वह कौन सी भाषा है जिसमें हम सेक्स या सेक्स एजुकेशन के बारे में बात करते हैं?

फ़िल्म निर्देशक एवं एजेंट्स ऑफ़ इश्क की संस्थापक पारोमिता वोहरा के साथ सेक्स एजुकेशन के संबंध में सीखने सिखाने के नए तरीकों पर बातचीत

पर्दे के पीछे : 'लव इन द गार्डन ऑफ़ कंसेंट' के सेट पर पारोमिता वोहरा. फ़ोटो साभार: निशा सूसन.

पारोमिता वोहरा, एक पुरस्कृत फ़िल्म निर्माता और लेखक हैं. जेंडर, नारीवाद, शहरी जीवन, प्रेम, यौनिक इच्छाएं एवं पॉपुलर कल्चर जैसे विषयों पर पारोमिता ने कई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों का निर्माण किया है जो न सिर्फ़ अपनी फॉर्म बल्कि अपने कंटेंट के लिए बहुत सराही एवं पसंद की जाती हैं.

उनके कई तरह के लेखन में सबसे लोकप्रिय एक अखबार के लिए लिखा जाने वाला कॉलम ‘हाओ टू फाइंड इंडियन लव’ (भारतीय प्यार कैसे हासिल करें) शामिल है. इसके साथ ही वे संडे मिड-डे के लिए ‘पारो-नॉर्मल एक्टिविटी’ नाम से एक चर्चित कॉलम भी लिखती हैं. 2014 में उन्होंने प्यार, यौनिकता एवं यौनिक इच्छाओं पर आधारित एक मल्टी-मीडिया प्रोजेक्ट की शुरुआत की जिसका नाम रखा – एजेंट्स ऑफ़ इश्क. बहुत जल्द ही एजेंट्स ऑफ़ इश्क ने सेक्स और उससे जुड़ी तमाम तरह की बातों एवं जानकारियों को साझा करने के एक अलग ही मज़ाकिया अंदाज़ और सौंदर्य की वजह से पाठकों के बीच काफी लोकप्रियता हासिल कर ली.

यहां, द थर्ड आई के साथ बातचीत में पारोमिता उस यात्रा के बारे में विस्तार से बता रही हैं जिसमें आगे चलकर एजेंट्स ऑफ़ इश्क की स्थापना हुई. पढ़िए बातचीत का पहला भाग.

द थर्ड आई: आप तो फ़िल्मकार हैं, फिर ये एजेंटस ऑफ़ इश्क वेबसाइट शुरू करने का विचार आपके मन में कैसे आया? इसका आपकी फ़िल्ममेकिंग से क्या रिश्ता है?

पारोमिता वोहरा: देखिए, 10 साल से ज़्यादा हो चुके हैं, जब मैंने अपनी आखिरी डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म बनाई थी. लोग मिलते ही अक्सर मुझसे पूछते हैं, “आजकल तुम क्या कर रही हो? तुम्हारी अगली फ़िल्म कब आने वाली है?…” मैं यही सोचती हूं कि इसका क्या जवाब दूं. कुछ लोगों को सच्चाई से जवाब देने की कोशिश भी करती हूं, और मैं खुद भी यह मानती हूं कि एजेंटस ऑफ़ इश्क भी एक फ़िल्म ही है, बहुत लम्बी फ़िल्म—अनंत काल तक चलने वाली फ़िल्म.

मेरा अब तक का सफ़र, नॉन-फिक्शन कंटेंट पर काम करना और लोगों की वास्तविकताओं के साथ जुड़ने का रहा है. कुछ मायनों में यह राजनीतिक गतिविधि भी है. पर, मैं इसे एक्टिविज़्म नहीं कहूंगी क्योंकि सही मायनों में ये एक किस्म की राजनीतिक गतिविधि है और अपने काम में हर कोई राजनीतिक गतिविधियां करता ही है. इसे असाधारण काम नहीं बनाना चाहिए. जब मुझे कोई एक्टिविस्ट या कार्यकर्ता कहता है तो मुझे बहुत असहज महसूस होता है. इसलिए नहीं कि मैं विनम्र होने का नाटक कर रही हूं, बल्कि मैं इसके बजाय किसी और नज़र से पहचानी जाना चाहती हूं – कैसे एक कलाकार के बतौर मैं अपने काम के ज़रिए राजनीति से जुड़ने की कोशिश करती हूं. फिर चाहे वो किसी भी फॉर्म में हो.

जब मैंने डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों में काम करना शुरू किया तब मेरी उम्र 20 साल की थी और मुझे अक्सर लगता था कि इस दुनिया के भीतर बहुत सारा ऐसा ‘ज्ञान’ है जिसके बारे में लोग नहीं जानते. जैसे, राजनीति का इतिहास, नारीवादी आंदोलनों का इतिहास. आप जब डॉक्यूमेंट्री की दुनिया में कदम रखते हैं, यह मान लिया जाता है कि आपको तो ये सब मालूम ही होगा – इस सोच का नतीजा यह है कि यह लोगों को इन बातों से दूर कर देती है.

