@अरुणा निमसे
...
१. "क्या जेल में लोग काम करते हैं?"
रविवार की शाम अक्सर जेल विज़िट की प्लॅनिंग में चली जाती है. जेल में जो हमारे क्लाइंट्स हैं उनके परिवारवालों से मिलना, वकील या किसी भी और तरह का फॉलो-अप करना है, वो सारा काम रविवार की शाम तक निपटाना होता है क्योंकि सोमवार को जेल जाना है. सोमवार को हमारी सभी बंदी महिलाएं आस लगाकर बैठी होती हैं कि ‘दीदी आएंगी और हमें हमारा अच्छा-बुरा जो भी हो, वह संदेश मिलेगा.’ उनकी ये आस मुझे तनाव में डालती है. मुझे बहुत ज़्यादा प्रेशर और ज़िम्मेदारी का अहसास होता है.
ऐसे ही सोमवार की एक सुबह, सारे फॉलो-अप लेकर मैंने और उमा ने थाने रेलवे स्टेशन के बाहर से ऑटो लिया और जेल के गेट पर पहुंचे. वहां पहुंचकर ऑटोवाले ने मज़ाक में कहा, “दीदी, गेट के अंदर तक लेना है?” मैंने कहा, “चलो आपकी तैयारी है तो.” वो डर गया, “नहीं बाबा जेल के गेट के अंदर कौन जाएगा!”
उसके हाव-भाव देखकर अचानक लगा कि समाज में जेल के प्रति कितना डर है. गेट के भीतर और बाहर दो एकदम अलग दुनियाएं हैं.
मैं गेट के अंदर गई. रास्ते में जो स्टाफ मिले उनसे नमस्ते, हेलो-गुड मॉर्निंग कहते, मुस्कुराते मैं अंदर की तरफ जाती गई. जेल के एकदम भीतर जाने से पहले गेट के पास ही हमारे लिए बैग रखने की सुविधा है. हम दोनों ने वहां अपना बैग रखा और डायरी-पेन, ट्रेनिंग मटेरियल लेकर अंदर चले गए. हमारी एंट्री हुई और विज़िटर आईडी मिला जिसे गले में डाल हम स्क्रूटनी वाले रूम में गए. वहां, हमारी और हमारे सामान की अच्छी तरह से चेकिंग हुई. और उसके बाद आखिरकार हम महिला विभाग पहुंचे.
वहां एक बार फिर रजिस्टर में एंट्री करनी होती है. आज वहां कुछ नए स्टाफ दिखाई दिए. इसके अलावा जो ऑफिस में क्लायंट काम करते हैं वो भी अलग थे. उनके साथ थोड़ा टाइम स्पेंड किया और फिर ट्रेनिंग शेड में गए. अच्छा, क्लाइंट्स से मेरा मतलब है – जेल में बंद महिला कैदी जिनके साथ हम काम करते हैं.
अंदर, जहां कैदियों को रखा जाता है, वो किसी गांव से कम नहीं लगता. हम जब पहुंचे उस समय बंदी टाइम होने ही वाला था. बंदी टाइम मतलब, कैदियों का अपने-अपने बैरक में वापस जाने का समय. स्टाफ सभी को आवाज़ लगा रही थी और महिलाएं मेरे आगे-पीछे सवाल पूछते हुए मंडरा रही थीं, “दीदी प्लीज़ मुझे बात करनी है, क्या आप बैरक में आएंगी?” “आप कैसी हैं “मेरे घर फोन किया क्या? मम्मी ने क्या कहा?”, “वकील से बात हुई क्या?” – इतने सारे सवाल थे. मेरे जवाब देते-देते ही बंदी हो गई. अचानक वातावरण पूरी तरह से शांत हो गया.
सभी महिलाएं अपने बैरक में चली गईं. सिर्फ ट्रेनिंग लेने वाले ही हमारे साथ शेड में थे. उनके लिए ये डबल लॉट्ररी थी – ट्रेनिंग भी और दीदी से बात करने का चांस भी! शेड में जब बैठते हैं तो सारे बैरक, स्टाफ, ऑफिस सब दिखाई देते हैं. बीच में खुला मैदान है. शेड सारे बैरक के बीचों-बीच है. उमा, सभी महिलाओं को मटेरीयल देती है. वे सभी जानना चाहती हैं कि हम आज क्या बनाने वाले हैं? फिर, उनके बीच मशीन के लिए झगड़ा और एक-दूसरे को मिले सामान को लेकर चुलबुलाहट होने लगती है. जब सबको सामान, मशीन मिल जाते हैं तब कहीं शांति से वे सीखने का काम करने लगती हैं.
शेड में घड़ी नहीं है तो समय का पता नहीं चलता. पर महिलाएं अपने अंदाज़ें से ठीक-ठीक समय बता देती हैं.
