हममें से आठ — बस्ती की चार लड़कियां और चार उम्रदराज महिलाएं — अलग-अलग जगहों की कल्पना करते हुए कमरे में घूम रही हैं. हम कभी खुले मैदान में चल रही हैं तो कभी मेट्रो पकड़ रही हैं. कभी हम ख़ुशी और उल्लास के मारे चीख रही हैं, चिल्ला रही हैं तो कभी अचानक से शुरू हो गई बारिश में भीग रही हैं.
इनमें से चार उम्रदराज महिलाएं निरंतर संस्था के परवाज़ अडोलसेंट सेंटर फॉर एजुकेशन (पेस कार्यक्रम) से जुड़ी हैं. और चारों लड़कियां नई दिल्ली के त्रिलोकपुरी इलाके में रहती हैं. वे सेंटर में पढ़ाई कर रही हैं, ताकि इस बार वे कक्षा आठवीं और दसवीं की परीक्षा दे सकें.
हम चलते हैं ऐसे, हवा चलती है जैसे
कार्यशाला के दौरान जब हम चलते हैं, हम उन परिवेशों को भी अपने कमरे में ले आते हैं, या हम ही वहां चले जाते हैं, या कि दोनों के बीच की कोई जगह होती है. मैं जिस समूह के साथ हूं, उसके लिए मेरे अंतिम दो उकसावे एक बस्ती में घूमने से जुड़े हैं. पहला, जब हम यह कल्पना करते हैं कि हम जहां घूम रहे हैं, वहां आसपास सिर्फ औरतें ही औरतें हैं. और दूसरी बार हम उसी बस्ती में घूमते हैं लेकिन इस बार हमारे इर्द-गिर्द मर्द ही मर्द हैं, एक भी औरत नहीं है.
नई दिल्ली के त्रिलोकपुरी में मेरी कार्यशाला के दौरान का वह आख़िरी उकसावा लड़कियों को जोश और उमंग से भर देता है, जब वे बारी-बारी एक-दूसरे के साथ लड़के का स्वांग भरती हैं, लड़कों की तरह चुटकी काटती हैं, इधर-उधर छूती हैं, गुदगुदाती हैं, और छेड़ती हैं.
यह पहली बार है जब 'छेड़खानी' शब्द को यहां अर्थ-विस्तार मिलता है और यह यौन उत्पीड़न के खतरों से परे कामना, छेड़छाड़ (चाहें तो इश्कबाज़ी कह लें) और हंसी-ठिठोली के चरम आनंद की नुमाइंदगी करने लगता है.
खेल जो हम खेलते हैं
शहर में एक औरत का सफ़र बिल्कुल सांप-सीढ़ी के खेल की तरह ही है. इसमें अवसरों की सीढ़ियां हैं जो आनंद के क्षणों की ओर ले जाती है, तो साथ ही आज़ादी के इर्द-गिर्द अंतहीन समझौतों और सौदेबाज़ियों के सांप जैसे फंदे भी हैं.
द थर्ड आई के ऑफलाइन फेलोज़ (डिजिटल एजुकेटर्स) के साथ मेरी कार्यशाला ‘शहर, उसके भीतर के हाशिए और हदें’ के लिए सांप और सीढ़ी का रूपक बिल्कुल सटीक है.
अगर यह कार्यशाला किसी भौतिक स्थान पर आयोजित की जाती, तो ऐसा खेल फर्श पर खेला जा सकता था. तब हम एक-एक चढ़ाव और एक-एक उतार को सामने से देख पाते और यह भी देख पाते कि हमारा शरीर प्रत्येक सीढ़ी और सांप पर कैसे प्रतिक्रिया देता है. फिर भी, यह तथ्य कि कार्यशाला ऑनलाइन हो रही थी, यह भी काफी प्रतीकात्मक था; दरअसल, यह दर्शाता है कि पिछले दो वर्षों में हमारे संबंध और भौतिक स्थानों तक हमारी पहुंच का पूरा ताना-बाना कैसे बदल गया है. अब हमारे पास अपने आप या अपने वजूद की तलाश के लिए कोई भौतिक स्थान उपलब्ध नहीं है. भौतिक स्थान की अनुपस्थिति ने हमें अपनी कल्पना के सहारे काम करने पर मजबूर किया है और हम सिर्फ़ अपने दिमाग में मौजूद स्थानों को ही बदल सकते हैं.
