कहते हैं कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं, पर क्या होगा जब कानून का दिल भी बहुत बड़ा हो?

जेल में बंद और हाशिए पर रहने वाले लोगों के लिए पुनर्स्थापनात्मक न्याय क्या संभावनाएं लेकर आता है और इसकी क्षमताएं क्या हैं?

‘ए ब्रश विद होप’ प्रदर्शिनी से तिहाड़ जेल की महिला कैदियों द्वारा बनाया गया चित्र. चित्र साभार: www.thevillagegallery.in
पुनर्स्थापनात्मक न्याय/ रिस्टोरेटिव जस्टिस के दूसरे हिस्से में पढ़िए ज़मीनी स्तर पर यह कैसे काम करता है और जेल में बंद महिला कैदियों के जीवन में इसकी क्या भूमिका है. अगर जेल में कैदियों की संख्या कम होगी तो असल में इसका फायदा किसे होगा? साथ ही भारत के संदर्भ में हम संयुक्त राज्य अमेरिका के पुनर्स्थापनात्मक न्याय और नस्लीय हस्तक्षेप से क्या सीख सकते हैं और सुधार बनाम परिवर्तन के तर्क को कैसे समझ सकते हैं.

ज़मीनी स्तर पर रिस्टोरेटिव जस्टिस का काम

परिवर्तन के इसी सूत्र को आगे बढ़ाते हुए, एरेलीन ने लड़कियों के लिए सरकारी आवासीय व्यवस्था में पुनर्स्थापना समूह आयोजित करने के अपने अनुभव को साझा किया, “अक्सर ऐसा महसूस होता है कि हम एक समूह बनाते हैं, बातें करते हैं और चले जाते हैं. भले ही लोग रो रहे हों, लेकिन हमारा वक्त पूरा हो जाता है, हमें जाना होता है. पर, इसे करते हुए हमें एहसास हुआ कि जुड़ाव का वह एक क्षण – जब किसी बच्चे को अहसास होता है कि वो खुलकर रो सकता है, उसकी बात कोई सुन रहा है – एक बहुत ही मज़बूत क्षण होता है जहां भरोसा कायम होता है. एक दायरे में विश्वास पैदा होता है कि – अरे! ये कानून मेरे लिए है. वे एक दूसरे का सहयोग करने लगते हैं. ये चीज़ें हमें उम्मीद देती हैं.”

हालांकि, समूह सत्ता के दांव-पेंच से रहित नहीं हैं और यह ज़रूरी है कि इसके अभ्यासकर्ता बार-बार खुद को और दूसरों को उन असंख्य तरीकों के बारे में संवेदनशील करें जो हमारी पहचान हमारे रिश्तों को परिभाषित करते हैं. गहरी जेंडर गैर-बराबरियों की ओर इशारा करते हुए स्वागता कहती हैं, ”हमारे पास ऐसे कई समूह हैं जहां औरतें बिल्कुल चुप रहती हैं.” वहीं, ये समूह समानता की भावना भी पैदा कर सकते हैं. वे आगे कहती हैं, “वहीं, हमारे पास ऐसे भी समूह हैं जहां त्वचा संबंधी विकार वाले लोगों ने कहा कि पहली बार उन्हें ऐसी बातचीत में शामिल होकर बराबरी का अहसास हुआ, जो इस बारे में नहीं थी कि वह कैसे दिखते हैं.” एरेलीन उस मंडली के बारे में बताती हैं जो उन्होंने एक अवलोकन गृह (ऑबज़र्वेशन सेंटर) में आयोजित की थी जहां एक संस्था के प्रमुख से लेकर सिलाई स्टाफ तक सभी को एक साथ आना था, एक ही तरह की कुर्सियों पर बैठना था और एक-दूसरे को सुनना था. “यह उनके लिए मुश्किल था,” वह कहती हैं, “और वहां सिर्फ़ बात नहीं करनी थी, बल्कि एक-दूसरे के प्रति सम्मान का अहसास भी करवाना था.”

यह बात रिस्टोरेटिव जस्टिस के अभ्यासकर्ताओं के लिए भी सच है. इसकी प्रक्रिया से पहले अभ्यासकर्ताओं को यह समझने के लिए तैयारी की ज़रूरत होती है कि समूह में शामिल होने वाले कौन हैं और वे कहां से आ रहे हैं. और इसी तरह बाद में अभ्यासकर्ताओं के लिए समीक्षा प्रक्रिया भी ज़रूरी है ताकि वे इस पर विचार करें कि प्रक्रिया के दौरान वह खुद क्या महसूस कर रहे थे और अगली बार वे आगे क्या अलग कर सकते हैं. एरेलीन बताती हैं, “इसके लिए हमें आपस में गहरी और साफ़ बातचीत की दरकार होती है.” जैसा कि एनफोल्ड टीम और वैकल्पिक न्याय (अल्टरनेटिव जस्टिस) की सदस्य दी कहती हैं, “जिस तरह जेल की मानसिकता जेलों तक ही नहीं बल्कि हमारी एक-दूसरे के साथ बातचीत में मौजूद होती है. उसी तरह रिस्टोरेटिव जस्टिस/ पुनर्स्थापनात्मक न्याय के मूल्यों को हमारे जीवन के अभ्यास और तरीकों का हिस्सा बनना चाहिए.”