सीखते-सिखाते कई घंटे बीत जाते हैं और ट्रेनिंग का समय खत्म हो जाता है. हम सारा सामान वापस रखते हैं और ट्रेनिंग लेने वाली महिलाओं से कल वापस मिलने का वादा कर वहां से लौट जाते हैं. लौटते वक्त एंट्री करने और स्क्रूटनी की उसी प्रक्रिया से दुबारा गुज़रना पड़ता है. आखिर में अपना बैग लेकर हम जेल के मेन गेट से बाहर निकल आते हैं.
बाहर, गाड़ियों का शोर है. लोग हैं, बाज़ार हैं. सब अपने में व्यस्त इधर-उधर आ-जा रहे हैं. कभी-कभी तो लगता है कि आसमान भी भीतर और बाहर अलग-अलग है. अक्सर ऑटोवाले हमें अपनी गाड़ी में बिठाते हुए बहुत ही सवालिया नज़र से हमारी ओर देखते हैं…
जेल से बाहर शून्य में एक नया कदम, तिनका तिनका ज़िंदगी…
जेल से निकली महिला से जब उसकी चाय की टपरी मिली
तब वो बोली,
“कैसी हो कई महीनों बाद,
आई हो आज, थी कहां तुम?
मन में आस जाग उठी है जीने की,
तुम्हारे कंधों पर ज़िम्मेदारी आई है फिर से,
साथ मैं दूंगी तुम्हारा,
मुसीबत से लड़ेंगे मिलकर फिर से…
मुझे चलाने के लिए सामान भरना है कि नहीं?
दीदी से बात कर लो और दे दो उन्हें कोटेशन,
इंतज़ार में हूं मैं कब होगी मेरी शुरुआत फिर से…
अभी तो साथ में रहेंगे सुबह और शाम तक,
मेहनत की पूंजी जमा होगी मेरे गल्ले में,
चिंता होगी थोड़ी कम अब,
गल्ले के पैसे से आएगा घर में राशन,
चूल्हे पर बनेगा खाना,
देखा कैसे बन गई मैं बच्चों के निवाले का ज़रिया.”,
भायखला जेल मेरे घर के बहुत नज़दीक नागपाड़ा (दक्षिणी मुम्बई, महाराष्ट्र) में है. उसके आजू-बाजू में छोटे बच्चों के कपड़ों की बहुत सारी दुकानें हैं लेकिन आमतौर पर लोगों को इस जेल के बारे में पता ही नहीं होता. गफलत में कई कैदियों के रिश्तेदार आर्थर रोड जेल चले जाते हैं.
खैर, मैं एक समाज-सेविका हूं और मैं जेल के भीतर काम करती हूं. हमेशा की तरह उस दिन भी मैं जेल गई थी. वहां पहुंचकर मैं हमारे प्रोजेक्ट कोऑर्डिनेटर का इंतज़ार कर रही थी. तभी मैंने वहां लॉ कॉलेज के कई विद्यार्थियों और उनके साथ उनकी मैडम को देखा. वे सभी जेल विज़िट के लिए आए थे. ज़ाहिर है कि कानून की पढ़ाई कर रहे हैं तो इन्हें जेल के भीतर की दुनिया का भी थोड़ा बहुत इल्म होना चाहिए. आखिर यह उनके पढ़ाई का एक हिस्सा है. वैसे, उनकी मैडम दिखने में बिल्कुल हमारी सुरेख ताई जैसी लग रहीं थीं. उन सारे बच्चों ने थ्री पीस सूट पहना हुआ था. और 75 फीसदी के हाथ में आई फोन था. जेल को भीतर से देखने की उत्सुकता उनके चेहरे पर साफ झलक रही थी. अभी तो वे मेन गेट पर ही खड़े थे, अभी से इतना चहक रहे थे कि मत पूछो! बिना रुके एक-दूसरे को पता नहीं क्या किस्से सुना रहे थे.
थोड़ी देर में मैं अंदर चली गई और महिला विभाग में पहुंचकर अपना काम शुरू कर दिया. अंदर जाकर मैं महिलाओं के साथ बात कर ही रही थी तभी ये सभी स्टुडेंट महिला विभाग में आ गए. उनके साथ जेलर मैडम भी थीं. जेलर मैडम ने बच्चों से मेरा और मेरी संस्था का परिचय कराया. वे उन्हें उस वाले बैरक में ले गईं जहां महिलाओं को सिलाई और ब्यूटी-पार्लर की ट्रेनिंग दी जाती है. इस बैरक में प्रयास ने वॉल पेंटिग की ट्रेनिंग का भी काम लिया था.