ख़ुशी और ख़तरे की नक्शानवीसी
ज़ूम पर परिचय के दौरान, मैंने सभी प्रतिभागियों से अपने शहर या गांव की अपनी पसंदीदा जगह से जुड़ी बातें साझा करने के लिए कहा. मेरे प्रतिभागियों ने अपने घर के अंदरूनी हिस्सों, मोहल्लों, जहां वे अपनी पुरानी यादें ताज़ा करते हैं, खुले मैदान से लेकर ताजमहल की यात्रा तक—सब कुछ के बारे में बताया. कुछ प्रतिभागी ऐसे भी थे, जिन्होंने मुझे शहर की अपनी पसंदीदा जगहों की बजाय अपने पसंदीदा त्योहारों के बारे में बताया. फलौदी की मनीषा ने तीज के त्योहार का वर्णन करते हुए कहा, “इसमें लोग और वातावरण—दोनों की उपस्थिति है; अच्छे कपड़ों में सजी-धजी 25-30 महिलाओं का एक जगह इकट्ठा होना, कहानियां सुनाना और चांद की पूजा करना, इस त्यौहार को खास बनाता है. वे किस जगह इकट्ठा हो रही हैं, इसका कोई ख़ास महत्तव नहीं है, वे जहां भी इकट्ठी हो जाएं, वही जगह खास बन जाएगी.”
यह हमें याद दिलाने के लिए भी है कि हमारी पसंदीदा जगहों का संबंध न सिर्फ़ स्थान की भौतिकता से है, बल्कि इसका संबंध उस समय, उनके माध्यम से ऊर्जाओं की गति और प्रवाह से भी है.
उनकी बातों में जो मैंने एक दूसरी तरह का प्रवाह देखा वह परिसरों के आसपास का है, फिर वो चाहे शैक्षणिक संस्थान हों या मंदिर या कला के स्थान, जहां ज्ञान, विचारों और आध्यात्मिकता का प्रवाह होता है और यह शांति और आनंद का वातावरण निर्मित करते हैं. अंत में आता है, शुद्ध प्रकृति का वर्णन – जंगल, जहां महिलाओं को काम के दौरान एक दूर के ब्लॉक में जाना पड़ता था, जहां अपनी थकान मिटाने और आराम करने के लिए वे कुछ देर जंगल में बैठा करती थीं.
कौन सी जगह हमारी पसंदीदा जगह बन जाती है? जहां मज़ा आता है, आनंद का अनुभव होता है, खुशी और अपनेपन का अनुभव होता है? क्या कोई भौतिक स्थान हमें कभी इस तरह आनंदित कर सकता है?
जैसा कि मैं मन की सभी अलग-अलग अवस्थाओं के बारे में सोचती हूं जो सतह पर आती हैं जब प्रतिभागी अपने पसंदीदा स्थानों का वर्णन करते हैं, उस वक़्त मुझे मनोविश्लेषक जॉयस मैकडॉगल के परम आनंद के विचार की याद आती है.
परम आनंद अर्थात एक्स्टसी शब्द ग्रीक एक-स्टैसिस से बना है जिसका अर्थ है स्व से अलग या मुक्त होना, निकल जाना. एक ऐसी अवस्था जहां हम अपने अस्त-व्यस्त अस्तित्व से बाहर निकल जाते हैं और दुनिया के प्रवाह का हिस्सा बन जाते हैं जो कि आनंदमय होता है, चाहे यह भौतिक अवस्था हो या मानसिक.