रिस्टोरेटिव जस्टिस/ पुनर्स्थापनात्मक न्याय एक ऐसी प्रक्रिया है जो सम्मान की मौलिक भावना के बिना काम नहीं कर सकती, जैसे यह दोनों पक्षों की आपसी सहमति और शामिल होने की इच्छा के बिना काम नहीं कर सकती है. स्वागता इस बात को स्पष्ट करते हुए कहती हैं कि, “यह तथ्यों को खोजने की प्रक्रिया नहीं है, यह केवल तभी कारगर होगी जब नुकसान पहुंचाने वाला ज़िम्मेदारी लेने को तैयार हो.”

यौन शोषण के जिन मामलों को वे एनफोल्ड में देखती हैं, उनमें आश्चर्यजनक संख्या में ऐसे लोग और खासकर किशोर हैं, जो ज़िम्मेदारी लेना चाहते हैं लेकिन यह नहीं जानते कि ऐसा वे कैसे कर सकते हैं.

यह तभी मुमकिन है जब शर्मिंदा होने या जेल में डाल दिए जाने का कोई खतरा न हो. दुर्भाग्य से अनादर और हैसियत के आधार पर हक जताने के मूल्यों पर बनी जातिवादी संरचना की वास्तविकता से त्रस्त देश में, जाति आधारित अपराध के मामलों में पुनर्स्थापनात्मक न्याय/ रिस्टोरेटिव जस्टिस की प्रक्रियाओं का इस्तेमाल मुमकिन नहीं लगता है. एरेलीन कहती हैं, ”एनफोल्ड में हमने इन विषयों पर बातचीत की शुरुआत की है.”

कानूनी व्यवस्था में उलझे बच्चों के साथ अपने काम के अलावा, एनफोल्ड की टीम स्कूलों के साथ भी काम करती है. वे यौन उत्पीड़न की रोकथाम के लिए समितियां गठित करने, बाल संरक्षण नीतियों का मसौदा तैयार करने में मदद करते हैं. साथ ही शिक्षकों को पुनर्स्थापनात्मक तरीकों में प्रशिक्षित भी करते हैं. स्वागता बताती हैं, “यह एक तकनीक है, एक उपकरण, इसे लचीला होना चाहिए और संदर्भ के अनुकूल होना चाहिए.” उदाहरण के लिए, एक स्कूल में, एक क्लास में बच्चों की संख्या में अधिकता के कारण पुनर्स्थापनात्मक समूहों को निर्धारित और संचालित नहीं किया जा सका तो वहां के शिक्षकों ने थोड़ा-थोड़ा बातचीत के ज़रिए से प्रक्रिया के कुछ हिस्सों को अपनी कक्षाओं में नियमित रूप से शामिल करने की कोशिश की.

जैसा कि एनफोल्ड की वेबसाइट पर बताया गया है, उनकी टीम आंशिक रूप से न्यूज़ीलैंड के अनुभवों से प्रेरणा लेती है. न्यूज़ीलैंड की वेंडी ड्रयूरी, जिन्होंने स्कूलों में बढ़ते निलंबन को संबोधित करने के लिए पुनर्स्थापनात्मक न्याय/रिस्टोरेटिव जस्टिस के तरीकों और हुइतांगा की स्वदेशी प्रथाओं दोनों से प्रेरणा लेने पर वाइकाटो विश्वविद्यालय में एक टीम के साथ काम किया है. ध्यान दें कि कई लोग शिक्षा में रिस्टोरेटिव जस्टिस को व्यवहार प्रबंधन की एक विधि के रूप में देखते हैं. ड्रयूरी का तर्क है कि शिक्षा में इसे एक दर्शन के रूप में अपनाना उससे कहीं ज़्यादा प्रभावकारी है और यह वास्तव में स्कूली शिक्षा के मकसद को चुनौती देता है:

“यह विचार निश्चित रूप से इस धारणा को चुनौती देता लगता है कि शिक्षा की प्राथमिक भूमिका भविष्य के उपयोगी नागरिकों को तैयार करना है – यानी, आमतौर पर कहें तो, ऐसे लोग जो अपने वैतनिक करियर के ज़रिए उत्पादक बनने के लिए तैयार हैं. पुनर्स्थापनात्मक न्याय/ रिस्टोरेटिव जस्टिस सम्मानजनक रिश्ते बनाने के लिए एक प्रक्रिया मुहैय्या करता है और इस अर्थ में यह केवल ठीक कर देने या उपचार या न्याय के बारे में भी नहीं है: यह एक देखभाल करने वाली संस्कृति विकसित करने के बारे में है जहां विविधता के लिए सम्मान के ही मूल्यों के लिए हम कोशिश करने पर एकमत हैं.”
दूसरे शब्दों में, जब स्कूल पुनर्स्थापनात्मक न्याय/ रिस्टोरेटिव जस्टिस को अपनाते हैं, तो उन्हें बच्चों को अलग-अलग संस्कृति के साथ रहने के लिए तैयार करने के मकसद को मानना होता है.