पेंटिंग वाली वॉल देखकर बच्चों को बहुत अच्छा लगा. मैंने उन्हें बताया कि यहां पर आने वाली औरतें ‘अंडर ट्रायल’ होती हैं, कोर्ट में उनका मुकदमा अभी चल रहा होता है. इन औरतों के पास बहुत सारा खाली समय होता है जिसमें हम उनके साथ अलग-अलग तरह की ट्रेनिंग करते हैं. यह पेंट की गई वॉल इसका एक अच्छा उदाहरण हैं.
बैरक के भीतर इस तरह के काम होते हैं ये जानकर स्टुडेंट्स बहुत चकित थे. उनमें से एक ने मुझसे पूछा, “क्या फिल्मों में जो दिखाया जाता है वैसे यहां पर होता है?” मैंने कहा, “नहीं. यहां पर ऐसा कुछ नहीं होता है. यहां महिलाओं के लिए कई तरह की सुविधाएं उपलब्ध हैं. यहां पर 24 घंटे डॉक्टर होते हैं, हर एक बैरक में टीवी है.” मैंने थोड़ा समझाते हुए उन्हें बताया कि यहां भी महिलाओं के अपने ग्रुप्स होते हैं और आपस में झगड़े-लड़ाइयां होती हैं. जैसा, हमारे घर-परिवारों में भी होता है लेकिन आमतौर पर वे एक-दूसरे के सुख-दुख वाले पलों में साथ देने की कोशिश करती हैं.
स्टुडेंट्स के लिए ये सारी बातें बिल्कुल नई थीं. ज़ाहिर है, अब तक जेल के बारे में उन्होंने जो भी जाना है उसका ज़रिया या तो फिल्में और टीवी है या फिर कानून की उनकी किताबें. यह पहला मौका था कि वे इतने नज़दीक से जेल के भीतर की दुनिया को देख-समझ रहे थे. यही वजह थी कि उनके सवाल भी खत्म ही नहीं हो रहे थे. पर बातों-बातों में पता भी नहीं चला कि जेल विज़िट का उनका समय कब खत्म हो गया.
वे सारे स्टुडेट्स कुछ सवालों के जवाब और कुछ सवाल मन में लेकर जेल के बाहर चले गए.
सामाजिक क्षेत्र में काम करते हुए मुझे लगभग 29 साल हो गए हैं. फिलहाल, अब मैं संस्थान के साथ सीधे तौर पर किसी केस पर काम नहीं करती लेकिन जब मैंने शुरुआत की थी तब मेरा मानसिक अस्पताल में आना-जाना बहुत ज़्यादा होता था. तब मुझे महीने में 4-5 बार मानसिक अस्पताल जाना पड़ता था. इसका कारण यह था कि जेल से कुछ महिलाओं को उनके मानसिक स्वास्थ्य के इलाज के लिए वहां भर्ती कराया जाता था. चूंकि, हम उन महिलाओं के साथ काम कर रहे थे, इसलिए मुझे उनसे मिलने के लिए जाना पड़ता था.
अपने काम के दौरान मैंने महसूस किया कि जब महिलाएं किसी कारण से जेल में आती हैं, तो यह उनके लिए एक बहुत बड़ा झटका होता है. उन्हें यह चिंता सताने लगती है कि उनके पीछे उनका घर कैसे चलेगा? बच्चों का क्या होगा? उन्हें कौन संभाल रहा होगा? इन सब वजहों से उनकी मानसिक स्थिति धीरे-धीरे खराब होने लगती है. कई बार यह भी होता है कि कुछ महिलाएं पहले से ही मानसिक रूप से कमज़ोर या मनोरोगी होती हैं लेकिन अगर उनका अपराध गंभीर होता है, जैसे हत्या तो उन्हें जेल की सज़ा होती है. पर इन महिलाओं को इलाज के लिए मानसिक अस्पताल में भर्ती कराया जाता है.
इसके साथ ही जेल में बंद महिलाओं के भीतर कभी कुछ बहुत अलग तरह के व्यवहार देखने को मिलते हैं. जैसे, अचानक बहुत ज़्यादा बातें करने लगना, दूसरी महिलाओं से लड़ाई करना, दवाइयां न लेना, या उनके बोलने और रहने के तरीके में बदलाव आना. ऐसे मामलों में जेल के डॉक्टर उनका इलाज करते हैं और कोर्ट में मजिस्ट्रेट को इस बारे में जानकारी देते हैं. इसके बाद कोर्ट से लिखित आदेश लेकर उन महिलाओं को मानसिक अस्पताल भेजा जाता है.