सांप जैसी हदों को पार करने को हम सीढ़ियां लगाते हैं
ज़बरन थोपी गई गतिहीनता, बंधन और निगरानी के बीच जीने को मजबूर महिलाओं की ज़िंदगी में आनंद कैसा दिखता और महसूस होता है? इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब भी कोई औरत या जेंडर के नियमों से परे व्यक्ति घर से बाहर निकलते हैं, तो वह अपने शरीर और अस्तित्व की तुलना में पितृसत्तात्मक निकाय की राजनीतिक स्थिरता के लिए ज़्यादा बड़ा खतरा बन जाते हैं.
दुर्भाग्य से पितृसत्ता के लिए जोखिम, उस अधिक रोमांचकारी और जीवन-पुष्टि अनुभव का साथी है जिसे साहस कहा जाता है, और भूगोल, इतिहास और सामाजिक अवस्थाओं सभी जगह महिलाओं का सीमाओं से परे जीवन के प्रति विशेष लगाव रहा है, जो उन्हें रोकने के लिए बनाई गई हैं.
हर दिन, लाखों औरतें बांधों-बंधनों को तोड़ने और घर की दहलीज़ लांघ कर बाहर की दुनिया में कदम रखने के लिए, सृष्टि के प्रवाह में शामिल होने के लिए अदृश्य और अनसुनी लड़ाइयां लड़ती हैं.
बस उस पहली दहलीज़ को पार करना ही सबसे कठिन है और इसमें सबसे ज़्यादा समय लग सकता है, ठीक उसी तरह जैसे सांप और सीढ़ी के खेल में मायावी छक्के का आना. यह पहली बार में भी आ सकता है या बार-बार पासा फेंकने के बाद भी नहीं आ सकता. यहां तक कि आप पासे को अपने मुंह के पास ले जाते हैं, अनुनय-विनय वाले अंदाज़ में “छक्का प्लीज़, छक्का प्लीज़” फुसफुसाते हैं या फिर पासा फेंकते हुए उत्तेजित स्वर में “छक्का” चिल्लाते हैं. यह छक्का आने या खेल में शामिल होने के पहले की स्थिति है क्योंकि छक्का आने के बाद ही आप खेल में शामिल हो सकते हैं – या फिर इस मामले में कहें तो शहर में कदम रख सकते हैं.
कार्यशाला में, मैं प्रतिभागियों से उन नौ दहलीज़ों या हदों का नक्शा बनाने के लिए कहती हूं जिन्हें उन्होंने पार किया है या जिन्हें वे पार करना चाहती हैं, और उन सांपों और सीढ़ियों की भी पहचान करने को कहती हूं जो उनके सफ़र का हिस्सा रहे हैं.
भले ही मैंने उनसे शहर में इधर-उधर आने-जाने से जुड़ी कहानियों के लिए कहा है, लेकिन मेरे प्रतिभागियों के लिए यह ज़िंदगी की कहानियों को प्रतिबिम्बित करने और साझा करने की जगह बन जाता है. दहलीज़ हमेशा घर से शुरू होती है और एक यात्रा को चिह्नित करती है: किसी नए शहर का सफ़र करने, नए देशों को देखने, या कि अपने ही शहर में निडर होकर घूमने में सक्षम होने की कामना. मुझे लगता है कि शब्द “सामाजिक गतिशीलता” को न केवल वर्ग सीढ़ी के संदर्भ में देखा जा सकता है, बल्कि इसे ऐसी किसी भी गतिविधि के रूप में भी देखा जा सकता है जिसमें दुनिया को और अधिक देखने और इससे अलग तरीके से जुड़ने की सम्भावना बनती है.
“हम शहर से वापस गांव चले गए थे और मुझे किसी से बात करने या घर से बाहर निकलने की अनुमति नहीं थी. उस समय, स्कूल जाना मेरे लिए एक सीढ़ी थी जिसने मुझे गांव की अन्य लड़कियों से बात करने का मौक़ा दिया.” खुशी अपनी कहानी साझा करते हुए कहती है. जबकि लड़कियों के जीवन में शिक्षा के महत्तव पर बहुत कुछ कहा जा चुका है, एक महत्तवपूर्ण कारक जो अक्सर हर अभिव्यक्ति में छूट जाता है, वह है एक सामाजिक स्थान के रूप में स्कूल का महत्तव जहां लड़कियां अपने घरों से बाहर की दुनिया तक पहुंच सकती हैं. फिर भी, यह स्पष्ट है कि आनंद और फ़ुर्सत का यह तत्व पितृसत्तात्मक नज़रों से नहीं बच पाता है. सुधा बताती हैं, “जब मैंने अपने गांव के स्कूल से 8वीं पास कर ली तो मेरे पिता ने कहा कि बहुत पढ़ लिया, अब और पढ़ने की ज़रूरत नहीं है, अब तुमको घर पर काम करना चाहिए.”