जेल में बंद लोगों के लिए जेल और पुनर्स्थापनात्मक न्याय/ रिस्टोरेटिव जस्टिस

हमने देखा था कि हाशिए की पृष्ठभूमि से औरतों की असमान कैद ने अपराध के समाधान के रूप में अपराधीकरण के बारे में नारीवादी नज़रिए को बदल दिया है. हमारे लिए उन अपराधों की प्रकृति को समझना ज़रूरी है जिनके लिए इन औरतों को दोषी ठहराया गया है और साथ ही जेलों की लैंगिक प्रकृति को भी समझना ज़रूरी है. जैसा कि के. बालगोपाल लिखते हैं:

“क्या अपराध का निवारण न्याय का वैध पहलू है, और इसलिए सज़ा का एक वैध उपाय है? वह कौन सा अपराध है जिसके निवारण की बात की जा रही है? यह कहना कि दंडात्मक न्याय वैध रूप से बलात्कार को रोकने की कोशिश कर सकता है, कम से कम एक समझदारी भरा प्रस्ताव है. यह कहना कि यह पड़ोसियों के साथ को सीमा की दीवार के मुद्दे पर झगड़े से रोकने की कोशिश कर सकता है, कम समझ में आता है लेकिन फिर भी कुछ समझ में आता है. लेकिन यह कहना कि यह गरीबों को किसी अमीर आदमी की संपत्ति पर कब्ज़ा करने से रोक सकता है, यहां तक कि झोपड़ी बनाने से रोक सकता है, या एक पस्त पत्नी को अपने पति के सिर पर उस वक्त एक ईंट मारने से रोकने की कोशिश कर सकता है, जब वह चैन से सो रहा हो, तो न्याय के एक पहलू बतौर यह समझ में नहीं आता है.” (ऑफ कैपिटल एंड अदर पनिशमेंट (मृत्यु एवं अन्य दंडों के बारे में) लेख से)

जेल में औरतें

1992 में किरण अहलूवालिया जैसे मामलों ने यह धारणा साफ कर दी कि जो लोग नुकसान पहुंचाते हैं, वे खुद भी पीड़ित रह चुके हो सकते हैं. इस एक ऐतिहासिक मामले में अहलूवालिया को शुरू में अपने पति को ज़िंदा जलाने के लिए हत्या का दोषी ठहराया गया था. इस घटना को घरेलू हिंसा कानून में सबसे पहले इस तरह सामने लाया गया कि किस प्रकार दुर्व्यवहार का इतिहास पीड़ित को अपराधी में बदल सकता है. घरेलू हिंसा दुनिया भर में औरतों और बच्चों के लिए एक बेरहम सच्चाई है – उनकी शिकायतों को अक्सर परिवार के सदस्यों द्वारा खारिज कर दिया जाता है और यह परिवार द्वारा अनसुना या दबा दिया जाता है. कानूनी रास्ता भी उन अधिकारियों द्वारा प्रभावित होता है जो ऐसा ही करते हैं.

किरणजीत अहलूवालिया, बाएं, साउथहॉल ब्लैक सिस्टर्स की प्रगना पटेल के साथ. दोनों ने मिलकर 1992 में अहलूवालिया को मिली हत्या की सज़ा के खिलाफ़ सफलतापूर्वक अपील की थी. चित्र साभार: REBECCA NADEN/PA/thetimes.co.uk

जेल में बंद औरतों के साथ काम करने वाली संस्था द जस्टिस इनिशिएटिव (टीजेआई) की निदेशक सेसिलिया डेविस कहती हैं, “इस अपराध को करने वाली ज़्यादातर औरतों का ज़्यादतियां झेलने का एक लंबा इतिहास रहा है.” जो कैद, कैदी के परिवारों और बच्चों पर दूर तक असर डालती हैं. इन रिश्तों को सुधारना पुनर्स्थापना प्रक्रिया का एक बड़ा हिस्सा है. हालांकि, स्वीकारोक्ति और माफी की दिशा में काम करने के लिए, नुकसान पहुंचाने वाले व्यक्ति की सोच का इलाज होना ज़रूरी है. सेसिलिया बताती हैं:

“अगर मैं कोई ऐसी व्यक्ति हूं जिसने नुकसान पहुंचाया है, तो माफी मांगने का दायित्व मुझ पर ही होता है. लेकिन साथ ही मैं एक ऐसी जगह से आती हूं जहां मेरे अंदर सब कुछ टूटा हुआ है, मेरे अपने मानसिक बोझ हैं, जब तक मैं खुद इस सबको समेट कर अपने में पूर्ण नहीं महसूस करती तब तक मुझे पीड़ित को देने के लिए कुछ नहीं है. हो सकता है कि मैं बोलकर माफी मांग लूं, लेकिन यह सिर्फ़ एक शब्द है, माफी की कोई ठोस या सच्ची चाह नहीं है.”