जब मैं जेल में काम कर रही थी, तब तीन महिलाओं को इस तरह मानसिक अस्पताल भेजा गया था. इसी कारण से मुझे कई बार मानसिक अस्पताल जाने का मौका मिला. वहां आना-जाना करते हुए अस्पताल में काम करने वाली समाज-सेविका से मेरी अच्छी जान-पहचान हो गई थी. वह मुझे जेल से वहां भर्ती महिलाओं के बारे में जानकारी देती. जैसे, उनका इलाज कैसा चल रहा है, क्या कोई सुधार हो रहा है या नहीं, क्या उनके परिवार के लोग उनसे मिलने आए. समाज-सेविका से मुझे इन सब बातों की जानकारी मिल जाती थी.
काम के सिलसिले में मानसिक अस्पताल आते-जाते मुझे यह भी पता चला कि सड़कों पर भीख मांगने वाले एवं मानसिक रुप से विक्षिप्त पुरुष या महिलाओं को भी यहां भर्ती कराया जाता है.
इनमें से कई लोग ऐसे होते हैं जिनके परिवार वाले उनकी देखभाल नहीं कर पाते या उन्हें घर पर रखना मुश्किल हो जाता है. कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो घर से अचानक गायब हो जाते हैं. इन मनोरोगी मनोरुग्ण भिक्षुकों को कोर्ट के आदेश पर पुलिस मानसिक अस्पताल लेकर आती है. इसका मतलब है कि मानसिक अस्पताल में अन्य मरीजों के साथ-साथ जेल से और सड़क से लाए गए मनोरुग्ण भी भर्ती किए जाते हैं, लेकिन यह प्रक्रिया हमेशा कोर्ट और पुलिस के माध्यम से ही होती है.
पर, जब भी मैं जेल से यहां भर्ती की गई महिलाओं से मिलने जाती तो मुझे एक पूरे प्रोटेकॉल का निर्वहन करना पड़ता. अस्पताल में काम करने वाली समाज-सेविका मुझे वहां ले जातीं जहां महिलाओं को रखा जाता था. मुझे अस्पताल और जेल का माहौल बहुत ज़्यादा एक जैसा ही लगता. वहां भी बड़े-बड़े वॉर्ड थे, जैसे जेल में बैरकें होती हैं. अस्पताल में महिलाओं के कमरों को बैरक बोलते हैं जैसे कि जेल में बोला जाता है. महिलाओं को सोने के लिए सतरंजी (एक प्रकार की कोलापुरी दरी) दी जाती थी, जैसा जेल में दिया जाता है. महिला मरीज़ों को घुटनों तक सफेद गाउन पहनने के लिए दिया जाता था, जो बहुत हद तक जेल के कैदियों के कपड़ों की तरह ही दिखता था.
मानसिकल अस्पताल की बिल्डिंग और उसके आस-पास का इलाका भी मुझे जेल की बिल्डिंग से मिलता-जुलता दिखाई देता था. यह परिसर अंग्रेज़ों के ज़माने का बना हुआ था. अस्पताल के सुपरीटेंडेंट (डॉक्टर) के ऑफिस की बिल्डिंग पत्थर से बनी हुई थी.
इस हफ्ते मुझे फिर से जेल जाना पड़ रहा है. कल, मैं बिन्दु के घर होम विज़िट पर गई थी. बिन्दु का लड़का उससे जेल में मिलने नहीं आया है. मुझे, एक बार फिर से उसके घर होम विज़िट पर जाना पड़ रहा है.
मुझे पता है मैं जितनी बातें कर लूं बिन्दु मुझसे बार-बार एक ही सवाल पूछेगी. पता नहीं मैं कैसे इन सवालों से बचूं! बिन्दु के सवालों का जवाब देना जितना तकलीफदेह है, उससे कहीं ज़्यादा जवाब न देकर उसे परेशान होते देखना है…
आज फिर से मेरा मन नहीं है जेल जाने का…
बिन्दु का लड़का गुज़र गया है. उस बात को सुनकर उसकी क्या हालत होगी…
मैं उसे इस हालात में नहीं देख पाउंगी…
इस खबर को सुनकर बिन्दु फिर अपने आप को कुछ करने न लगे!
क्या वो इस सदमे से बाहर आ पाएगी, क्या वो अपनी ज़िंदगी फिर से शुरू कर पाएगी?
यह कहानी ‘मिली’ की है. मिली जिसे मैं जेल में सोशल वर्क के अपने काम के दौरान मिली थी. मिली की उम्र 19 साल है. वो एक बौद्धिक विकलांग (इंटेलेक्चुअल डिसेबल) लड़की है जिसके लिए मुझे कोशिश करनी थी. कोशिश…उसे उसके परिवार से मिलाने की, फिर से उसे खुशियां लौटाने की. अब आप सोच रहे होंगे कि मैं मिली से कैसे मिली?
