कैसे सामाजिक कार्यकर्ता कैदियों को कानूनी भूलभुलैया में रास्ता दिखाते हैं

कैदी, अपराधी, दोषी जैसी पहचानों से आगे बढ़कर जेल में बंद व्यक्तियों के इर्द-गिर्द प्रचलित आख्यानों का सामना करते हुए सामाजिक कार्य से जुड़े छात्र कैसे उनसे उबरते हैं

चित्रांकन: तविशा सिंह
यह लेख सामाजिक कार्य (सोशल वर्क) के क्षेत्र में काम करने वाले उन पेशेवरों एवं छात्रों की बात करता है जिन्हें कैदियों के साथ काम करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है. यह उन महत्त्वपूर्ण बिंदुओं का पता लगाने का काम करता है जिन्हें इस काम के दौरान पार करने की ज़रूरत होती है ताकि एक ऐसी आबादी के साथ काम किया जा सके जिसके बारे में मौजूदा आख्यान सकारात्मक नहीं होते. कैदियों के साथ सामाजिक कार्य तब तक संभव नहीं हो सकता जब तक कि छात्रों द्वारा बताई गई कहानियों का संज्ञान न लिया जाए.

‘सभ्य’ समाजों में जेलों को बिना हुज्जत के मान लिया जाता है. हम अक्सर इस बात पर सोचते नहीं हैं कि जेल किस तरह की संस्था है, क्या है और यह क्यों बनाई गई है. हमारी समझ इन तीन बिंदुओं में से एक पर टिकी हुई है: हम बेखबर और उदासीन हैं, हम यह जानकर सुरक्षित महसूस करते हैं कि जेल है, या जेल पहुंचने वाले लोगों के बारे में चिंतित रहते हैं.

इन तीनों बिंदुओं की पृष्ठभूमि में, ऐसे कई पेशेवर हैं जो आपराधिक न्याय प्रणाली के साथ और उसके भीतर काम करना खुद से चुनते हैं. वे अपराध या मुकदमे की जांच करने, गिरफ्तार करने, मुकदमा चलाने, प्रतिनिधित्व करने, न्याय दिलाने और एक संरक्षक के रूप में कैदियों को सज़ा सुनाते वक्त भूमिका निभाते हैं. हालांकि, इन सबके बीच, पेशेवरों की एक ऐसी श्रेणी की कमी आज भी बनी हुई है जो अपराध के मनोवैज्ञानिक-सामाजिक निर्धारकों और कैद से रियाह होने के बाद व्यक्ति के फिर से समाज में शामिल होने और फिर से बसने की प्रक्रियाओं पर ध्यान देते हैं.

सामाजिक कार्यकर्ता पेशेवरों का एक समूह है जिनका इस संबंध में बेशकीमती योगदान है. हालांकि, आपराधिक न्याय व्यवस्था की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में इस समूह की भूमिका की सराहना और इसके संस्थानीकरण का स्पष्ट रूप उभारना भी है.

इस कमी को पहचानते हुए, 1954 में टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ (TISS), मुंबई ने अपराध विज्ञान और सुधार प्रशासन में विशेषज्ञता के साथ सामाजिक कार्य (सोशल वर्क) में स्नात्कोत्तर कार्यक्रम की पेशकश शुरू की. 1970 तक यह केवल जेल प्रशासन के पदाधिकारियों के लिए खुला था लेकिन उसके बाद इसे जन सामान्य के लिए उपलब्ध करा दिया गया. इसलिए, भारत में सामाजिक कार्यकर्ताओं का अपराध विज्ञान और जेल-आधारित सामाजिक कार्यों में प्रशिक्षण शुरू किए अभी 50 साल से कुछ ही ज़्यादा वक्त हुआ है.

हालांकि, जेल प्रणाली पारंपरिक तौर पर और बड़े पैमाने पर अभी भी बंद जगह बनी हुई है और जो सामाजिक कार्यकर्ता व्यवस्था द्वारा इसमें शामिल होते हैं वही इसमें कैदियों तक पहुंच पाते हैं.