टीजेआई उन औरतों के बीच अभिव्यक्ति की सुविधा मुहैय्या करती है जिनके साथ वे काम करती हैं. समग्र कल्याण कार्यशालाएं, उत्पीड़ितों का रंगमंच और रचनात्मक कौशल प्रशिक्षण कार्यक्रम ऐसे कई तरीके हैं. सेसिलिया कहती हैं, “वे जीवन भर (अपराधी होने का) तमगा अपने साथ लेकर रहेंगी, लेकिन उन्हें खुद को उस तमगे से बढ़कर देखने में सक्षम होना होगा.” कई औरतें हमारी कार्यशालाओं में 15-16 सालों के बाद पहली बार शोक मना रही हैं – इतने लंबे समय तक वे बोझ ढोती रही हैं और इसकी अभिव्यक्ति उनके शरीर, दर्द और भावनाओं में दिखाई देती है.”

कानूनी प्रणाली में दुख या परिवर्तन के लिए कोई जगह नहीं है. सेसिलिया बताती हैं कि अगर हमारे पास रिहा होने पर आत्महत्या करने वाले लोगों की संख्या के आंकड़े हों, तो हम देखेंगे कि कैद में रखने का कितना हानिकारक असर हो सकता है.

वह कहती हैं, “हमारी जेलें इंसानी कूड़े के ढेर की तरह हैं. जिन्हें हम सलाखों के पीछे डालते हैं और उन्हें हम भूल जाते हैं.” यह नज़रिया कानून से परे हमारी सामाजिक मानसिकता तक फैला हुआ है. इससे जेल में नागरिक हस्तक्षेप न्यूनतम हो जाता है, जबकि टीजेआई जैसे हस्तक्षेपों को भीषण राज्य प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है. सेसिलिया कहती हैं, ”और यह सब सुरक्षा के नाम पर है. हालांकि 1 फीसदी से भी कम दोषी आतंकवादी गतिविधियों के लिए जेल में हैं. जो जेल के भीतर हैं वो ज़्यादातर मुश्किल हालात से आने वाले आम लोग हैं.”

इस बीच, रिश्तों को सुधारना दोतरफा रास्ता है और टीजेआई को जेल में बंद लोगों के बच्चों के साथ भी ज़रूरी काम करना होता है. पति के परिवार द्वारा लिए अपने पास रख लिए गए बच्चों को, खासकर जब संपत्ति या शिकायतें शामिल हों, उनसे छुटकारा पाना आसान नहीं होता है.

सेसिलिया कहती हैं, “अपनी मांओं के साथ हुए दुर्व्यवहार का गवाह होने के बावजूद, छोटे बच्चों को सचमुच गवाही देने के लिए सिखाया-रटाया जाता है.” लेकिन, दोस्त, सामान्य रिश्तेदार, पड़ोसी, चचेरे भाई-बहन वगैरह होते हैं जो एक ज़रिया बनाते हैं. उनसे जुड़ाव बैठाने की खबर इस नेटवर्क के ज़रिए आगे बढ़ती है, और इन्हें शुरुआती बिंदु के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है. वह बताती हैं कि अक्सर बच्चों के पास बहुत सारे सवाल होते हैं जिनका वे जवाब चाहते हैं और उनमें शामिल होने की उत्सुकता उसी से आती है. वे कहती हैं –

“बच्चे खुद चोट या आहत के शिकार होते हैं. लेकिन उनके ज़रिए दूसरों को चोट पहुंचाना उचित नहीं. हम बच्चों से भी बात करने की कोशिश करते हैं. उन्हें यह समझने की ज़रूरत है कि जेंडर की स्थितियों के चलते भी ऐसा होता है कि बराबरी में बातें नहीं हो पाती हैं और उनकी मांएं उनसे कुछ कहने के लिए तैयार हो पाएं इसके लिए उन्हें कुछ इंतज़ार करना चाहिए. हम औरतों को अपनी जगह पर खड़े होकर बातचीत करने, ज़िम्मेदारी लेने, नुकसान स्वीकार करने और फिर भी वे क्या और कब समझाना चाहती हैं, इसपर अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए प्रोत्साहित करते हैं.”

दोषी औरतों को केवल उनकी कैद से पहले की ज़िंदगी और इतिहास से ही नहीं उबरना या फिर उसके साथ समझौता करना होगा, उन्हें अपनी गिरफ्तारी के बाद होने वाले दुर्व्यवहार और हिंसा के घावों को भी भरना होगा. अपनी पुस्तक में, मार्क्सवादी नारीवादी एंजेला डेविस जेल प्रणाली के लैंगिक इतिहास और अंतर्निहित पितृसत्ता की ओर इशारा करती हैं:

“दोषी औरतें पूरी तरह से पतित औरतें थीं, जिन्हें मोक्ष मिलने की कोई संभावना नहीं थी. अपराधी पुरुष सामाजिक व्यक्ति होते थे जिन्होंने केवल सामाजिक अनुबंध का उल्लंघन किया था, वहीं अपराध करने वाली औरतों को नारीत्व के मौलिक नैतिक सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाले के रूप में देखा जाता था.” (आर प्रिज़न ऑबसुलेट किताब से)

इसके अलावा, जेंडर और नस्ल, जनजाति और जाति जैसे हाशिए के अन्य रूपों के मिल जाने पर प्रभावी विचारधाराएं अक्सर जेल में बंद औरतों के अति-यौनीकरण (हाइपरसेक्सुअलाइज़ेशन) का कारण बनती हैं जो नियमित रूप से पुलिस, जेल अधिकारियों और गार्डों के लिए यौन दुर्व्यवहारों को सही ठहराने के लिए "मुफ्त पास" के रूप में कार्य करती है.