अक्सर लोग अपनी कई चाहतों या कुछ कर पाने के जोश के साथ इस दुनिया में कदम रखते हैं. लेकिन, कोई तरीका नहीं है कि कैसे इन संवेदनशील नए लोगों को इसके इतिहास से जोड़ा जाए, जिनके पास एक सधी हुई राजनीतिक भाषा नहीं है.

मज़ेदार बात यह थी कि मैं आनंद पटवर्धन के साथ काम कर रही थी. आनंद, खुद में प्रतीक हैं ऐसी राजनीति प्रक्रिया के जो लंबे समय तक चलती है और जिसे वो रोज़मर्रा की छोटी-छोटी चीज़ों में देखने का प्रयास करते हैं. लेकिन, मेरे ख्याल से अब इस तरह के राजनीतिक विचार की आलोचना करना एकदम आम हो चुका है, एक तरह से फैशन बन गया है. और इसे स्वीकृति भी हासिल है. लेकिन, मेरे लिए इसमें बहुत कुछ सीखने लायक है कि कैसे रोज़मर्रा की छोटी-छोटी घटनाओं जिनसे वह लगातार जुड़े होते थे उनके बीच के रिश्तों से समझ बनाते थे. पर, इसके साथ ही मुझे यह भी लगता था कि जिसे कहने के लिए मेरे पास उस वक्त शब्द नहीं थे पर आज हैं – इस प्रक्रिया में अक्सर चीज़ों को एक खांचे में भी फिट कर दिया जाता था.

डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों की दुनिया के साथ जो मेरा पारस्परिक संबंध है, ये दुनिया जो कुछ साबित करने के लिए बने-बनाए खांचे- कौन अच्छा है, कौन बुरा है का इस्तेमाल करती है… इसे लेकर मेरी जो असंतुष्टियां थीं वो बहस में बदल जाया करती थीं, जो ज़रूर थोड़ी बेमेल हुआ करती, लेकिन शब्द एकदम सटीक होते थे. मुझे याद है, मेरी एक सहयोगी ने एक दिन मुझसे कहा, “तुम किसी झुंझलाई हुई नारीवादी जैसी बातें कर रही हो?” मैं उस वक्त यही सोचती रही कि इसने ऐसा क्यों कहा? क्या उसने मेरी आलोचना को खारिज करने के लिए ऐसा कहा?

पर, रोज़मर्रा की छोटी-छोटी बातों में राजनीति को देखने के विचार पर वापस लौटते हैं. जैसे कि मुझे याद है, एक दिन मैं पैदल ही घर लौट रही थी. बॉम्बे (अब मुम्बई) में राजनीतिक सभाओं की सूचना ब्लैकबोर्ड के माध्यम से दी जाती है. उस दिन जब मैं स्टेशन से बाहर निकल रही थी तो मेरी नज़र ऐसे ही एक ब्लैकबोर्ड पर गई जिस पर लिखा था, बांद्रा के पटवर्धन बाग में फ़िल्म ‘भए प्रकट कृपाला’ दिखाई जाएगी. इसे पढ़ कर मैं सोच में पड़ गई कि यह क्या है? चूंकि वह पार्क मेरे घर के रास्ते में ही पड़ता था तो उस दिन घर लौटते वक्त मैं देखने निकल गई कि जो ब्लैकबोर्ड पर लिखा था वो क्या था. ‘भए प्रकट कृपाला’ दरअसल विश्व हिंदू परिषद द्वारा बनाया गया एक वीडियो था जिसे बाबरी मस्जिद को गिराए जाने के पक्ष में बनाया गया था. मैंने उसी वक्त फौरन आनंद पटवर्धन को कॉल किया और एकदम उत्तेजित होकर उन्हें इसके बारे में बताया (जो बाद में राम के नाम फ़िल्म का हिस्सा भी बना). मेरे लिए ये एकदम नई तरह की शिक्षा थी. एक ऐसा मौका जहां मैं अपने आस-पास की दुनिया में, रोज़मर्रा की घटनाओं में राजनीति को घटते हुए देख सकती थी. और ऐसा करने में डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों के मेरे काम ने मेरी बहुत मदद की. इस सबको समझने में और एकदम जवान, बिना आकार के लेकिन एक उद्देश्य के साथ मैंने इस समझ को अपने काम की जगह में एक सार्थक योगदान के रूप में शामिल करने की कोशिश की.