बाकी सामाजिक कार्यकर्ता शायद ही कभी कैदियों तक पहुंच पाते थे. 1985 से 1990 के बीच टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ में अपराध विज्ञान और सुधार प्रशासन विभाग के व्याख्याता डॉ. सनोबर साहनी ने जेल व्यवस्था के साथ काम करने की ओर कदम बढ़ाया. और इस तरह सुधारात्मक प्रक्रिया में प्रशिक्षित सामाजिक कार्यकर्ताओं की भूमिका को बढ़ावा देने के प्रयासों की शुरुआत हुई. पिछले तीन दशकों में, डॉ. साहनी के मौलिक प्रयासों और विचारों का नतीजा – प्रयास*, सेंटर फॉर क्रिमिनोलॉजी एंड जस्टिस की एक फील्ड एक्शन परियोजना, महाराष्ट्र और गुजरात में औरतों और युवा वयस्क कैदियों के लिए सामाजिक कार्य हस्तक्षेप उपलब्ध कराने में सक्रिय रही है.

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़, अपराध विज्ञान और न्याय विषय पर सोशल वर्क में अपनी स्नातकोत्तर डिग्री के ज़रिए, जेलों पर प्रमुखता से ध्यान देता है. इसके साथ, आपराधिक न्याय प्रणाली के भीतर हस्तक्षेप के लिए सामाजिक कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षित करने का भी काम करता है. कहने की ज़रूरत नहीं कि बंद जेल व्यवस्था और सलाखों के पीछे जो कुछ भी है, उसके भीतर काम करने के लिए मज़बूत इरादा, उद्देश्य के प्रति प्रतिबद्धता और जेल के भीतर कैदी के अधिकार और उसके पुनर्वास के लिए लड़ने के लिए पराक्रम की ज़रूरत होती है, क्योंकि वैचारिक माहौल आमतौर पर इसके खिलाफ़ ही होता है.

जेलों में सामाजिक कार्यकर्ता, अधिकतर, स्वैच्छिक क्षेत्र के सदस्य (वोलेंटियर) होते हैं और शायद ही कभी जेल स्टाफ की भूमिका में शामिल होते हैं**. उनके पास कोई औपचारिक अधिकार नहीं होते, और वे कैदियों तक सामाजिक कार्य सेवाएं पहुंचाने के प्रयास के तहत जेल का दौरा करते हैं. वे कैदियों के एक ऐसे समूह के साथ काम करते हैं जो कमज़ोर, हाशिए पर धकेल दिए और अक्सर सामाजिक कार्य के दायरे से बाहर होते हैं. ये सामाजिक कार्यरता कैदियों का समुदाय से अलगाव और उसमें मौजूद बदनामी की पहचान करते हैं, और उन्हें कानूनी जानकारी, कानूनी सहायता, परिवार के साथ संपर्क, बच्चों के प्रति सेवाएं और अन्य प्रणालीगत मुद्दों से संबंधित हस्तक्षेप एवं सेवाएं उपलब्ध कराने का काम करते हैं.

सामाजिक कार्य में, व्यक्ति ही वह प्राथमिक बिंदु है जिसपर ध्यान दिया जाता है. जिस सामाजिक-राजनीतिक और सांस्कृतिक परिवेश में वे रहते हैं उसमें उन्हें समझ कर, उनके साथ रिश्ता कायम करना ज़्यादातर जेल सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए सहमति का प्रारंभिक बिंदु है.

सामाजिक कार्यकर्ता को सबसे पहले उन्हें दी गई 'आरोपी', 'कसूरवार', 'कैदी', 'अपराधी' या 'दोषी' की पहचान से आगे बढ़कर उसके पीछे के व्यक्ति की पहचान करनी होती है.

उनके लिए यह भी जानना बहुत ज़रूरी है कि कैद में आने से पहले के जीवन ने कैद के भीतर व्यक्ति को किस तरह प्रभावित किया है, यह जाने बगैर वह उस कैदी द्वारा कारावास में गुज़ारे गए वक्त को बेहतर ढंग से इस्तेमाल नहीं कर सकते. और साथ ही, यह इतिहास उस व्यक्ति को कैसे प्रभावित करेगा जो जेल की सज़ा पूरी होने पर समुदाय में वापस जाएगा. इस तरह सामाजिक कार्यकर्ता के लिए यह ज़रूरी है कि वह उस व्यक्ति को स्वीकार करे जिसे उसके चारों तरफ मौजूद लोगों ने अस्वीकार किया है और अविश्वास के माहौल में उसके साथ विश्वास का रिश्ता स्थापित करे. वह इस बात में यकीन करे कि एक व्यक्ति उन कार्यों और व्यवहार के पैटर्न से आगे बढ़ सकता है जिनके चलते नुकसान पहुंचा है – तब भी जब समाज, व्यवस्था और अक्सर जब व्यक्ति खुद इस बात पर भरोसा नहीं करता कि यह मुमकिन है.