डेविस का तर्क है कि कपड़े उतारकर तलाशी लेने और रोज़मर्रा की अपमानजनक दिनचर्या के ज़रिए इस दुर्व्यवहार को संस्थागत बना दिया गया है. ट्रांस समुदाय के लिए, यह दुर्व्यवहार विशेष रूप से व्याप्त है और उनकी पहचान को मौलिक रूप से नकारने से लेकर ज़रूरी स्वास्थ्य देखभाल संसाधनों से वंचित करने तक बढ़ जाता है.

सेसिलिया बताती हैं कि भारत में जेल जाने से पहले सबसे ज़्यादा चोट और हिंसा गिरफ्तारी पर पुलिस हिरासत के स्तर पर होता है. वह कहती हैं, ”पुलिस स्टेशनों पर हिंसा न्यायपालिका की मिलीभगत से होती है.” वह कहती हैं कि जिन लोगों के साथ वे काम करती हैं उनमें से 99 फीसदी लोगों को मजिस्ट्रेट के सामने पेश होने से पहले अविश्वसनीय शारीरिक और यौन शोषण का सामना करना पड़ा है. जबकि मजिस्ट्रेट बड़ी चोटों, लंगड़ाहट और यातना के स्पष्ट शारीरिक संकेतों पर आंखें मूंद लेते हैं, डॉक्टर मेडिकल जांच में फर्ज़ीवाड़ा करते हैं. बार-बार दुर्व्यवहार का डर, परिवार के सदस्यों के लिए चिंता, जिन्हें अभी भी स्टेशन पर रखा जा सकता है, और अपने कानूनी अधिकारों के बारे में जानकारी की कमी, हिरासत में यातना को अदालत में बता पाना नामुमकिन बना देता है.

संस्थागत नुकसान की एक आपराधिक (अ)न्याय प्रणाली

हाशिए पर रहने वाली औरतों को कैद करना समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्गों की एक बड़ी अनुपातहीन कैद के हिस्से के रूप में होता है.

एक अध्ययन से पता चलता है कि हर तीन विचाराधीन कैदियों में से एक अनुसूचित जाति/जनजाति (एससी/एसटी) समुदाय से है. 2010 की प्रिज़न स्टैटिस्टिक्स इंडिया रिपोर्ट के अनुसार, कुल जेल आबादी का 28 फीसदी धार्मिक अल्पसंख्यक हैं, जिनमें से 21 फीसदी मुस्लिम हैं.

विद्वान विजय राघवन और रोशनी नायर लिखते हैं, “यह दुनिया भर में उस प्रवृत्ति के मुताबिक है जिसमें जेलों में धार्मिक और जातीय अल्पसंख्यकों की संख्या सामान्य आबादी से कहीं ज़्यादा है.” 2019 प्रिज़न स्टैटिस्टिक्स इंडिया रिपोर्ट के अनुसार, 32 फीसदी कैदी अनुसूचित जाति/ जनजाति (एससी/एसटी) समुदायों से थे.

आपराधिक न्याय और पुलिस जवाबदेही परियोजना (सीपीए) द्वारा किए गए एक अध्ययन से पता चलता है कि कैसे मध्य प्रदेश में शराब पुलिसिंग और उत्पाद शुल्क कानूनों को लागू करना आदिवासी और विमुक्त समुदायों द्वारा छोटे पैमाने पर शराब बनाने को निशाना बनाता है. आम धारणा के उलट कि ये कानून शराब माफियाओं पर नकेल कसने में मदद कर सकते हैं, पुलिस और न्यायपालिका में अंतर्निहित भेदभावपूर्ण रवैये ने आखिरकार समाज के एक पूरे वर्ग के अपराधीकरण को जन्म दिया. वन्यजीवन और महामारी पुलिसिंग के प्रभाव पर इसी तरह के अध्ययन हुए हैं.

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जून, 2020 में, जे. बेनिक्स और उनके पिता पी. जयराज को तमिलनाडु के तूतीकोरिन ज़िले के सथानकुलम में पुलिस हिरासत में क्रूरतापूर्वक यातना देकर मार डाला गया था. इस मामले ने, जिसके चलते व्यापक जन आक्रोश पैदा हुआ, एक बार फिर पुलिस हिंसा और हिरासत में मौतों के पीछे बड़े पैमाने पर जातिवाद को जनता के सामने ला दिया. यह उसी वक्त था जब जॉर्ज फ्लॉयड का विरोध प्रदर्शन उसी भूमिका को उजागर कर रहा था जो संयुक्त राज्य अमेरिका में नस्लवाद करता है. जिस तरह बेनिक्स को कर्फ्यू के बाद 15 मिनट तक अपनी दुकान खुली रखने के एक छोटे से अपराध के लिए थाने में बुलाया गया था, उसी तरह समाज के हाशिए पर रहने वाले वर्गों का अपराधीकरण अक्सर छोटे-मोटे अपराधों जैसे चोरी, यातायात अपराध, अतिचार वगैरह के आधार पर होता है.

