे माता-पिता ने मेरी ज़िंदगी मे ये आज़ादी की सीमाएं तय की हैं. मैं घर में अपनी मर्ज़ी से कभी भी आ-जा सकती हूं, मेरा काम लड़कियों के माने जाने वाले कामों से हट कर है, मैं काफी सफर करती हूं. अगर सिर्फ एक तस्वीर जैसा कुछ मुश्किल से मिली मेरी यह आज़ादी छीन ले, जो हो ही सकता है, तो इससे मेरी ज़िंदगी बर्बाद हो सकती है. है न?

मेरे माता-पिता को इंटरनेट की ज़रा भी जानकारी नहीं है. उन्हें पता ही नहीं कि ये कैसे काम करता है. उन्हें समझ ही नहीं आएगा कि यह सब क्या है. वे बस ये मान लेंगे कि मैंने ही कुछ ग़लत किया होगा, मैंने उनसे कुछ छिपाया है. वे ये जानते ही नहीं हैं कि क्या कहां जा सकता है, कैसे और क्यों, और कितना तेज़ी से – सिर्फ मोबाइल पर एक बटन दबा कर. उन्हें बस यह पता है कि मैं कुछ रिपोर्टिंग का काम करती हूं, इसके लिए जन सभाओं, थानों वगैरह में जाती हूं. वे कम से कम इस जन्म में तो पूरी तरह से नहीं समझ पाएंगे कि इंटरनेट की एक अलग ही दुनिया है. उनको इसका आभास भी नहीं है.

अगर ऐसा कुछ हुआ, मुझे पक्का पता है कि मैं चाहे कुछ भी बोलुंगी उन्हें अच्छा नहीं लगेगा. उन्हें धक्का लगेगा और वे खाली प्रतिक्रिया देंगे. उनके सपने टूट जाएंगे. उनके लिए दुनिया ही ख़त्म हो जाएगी और उनको मेरे ऊपर रोक लगाने के अलावा और कोई चारा दिखाई नहीं देगा.

पूजा: ये लड़कों के लिए कैसे अलग है?

सुनीता: मेरे भाइयों ने अपने फ़ेसबुक अकाउंट बना लिए थे, साथ ही वे व्हाट्सएप्प भी इस्तेमाल कर रहे थे और किसी को इसका पता भी नहीं था. ये कोई मुद्दा ही नहीं था. मगर मुझे याद है कि जब मेरे अकाउंट बनाए गए थे और मैंने सोशल मीडिया इस्तेमाल करना शुरू किया था तब मेरे भाई मेरे फोन की पूरी जांच पड़ताल करते थे कि मैं कर क्या रही हूं. मैं बहुत गुस्सा होती थी, उन्हें फोन दिखाने से मना करती थी. मैं उन्हें फोन देने से पहले ऐसी चीज़ें डिलीट कर देती थी जिनके बारे में मुझे पता होता था कि वे ऐतराज़ करेंगे. मगर उनके लिए ये सब करना ठीक था क्योंकि वे लड़के थे.

मेरे छोटे भाई हैं और ये मैंने अपना सीक्रेट मिशन बना लिया है कि उन्हें ऑनलाइन दुनिया के बारे में जागरूक बना दूं ताकि वे इसका इस्तेमाल करते हुए सावधान रहें. देखिए, लड़के एक बार भी इन सब चीज़ों के बारे में नहीं सोचते. मेरा मतलब है, उन्हें ज़रूरत ही नहीं है.

मैं अपने भाइयों को इस बारे में सलाह देती रहती हूं कि वे ऑनलाइन क्या कर रहे हैं. ऑनलाइन कितना समय बिता रहे हैं. वे मेरे फ़ेसबुक पर हैं, तो मुझे पता चलता रहता है कि वे क्या कर रहे हैं. जैसे, उन्होंने कोई अजीब तस्वीर साझा की है या किसी बेकार ग्रुप का हिस्सा बन गए हैं. जैसे कई फ़ेसबुक पेज हैं जो स्थानीय लड़कों के टाइमपास के लिए हैं – हंसो हसाओ, लड़की पटाओ – ये लड़कों का समय ही बर्बाद करते हैं. ये कुछ लड़कियों की तस्वीरें डालते हैं और कहते हैं शेयर करो, लाइक करो, नंबर दे दो, वगैरह. कई लोग इसमें शामिल हो जाते हैं क्योंकि ऑनलाइन ऐसे ही आपको शौहरत मिलती है. जब मैंने अपने भाइयों को इन पर देखा, तो मैंने उनसे कहा कि ऐसे पेजों से बाहर निकल जाएं. ये चीज़ें अच्छी नहीं होती हैं. मैंने उन्हें बताया कि फ़ेसबुक निगरानी रखता है कि तुम कैसे फ़ेसबुक इस्तेमाल कर रहे हो, तुम्हारा डाटा जमा करता है. उन्हें ये सब बातें पता होनी चाहिए और उनके ध्यान में रहनी चाहिए.