ललितपुर की आरती कहती हैं, ”हमारे गांव में जो स्कूल था, उसमें सिर्फ़ पांचवीं कक्षा तक ही पढ़ाई होती थी. आगे की पढ़ाई के लिए मुझे दूसरे क़स्बे में जाना पड़ता था. मेरे गांव से क़स्बे की जो दूरी थी, वह मेरे लिए सांप थी जिसकी वजह से मुझे अपना एक साल गंवाना पड़ा था.” घर से दूर यात्रा करना एक ऐसे जोखिम जैसा लगता है, कि ‘सुरक्षा’ का आख्यान या कि गल्प अपने फन फैलाने लगता है और इस तरह लड़कियां आठवीं या दसवीं कक्षा के बाद मजबूरन स्कूल छोड़ देती हैं.
सुरक्षा दायरे से बाहर आने और स्वतंत्रता के दायरे में दाख़िल होने का आनंद परम है
इन कहानियों को सुनते हुए, मैं ख़ुद अपनी ज़िंदगी के उन लम्हों को फिर से जीने लगती हूं, और महसूस करती हूं कि आज़ादी के पहले स्वाद ने मेरे मानस पर कितना स्थाई प्रभाव छोड़ा था. मेरी 10वीं कक्षा की बोर्ड परीक्षाओं के बाद मैंने भी उपनगरीय इलाके में अपने घर से लगभग एक घंटे की दूरी पर स्थित दक्षिण मुम्बई के सेंट जेवियर्स कॉलेज में पढ़ने का सपना देखा था.
मेरे और मम्मी-पापा के बीच एक गतिरोध पैदा हो गया था, लेकिन मेरे मम्मी-पापा जैसे शहरी पैरेंट्स के लिए, अपनी सुरक्षा चिंताओं को लॉजिस्टिक सुझावों की आड़ में छिपाना आसान था, मसलन जब पास वाला कॉलेज भी तो “उतना ही अच्छा” है, फिर रोज़-रोज़ इतनी थकाऊ यात्रा करने का क्या तुक है.
मम्मी-पापा और मेरे बीच अभी रस्साकशी जारी ही थी कि मुझे पता चला कि शहर के उसी तरफ़ तीन दिवसीय लेखन कार्यशाला का आयोजन किया जा रहा है, मैंने ट्रायल रन के रूप में इस कार्यशाला में शामिल होने का फैसला किया. मैं पहली बार अपने बल पर अकेले सफ़र करने वाली थी. मैं बिल्कुल सुबह-सवेरे उठी, तैयार हुई और बस पकड़ने के लिए डिपो जा पहुंची. मैं गलियारे के दाहिनी ओर सबसे आगे खिड़की वाली सीट पर बैठ गई, जो महिलाओं के लिए आरक्षित थीं. मैं अपना वॉकमैन और शाहरुख खान अभिनीत “मैं हूं ना” फ़िल्म का ऑडियो कैसेट साथ लेकर आई थी और बस में बैठी “चलें जैसे हवाएं सनन सनन, उड़ें जैसे परिंदे गगन गगन, जाएं तितलियां जैसे चमन चमन, यूं ही घूमूं मैं भी मगन मगन” सुन रही थी. जैसे ही हम हाजी अली पहुंचते, समुद्री हवा मेरे चेहरे को छू लेती थी. बिना किसी रखवाली निगाहों की मौजूदगी के यह सबकुछ ख़ुद से देखना और महसूस करना मुझे भावविभोर कर देता था. “सुरक्षा” से मुक्ति के पहले एहसास ने मेरे दिल-दिमाग़ में इतनी स्थाई छाप छोड़ी थी कि आज सोलह साल बाद भी (मैंने हाल ही में नोटिस किया है), मैं जब कभी फ्लाइट पकड़ती हूं तो मैं हमेशा प्लेन के गलियारे के दाहिने हाथ की सीटों का ही चयन करती हूं, शायद अवचेतन रूप से मेरा मन अब भी परम आनंद के उस पहले स्वाद की उसी अनुभूति तक पहुंचने की कोशिश कर रहा है.