किशोर न्याय की तरह पुलिस स्टेशनों में दर्ज होने से पहले मामलों को गैर-राज्य संस्थाओं को सौंपना इस प्रवृत्ति का काफी हद तक मुकाबला कर सकता है. प्रिज़न फ़ोरम कर्नाटक (पीएफके) के किशोर गोविंद ने ‘इंस्टिड ऑफ़ प्रिज़न (बजाय जेल के)’ नामक एक पुस्तिका का हवाला देते हुए तर्क दिया है कि “पुनर्स्थापनात्मक न्याय / रिस्टोरेटिव जस्टिस के विचारों के आधार पर छोटे अपराधों के लिए एक औपचारिक व्यवस्था छोटे अपराधों और उनसे जुड़ी हिंसा [हिरासत में यातना और हिरासत में होने वाली मौतों] को कम कर सकती है.”

संयुक्त राज्य अमेरिका में इस तरह मामला सौंप देना, खासकर छोटे अपराधों से संबंधित मामलों को सौंपने के लिए प्रत्येक ज़िला अटॉर्नी के कार्यालय में मौजूद इकाइयों के ज़रिए से काम करता है. अक्सर, इसमें शामिल लोगों की सहमति से, इन्हें बालिगा जैसे रिस्टोरेटिव जस्टिस विशेषज्ञों को सौंप दिया जाता है. “जब लोग पूछते हैं कि पीड़ित क्या चाहते हैं, तो हर मामले में यह बहुत अलग होता है” यह तर्क देते हुए बालिगा बताती हैं कि जो “नरम” प्रभाव जैसा लग सकता है वह भी काम करता है अगर 1) पीड़ित इसे चाहता है, और 2) अगर यह भविष्य में अपराधी को मुसीबत से बाहर रखेगा.

चित्र साभार: www.impactjustice.org

किशोर कहते हैं, छोटे अपराध के मामलों को सौंप देने का सबसे ज़रूरी फायदा यह है कि यह जांच, निगरानी और कानून प्रवर्तन के ज़रूरी खर्चों को काफी कम कर देता है. यह शिक्षा, स्वास्थ्य के उपेक्षित क्षेत्रों और ज़्यादा समुदाय आधारित अपराध-विरोधी हस्तक्षेपों के लिए राज्य निधि के पुनर्वितरण की संभावना बढ़ाता है. यह जो युवा केंद्रों, आश्रय गृहों, जागरूकता कार्यक्रमों आदि की स्थापना के ज़रिए प्रणालीगत समस्याओं का समाधान करता है.

यह हैंडबुक, संयुक्त राज्य अमेरिका के कई इलाकों में व्याप्त ‘सड़क अपराध‘ के लिए समुदाय संचालित दृष्टिकोण के कई उदाहरण प्रस्तुत करती है. यह इस तथ्य को स्वीकार करता है कि छोटे या राह चलते होने वाले अपराध जैसे डकैती, चोरी आदि बेरोज़गारी और गरीबी के व्यापक आर्थिक संकट का नतीजा हैं. इस तरह अमेरिका के ओहियो में प्रचलित अपराध विरोधी कार्यक्रमों में से एक ‘रेंट-ए-किड’ कार्यक्रम ने किशोरों के लिए रोज़गार पैदा करने में मदद की – “युवाओं को आपराधिक गतिविधियों का सहारा लिए बिना धन प्राप्त करने का मौका दिया.” फिलाडेल्फिया में, समुदाय के लोगों द्वारा पड़ोस की सैर से औरतों के लिए सुरक्षित स्थान बनाने में मदद मिली और चोरी की घटनाओं में गिरावट हुई.

दंडात्मक न्याय प्रणाली से छोटे अपराधों को दूर करने की सुविधा प्रदान करना कई क्षेत्रों के एजेंडे में रहा है, खासकर जहां किशोर शामिल रहे हैं. ध्यान भटकाने से पुलिस की बर्बरता से दूर रहने में मदद मिल सकती है, जो अमेरिकी समाज में काली नस्ल के लोगों के खिलाफ बहुत प्रचलित है.