इन लक्ष्यों को अपरिहार्य दो-आयामी शिक्षाशास्त्र के ज़रिए से पूरा किया जाता है जो सिद्धांत और प्रक्रिया के अनुभवात्मक एकीकरण को सक्षम बनाता है और जिसे सामाजिक कार्य अपनाता है. इस शिक्षाशास्त्र के ज़रिए, कक्षा में होने वाली पढ़ाई को ‘फील्डवर्क’ नामक एक घटक के साथ जोड़ा जाता है, जो अनुभव हासिल करने की एक निर्देशित और श्रेणीबद्ध प्रक्रिया है. इसके ज़रिए सामाजिक कार्य के विषय से जुड़े छात्रों को एक जीवंत और चालू या क्रियाशील प्रणालियों से जोड़ा जाता है जो उन्हें लोगों की वास्तविकताओं और सामाजिक कार्य के अभ्यास के बारे में सिखाता है. जिन छात्रों ने अपराध विज्ञान और न्याय में सोशल वर्क को चुना है, उनके लिए जेल में फील्डवर्क करना अनिवार्य नहीं है. मगर, जेल को उन छात्रों द्वारा चुना जाता है जो कैदियों के साथ काम करने में रुचि रखते हैं. उनका शुरुआती बिंदु अनिवार्य रूप से जेलों और कैदियों के बारे में प्रचलित आख्यानों की काट करने और उनका मुकाबला करने की प्रक्रिया बन जाता है जिसे हम सभी मुख्यधारा का हिस्सा होने के कारण आत्मसात करते हैं.

यह आलेख सामाजिक कार्य के उन पेशेवरों के काम पर चर्चा करता है जिन्हें कैदियों के साथ काम करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है. यह उन बुनियादों का पता लगाता है जिन्हें पार करने की ज़रूरत होती है, ताकि एक ऐसी आबादी के साथ काम किया जा सके जिसके बारे में मौजूदा धारणाएं धूमिल हो सकती हैं. कैदियों के साथ सामाजिक कार्य तब तक नहीं हो सकता जब तक कि उन धारणाओं पर फिर से विचार न किया जाए जिन्हें छात्र अपने भीतर लेकर चलते हैं. मैं एक फील्डवर्क सुपरवाइज़र के रूप में लिखती हूं, जो खुद इस राह से होकर गुज़री है. मैं अब सामाजिक कार्य के छात्रों के साथ उनकी यात्रा में उनका साथ देती हूं और उनका मार्गदर्शन करती हूं. इन तमाम वर्षों में, जैसे-जैसे छात्र फील्डवर्क के ज़रिए आगे बढ़ते हैं, जेल और कैदियों से संबंधित मान्यताएं सामने आती हैं. जैसे-जैसे छात्र इन कामों से जुड़ते हैं, कोई भी उनकी मान्यताओं में बदलाव देख सकता है, और यहां से नए आयाम खुलते हैं. इस लेख के ज़रिए मैं उन मान्यताओं का ज़िक्र करने जा रही हूं जो छात्र मूल रूप से मुख्य आख्यान बतौर रखते हैं क्योंकि ये बहुसंख्यकवादी स्थिति को दर्शाते हैं. फिर, हम जांच करते हैं कि बतौर शिक्षक हम उन्हें कैसे चुनौती देते हैं.

1. एक संस्था के रूप में जेल और कैदियों की प्रकृति: जेलों के अंधेरे और नीरस होने और कैदियों के असभ्य, सख्त और खतरनाक होने के बारे में छात्रों की धारणाएं काफी हद तक मीडिया से उपजी हैं. जैसे ही कोई छात्र जेल में एक सामाजिक कार्यकर्ता बनने के लिए प्रशिक्षण शुरू करता है, तो यह शायद उन सुनी-सुनाई बातों के शुरुआती तत्वों में से एक है जिसे चुनौती मिलनी शुरू हो जाती है. 