पूजा: मुख्यत: तुम उन्हें डरा देती हो?

सुनीता: थोड़ा डरना अच्छा भी है! वे युवा हैं और उन्हें इन चीज़ों के बारे में कौन सिखाएगा? सुरक्षित रहना उनके लिए भी तो ज़रूरी है.

ट्रोल से बात करो: सच्चे सवाल, सच्चे जवाब

पूजा: आप स्वीकृति से गुस्से को कैसे अलग करती हैं? क्या नकारात्मक टिप्पणियां और बुरा बोलना भी एक मौका है…

सुनीता: पहली बार मैं, एक चेतावनी देकर/ थोड़ी डांट-फटकार लगाकर छोड़ सकती हूं, जैसे लिपस्टिक से संबंधित टिप्पणी में मैं कहूंगी कि ‘आपके घर में कोई नहीं लगाता लिपस्टिक, जो आपको मेरी ही दिख रही है?’ तो ये हल्का सा जवाब है, मगर आशय स्पष्ट है. ध्यान से, तुम्हारी टिप्पणी मुझे पसंद नहीं आई. इसके बाद ज़्यादातर ऐसा दोबारा नहीं करेंगे. इसके बाद भी अगर कोई करता है, तो मैं अपनी खीज या गुस्से का स्तर और बढ़ा दूंगी. और जैसाकि मैंने पहले भी किया है इस मामले को ऑफ़लाइन भी ले जाउंगी. ज़्यादातर, पहली बार नाराज़गी दिखाने पर ही मुझे काफी समर्थन मिल जाता है तो बात ज़्यादा आगे नहीं बढ़ती.

मैं सभी कमेंट्स का जवाब ज़रूर देती हूं. अगर मैंने किसी एक के कमेंट का जवाब दे दिया और दूसरों के कमेंट खाली लाइक कर दिए, तो जिनको जवाब नहीं दिया उन्हें अच्छा नहीं लगेगा. इसलिए मैं सबको जवाब देती हूं. मुझे लगता है जुड़े रहना ज़रूरी है. मैंने कहीं पढ़ा था, ‘अगर किसी को इज़्ज़त दोगे, तभी वापस इज़्ज़त मिलेगी.

यह बात मुझे हमेशा याद रहती है और लोगों की मौजूदगी का अहसास रहता है. आज लोग मुझे जानते हैं, मुझसे बात करते हैं, मुझे देखते हैं तो इन्हें साथ लेकर चलना है न.

ये ज़िंदगी और काम दोनों के लिए ठीक है. यह वैसा ही है जैसे, अगर हम कहीं जा रहे हैं, तो हो सकता है हमें कुछ लोगों से रास्ता पूछने के लिए रुकना पड़े, किसी और से पानी मांगना पड़े. और कुछ बदतमीज़ लोगों से भी निपटना पड़े. ये सब हमारे सफ़र का हिस्सा है.

चाहे ये अच्छा है या बुरा, आपको संपर्क में रहना पड़ता है. पहली बार जब बुरी प्रतिक्रिया आए तो आप उसे बेनिफिट ऑफ़ डाउट (संदेह लाभ) दे सकती हैं– जैसे ट्रोलिंग – मगर उसके बाद नहीं. लेकिन अपने आप को सबसे अलग कर लेने की ज़रुरत नहीं है.

क्या पता उससे कोई काम ही पड़ जाए, है न? तो बेहतर है कि आप किसी तरह से संपर्क में रहें – हेलो, हाई तक रहना. अगर मैं किसी ऐसे बंदे से सड़क पर मिलती हूं जिसने ऑनलाइन मुझे ट्रोल किया है और वो मुझे स्टेशन तक लिफ्ट दे सकता है. अगर मुझे वहां जाने के लिए और कोई वाहन नहीं मिल रहा है, तो हो सकता है कि मैं उसके साथ ही स्टेशन चली जाऊं. लेकिन अगर मैंने उसे सोशल मीडिया पर हर जगह ब्लॉक किया हुआ है तो ऑफलाइन भी मैं उससे इसके लिए नहीं बोल सकती. दूसरी ओर, अगर मैंने हेलो-हाई तक का रिश्ता बनाया हुआ है, फिर मैं ऐसा कर सकती हूं, सही?