अपनी कार्यशाला में, मैं इसी कहानी के कई-कई संस्करणों को सुनती हूं. राजकुमारी अपने गांव की उस झील के बारे में बात करती है जहां उसके दोस्त नहाने जाते थे, लेकिन उसे कभी जाने नहीं दिया गया. “जब मैंने स्कूल शुरू किया, तो स्कूल से आने-जाने का रास्ता झील के पास से गुजरता था, और मैं कुछ पल आराम करने के लिए झील के पास जा बैठती थी या वहीं पर खाना खाती थी।”
दूसरों के लिए परम आनंद, उनकी अपनी कलाओं के अनसुरण में निहित है, जैसे वैशाली के लिए गाना या अनीता के लिए नृत्य करना, और कई अन्य लोगों के लिए यह केवल अपने-अपने संगठनों में काम करने जाने में सक्षम होना है जो न केवल अपने घरों और समुदायों से बाहर बल्कि नई जगहों, अक्सर दिल्ली जैसे बड़े शहरों में भी सीढ़ी के रूप में कार्य करते हैं.
सांप असली कौन है, पहचानो तो?
शोभा ने इससे पहले कभी अकेले यात्रा नहीं की थी, नई दिल्ली तक तो बिल्कुल भी नहीं. फिर भी, एक प्रशिक्षण उसे यहां ले आता है और वह अपनी ज़िन्दगी में पहली बार 3-टियर एसी डिब्बे में सवार होती है. वह खिड़की के पास बैठी है, चिंतित है क्योंकि ट्रेन का परिचारक यात्रियों को कंबल देने के लिए बार-बार चक्कर लगा रहा है. आख़िरकार, वह सहज तब होती है जब एक परिवार ट्रेन के उसी कूपे में सवार होता है और उसके आसपास की सीटों पर बैठ जाता है. वह काग़ज़ के उस टुकड़े को जिसपर कार्यशाला का पता लिखा है, अपने पास ही रखती है, उस रिक्शा वाले को भी नहीं देती, जो उसे वहां छोड़ने जा रहा है.
पितृसत्ता का आदर्श वाक्य, "किसी पर भरोसा मत करो" उसके दिमाग में मज़बूती से बसा हुआ है. फिर भी, परिचारक उसको कोई नुकसान नहीं पहुंचाता, और रिक्शा वाला भी उसका अच्छे से ख़्याल रखता है और उसे सही जगह पर छोड़ जाता है. यात्रा के अंत में, वह जो खोती है, वह है अकेले यात्रा करने का उसका डर, जो सुरक्षा की आड़ में उसके दिमाग़ में बहुत गहरे बिठाया गया था.
फ़ैज़ीन ने शहर की बहुत यात्राएं की है; पहले-पहल तब, जब उसने और उसकी बहन ने कॉलेज में पढ़ने के लिए बहराइच में अकेले रहना चुना था और बाद में, जब उसने लखनऊ जाने और पूरी तरह से अकेले रहने और काम करने का फैसला किया था. शहर में रहने वाली एक अकेली महिला के रूप में, वह अपने अनुभव से जानती है कि उसके आसपास के लोगों से शायद ही कभी ख़तरा होता है. उसने बताया कि “हमें शहर के लोगों से बहराइच या लखनऊ में कभी किसी क़िस्म की कोई दुश्वारी पेश नहीं आई. असली सांप तो दरअसल हमारे परिवार और समाज के सदस्य हैं जो हमारी शादी के बारे में पूछते रहते हैं और मेरे अम्मी-अब्बू को मुझे काम करने से रोकने के लिए उकसाते रहते हैं.”