जब छात्र पहली बार जेल में प्रवेश करते हैं तो वहां कैदियों के रहने की स्थिति हो सकता है बहुत बेहतर न हो लेकिन वे छात्र की अपेक्षाओं के साथ पूरी तरह से मेल नहीं खाती है. छात्र जिस सामाजिक कार्यकर्ता के साथ जाते हैं, उनसे कैदी खुद संपर्क करते हैं. छात्र ऐसे लोगों से मिलते हैं जिनपर चोरी, धोखाधड़ी, हत्या, लोगों या नशीली दवाओं की तस्करी और कई अन्य अपराधों का आरोप है या उन्हें दोषी ठहराया गया है. वे अक्सर भावनाओं के एक ज़बरदस्त मिश्रण का अनुभव करते हैं क्योंकि उन्हें एहसास होता है कि जो तस्वीरें वे जेल में ले गए थे वे अपराध करने वाले लोगों के बारे में प्रमुख कथाओं पर आधारित अनुमान थे. कथित तौर पर अपराध करने वाले व्यक्ति से आमने-सामने की मुलाकात अक्सर गलत निष्कर्षों को तोड़ने का काम करती है, और यह अहसास कराती है कि हर अपराध के पीछे एक व्यक्ति और परिस्थितियों का एक सेट होता है – एक ऐसा तथ्य जो अक्सर हमसे तब तक दूर रहता है जब तक हम किसी कैदी के सीधे संपर्क में नहीं आते.

अपराध में औरतों की स्थिति भी आम या प्रचलित धारणाओं में छुप जाती है. औरतों को आमतौर पर पीड़ित के रूप में देखा जाता है और शायद ही कभी अपराधी या आक्रामक के रूप में देखा जाता है.

उनके द्वारा अपराध करने के विचार से जो दिलचस्पी पैदा होती है और जो ध्यान यह खींचता है यही कारण है कि अक्सर इसे सनसनीखेज़ बना दिया जाता है. इसे नैतिकता के तराज़ू पर तोला जाता है और अपराध करने वाले पुरुषों की तुलना में महिला अपराधियों को अधिक अस्वीकार्य माना जाता है.

इस तरह के नज़रिए से एक बात साफ दिखती है कि जेल में कैद औरतों से किस तरह की सामाजिक और पारिवारिक दूरी रखी जाती है. शिक्षा के अवसरों की कमी, कम उम्र में विवाह, हिंसा और दुर्व्यवहार, बच्चों की ज़िम्मेदारी और आर्थिक निर्भरता से संबंधित मुद्दों पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता है.

हालांकि, जेल में महिलाओं के साथ जुड़ने और हस्तक्षेप करने के दौरान, छात्र देख सकते हैं कि जेल में अधिकांश महिलाओं का मानसिक, शारीरिक या यौन शोषण का इतिहास रहा होता है, वे कमजोर सामाजिक-आर्थिक वर्गों से होती हैं, उनकी शिक्षा का स्तर निम्न होता है, वे आर्थिक रूप से दूसरों पर निर्भर होती हैं, उन्होंने जेंडर आधारित भेदभाव का अनुभव किया होता है और वे कानूनी प्रक्रियाओं से पूरी तरह अनजान होती हैं.

2. एक समरूप समूह के रूप में कैदी: कैदियों को अक्सर एक समरूप समूह के रूप में देखा जाता है. उनके परिवेश एवं संदर्भों में भिन्नता के बारे में बहुत कम समझ होती है. कैदियों के बारे में समझ उनके और धारणाओं को गढ़ने वाले लोगों के बीच मौजूद दूरी से प्रभावित होती है. इसलिए, जबकि दूर से कैदी भटके हुए लोगों के एक सजातीय समूह की तरह लग सकते हैं, जैसे-जैसे छात्र करीब आते हैं, उनके अलग-अलग संदर्भ और विविधताएं अधिक दिखाई देने लगते हैं. छात्रों को एहसास होता है कि जेल में बंद लोगों को एक सामान्य लेबल के तहत वर्गीकृत नहीं किया जा सकता है और वे जेल में मौजूद कई उप-समूहों पर ध्यान देना शुरू कर देते हैं.