आनंद पटवर्धन की डाक्यूमेंट्री फ़िल्म 'राम के नाम' (1992) से एक चित्र

बॉम्बे का वह दौर भी अलग था. तरह-तरह की यूनियन हुआ करती थीं और आप इतनी तरह के अलग-अलग लोगों से मिलते थे, जिनसे रोज़मर्रा की मिडिल-क्लास ज़िंदगी में शायद ही मुलाकात होती. यहां तक कि दिल्ली में एक्टिविस्ट होकर भी आप इतनी तरह के लोगों से नहीं मिल पाते. लेकिन, बॉम्बे में ऐसा हो सकता था. बॉम्बे में किसी प्रोटेस्ट या मीटिंग के बाद साथ मिलकर उडुपी जैसे छोटे होटलों में बैठकर चाय-कॉफी पीने की एक पूरी संस्कृति थी. उडुपी इसलिए क्योंकि वो सस्ता हुआ करता था और स्टेशन के पास ही होता था. वहां शराब नहीं मिलती थी, सिर्फ़ चाय या कॉफी. आप दो रुपए में घंटों साथ बैठकर गप्पें मार सकते थे. फिर, साथ बैठे लोगों में से कुछ के साथ अच्छी बातचीत होने लगती तो, उनके साथ वहां से निकलकर किसी सस्ते बार में सस्ती शराब पीने चले जाते थे. ये एक-दूसरे के साथ सामाजिक मेल-जोल की परंपरा थी, दोस्ती नहीं. तरह-तरह के लोगों के साथ सामाजिक मेल-जोल. मुझे यह दुनिया बहुत अनोखी लगती थी, वहां हमेशा कुछ नया जानने को मिलता था.

डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों की दुनिया में काम करने के मेरे अनुभवों और जिस विस्तृत राजनीतिक दुनिया का ये हिस्सा है, उससे मैंने यही जाना कि आप ये मानकर नहीं चल सकते कि राजनीति किसी एक जगह (या एक ही रूप) में होती है. मैं इसे राजनीति का रियल-एस्टेट नज़रिया कहती हूं, कि वहां पर जाओगे तो वहां आपको पॉलिटिक्स मिल जाएगी या ऐसी फ़िल्में बनाओगे तो उसके अंदर तो अपने-आप ही पॉलिटिक्स होगी. डॉक्यूमेंट्री फ़िल्में बहुत हद तक इसी नज़रिए पर आधारित हुआ करती थीं.

मुझे लगता है कि आप जिसे शिक्षाशास्त्र या पेडगोजी कह रहे हैं, मेरे सीखने, या मेरे काम करने का तरीका, वहीं से शुरू हुआ. डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म रूप, और जिस तरह से हम लोगों से बात कर रहे थे, राजनीति का निर्धारण कर रहे थे और लोगों का निर्धारण कर रहे थे, यह सब कुछ मुझे लगातार बेचैन बना रहा था. मैं इसमें खुद को बहुत असहज महसूस कर रही थी.

आप दिल्ली छोड़कर मुम्बई जा बसीं, यह जो शिफ्ट थी, क्या आपकी फ़िल्म मेकिंग पर इसका भी प्रभाव पड़ा? अगर हां तो कैसे?

मेरी पहली फ़िल्म ‘अन्नपूर्णा’ बहुत ही सरल और क्लासिकल फ़िल्म है. यह महिलाओं के एक ऐसे समूह के बारे में बात करती है जो अप्रवासी मज़दूरों के लिए डब्बा (खाना) बनाती थीं. मैं उस समय 25 साल की थी. और बॉम्बे में मैं जहां रहती थी, उसके पास स्थित कॉलोनी -गीरगांव, जहां से अन्नपूर्णा की महिलाएं काम करती थीं; ने मेरा दिल जीत लिया था. गीरगांव, उस वक्त सेंट्रल बॉम्बे का एक गांव था जहां मिल्स हुआ करती थीं. मैं वहां यूनियन की मीटिंग्स के लिए जाया करती. लेकिन, फिर भी मैं कह सकती हूं कि उस कॉलोनी के साथ मेरा रिश्ता राजनातिक से ज़्यादा संवेदी था. बॉम्बे शहर आपको वो जगह देता है कि आप शहर में बिंदास घूम सकते थे और इसके इतिहास की पड़ताल इस तरह से कर सकते थे जिसे उस समय दिल्ली में करना बहुत मुश्किल काम था, खासकर औरतों या महिलाओं के लिए. इसी की वजह से मुझ में संवेदनात्मक राजनीति विकसित हुई. मुझे लगा, इसमें कुछ तो है. मैं जाकर उस जगह को पूरा देखना चाहती थी, वहां की मिलों में जाकर शूट करना चाहती थी, मैं ये सबकुछ करना चाहती थी.

मुझे लगता है कि इस प्रक्रिया ने हम दोनों के बीच एक आपसी समझ के लिए रास्ता बनाया. जितना मैं इस शहर और यहां के लोगों को समझ रही थी, उतना ही खुद को भी समझ पा रही थी. मैं खुद को एक ऐसे व्यक्ति की तरह स्थापित करने की कोशिश नहीं कर रही थी जो पूर्व निर्धारित राजनीतिक नज़रिया रखती है और यही वजह है कि एक खास तरह की फ़िल्में ही बनाती है.

