सीखना सिखाना

यहां हम उस अंदाज़ को पेश करते हैं, जिसके ज़रिए विचारों, अनुभवों और दुनिया भर में तरह-तरह के प्रयोग करने की कोशिश की जा रही है. हम इन प्रयोगों और इसके लिए की जाने वाली पहल को सलाम करते हैं. ज्ञान को समाज रचता है और यह हम सबकी ज़िंदगी का हिस्सा है. सीखना एक जीवंत प्रक्रिया है जिसे हम सब अपनी ज़िंदगी में लगातार अपनाते हैं. हम सीखने के अलग और नए आयाम, सीखने वालों के अद्भुत और नए प्रयास, नारीवादी सोच को ज़मीनी स्तर पर लागू करने की कोशिश को सामने लाते हैं.

“खुद को एक कलाकार के रूप में देखती हूं और कला का मतलब भी तो खुद को शिक्षित करना ही है”

एजेंटस ऑफ़ इश्क के संदर्भ में मैं कहूंगी कि इसका ढांचा कलात्मक है जो कि ज्ञान या जानकारीपरक होने से कहीं ज़्यादा अहम है. लोगों को यह बताना कि आप जो हैं, आप वैसे ही रह सकते हैं, चीज़ें समझ नहीं आ रहीं, कन्फ्यूज़न है तो कोई बात नहीं ऐसा होता है और चलो हम इस पर बात करते हैं.

वह कौन सी भाषा है जिसमें हम सेक्स या सेक्स एजुकेशन के बारे में बात करते हैं?

पारोमिता वोहरा, एक पुरस्कृत फ़िल्म निर्माता और लेखक हैं. जेंडर, नारीवाद, शहरी जीवन, प्रेम, यौनिक इच्छाएं एवं पॉपुलर कल्चर जैसे विषयों पर पारोमिता ने कई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों का निर्माण किया है जो न सिर्फ़ अपनी फॉर्म बल्कि अपने कंटेंट के लिए बहुत सराही एवं पसंद की जाती हैं. यहां, द थर्ड आई के साथ बातचीत में पारोमिता उस यात्रा के बारे में विस्तार से बता रही हैं जिसमें आगे चलकर एजेंट्स ऑफ़ इश्क की स्थापना हुई. पढ़िए बातचीत का पहला भाग.

सीखने-सिखाने में हमेशा डर क्यों शामिल होता है?

यह कहानी इस विचार का पुरज़ोर प्रतिरोध करती है कि डर के साथ ही सीखना संभव है. ये क्लास-रूम में बैठे उन शिक्षार्थियों की कहानी नहीं कह रही जो किसी नियम को नहीं मानते, बल्कि यह उस क्लास के एक कोने में चुपचाप बैठे उन अंतर्मुखी विद्यार्थियों की कहानी कहती है जो अकेले नहीं हैं.

अपनी गली तो दिखाओ ज़रा

आशियान का रंग-ढंग किसी स्काउट जैसा है. वह शाहदरा की वेलकम कॉलोनी की 15-20 दूसरी लड़कियों और औरतों के साथ गंदगी और कूड़े-कचरों से अटी पड़ी गलियों से गुज़रती हुई आगे बढ़ रही है, जिसके दोनों तरफ बने घरों की दीवारें जर्जर हो चुकी हैं, प्लास्टर झड़ चुके हैं और ईंटों ने ताकझांक करना शुरू कर दिया है.

बात छिड़ेगी तो दास्तान बन जाएगी

ज़िंदगी में सबसे पहले हम अपनी सोच को एक संगठित तरीके से पेश करना कहां सीखते हैं? किस तरह की कल्पना और तथ्य के मिश्रण से इस सोच का जन्म होता है? वे कौन से कारक हैं जो एक सोच की उत्पत्ति से अभिव्यक्ति तक के फासले को प्रभावित करते हैं?

“लाल मिर्च हरी मिर्च मिर्च बड़ी तेज़, देखने में भोली-भाली लेकिन दीदी बड़ी तेज़’’

महिलाओं और किशोरियों के साथ उनकी साक्षरता पर काम करते हुए मुझे कुछ 20 साल से भी ज़्यादा समय हो गया है. चिट्ठी लेखन मुझे आज भी साक्षरता और शिक्षा कार्यक्रम की सीखने-सिखाने की पद्धति के रूप में एक महत्त्वपूर्ण साधन या टूल लगता है.

किताबें बहुत सी पढ़ी होंगी, मगर कोई चेहरा भी पढ़ा है?

इस अंक में गौतम, हमसे अध्यापन कार्य की प्रक्रिया में क्रोध और उसकी बंदिशों पर चर्चा कर रहे हैं. गौतम का मानना है कि आनंद और उल्लास सीखने की प्रक्रिया में गहराई लाते हैं. गौतम भान, इंडियन इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट (IIHS) में अध्यापन कार्य से जुड़े हैं.

फिल्मी शहर – सिनेमा में समलैंगिकता

इस मास्टरक्लास के दो भागों में – सिनेमा में समलैंगिकता – विषय पर बातचीत करते हुए फिल्म निर्देशक अविजित मुकुल किशोर ने सिनेमा की भाषा, सही एवं सम्मानजनक शब्दावलियों का अभाव, LGBTQI+ से जुड़े लोगों के संघर्ष एवं अपमान से पहचान की उनकी यात्रा को फिल्मी पर्दे पर उनकी प्रस्तुति के क्रम में देखने की कोशिश की है.

फिल्मी शहर – जाति और सिनेमा

फ़िल्म निर्देशक अविजित मुकुल किशोर के साथ ‘सिनेमा में जाति’ मास्टरक्लास के दो भागों में, हम उन स्पष्ट और सूक्ष्म तरीकों की खोज करते हैं, जिन रास्तों से मुख्यधारा का सिनेमा समाज का निर्माण करता है.

गतिशीलता की राहों पर सांप भी हैं और सीढ़ियां भी

हममें से आठ — बस्ती की चार लड़कियां और चार उम्रदराज महिलाएं — अलग-अलग जगहों की कल्पना करते हुए कमरे में घूम रही हैं. हम कभी खुले मैदान में चल रही हैं तो कभी मेट्रो पकड़ रही हैं. कभी हम ख़ुशी और उल्लास के मारे चीख रही हैं, चिल्ला रही हैं तो कभी अचानक से शुरू हो गई बारिश में भीग रही हैं.

Skip to content