तो, एक दिन मेरे पास एक संस्था से फोन आया. ये संस्था व्यावसायिक यौन शोषण के उद्देश्य से लड़कियों या महिलाओं की तस्करी से निपटने का काम करती है और इससे बाहर निकलने वाली लड़कियों/महिलाओं की सुरक्षा, देखभाल और पुनर्वसन भी करती है क्योंकि मैं प्रयास के साथ जुड़ी हूं इसलिए उन्होंने मुझे फोन किया.
प्रयास, टाटा सामाजिक संस्था का फील्ड एक्शन प्रोजेक्ट है. इसकी शुरुआत 1990 में हुई थी. यह जेल से छुटे हुए युवकों, महिलाओं, उनके बच्चों तथा जो महिला व्यावसायिक यौन शोषण से पीड़ित हैं और निराधार एवं निराश्रित हैं, उनके पुनर्वसन और समाज में पुन: एकीकरण के लिय प्रयासरत है.
मेरे पास फोन आया और संस्थावालों ने मुझे मिली के बारे में बताया. उन्होंने बताया कि हमें मिली को उसके घर पहुंचाना है, पर इसमें एक परेशानी है. मिली को अपने घर का पता मालूम नहीं. उसे फोन नंबर या घर के बारे में कोई जानकारी नहीं. वह भले ही उम्र में बड़ी लगती है लेकिन उसकी बुद्धी छोटे बच्चों जैसी है.
संस्था के कर्मचारी से जो कुछ पता चल सकता था उसे मैंने डायरी में नोट कर लिया पर दिमाग में एक सवाल अटक गया – घर मिलेगा? अगर नहीं मिला तो क्या करेंगे!? बातचीत के अगले दिन संस्था से दो लोग मिली को हमारे पास छोड़ गए. उसे देखते ही उसके भोलेपन पर दिल आ गया. उस वक्त मिली ने शलवार-कमीज़ पहन रखी थी. उसके छोटे- छोटे बाल थे. वो इधर-उधर देख रही थी और भाग रही थी. वो आसपास के पेड़-पौधों और आजू-बाजू के वातावरण को बडे़ प्यार से देख रही थी. बीच- बीच में ज़ोर से खिलखिलाती. उसकी खिलखिलाहट देख कर मेरे मन मे उसके प्रति एक अपनेपन की भावना आ रही थी.
पर, अब मेरी चिंता और बढ़ गई कि अगर मैं उसे उसके घर नहीं पहुंचा पाई तो क्या होगा? क्या उसके परिवार वाले भी उसे ढूंढ रहे होंगे? क्या सचमें उसका कोई परिवार है? कहां रहता है उसका परिवार? क्या वे मिली को घर में वापस रखेंगे? उफ्फ!
उन लोगों पर भयंकर गुस्सा आ रहा था जो मिली जैसी बच्ची को रेड-लाइट एरिया में लेकर आए. उसे तो कुछ नहीं पता कि वो कहां है? कैसे दरिंदे हैं जो लड़कियों/महिलाओं को वहां की दलदल में धेकेल देते हैं.
गुस्से के साथ ही मैं ये सोचने लगी कि मिली को घर ढूंढने में मैं किसकी मदद ले सकती हूं. वैसे तो मन ही मन में एक प्लॅान बना लिया था लेकिन जो दिमाग में है उसे असल में करना कितना आसान होगा! ये सोच-सोचकर गुस्सा और तेज़ हो रहा था.
खैर, मैं मिली के पास गई और उससे बातें करने लगी. बातों-बातों में मिली बताने लगी, “मेरे घर के बाजू में हनुमान नगर (बदला हुया नाम) है.’ और ये भी बोली, “मैं आपको मेरे घर लेके जाऊंगी, मेरी दीदी से मिलाऊंगी.” जब वो ऐसा बोलती थी तो मुझे लगता था, “अरे! मैं जहां पर रहती हूं उसके बाजू में भी एक हनुमान नगर है. क्या वहां पर उसका घर होगा? लेकिन बाजू वाला हनुमान नगर भी कितना बड़ा है, और हनुमान नगर तो ईस्ट में भी है और वेस्ट मे भी है. इतने बडे हनुमान नगर में उसका घर कहां पर होगा!” यही सोचते-सोचते पूरा दिन निकल जाता. ऊपर से और दूसरे काम भी पूरे करने होते हैं. पर, मेरा मन और किसी काम में लग ही नहीं रहा था. बार-बार उसके घर का ख्याल आ जाता था. उस दरम्यान मैं और जानकारियां इक्ट्ठा करने की कोशिश करती रही. एक दिन में मिली ने कहा, “हमारे घर के बाजू में पहाड़ है. और हम पहाड़ पर खेलने के लिए भी जाते थे.”