पारोमिता वोहरा की डाक्यूमेंट्री फ़िल्म अन्नपूर्णा से (1995) चित्र

मुझे यह भी लगता है कि मिल मजदूर संघ के नेता दत्ता ईश्वलकर जैसे मज़ेदार लोगों से मिलना भी मेरे लिए बहुत शानदार अनुभवों में से एक था. दत्ता, खुद एक मिल वर्कर थे. उन्होंने मुझे बहुत कुछ सिखाया. दत्ता और दूसरे सभी लोग मीटिंग के लिए आते और मैं भी उन बैठकों में पहुंच जाया करती थी. मैं कॉफ़ी बना देती या कुछ और कर देती जिससे उन्हें ऐसा लगे कि मैं भी काम कर रही हूं. एक दिन मैं उनके पास गई तो दत्ता ने कहा, “पारोमिता, तुम मीटिंग्स में कुछ बोलती क्यों नहीं हो?” मैंने कहा, “मुझे कुछ नहीं पता.” दत्ता ने कहा, “तुम्हें कैसे पता है कि तुम्हें नहीं पता है? हम जानना चाहते हैं कि तुम क्या सोचती हो और हो सकता है कि इससे कोई मदद ही हो सके.” उस बात ने मुझे अंदर से झकझोर दिया. एक मिल मज़दूर संघ के नेता ने मुझसे कहा कि मुझे खुद को संवेदनशील बनाना चाहिए. ऐसा आरामदायक रास्ता चुनना ठीक नहीं कि या तो हम सब कुछ जानते हैं, या फ़िर कुछ नहीं जानते. आप जिस जगह, जिस पल में जी रहे हैं, उस जगह, उस पल में रहें और उसको जानने की कोशिश करें, ये बहुत ही ज़रूरी चीज़ है. मुझे लगता है कि दत्ता बहुत ज्ञानी व्यक्ति थे और उनकी समझ बहुत ही अलग क़िस्म की थी.

शायद यह मेरा लक या सौभाग्य ही था कि मैं ऐसे ज़बरदस्त और शानदार लोगों से मिली जिनकी राजनीति स्याह-सफेद के खांचे में नहीं बंटी थी. ऐसा इसलिए भी था क्योंकि उनके लिए राजनीति उनके जीवन का अहम हिस्सा थी, जैसे उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी, नौकरी, रहने की जगहें, संस्कृति सबकुछ – वो सिर्फ़ उदार होने का दिखावा भर नहीं था. एक तरह से यह समानता की शिक्षा थी. बहुत सारे लोग, जब वे अपने से एकदम भिन्न सामाजिक दर्जे के लोगों के साथ जुड़ रहे होते हैं तो उनके पास कोई फॉर्मूला नहीं होता कि कैसे आप अपने से बिल्कुल ही अलग किस्म के व्यक्ति के साथ बराबरी का रिश्ता बनाएं? मुझे लगता है, यहां समानता का दिखावा करने के बजाय ज़्यादा बेहतर यह है कि हम आपस में बातचीत करें और एक-दूसरे में जो चीज़ कॉमन है उसकी पहचान करें, समावेशी रास्ता तलाश करें जो हमें बराबरी पर ला खड़ा करे.

हर एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म के बाद, नॉन-फिक्शन के साथ मेरा रिश्ता कम सहज होता गया. इसके पीछे की सच्चाई यह थी कि मैं समझ रही थी कि ऐसी डॉक्यूमेंट्री में मैं अपने मन की बात कहने के लिए या खुद की सोच को सही साबित करने के लिए लोगों की वास्तविक ज़िंदगियों से कहानियों के टुकड़े चुन रही थी. ‘एजेंट्स ऑफ़ इश्क’ तक पहुंचने से पहले, कई साल इस सोच-विचार में निकले कि हम कैसे और किससे जुड़ेंगे, और इन सारी चीज़ों ने एजेंट्स ऑफ़ इश्क की कार्यप्रणाली को आकार देने में में मदद की.

नारीवादी आंदोलनों के साथ आपका जुड़ाव किस तरह का रहा है और एजेंट्स ऑफ इश्क़ को अमलीजामा पहनाने में इसकी क्या भूमिका रही है?

मैं ऐसा तो नहीं कहूंगी नारीवादी आंदोलनों को लेकर ‘मेरी (कुछ) दिक्कतें’ हैं, लेकिन कुछ चीज़ें है जिससे मुझे परेशानी रही है. एक फ़ीलिंग जो लगातार मेरे भीतर चली आ रही है, वो है कि ये बहुत ही गम्भीर या संयमी है. जवानी के दिनों में तो मैं ऐसा ही सोचा करती थी, अब शायद मैं इसके लिए काफ़ी ‘शरीफ़ाना या सम्मानजनक’ शब्द का इस्तेमाल करूं.