पीएफके के सदस्य बिंदू डोड्डाहट्टी हिन्दुस्तान में इसकी संभावनाओं को लेकर सशंकित हैं. वह बताती हैं कि मामला सौंप देना केवल संयुक्त राज्य अमेरिका में काम करता है क्योंकि वहां अनिवार्य है और पुलिस स्टेशनों और अदालतों के दायरे से बाहर है. हमारे देश में ‘समाधान योग्य अपराध’ जैसे प्रावधान एक समान प्रक्रिया को सुविधाजनक बनाने के लिए प्रतीत हो सकते हैं, लेकिन इस तथ्य से गंभीर रूप से कमज़ोर हो गए हैं कि वे अभी भी कानून लागू करने वाले एजेंटों के साथ उलझे हुए हैं. “घरेलू हिंसा के कई मामलों में, मामला कभी दर्ज नहीं किया जाता है लेकिन पुलिस कई तरह से इसमें शामिल होती है. वे जोड़े को काउंसलिंग के लिए भेज सकते हैं या पति को थाने बुला सकते हैं, जहां वह अपनी पत्नी को मामला वापस लेने के लिए धमका सकता है,” बिंदु बताती हैं. यह देखते हुए कि इन क्षेत्रों में औरतों की कोई एजेंसी नहीं है, “इन शक्तियों के प्रयोग के तरीके में कोई संतुलन नहीं है”. निर्भया फंड द्वारा 2015 से लागू की गई सखी वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर (ओएससीसी) योजना का ज़िक्र करते हुए बिंदू कहती हैं कि हालांकि वह उन्हें पूरी तरह विफल नहीं कहेंगी, लेकिन ज़्यादातर यह सेंटर पीड़ित नज़रिए एवं प्रक्रियाओं से बहुत दूर है:

“अगर आप देखें कि वे क्या कर रहे हैं, तो वे पुलिस के साथ मिलीभगत कर रहे हैं. उनके पास बहुत सारे नियम हैं और मैं लोगों को इन केंद्रों में ले गईं हूं और मैंने उन्हें इस जगह से भयभीत होते देखा है. पुलिस वहीं बैठी रहती है, भले ही उन्हें इसमें शामिल नहीं होना चाहिए!”
रायपुर, छत्तीसगढ़ में भारत का पहला वन स्टॉप सेंटर. चित्र साभार: महिला एवं बाल विकास मंत्रालय, GODL-India, via Wikimedia Commons

जबकि भारत में मामले सौंपने के राज्य तंत्र में हमेशा पुनर्स्थापना की तुलना में ज़्यादा मध्यस्थता ढांचा रहा है, यहां तक कि पुनर्स्थापनात्मक एजेंडे के साथ शुरू करने वाले गैर सरकारी संगठन भी इसके लपेटे में आ जाते हैं. “अगर वे इन स्थानों पर काम कर रहे हैं तो उन्हें पुलिस के साथ संबंध बनाने होंगे और पुलिस उन गैर सरकारी संगठनों का पक्ष लेगी जिनके साथ उनके संबंध हैं, इसलिए यह दो-तरफा बात है,” किशोर अनुदान और राज्य समर्थित सक्रियता पर INCITE के रुख को ध्यान में रखते हुए कहती हैं. इस प्रकार उनकी नज़र में स्थिरता एवं निरंतरता पुनर्स्थापनात्मक न्याय / रिस्टोरेटिव जस्टिस को अपनाने वालों के सामने आने वाली सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है, स्थिरता और दस्तावेज़ीकरण की कमी. “विशेष रूप से यौन अपराध के मामलों में, इससे संबंधित ज़्यादातर स्थानीय प्रयोगों को बहुत खराब तरीके से दर्ज किया जाता है, जब तक कि वे राज्य या कॉर्पोरेट वित्त पोषित न हों”, उन्होंने कहा कि प्रोजेक्ट रिस्टोर और ट्रुथ एंड रिकंसिलिएशन कमीशन, दक्षिण अफ्रीका संभवतः सबसे अच्छे दस्तावेज़ हैं.

जैसा कि कहा गया है, हमने जिन भी पुनर्स्थापनात्मक न्याय / रिस्टोरेटिव जस्टिस अभ्यासकर्ताओं से बात की, उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि इस मॉडल को दोहराया या सार्वभौमिक नहीं बनाया जा सकता है. बिंदू कहती हैं, “आप उनसे प्रेरित हो सकते हैं, लेकिन आप उन्हें दोहरा नहीं सकते.”

एक "बेहतर" रास्ते की तलाश

पुनर्स्थापनात्मक न्याय / रिस्टोरेटिव जस्टिस के अभ्यासकर्ताओं के बीच सबसे बड़े विवादों में से एक सुधार बनाम बदलाव का सवाल है.

जबकि कुछ का मानना है कि इसका इस्तेमाल आपराधिक न्याय प्रणाली में सुधार और बेहतरी के लिए किया जा सकता है, दूसरों का तर्क है कि चूंकि हमारी न्याय प्रणाली की समस्याएं इतनी गहराई से संरचनात्मक और प्रणालीगत हैं, इसलिए इसका इस्तेमाल समाज को बदलने की एक बड़ी परियोजना में पहले कदम के रूप में किया जा सकता है. काबा लिखती हैं, “आखिरकार, पुनर्स्थापनात्मक न्याय / रिस्टोरेटिव जस्टिस के अभ्यासकर्ताओं के लिए अक्सर उठने वाले सवालों में से एक यह है कि ‘हम हिंसा के लिए सामुदायिक जवाबदेही का अभ्यास कैसे कर सकते हैं जब हमारे समुदाय पीड़ितों को दोष देने से ग्रस्त हैं और अक्सर उत्पीड़न से पंगु हो जाते हैं?”