हनुमान नगर, पहाड़… कम से कम दो ठोस जानकारी तो है. ठोस! कम से कम मेरे लिए तो. यहां से घर ढूंढने की शुरुआत तो की जा सकती है. एक कुलीग ने कंफर्म किया कि उसे एक हनुमान नगर के बारे में पता है जिसके पास पहाड़ है. तो,अगले दिन मिली को लेकर हम दोनों निकल पड़े – अनजाने पते पर पहुंचने के लिए.
सुबह, उस शेल्टर होम में, जहां मिली इन दिनों रह रही थी, वह अच्छे से तैयार होकर हमारा ही इंतज़ार कर रही थी. हमेें देखते ही वो भाग-भाग कर सभी को बाए बोलने लगी. वो बहुत चहक रही थी और चारों तरफ सभी को टाटा बोलते हुए हमारे साथ गेट से बाहर निकली.
शुरुआत में एक-दो ऑटो वालों ने तो हनुमान नगर जाने से इंकार कर दिया. मेरा दिल बैठने लगा कि अगर कोई साधन ही नहीं मिला तो क्या होगा. पर, तभी एक और ऑटोवाला आया. हम उससे बात ही कर रहे थे कि मिली झट से ऑटो के अंदर जाकर बैठ गई. उसके बैठते ही ऑटो वाले ने कहा, “अब आप दोनों भी बैठ जाइए. पूछ-पूछकर हनुमान नगर पहुंच ही जाएंगें.”
मिली का सारा ध्यान ऑटो के बाहर था और मेरा मिली के ऊपर. ऑटो के चलने की गति से वो बहुत खुश हो रही थी. जैसे, बचपन में जब हम गांव जाते थे तो कितने खुश होते थे, कितना मज़ा आता था. वैसी ही खुशी मिली के चेहरे पर दिखाई दे रही थी.
जैसे-जैसे हम लोग हनुमान नगर की ओर आगे बढ़ने लगे मिली हमें उस जगह के बारे में और सारी बातें बताने लगीं. उसने बताया, “मैं इस बाज़ार में आती हूं, सब्ज़ी लेने के लिए, इधर एक स्कूल भी है.” उसकी बातें सुनकर हमें हमारी मंज़िल के करीब आने की अनुभूती हो रही थी.
कुछ समय बाद हम हनुमान नगर के एरिया मे पहुंच गए. उस रास्ते के अंत में एक बड़ा पहाड़ दिखाई दिया. हमें यकीन हो गया कि हमारी मंजिल नज़दीक आ गई है.
पहाड़ से थोड़ा पहले हमने एक जगह पर गाड़ी रोक दी. वहां बहुत सारी बिल्डिंग्स थीं. वहां पहुंचकर मिली हमें खुद से एक बिल्डिंग में लेकर गई. वो आगे-आगे भाग रही थी, हम उसके पीछे-पीछे चल रहे थे.
एक फ्लोर के दाईं तरफ एकदम अंत में जाकर वो रुकी और एकदम से घर के भीतर घुस गई. वो ज़ोर-ज़ोर से दीदी-दीदी चिल्ला रही थी. अब हम भी कमरे के पास पहुंच चुके थे. मिली को अपना घर याद था. उसकी दीदी को अचानक उसे देखकर यकीन नहीं हो रहा था कि उनकी छोटी बहन उसके सामने खड़ी है. दोनों, बहुत प्यार से एक-दूसरे से गले मिल रही थीं. बड़ी बहन रो रही थी और मिली के चेहरे पर बहुत बड़ी सी मुस्कान थी.
मिली को अपना परिवार मिल गया. उसके मिलने की खुशी परिवार वालों की आंखों में झलक रही थी. उसकी बहन की आंखों में उसके मिलने की चमक दिखाई दे रही थी. मिली को देखकर उसकी बहन के आंसू निकल आए थे. मिली का घर और उसके परिवार वालों को देखकर हम भी बहुत खुश हुए. भीतर से बहुत भरा-भरा सा महसूस हो रहा था.
थोड़ी देर बाद हम वापस संस्था जाने के लिए लौट गए. इस बार मिली हमारे साथ नहीं थी लेकिन मन में बहुत सारे सवाल थे – क्यों महिलाएं आज भी व्यावसायिक यौन शोषण से पीड़ित हो रही हैं? मानसिक रूप से कमज़ोर लड़कियों और महिलाओं को तो ये भी नहीं पता चलता कि उनके साथ क्या हो रहा है, ऐसे में उनपर क्या बीतती होगी? कुछ महिलाएं तो शेल्टर होम तक पहुंच पाती हैं लेकिन कई बार यहां से आगे उनकी कोई ज़िंदगी नहीं होती और उनका क्या जो उस दलदल में ही फंसी रहती हैं.