हां, ये सच है कि इसमें बहनापे का जज़्बा भरपूर है, जो बहुत अच्छी बात है. एक-दूसरे के साथ मिलकर मौज-मस्ती करना, पार्टियों में डांस करना, यह उस पीढ़ी के लिए ज़रूर बहुत खास हो सकता है जो एक बने-बनाए ढांचें को तोड़कर बाहर निकलने की कोशिश कर रही है. पर, मैं इससे ज़्यादा जुड़ाव महसूस नहीं कर पाती. मुझे तो यही लगा कि यह वैसी जगह या स्पेस नहीं है जहां अलग-अलग तरह के लोगों का प्रवेश आसान हो. मैं खुद अपनी बात करूं तो पहली बार मैंने अपनी फ़िल्म ‘अनलिमिटेड गर्ल्स’ के ज़रिए इसमें प्रवेश किया था, वह भी अपनी शर्तों पर.

अनलिमिटेड गर्ल्स का पोस्टर (2002)

अनलिमिटेड गर्ल्स में, चैटरूम का इस्तेमाल एक साधन के रूप में किया गया था, जिसके ज़रिए नारीवादी महिलाएं एक दूसरे से बात करती हैं. मैंने, चैटरूम का इस्तेमाल क्यों किया? क्योंकि उस दौर में मैं खुद भी चैटरूम में, तमाम तरह की बदमाशियों से भरी सेक्सुअल चीज़ें किया करती थी. उस वक्त वही मेरी दुनिया थी, मेरा जहान था. ये मेरी ज़िंदगी का बहुत, बहुत ज़रूरी हिस्सा हुआ करता था. और क्योंकि फ़िल्म शूट करते हुए मैं सोच रही थी कि जिन औरतों को मैं शूट कर रही हूं, वह चाहती हैं कि ये बातें फ़िल्म में कही जाएं. साथ ही, मैंने कई दशकों की नारीवादी मीटिंग्स और सम्मेलनों में होने वाली बातों के नोट्स पढ़े थे और उसे पढ़कर मुझे यही लगा कि ये एक लंबी बातचीत है, उन लोगों के बीच जो साथ मिलकर अलग-अलग समय में एक तरह की राजनीति पर विचार कर रहे थे.

लेकिन, मैं इसे कैसे दिखाऊं? इस राजनीति को साफ़-साफ़ व्यक्त कैसे करूं कि ये फ़िल्म को रूढ़िवादी या शाब्दिक न बना दें? और फिर सोचते-सोचते मेरे दिमाग में दोनों को मिला देने का आईडिया आया- चैटरूम में बदमाशियों से भरी मेरी खुद की यौनिक खोज और नारीवादी बातचीत में निहित राजनीति को देखना-समझना, ये एक-दूसरे के पूरक नहीं थे, पर वे एक दूसरे के बारे में समझ बना रहे थे, एक-दूसरे पर रौशनी डाल रहे थे. यहां सिद्धांत और अनुभव मिलकर एक तरह के प्रकाश की तरफ इशारा कर रहे थे.

आप जब फ़िल्म देखेंगे तो आपको पता चलेगा कि चैटरूम का जो फ्रेम है वो ज़बरदस्त है. चैटरूम में पात्रों के बीच की बातचीत से आप बहुत कुछ सीख सकते हैं. उसका फ्रेम समावेशी है क्योंकि यहां अलग-अलग तरह के लोग एक साथ आते हैं और उनमें से हर एक अपना कुछ-न-कुछ योगदान देता ही है. कई जगहों पर एक-दूसरे से मिलते-जुलते नज़रियों के बावजूद वे एक-दूसरे से बिल्कुल विपरीत सोच रखने के लिए भी जगह बनाते हैं. ये एक समावेशी रूप होकर भी किसी एक खांचें में नहीं बंधा था – यहां कोई व्यक्ति या समूह एक जैसे नहीं हो जाते या न ही बराबर हो जाते हैं. बल्कि वे एक दूसरे को प्रभावित करते हैं, एक-दूसरे को नए सिरे से गढ़ते हैं, कभी सहमतियों तो कभी असहमतियों के लिए जगह बनाते हैं. इसने दरअसल मेरी हर एक चीज़ को आकार देने का काम किया.

मैं कह सकती हूं कि मेरा काम सही-गलत या काले-सफेद की राजनीति से निकलकर एक नए रूप को गढ़ना है.

कह सकते हैं कि नॉन बाइनरी राजनीति में नॉन बाइनरी फॉर्म की तलाश है.