जेंडर, वर्गीकरण का प्रारंभिक बिंदु बन जाता है. विभिन्न कैदियों के खिलाफ़ अलग-अलग तरह के आरोप वर्गीकरण का एक और स्तर बन जाते हैं जहां अपराध छोटे से लेकर गंभीर तक होते हैं. इसके अलावा, ऐसे लोग भी हैं जो पहली बार जेल में आए हैं और कुछ जिन्हें बार-बार गिरफ्तार किया गया है. कैदियों में कुछ युवा हैं तो कुछ बूढ़े हैं, कुछ ऐसे भी हैं जो परिवारों का हिस्सा हैं और कुछ जो नहीं हैं, कुछ ऐसे हैं जिनके परिवार उनका समर्थन करते हैं और कुछ वे भी हैं जिनके परिवार उनके खिलाफ़ आगे आए हैं या उनसे रिश्ता तोड़ दिया है. बेघर होने, नशीली दवाओं का सेवन और मानसिक बीमारी के इतिहास वाले कैदी भी हैं. ऐसे लोग हैं जो संगठित अपराध नेटवर्क का हिस्सा बन गए हैं और अन्य जो अपने दम पर अपराध को अंजाम देते हैं. ऐसे लोग हैं जो सामाजिक कार्यकर्ता के पास जाते हैं और वे भी हैं जो नहीं जाते. जैसे-जैसे छात्र इसमें शरीक होते हैं, संदर्भों में ये विविधताएं पहले के विपरीत दिखाई देने लगती हैं और जब कैदियों के बारे में विचार आता है तो एक बड़े कोलाज के अस्तित्व के बारे में एहसास होता है. छात्रों को यह भी एहसास होने लगता है कि ये कौन से कारक हैं जो व्यक्ति की अपराध के प्रति संवेदनशीलता और फिर से अपराध करने या पुनर्वास के परिणामों में भूमिका निभाते हैं.

3. कौन मदद का हकदार है: आम धारणा यह है कि कैद में वे लोग होते हैं जिन्होंने अन्य लोगों को पीड़ित किया है और जो नुकसान उन्होंने पहुंचाया है उसके लिए वे पूरी तरह से ज़िम्मेदार हैं. इसलिए यह आसानी से स्वीकार्य है कि वे मदद के पात्र नहीं हैं. अगर कैदियों को कोई मदद या सेवा प्रदान की जानी है, तो कोई ऐसा कारण होना चाहिए जो उन्हें इसके योग्य बनाए. जो छात्र जेल के अंदर काम करने के लिए प्रवेश करते हैं उनके भीतर एक अनजानी प्रवृति होती है कि वे उन लोगों की तलाश करते हैं जो फंसाए जाने या गलत तरीके से फंसाए जाने के लिए मदद के पात्र लगते हैं.

ऐसा लगता है कि छात्रों के खुद के भीतर ग्लानि या अपराध-बोध की भावना पैदा होती है जब वे किसी ऐसे व्यक्ति को, जिसने दूसरे को नुकसान पहुंचाया है, उसे सज़ा देने के बजाए सेवा मुहैय्या करने का काम करते हैं.

पर फील्डवर्क के दौरान, छात्रों को यह बात समझ आती है कि किसी व्यक्ति का जेल में आना कई तरह के कारकों से प्रभावित होता है जिनमें से कई अपनी प्रकृति में सामाजिक और संरचनात्मक होते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता की भूमिका इन अनुभवों को समझना और कैदी के साथ समाज में वापस आने का रास्ता खोजने की दिशा में काम करना है. छात्र यह भी समझना शुरू कर देते हैं कि जो कोई भी जेल पहुंचता है – चाहे उसे झूठा फंसाया गया हो – उसके साथ काम करने की ज़रूरत है, क्योंकि वास्तविकता यह है कि वह जेल में हैं, और यही तथ्य गिरफ्तारी और अपराध के प्रति उनकी संवेदनशीलता का संकेत है.

इसके अलावा, अगर सामाजिक कार्यकर्ता से सेवा हासिल करने की शर्त में निर्दोषता एक मानदंड है, तो उनका रिश्ता गड्ड-मड्ड हो जाएगा, जो तब सामाजिक कार्यकर्ता के जेल में प्रवेश के उद्देश्य को विफल कर देगा.