(क्लाइंट की नज़र से)
मुझे उस दिन का इंतज़ार था.
थैला तैयार रखा था,
फटाक से खड़ी हो गई जब पुकार पड़ा मेरे नाम का,
झट से कंधे पर थैला लटकाया और
लंबे कदम चल दी…
गेट खुला
हौले से बाहर निकली,
नीचे रखा थैला मेरा.
लंबी सांस ली,
खुले आसमान को देखा,
पेड़, पौधे देखे, देखा चिड़ियाओं को उड़ते हुए,
लेकिन,
देखना चाह रही थी उनको…
मेरे बच्चों को, मेरे घरवालों को…
खड़ी रही,
देखती रही, देखती रही…खाली रास्तों को
महसूस करती रही उसके सन्नाटे को.
फिर,
खाली रास्ते पर चलने लगी,
चलने लगी, चलते ही जाने लगी…
मन में यह ठानकर,
फिर चलूंगी,
फिर बढुंगी
फिर फिर चलूंगी
ना रूकुंगी…
मेरा काम जेल में बंद महिलाओं और उनकी समस्यों को देखना-सुनना है. हमारी पूरी कोशिश रहती है कि हम उनके दुख, चिंता, तनाव, दूर कर सकें और उनके जीवन में कुछ परिवर्तन ला सकें. मैं पढ़ी -लिखी हूं और मेरे काम में मेरे परिवार का पूरा समर्थन है. मैंने, इस काम के लिए ज़रूरी प्रशिक्षण भी लिया हुआ है इसीलिए मैं अपने काम के लिए पूरी योग्यता रखती हूं.
हम हमेशा, मैं-मेरा कहते हैं – वह दरअसल होता क्या है? मां का प्रेम, ममता, भाई का आधार, बच्चों की ज़िम्मेदारी या पति का मान-सम्मान? मुझे अब ऐसा लगता है कि मैं यानी सिर्फ ‘मैं’ ही हूं. बाकी कुछ नहीं. मेरी चाहत, मेरी सूरत, मेरा आत्मविश्वास, संस्कार, बतौर स्त्री ‘मैं’ यानी मेरे कर्तव्य और ज़िम्मेदारियां.
आज मेरे पास सबकुछ है. लेकिन अक्सर ऐसा लगता है कि हम किसी की राह देख रहे हैं, किसी की कमी है…अक्सर मैं बिन्दु के बारे में भी कुछ ऐसा ही महूसस करती हूं. लगता है उसे संभालने-समझाने वाला कोई नहीं मिला, जैसा मुझे मिला था. इसलिए मुझे उसकी मदद करनी चाहिए. पर बिन्दु को मदद करने का मेरा निर्णय योग्य है या नहीं, इसका जवाब मेरे पास नहीं है.
बात 2022 की है. महिला आयोग के आदेश से जनवरी में ठाणे कारागृह में काम शुरू हुआ. कारागृह विभाग पर दबाव था. प्रयास संस्था के पास फोन आया. राघवन सर ने मेरा नाम दिया. तय हुआ कि मैं और उमा जाएंगे और महिलाओं के लिए प्रशिक्षण एवं आमदनी बनाने वाली गतिविधियों को संचालित करेंगे.
3 जनवारी से काम भी शुरू हो गया. ठाणे जेल में तनाव का माहौल नहीं था, कर्मचारी भी मदद करने वाले जाने-पहचाने थे इसलिए ऐसी कोई दिक्कत नहीं आई. मैंने, मुम्बई के कल्याण जेल में जिन गुरुजी के साथ काम किया था, वो यहां मिल गए. मेरी तरफ देखते ही उनके चेहरे पर 12 बज गए, “हे भगवान! ये औरत यहां भी पहुंच गई!” पर उन्होंने मदद की. खुद जो कुछ कहना था वो कहा. अधीक्षक की इजाज़त लेकर सीधे महिला विभाग में गए.
सभी औरतें मुझे देखकर खुश हो गई. महिलाओं से बात कर उन्हें बताया कि कैसे प्रशिक्षण की प्रक्रिया चलेगी. महिला विभाग में जगह की समस्या थी. सारे समूहों को कहां इकठ्ठा करें! कहां प्रशिक्षण करें! तभी बिन्दु सामने आई और बोली, “अरे दीदी, रेशम मैडम आती थीं, तो इसी पेड़ के तले बैठ जाती थीं. हम लोग वहीं क्लास लगा लेंगे ना!” मैंने वहां जा कर देखा और जगह तय हो गई. कोविड के बाद बड़े दिनों में महिलाओं को कुछ अलग करने को मिल रहा था.