मुझे यह भी महसूस हुआ कि नारीवादी आंदोलनों में सेक्स के लिए कोई जगह नहीं थी. वो, इसे क्या कहते हैं? ‘घटिया’, है ना? आप यौनसुख और मज़े के बारे में सहज तरीके से बात नहीं कर सकते. मज़ा तो वहां बिलकुल नहीं था. इसी वजह मैं इससे थोड़ा बोर हो जाती थी. और फिर, मैं सीडब्ल्यूडीएस (सेंटर फॉर विमेन एंड डेवलेप्मेंट सट्डीज़) की एक प्रदर्शनी में गई, जो सन् 1800 से सन् 1947 तक की भारतीय महिलाओं पर केंद्रित थी. वह प्रदर्शनी बहुत ही शानदार थी, लेकिन मैं उससे बिलकुल जुड़ाव महसूस नहीं कर सकी. मैं जिस परिवार से आती हूं, उस परिवार की औरतें आम नहीं थीं. मेरी दादी एक एक्ट्रेस थीं, वह एक फ़िल्म प्रोड्यूसर थीं, लेकिन वह फ़ेमस नहीं थीं. वह कोई देविका रानी नहीं थी! जो कुछ भी मैंने अपने आसपास देखा था, वैसा कुछ भी उस प्रदर्शनी में था ही नहीं! और मुझे ये भी नहीं समझ आ रहा था कि ऐसा क्यों नहीं था. मुझे लगता है कि

मेरे बहुत से असंतोष, कुछ और नहीं बल्कि आत्मीयता के अभाव में की गई आलोचना थी. नारीवादी राजनीति वो थी जिसे मैं प्यार करती थी, सच्चे दिल से प्यार. इसने मेरे जीवन को आकार दिया, और भी बहुत कुछ दिया, लेकिन मैंने यह भी महसूस किया कि आख़िर ये चीज़ क्या है!

अनलिमिटेड गर्ल्स जब रीलिज़ हुई, सब बहुत अच्छा था. लेकिन, मेरी रातों की नींद उड़ी हुई थी, कई रात मैं सोई नहीं. मुझे लग रहा था कि अब सारी नारीवादी औरतें आएंगी और मेरी चटनी बना देंगी. पर, उनमें से बहुत सारी औरतें जैसे सोनम शुक्ला, जो फ़िल्म के बनने की प्रक्रिया के दौरान मुझे भाव नहीं देती थीं या मुझसे ठीक से बात नहीं करती थीं, वह भी फ़िल्म देखने आईं और उन्होंने पूरी फ़िल्म देखी. स्क्रीनिंग से निकलकर उन्होंने कहा, “तुमने वाकई यह फ़िल्म हमारे बारे में बनाई है.” उनमें यह भी बात थी – चीज़ों को स्वीकारना, पहचानना – जिसका मैं सम्मान करती हूं. इतने सालों में मैंने यही सीखा है कि यह संभव है कि लोग आपके विचारों से, आपके काम से पूरी तरह सहमत न हों, आपकी आलोचना करें, बावजूद इसके, वह आपका सम्मान कर सकते हैं, आपसे मुहब्बत कर सकते हैं.

मैं यह उम्मीद कर रही थी कि नारीवादी औरतें मुझे और मेरे काम को गंभीरता से देखेंगी. लेकिन, मैंने ऐसा कोई काम किया ही नहीं था कि वह मुझे गंभीरता से लें, और लें भी क्यों? यही सोचकर मैंने अपनी उम्मीदों की लगाम थोड़ी खींच ली. पर, लगातार काम करते रहने, दृढ़ता के साथ उसे करते रहने के बाद जो प्यार और सम्मान मिला, वह शानदार था. ऐसा नहीं था कि सभी को फ़िल्म पसंद ही आई थी, बहुतों को उससे दिक्कतें थीं. पर, यह तो था ही कि सभी ने उस विषय के प्रति मेरे ज़ज्बे को सराहा. मैं कितना ज़्यादा उसमें डूबी हुई है इसको अहमियत दी. इसने बातचीत के बहुत सारे रास्ते खोले. दरअसल, बातचीत एक ऐसी जगह है जहां हम अपनी वैचारिकी के साथ अपनी बात एक-दूसरे से कह सकते हैं, साथ आगे बढ़ सकते हैं- यह आईडिया भी राजनीतिक तौर पर ज़बरदस्त है. मैं अपनी बात करूं तो मेरे लिए समय के साथ इसका विस्तार ही हुआ है.

मज़ा या आनंद के बारे में बात करते हुए आप महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा या बलात्कार से जुड़े विमर्शों, एक्टिविज़म या चर्चाओं पर कैसे बात करती हैं?

2012 में दिल्ली में हुए गैंग रेप केस के बाद लोगों के मन में डर और आजिज़ी का माहौल भीतर तक बैठ चुका था. यही वो समय था जब एजेंट्स ऑफ़ इश्क की शुरुआत हो रही थी. देश में हर जगह लोग नारे लगा रहे थे. उन नारों में एक मांग साफ थी- बलात्कारियों को फांसी दो. ज़ाहिर है कुछ लोग तो ऐसी मांग करेंगे ही लेकिन, व्यक्तिगत रूप से मुझे इससे थोड़ी कोफ़्त थी. पर, मेरा ध्यान इस बहस ने खींचा कि – सार्वजनिक स्थानों पर लड़कियां और महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं!