4. जघन्य माने जाने वाले अपराधों के आरोपी या दोषी कैदियों के साथ संपर्क से पूरी तरह इंकार: कुछ अपराधों को सामाजिक रूप से जघन्य और दूसरे अपराधों की तुलना में ज़्यादा अस्वीकार्य माना जाता है. जेल के भीतर जाने वाले छात्र सामाजिक कार्यकर्ता भी इसी धारणा के साथ जेल में प्रवेश करते हैं और यह अप्रत्याशित भी नहीं है. हत्या, दहेज हत्या, नशीली दवाएं और मानव तस्करी, बलात्कार, अपहरण, वगैरह ऐसे शब्द और अपराध हैं जो बेचैनी पैदा करते हैं. इन्हें लेकर छात्रों की भावनाएं भी बहुत मज़बूत होती हैं.

छात्र इस दुविधा से गुज़रते हैं कि किसी महिला छात्र को महिलाओं के खिलाफ अपराधों पर कैसे प्रतिक्रिया देनी चाहिए.

जेल में सामाजिक कार्य के बारे में सीखने वाले छात्रों के लिए, यह पेशेवर की भूमिका को गहराई से समझने की भी यात्रा बन जाती है, जिसमें सवाल यह है कि क्या एक सामाजिक कार्यकर्ता अपराध के ठप्पे पर ही ठहर सकता है और इसके पीछे के व्यक्ति को देखने से इंकार कर सकता है. अक्सर यह भूमिका निभाने वाली सामाजिक प्रक्रियाओं की समझ और पहचान को गहरा करने और उचित प्रतिक्रिया के बारे में सोचने का भी समय होता है.

5. जेल कर्मचारियों की छवियां: जेलों को प्रतिशोधात्मक उद्देश्य से थोपे गए बंद संस्थानों के रूप में देखा जाता है. जेल के स्टाफ को अक्सर ऐसे कर्मियों का समूह माना जाता है जो कैदियों के खिलाफ़ अमानवीय और अनुशासनात्मक कार्रवाई के ज़रिए बदले की कार्रवाइयों को अंजाम देते हैं. हालांकि, जेल कर्मियों के साथ संपर्क और संचार स्थापित करने में ज़्यादा वक्त लगता है फिर भी जेल में किसी छात्र के प्रवेश के बाद इन छवियों और छापों का संशोधित होना शुरू हो जाता है.  बहरहाल, समय के साथ, छात्रों को पता चलता है कि कभी-कभी डराने वाले ढांचे और पहुंच से बहुत दूर जैसे अप्राप्य व्यवहार से परे, जेल प्रशासन के कर्मचारी कैदियों और उनके उपचार पर अपनी भी राय और दखल रखते हैं, जिसमें एक तरफ प्रतिशोध हो सकता है तो दूसरी तरफ कैदी को असुरक्षित या कमज़ोर मानने की राय होती है.

छात्र उन पलों के भी गवाह बनते हैं जब वे जेल कर्मियों और अधिकारियों को, मांओं और बच्चों के बीच के क्षणों को देखकर खुद भावुक हो जाते हैं या जब किसी कैदी को कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा हो तो उनकी आंखों से भी आंसू निकल आते हैं.

यह छात्रों को जेल कर्मियों को कठोर और सत्तावादी के रूप में देखने की प्रवृत्ति से आगे बढ़ने में सक्षम बनाता है, यह समझने के लिए कि संस्थान एक तय सामाजिक रूप से निर्दिष्ट कार्य करता है और उसके कर्मचारियों को एक भूमिका का पालन करना होता है. इसके अलावा, जेल कर्मियों की स्थिति भी अलग-अलग होती है और उन्हें केवल उत्पीड़कों के रूप में नहीं देखा जा सकता है. छात्र जेल कर्मियों के काम की जटिलताओं और उनपर और उनके जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव को भी समझना शुरू करते हैं.

6. पुनर्वास की कोरी गप्प: पुनर्वास एक ऐसा शब्द है जिसका इस्तेमाल समूहों और प्रतिक्रियाओं की बहुलता के लिए किया जाता है, और संदर्भ के आधार पर इसके कई अर्थ हो सकते हैं. जब कैदियों की बात आती है, तो पुनर्वास को कोरी गप्पबाज़ी के रूप में ज़्यादा समझा जाता है और इसे केवल प्रशिक्षण या रोज़गार प्रदान करने के रूप में माना जाता है. छात्र भी पुनर्वास को लेकर एक समान, सरल समझ ही रखते हैं. वो तो जेल में अपने फील्डवर्क के दौरान, यह सीखना शुरू करते हैं कि पुनर्वास के लिए रास्ते में कई बाधाओं को पार करना होता है.