मैं इस क्षेत्र के लिए एक अजीब प्राणी हूं– एक महिला पत्रकार. इसके ऊपर, मैं अपने दोस्ताना मिज़ाज को अपनी पहचान का हिस्सा बनाना चाहती हूं और वह भी ऐसे कि लोग बेकार के निष्कर्ष न निकाले. मुझे यह पता है कि ये एक लड़ाई है जो मुझे हर रोज़ लड़नी है.

होली मस्ती के नाम पर समाज द्वारा वैधता प्राप्त उत्पीड़न पर सुनीता द्वारा चलाए गए फेसबुक लाइव के लिए प्रोमो पोस्टर.

पूजा: तो जैसे-जैसे ऑनलाइन आप खुल रही हैं, मज़ा भी आ रहा है?

सुनीता: हां, मुझे अपने काम से प्यार है और मैं कभी उबाऊ काम नहीं कर सकती. यह काम कभी सिर्फ एक नौकरी नहीं बन सकता. सिर्फ इसलिए नहीं कि ख़बर लोगों तक पहुंचानी है बल्कि इसलिए क्योंकि इसमें मुझे मज़ा आता है. लोगों से सूचना प्राप्त करना और सटीकता से अपनी स्टोरी बनाना मज़ेदार है. अगर मेरे पास पूरी सूचना नहीं है तो हो सकता है मुझे 10 लोगों से बात करनी पड़े. तो इसमें मज़ा आना चाहिए, सही? उन 10 लोगों से बात करना उबाऊ न हो. हर किसी के साथ सहज रिश्ता होना चाहिए. लोगों को यह न लगे कि मैं उनसे कुछ कुरेद रही हूं और ये भी नहीं लगना चाहिए कि मैं तो कुछ ज़्यादा ही फ्री हूं – इस तरह से ही मैं काम करूंगी, इसी तरह मैं काम करती हूं.

(पहला भाग यहां पढ़ें).

24 वर्षीय सुनीता प्रजापति खबर लहरिया में पत्रकार हैं. सुनीता महोबा ज़िले से हैं, जो उस जगह से 100 किलोमीटर दूर है जहां पहली बार खबर लहरिया ने जड़ें जमाईं थीं. सुनीता का परिवार एक पत्थर की खदान के कोने पर रहता है. उनका गांव बारीक सफ़ेद धूल से ढका रहता है जो पत्थर तोड़ने के लिए लगातार चल रहे विस्फोटों और क्रशर मशीनों से उड़ती है. उनकी बहन का इस इलाके में रहने वाले कई और लोगों की तरह ही टीबी की बीमारी से देहांत हो गया था. सुनीता जब स्कूल में थीं तो खुद भी इस खदान में काम करती थीं और अपना स्कूल का खर्च इसी कमाई से उठाती थीं. उन्होंने खबर लहरिया में काम करना 2012 में शुरू किया जब वे 18 साल की थीं. गुज़रे सालों में, सुनीता ने राजनीतिज्ञों, मीडिया और खान कांट्रैक्टरों के गठजोड़ और उत्तरप्रदेश मे महिलाओं के खिलाफ हिंसा से जुड़ी ख़बरों और रिपोर्टों के साथ ही कई अन्य महत्त्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दों पर काम किया है.

पूजा पांडे एक लेखक और संपादक हैं जिन्हें विभिन्न मीडिया आउटलेट्स में काम करने का 17 साल से अधिक अनुभव है. इनमें कला और संस्कृति पर मशहूर पत्रिका फ़र्स्ट सिटि शामिल है, जहां उन्होंने संपादक के रूप में काम किया था. उनकी किताबों में ‘रेड लिपस्टिक’ (पेंगुइन रैनडमहाउस, 2016),‘ट्रांसजेंडर अधिकार एक्टिविस्ट लक्ष्मी की जीवनी’ और ‘मॉमस्पीक’ (पेंगुइन रैनडमहाउस, 2020),‘भारत में मातृत्व के अनुभव पर एक नारीवादी खोज’ शामिल हैं. अंतरनुभागीय (intersectional) यानी अलग-अलग सामाजिक वर्गों द्वारा किए जाने वाले नारीवादी आंदोलनों के लिए उनका लगाव 2017 में इन्हें खबर लहरिया ले आया. जहां उन्होंने संपादकीय, पहुंच, साझेदारी, से संबंधित विभागों में काम किया. फिलहाल वे, यहां चंबल मीडिया की कार्यनीति प्रमुख के रूप में कार्यरत हैं.

इस लेख का अनुवाद सादिया सईद ने किया है.

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