हमें मालूम है कि सत्तर-अस्सी के दशक से बलात्कार के खिलाफ़ आंदोलन होते आ रहे हैं लेकिन, 2012 में इसने जिस तरह से मुख्यधारा पर असर डाला वो बिलकुल अलग था. कई पॉपुलर वीडियोज़ जैसे एआईबी (ऑल इंडिया बकचोद) ने ‘क्रीप कव्वाली’ (घटिया या घिनौनी कव्वाली) बनाई या जो ईस्ट इंडिया कॉमिडी ने एक घटिया सा वीडियो बनाया जिसमें वो कहते हैं कि, “ओ माफ करना अगर हमें वो बलात्कारी मिल जाएं तो हम उनके प्राइवेट पार्ट का चूरा बना देगें” वहीं, ऐसे वीडियोज़ भी दिखाई देते हैं जहां टीचर, स्टुडेंट्स को कह रहे हैं कि साइंस में रिप्रोडक्शन चैप्टर पढ़ने की ज़रूरत नहीं है और खुद छिप-छिप कर पोर्न (अश्लील साहित्य) पढ़ रहे हैं – पर उस टीचर को हमेशा एक कस्बे के व्यक्ति के रूप में पेश किया जाएगा- इससे शहरी एवं खुद को ज्ञानी बताने वाले लोगों के लिए अपने ज्ञान और खुद को ऊंचा दिखाने का मौका मिल जाता है, बजाय इसके की सेक्सुअल कल्चर पर कोई ढंग की राजनीतिक बात की शुरुआत की हो.

असल में इस तरह की बातों की गहराई में जाने पर अपनी जाति को लेकर जो पवित्रता और शुद्धता की भावना है वही दिखाई देती है. ये सब देखते हुए पिछले 10 सालों में जाति को लेकर मेरी समझ बहुत बढ़ी है. इन सारी बातों के ज़रिए ही मैंने जाना कि कैसे जाति और नारीवाद का एक अजीब कॉकटेल बन जाता है. ऐसे वीडियोज़ की बहुत ज़्यादा तारीफें हो रहीं थीं क्योंकि ये कथित तौर पर महिलाओं की तरफ से खड़े होकर बात कर रहे हैं. ये वीडियोज़ महिलाओं की आज़ादी की बात न करके हाशिए पर खड़े मर्दों से महिलाओं की सुरक्षा की बात कर रहे थे.

'ओल्ड वाइव्स टेल्स ऑफ़ मेस्ट्रोबेशन' से चित्र. चित्र साभार: एजेंट्स ऑफ़ इश्क

दरअसल, मिडिल क्लास घरों की औरतों के बारे में जानने का यह बहुत अच्छा इनडिकेटर है. ‘मुझे खुद को बचा कर रखना है.’ या ‘एडवेंचर करने की जगह खुद को बचाए रखने की कोशिश करनी है.’ मतलब, ये सब ऐसा है कि जिसकी कल्पना नहीं की जा सकती. मै कैसे बताऊं कि देखो दिल्ली से मुम्बई आकर मैंने कितने मज़े किए हैं. उस वक्त तो हम इतना कुछ सोचते भी नहीं थे. आखिर एडवेंचर का मतलब क्या होता है- आप नई जगहों पर जाते हैं, आप सड़कों पर घूमते हैं, गलत बस में चढ़ जाते हैं, प्यार करते हैं फिर बाद में उसपर अफसोस भी करते हैं. ऐसा सब करते हुए बहुत मज़ा आता है. हां, बहुत सारी परेशानियां भी होती हैं. लेकिन इन सब से आप सीखते हैं. पर, अब तो लोग अपने सुरक्षित स्थान से बाहर ही नहीं निकलना चाहते, उसके अंदर रह कर ही जीना है. आज़ादी या न्याय के हक की मांग करना इस बात से बिल्कुल ही अलग है कि दुनिया में किसी तरह का जोखिम नहीं होना चाहिए. ये दोनों दो विपरीत बातें हैं.

मुझे उन लोगों से भी बहुत चिढ़ है जो ऐसे लोगों का मज़ाक बनाते हैं या उन्हें नीचा दिखाते हैं जिन्हें या तो जानकारी नहीं होती या फिर वो गलत जानते हैं. अरे, उन्हें नहीं पता तो आप उन्हें बता क्यों नहीं देते. बताकर आप उनकी मदद ही करेंगे. जैसे, मुझे नारीवाद के बारे में उसके इतिहास के बारे में जानना था लेकिन मेरे पास ऐसी कोई जगह नहीं थी जहां से मैं ये सब जान सकती थी. फिर मुझे इसके लिए नीचा दिखाने की कोशिश की गई क्योंकि हो सकता है उस समय मैंने कुछ गलत कह दिया हो. इसलिए, एजेंट्स ऑफ़ इश्क को लेकर तय था कि हम सेक्स के बारे में बात करेंगे हम ‘सेक्स एजुकेशन’ देना चाहते हैं. लेकिन, किताबी या बोरिंग तरीके से नहीं बल्कि खूबसूरत, मज़ाकिया और कलात्मक अंदाज़ में बात करना चाहते हैं और जहां हर तरह के लोगों की बात हो.