ट्रेनिंग के लिए सोमवार और बृहस्पतिवार का दिन तय हुआ. जैसे ही हम वहां पहुंचते बिन्दु और दीया, दौड़ कर आ जातीं और मशीन के लिए नंबर लगातीं. पिछले 5 साल से दोनों अंदर थी. टेंशन तो बहुत थी पर काम कर, कुछ सीख कर उसे भूलाने की उनकी लगातार कोशिश रहती.
धीरे-धीरे ट्रेनिंग लेने वाली महिला कैदियों के साथ हमारा एक रिश्ता सा बन गया. एक विश्वास, अपनापन था उसमें. उमा प्रशिक्षण में व्यस्त रहती थी तो सामान पर ध्यान देना, महिलाओं की गपशप, वो आपस में, मुझ से क्या बातें कर रही हैं इस पर कान देना ये मेरा काम था. सीखते-सिखाते मैं उनसे पूछ बैठती, “और बताओ कैसी हो, काम जम रहा है न, इत्यादि…” उनमें से कुछ जो बहुत भावुक थीं, उनके बर्ताव में और चेहरे पर पश्चाताप की रेखाएं झलकने लगती थी.
बिन्दू, इन्हीं में से एक थी. उसे अपना अपराध मान्य था. इतने साल जेल में रहने के बाद व्यक्ति का इस मुकाम पर पहुंच जाना स्वाभाविक था.
बिन्दू, मुझसे ज़्यादा घुल-मिल गई. इसके पीछे वजह रागिनी थी. रागिनी, बिंदू की प्यारी बेटी. मैंने संस्था के नियम के अनुसार उसकी मदद की और कर रही हूं. जब हम ट्रेनिंग के लिए अंदर जाते तो बिन्दू सामने आकार नज़र से नज़र मिलाकर 2 मिनट देखती और समझ जाती कि उसके लिए कोई संदेशा है या नहीं. पर वह मुझ पर कभी नाराज़ नहीं होती. जो होता उसे स्वीकार कर लेती. वो अपने काम में निपुण है. उसका हुनर अच्छा है, सिलाई में उसकी फिनिशिंग बढ़िया है.
एक दिन रागिनी, अपनी मौसी के साथ जेल में बिन्दु से मिलने आई. अभी तक मैंने बस उससे फोन पर बात की थी इसलिए मुझे सामने देख वो थोड़ी डर गई. पर जब वह मुलाकात में अपनी मां से मिली, मैं वहीं थी. मेरे शरीर पर एक सिहरन सी आ गई. मन भारी हुआ. पर मैं पेशेवर सामाजिक कार्यकर्ता हूं ना, भावनाओं को प्रदर्शित न करते हुए खुद को थामना पड़ा. उस समय बिन्दू ने जो विश्वास मुझ पर दिखाया उसीहक के साथ आज रागिनी कभी भी फोन कर ज़िद करती है और बात नहीं की तो मेरी शिकायत मां से करती है.
बुधवार शाम उमा को कॉल कर मैं उसे कहने ही वाली थी, “कल मैं जेल नहीं आऊंगी.” वह बोली, “मैडम, आप के लिए मैं कल आने वाली हूं. कल बिन्दू भी छूटने वाली है. उसे आपसे मिलना है.” मैं अचनाक से थोड़ी शांत हो गई. उमा को कहा, “रुको, मैं तुम्हें कॉल करती हूं.” मैंने पहले ही किसी और को समय दिया हुआ था. इस सोच से बेचैन हो गई. क्या निर्णय लिया जाए, किसे प्राथमिकता देनी चाहिए? बिन्दु 7 साल बाद छूटने वाली है. वो कल चली जाएगी, शायद उसकी ज़िंदगी का कोई निर्णय मेरे इर्द-गिर्द घूम रहा है.
फिरसे खिलना है मुझे,
लेकिन कैसे?
मेरा एक सपना है,
फिरसे अपनी ज़िंदगी नई तरह से जीना है.
आपका साथ मिलेगा तो शायद
इस दलदल से बाहर निकल सकूंगी,
वो भी आत्म सम्मान से.
फिर से नई ज़िंदगी के पन्ने लिखना और पढ़ना है,
फिरसे समाज में मुझे जुड़ना है.
क्या आप मेरा साथ देंगे?
मेरे पीछे खड़े रहेंगे?
क्योंकि मुझे आज फिर जीने की तमन्ना है।
प्रयास, टाटा सामाजिक संस्था का फ़ील्ड एक्शन प्रोजेक्ट है. इसकी शुरुआत 1990 में हुई थी. यह जेल से छुटे हुए युवकों, महिलाओं, उनके बच्चों तथा जो महिलाएं व्यावसायिक यौन शोषण से पीड़ित हैं और निराधार एवं निराश्रित हैं, उनके पुनर्वसन और समाज में पुन: एकीकरण के लिय प्रयासरत है.