छात्र यह समझने लगते हैं कि पुनर्वास एक जटिल प्रक्रिया है. अगर कोई व्यक्ति किसी तरह के अपराध में शामिल हो गया है और उसके कुछ व्यवहारों को अपना चुका है, तो उसे फिर से प्रशिक्षित होने, अपनी भूमिकाओं और आत्मसात किए गए लेबल को फिर से परिभाषित करने, नए कौशल और रिश्ते हासिल करने और एक नई आजीविका और जीवन शैली में ढलने में समय लगता है. कैदी जेल से पहले की अपनी जगह पर वापस लौट सकता है या नहीं, उनका सामाजिक समर्थन कितना मज़बूत या कमज़ोर है, शोषण या दोबारा अपराध करने के जोखिम क्या हैं, इन सब बातों पर विचार एक प्रारंभिक बिंदु बन जाता है. पुनर्वास भी एक सीमित प्रक्रिया नहीं हो सकती जैसा कि अक्सर समझा जाता है. कैदी के साथ लंबे समय तक जुड़ाव ज़रूरी है क्योंकि अनुभव और आघात की कई परतें होती हैं जिनके दरमियान काम करना पड़ता है.

7. अपराध में पीड़ितों का भी ध्यान करना: आम धारणा ‘अपराधियों’ और ‘पीड़ितों’ को दो परस्पर अनन्य श्रेणियों के रूप में देखती है. छात्र भी अक्सर अपना फील्डवर्क इसी समझ या स्थिति से शुरू करते हैं. फील्डवर्क के दौरान छात्र कैदियों के जीवन की परतों और उनके नीचे छिपे उत्पीड़न के इतिहास को दर्ज करना शुरू करते हैं. कभी ऐसा भी होता है कि फील्डवर्क के दौरान, उन्हें कभी ऐसे व्यक्ति से मिलने का मौका मिल जाता है जो उस अपराध का पीड़ित है, जिसके लिए कैदी जेल में है. ऐसे मौके पर आमतौर पर खुद को अपराधी के खिलाफ़ खड़ा करना स्वाभाविक लग सकता है, पर छात्र ज़रूरत के क्षेत्रों को पहचानना सीखते हैं, भले ही वे कैदी या पीड़ित से संबंधित हों. वे मदद के अनुसार निर्देश बनाना सीखते हैं, साथ ही खुद का भावनात्मक संतुलन बनाए रखना और वास्तविक जीवन के अनुभवों के आधार पर अपराध और उत्पीड़न के बारे में गहरी और अधिक वैज्ञानिक समझ के आधार पर पेशेवर भूमिका निभाना भी सीखते हैं. यह निस्संदेह चुनौतीपूर्ण है क्योंकि इसमें प्रतिबिंबन, पुन: परीक्षण, विश्लेषण और अंततः अपनी ही सोच और विश्वास के पुनर्गठन की ज़रूरत होती है.

छात्रों में हमेशा यह समझ विकसित होती है कि पीड़ित और अपराधी विशिष्ट श्रेणियां नहीं हैं, अपराध की जड़ें उन सामाजिक संरचनाओं में हैं जो असमानता को बढ़ावा देती हैं और बनाए रखती हैं, न कि उस व्यक्ति में जिसने अपराध को अंजाम दिया है.

जैसे, छात्रों को उन महिलाओं के साथ काम करने का पहले से अनुभव मिला था जो घरेलू हिंसा और मानव तस्करी का शिकार थीं. फिर, जेल में फील्डवर्क के दौरान वे उन महिलाओं से मिले जिनपर दहेज से संबंधित मौतों और मानव तस्करी का आरोप था. हालांकि अपराध के दूसरे पक्ष की महिलाओं से जुड़ना चुनौतीपूर्ण था, पर इससे छात्रों को हिंसा के चक्र के बारे में समझ विकसित करने में भी मदद मिली, क्योंकि आरोपी महिलाएं खुद पहले अपने जीवन में जेंडर आधारित समाजीकरण, भेदभाव और हिंसा का शिकार रह चुकी थीं. सामाजिक कार्य सामाजिक न्याय के मूल्यों के अंतर्गत स्थित और निर्देशित होता है. हालांकि, इसके बावजूद, कैदियों जैसे लोगों के समूहों को अभी भी अक्सर सामाजिक कार्यों और अन्य सेवाओं के दायरे से बाहर रखा जाता है, क्योंकि उनसे विवाद जुड़ा होता है. बहरहाल, यह पहचानना ज़रूरी है कि लोगों के ये समूह भी सामाजिक प्रक्रियाओं, संरचनाओं और स्तरीकरण के उत्पाद हैं. 