यहीं पर परिवर्तनकारी न्याय की अवधारणा आती है.

“… दोनों अवधारणाएं अनिवार्य रूप से एक ही लक्ष्य तक पहुंच रही हैं. फिर भी, बहस का कारण है… पुनर्स्थापनात्मक न्याय’ शब्द आवश्यक रूप से उन सवालों को जन्म देता है जिन्हें हम पुनर्स्थापित करना चाहते हैं. अगर एक गरीब पड़ोसी दूसरे गरीब पड़ोसी से चोरी करता है, तो क्या हम पीड़ित को उसकी गरीबी के पिछले स्तर पर वापस लाने की कोशिश कर रहे हैं? परिवर्तनकारी न्याय शब्द के साथ, यह अधिक स्पष्ट रूप से साफ है कि हम न केवल पीड़ित को मुआवज़ा दिलाना चाहते हैं, बल्कि हम पीड़ित, अपराधी और समुदाय के लिए समग्र स्थिति में सुधार करना चाहते हैं. – प्रोजेक्ट एनआईए द्वारा परिवर्तनकारी न्याय पर पाठ्यक्रम गाइड.

जैसा कि हमने आरजे अभ्यासकर्ताओं द्वारा सामना किए गए मामलों में देखा है, हत्या से लेकर छोटे अपराध तक, सबसे पहले यह पहचानना कि नुकसान क्यों हुआ, न्याय प्रक्रिया का एक बहुत महत्त्वपूर्ण हिस्सा बन जाता है. अपने निबंध ‘परिवर्तनकारी न्याय क्या है/नहीं है‘ में एड्रिएनमेरी ब्राउन लिखती हैं:

” ‘गलत काम’ की स्थितियों को बदलने के लिए, हमें खुद से और एक-दूसरे से पूछना होगा ‘क्यों?’ यहां तक कि, खासकर जब, हम इस जवाब से डरते हैं… यह तय करना आसान है कि कोई व्यक्ति या समूह संदिग्ध, दुष्ट, मनोरोगी है. कड़वी सच्चाई (कठिन इसलिए है क्योंकि इसका कोई त्वरित समाधान नहीं है) यह है कि दीर्घकालिक अन्याय सबसे बुरे व्यवहार को जन्म देता है.”

श्वेत उपनिवेशवादियों द्वारा मूल अमेरिकी समुदायों के खिलाफ ऐतिहासिक अन्याय की प्रणालीगत मान्यता सुनिश्चित करने के लिए कनाडाई अदालतों में ग्लेड्यू सिद्धांतों को अपनाना, इस बात का एक उदाहरण है कि जब हम पूछते हैं कि क्यों होता है तो क्या होता है. जैसा कि लेनिन ने कहा था, जब समाज में लोग समान नहीं होते हैं, तो ऐतिहासिक गलतियों को सुधारने और संरचनात्मक बदलाव को मुमकिन करने के लिए कानून को उनके साथ असमान व्यवहार करना चाहिए.

काबा और डेविस जैसी उन्मूलनवादी नारीवादियों का तर्क है कि वास्तविक परिवर्तन लाने के लिए जेलों को ही खत्म करने की ज़रूरत है. यह एक आदर्शवादी या अवास्तविक धारणा की तरह लग सकता है. बिंदू बताती हैं कि यह योजना रातों-रात ऐसा करने के लिए नहीं है, इस रास्ते की शुरुआत जेल में लोगों की संख्या को कम करने से हो सकती है. उदाहरण के लिए, जेल सहायता और कार्रवाई अनुसंधान (पीएएआर) द्वारा समर्थित समुदाय के नेतृत्व वाले अपराध विरोधी कार्यक्रम, मामले सौंपने, पुनर्स्थापनात्मक न्याय / रिस्टोरेटिव जस्टिस प्रक्रियाएं और खुली जेलें, कुछ उदाहरण हैं कि हम इस परिवर्तन को कैसे हासिल कर सकते हैं. जैसा कि बालिगा कहती हैं, “पुनर्स्थापनात्मक न्याय / रिस्टोरेटिव जस्टिस के साथ जुड़ना यह सीखने का एक निरंतर अभ्यास है कि न्याय कैसा दिख सकता है.”

वह निष्कर्ष निकालती हैं, आखिरकार, “जब हमें बुरे रास्ते पर चलना बंद करना है तो हमें एक अच्छे रास्ते की ज़रूरत है.”

इस लेख का अनुवाद पारिजात नौटियाल ने किया है.

शालोम गौरी, एक लेखक और शोधकर्ता हैं, जिनकी रुचि राजनीतिक अर्थव्यवस्था और न्याय के प्रश्नों में है. वे वर्तमान में दिल्ली विश्वविद्यालय से कानून की पढ़ाई कर रही हैं.

कुशल चौधरी एक स्वतंत्र पत्रकार और शोधकर्ता हैं. उन्होंने बहुत सारे विषयों पर काम किया है जिसमें विशेषकर भारत में जाति, धर्म, कृषि और आदिवासी समुदायों से जुड़े विषय शामिल हैं.

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