अजेंट्स ऑफ़ इश्क का वेबसाइट हैडर

जब आपने एजेंट्स ऑफ़ इश्क के बारे में सोचा तो क्या आपके दिमाग में इसका खाका बिल्कुल क्लियर था?

हमने एजेंट्स ऑफ़ इश्क की संरचना और चीज़ों की प्रस्तुति को लेकर बहुत माथापच्ची की. यह कैसा दिखना चाहिए? इसे देखते ही अपनापन महसूस हो, क्या इसे ऐसा दिखना चाहिए? यह सेक्स नहीं, बल्कि यौनिकता की बात है. तो, क्या यह अकादमिक जगह है? क्या यह कोई एनजीओ की तरह की जगह है? या फिर यह है कोई पोर्नोग्राफी वाली जगह जो बिल्कुल उथला और खराब सा दिख रहा है?

हमें लगा कि वेबसाइट दिखने में दोस्ताना या अपनापन जैसी लगनी चाहिए. ऐसी, कि देखने वालों को लगे कि इसे हाथ से बनाया गया है. जैसे कोई वास्तविक इंसान या इंसानों का समूह है जो ऐसा कर रहा है. यह उस तरह की व्यवहारिक डब्बों में सेट जानकारी नहीं है जैसी कि इंटरनेट पर दी जाती है. यह ऐसा अहसास है कि मैं इसके अंदर आ-जा सकती हूं.

मज़े की बात यह है कि एजेंट्स ऑफ़ इश्क के लॉन्च होने के अगले ही दिन हर कोई फोन कर रहा था और कह रहा था कि वह हमें इंटरव्यू देना चाहता है. लोगों ने हमें मेल करना शुरू कर दिया. मेरे पास उस पहले इनबॉक्स का स्क्रीनशॉट आज भी है- ‘मैं भी इश्क का एजेंट बनना चाहता हूं’. तो ज़ाहिर है कि इश्क का एजेंट बनने का आइडिया लोगों को बहुत रास आया. लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण यह था कि लोग ही खुद इसकी परिभाषा को तय कर रहे थे कि इसका क्या मतलब है, क्योंकि हमने इसकी कोई बनी-बनाई परिभाषा नहीं दी गई थी इसलिए हमने लोगों की परिभाषाओं और उनकी एनर्जी को प्रोजेक्ट का हिस्सा बना लिया- इस तरह साथ मिलकर, इस प्रोजेक्ट ने अपना रूप लिया.

और फिर, एजेंट्स ऑफ़ इश्क विविध सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक बैकग्राउंड के लोगों की यौन कथाओं के एक ऐसे संग्रह के रूप में विकसित होता चला गया, जिसे आप किसी एक खांचे में फिट नहीं कर सकते. इस वेबसाइट पर उपलब्ध कंटेंट बहुत हद तक लोगों को यह एहसास दिलाता है कि सेक्स अपने आप में शिक्षा है, कि आपका जो अंतरंग अनुभव है वही आपकी शिक्षा है – और यही वो सामूहिक ज्ञान का स्रोत बना जिसमें लोग कुछ न कुछ जोड़ रहे थे और इससे कुछ नया हासिल भी कर रहे थे. इस तरह चैटरूम का जो फॉर्म था ठीक वही फॉर्म अब एजेंट्स ऑफ़ इश्क के प्लेटफॉर्म पर जीते-जागते रूप में डिजिटल स्पेस में दिखाई देने लगा. अब यहां सेक्स या सेक्सुअल होने जैसी विविधताओं से भरे अनुभवों ने सेक्स जैसे विषय पर बातचीत के नए आयाम खोले न कि सेक्स पर पहले से बने-बनाए रूढ़ि हो चुकी पाठ्यक्रमों में फिट होने की कोशिश की. जैसे नारीवाद में अलग-अलग संदर्भों से अलग-अलग विचारधारा का मेल होता है, वैसे ही एजेंट्स ऑफ़ इश्क पर सेक्स के विविध संदर्भों में आज़ाद होने का अहसास घुला-मिला होता है.

दूसरा भाग यहां पढ़ें.

इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है.

दिप्ता भोग द थर्ड आई हिंदी में एडिटोरियल डायरेक्टर हैं और साथ ही इनोवेशन और पार्टनरशिप्स विभाग की प्रमुख भी हैं. शबानी हसनवालिया द थर्ड आई की संपादक हैं.

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