जो छात्र जेल में सामाजिक कार्य के बारे में सीखने का विकल्प चुनते हैं, वे उन लोगों और मुद्दों तक पहुंचने की दिशा में पहला कदम उठा रहे होते हैं जो उनके साथ काम करने की अंतर्निहित जटिलताओं और दुविधाओं के चलते पहुंच से बाहर रह गए होते हैं. छात्रों को जेल में लोगों के संपर्क में आने, कैदियों के परिवारों और आपराधिक न्याय पदाधिकारियों के साथ जुड़ने, प्रक्रियाओं का पालन करने और समझने, आपराधिक न्याय प्रणाली के बारे में जानने और उसकी प्रक्रियाओं और कैद में उसके प्रभाव को देखने का मौका मिलता है. इस प्रक्रिया में, छात्र प्रमुख धारणाओं की व्यापकता और जेल और कैदियों के बारे में समझ को आकार देने में उनकी भूमिका को पहचानना शुरू करते हैं. अनुभव, भावना, आत्मनिरीक्षण, प्रतिबिंबन और पुनर्स्थापन के साथ सीखना बहुत मारक होता है. यह कैदियों के साथ सामाजिक कार्य को अपने लक्ष्य की ओर एक कदम और करीब ले जाता है.

*टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ का एक फील्ड एक्शन प्रोजेक्ट, ‘प्रयास’ प्रत्यक्ष सामाजिक कार्य हस्तक्षेप की गुंजाइश को दर्शाता है. परामर्श कार्यक्रमों की पेशकश के ज़रिए आपराधिक न्याय प्रणाली के भीतर सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए जगह के निर्माण की दिशा में प्रयास काम कर रहा है और फिलहाल महाराष्ट्र सरकार के साथ एक समझौते में है. महाराष्ट्र सरकार ने राज्य भर की पांच केंद्रीय जेलों में सामाजिक कार्यकर्ताओं को शामिल किया है.

**प्रिज़न स्टैटिस्टिक्स इंडिया रिपोर्ट (राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित) के अनुसार, भारत की जेलों में सुधारात्मक स्टाफ नामक एक श्रेणी होती है जिसमें परिवीक्षा अधिकारी, कल्याण अधिकारी, मनोवैज्ञानिक, मनोचिकित्सक, सामाजिक कार्यकर्ता और अन्य दिए गए क्रम में सूचीबद्ध होते हैं. प्रिज़न स्टैटिस्टिक्स इंडिया रिपोर्ट (2022) के सबसे हालिया प्रकाशन में कहा गया है कि 31 दिसंबर 2022 तक देश की 1,330 जेलों में 820 सुधारात्मक कर्मचारी तैनात थे. 36 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में से, 16 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कोई सुधारात्मक कर्मचारी नहीं था. 4 राज्यों में केवल 1 सुधारात्मक कर्मचारी था, और 1 राज्य में 2 सुधारात्मक कर्मचारी थे.

इस लेख का अनुवाद पारिजात नौटियाल ने किया है.

डॉ. पेनेलोप टोंग एक प्रशिक्षित सामाजिक कार्यकर्ता हैं, जिन्होंने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज़ (टिस, मुंबई) से अपराध विज्ञान और सुधार प्रशासन में विशेषज्ञता के साथ सोशल वर्क में पीएचडी की है. उन्हें जेल में बंद महिलाओं, रिहा कैदियों और हिंसक अपराध के पीड़ितों के साथ प्रयास (टीआईएसएस की एक फील्ड एक्शन परियोजना) के माध्यम से काम करने का लगभग दो दशकों का अनुभव है. वर्तमान में वे स्कूल ऑफ सोशल वर्क में फील्डवर्क पर्यवेक्षक के रूप में काम करती हैं, जहां वे व्यावहारिक शिक्षा में शामिल हैं.

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