सीखना सिखाना

यहां हम उस अंदाज़ को पेश करते हैं, जिसके ज़रिए विचारों, अनुभवों और दुनिया भर में तरह-तरह के प्रयोग करने की कोशिश की जा रही है. हम इन प्रयोगों और इसके लिए की जाने वाली पहल को सलाम करते हैं. ज्ञान को समाज रचता है और यह हम सबकी ज़िंदगी का हिस्सा है. सीखना एक जीवंत प्रक्रिया है जिसे हम सब अपनी ज़िंदगी में लगातार अपनाते हैं. हम सीखने के अलग और नए आयाम, सीखने वालों के अद्भुत और नए प्रयास, नारीवादी सोच को ज़मीनी स्तर पर लागू करने की कोशिश को सामने लाते हैं.

फिल्मी शहर – सिनेमा में समलैंगिकता

इस मास्टरक्लास के दो भागों में – सिनेमा में समलैंगिकता – विषय पर बातचीत करते हुए फिल्म निर्देशक अविजित मुकुल किशोर ने सिनेमा की भाषा, सही एवं सम्मानजनक शब्दावलियों का अभाव, LGBTQI+ से जुड़े लोगों के संघर्ष एवं अपमान से पहचान की उनकी यात्रा को फिल्मी पर्दे पर उनकी प्रस्तुति के क्रम में देखने की कोशिश की है.

फिल्मी शहर – जाति और सिनेमा

फ़िल्म निर्देशक अविजित मुकुल किशोर के साथ ‘सिनेमा में जाति’ मास्टरक्लास के दो भागों में, हम उन स्पष्ट और सूक्ष्म तरीकों की खोज करते हैं, जिन रास्तों से मुख्यधारा का सिनेमा समाज का निर्माण करता है.

गतिशीलता की राहों पर सांप भी हैं और सीढ़ियां भी

हममें से आठ — बस्ती की चार लड़कियां और चार उम्रदराज महिलाएं — अलग-अलग जगहों की कल्पना करते हुए कमरे में घूम रही हैं. हम कभी खुले मैदान में चल रही हैं तो कभी मेट्रो पकड़ रही हैं. कभी हम ख़ुशी और उल्लास के मारे चीख रही हैं, चिल्ला रही हैं तो कभी अचानक से शुरू हो गई बारिश में भीग रही हैं.

फिल्मी शहर – छोटा शहर

चर्चित फ़िल्मकार अविजित मुकुल किशोर की फ़िल्में बदलते शहर, कस्बे और उनमें रहने वाले लोगों और जगहों की बात करती हैं. अपने कैमरे के ज़रिए वे यहां होने वाले बदलाव को बहुत ही ख़ूबसूरती से क़ैद करते हैं. ‘फ़िल्मी शहर’ ऑनलाइन मास्टरक्लास में हम अविजित मुकुल किशोर के साथ मिलकर सिनेमा की भाषा एवं उसके नज़रिए की पड़ताल करेंगे.

असम का यह स्कूल युवाओं को डाक्यूमेंट्री फ़िल्म निर्माताओं में बदल रहा है

दिसंबर 2014 से असम के तेजपुर शहर में स्थित ‘द ग्रीन हब’ संस्था ने यहां के शिक्षकों, वन संरक्षकों, फ़ुटबॉल खिलाड़ियों, गाइडों, छात्रों और आसपास के राज्यों से आए युवाओं को डाक्यूमेंट्री फ़िल्म निर्माताओं में बदल दिया है.

शहर की सड़कों पर परचम फहराती लड़कियां

कोंकणी में हम एक कहावत का इस्तेमाल करते हैं, ‘वह शहर में इतना ज़्यादा घूमी कि उसने गर्दा उड़ा दिया.’ कॉलेज से ग़ायब होने, किसी लड़के की बाइक पर उसके पीछे बैठने और शहर में घूमने पर हमारी मांएं हमें शर्मिंदा करने के लिए यह कहा करती थीं. मैंने इस कहावत के बारे में अक्सर सोचा है.

“विज्ञान की शिक्षा का मतलब मिसाइल नहीं, बल्कि सड़क, बिजली और पानी है.”

हमने प्रो. मिलिंद सोहोनी से बात की और जाना कि सार्वजिनक स्वास्थ्य की हमारी अपेक्षाओं में विज्ञान की शिक्षा की क्या भूमिका है? कब हम विज्ञान के एक उपभोक्ता के रूप में बदल जाते हैं और भूल जाते हैं कि विज्ञान ने उन लोगों की सेवा करना बंद कर दिया है जिन्हें इसकी सबसे ज़्यादा ज़रुरत है.

दर्द की नक्शानवीसी

कोविड की दूसरी लहर की तबाही के बीचों-बीच हमने थर्ड आई के डिजिटल एजुकेटर्स के साथ यह कार्यशाला की थी. थिएटर, मानसिक स्वास्थ्य और आध्यात्म के अपने अनुभवों के आधार पर मैंने कार्यशाला से जुड़े साथियों से बात कर हर संभव कोशिश की, जिससे उन्हें एक सार्थक अनुभव हो और उनके साथ मैं भी अपनी आवाज़ खोज पाऊं.

मां को देखते हुए!

एक टीचर ने जब स्टूडेंट्स को एकांतवास (अकेले रहने) या फिर सीमाओं के भीतर रहने के पहलुओं पर सोचने को कहा तो उसने सोचा नहीं था कि क्लास में आधे से ज़्यादा विद्यार्थी अपनी मांओं को अपनी छवियों का केंद्र बनाएंगे.

फिल्मों के ज़रिए क्या आप ‘औरत और काम’ पर बातचीत शुरू करना चाहते हैं?

सिनेमा में, कामकाजी महिलाएं अक्सर शर्म और गर्व की दोधारी तलवार को संभालती नज़र आती हैं. उन्हें क्या काम करना चाहिए या क्या नहीं करना चाहिए? हमने दो फिल्में ली हैं जो औरत और काम पर हैं…

Skip to content