मेरे प्रतिभागियों ने जितनी भी कहानियां बयान की, उसमें शादी विशिष्ट रूप से सांप और सीढ़ी—दोनों ही रूपों में प्रकट होती है. तबस्सुम बाद में लिखती हैं, “शादी से पहले मुझे घर से बाहर बिल्कुल भी नहीं निकलने दिया जाता था, यहां तक कि अपने रिश्तेदारों से भी नहीं मिलने दिया जाता था, जो कि अगली ही गली में रहते थे. शादी के बाद ही मैं घर से बाहर निकल सकी, भले ही यह निकलना अपने पति के साथ ही क्यों न हो.”
महिलाओं, विशेष रूप से अविवाहित महिलाओं की यौनिकता पर पैनी और गहरी नज़र; हालांकि इसको बड़ी होशियारी से सुरक्षा के लबादे में ढंका गया है, यह सुनिश्चित करती है कि ख़ुद को जानने और एक्सप्लोर करने के उसके सभी संभावित रास्तों को पूरी मज़बूती से बंद कर दिया गया है. ऐसी स्थिति में, परम आनंद का अर्थ केवल विवाह करना और कम से कम कुछ समय के लिए उस घुटन भरे नियंत्रण से मुक्त होना हो सकता है. और अभी भी, उस नियंत्रण के लौटने के कई तरीके हैं, चाहे वह बच्चे पैदा करने के दबाव के ज़रिए से या घर की देखभाल के नाम पर हो, और यथास्थिति से दूर खिड़की बहुत जल्दी बंद होने की घुड़कियां देती रहती है जब तक कि इसे खुला रखने के लिए लगातार कोशिशें नहीं की जातीं.
2021 में भोपाल में एक भौतिक कार्यशाला के दौरान, एक निराश और दुखी लड़की ने समूह को बताया कि, “अगर ‘उनके’ बस में होता, तो वे हमें कभी भी घर से बाहर नहीं निकलने देते.” मैंने ऐसी बातों को कई बार खुलकर अपने सामने आते देखा है क्योंकि इस कार्यशाला में मेरी सभी 10 प्रतिभागी, जो 25 वर्ष से कम उम्र की हैं उन्हें अपने घर के भीतर इस तरह की लड़ाइयों को रोज़ लड़ते सुना है – पांच दिन की इस कार्यशाला में शामिल होने की अनुमति के लिए कभी पति से या कभी माता-पिता के साथ.
एक प्रतिभागी तो पहले दिन पति के घर से बाहर जाने के बाद बिना उसे कुछ बताए कार्यशाला में आ गई और पूरा दिन इस डर और चिंता में डूबी रही कि अगर पति को पता चल गया तो क्या होगा? अगली सुबह उसने हमें बताया कि उसका पति गुस्से में है और उसने उसे मारा भी है, लेकिन वह फिर भी कार्यशाला में आ गई. वो यही उम्मीद कर रही थी कि, यहां एनजीओ से कोई उसके साथ चलकर उसके पति के साथ बात करे और उसे समझाने की कोशिश करे. तीसरे दिन जब वह लौटी तो उसने बताया कि पति ने उससे बात करना बंद कर दिया है. वह कार्यशाला के चौथे और पांचवें दिन नहीं लौटी.
द थर्ड आई के साथ की गई ऑनलाइन कार्यशाला में मेरे एक प्रतिभागी विकास ने कहा था कि पहली बाधा तो हमें अपने दिमाग़ में पार करनी होती है जहां अपने सुरक्षित स्थान से बाहर निकलने का डर हमें उससे बाहर नहीं निकलने देता ताकि हम उससे बाहर निकल, दिमाग से बाहर की असल दुनिया की लय में बह सकें.
मुझे याद आया कि भोपाल में एक और युवा प्रतिभागी लगातार चुपचाप बैठी थी जब उसने अपने साथियों को अपने घरों और शादियों के संघर्षों के बारे में बात करते सुना. वह मुस्कुराते हुए, व्यस्त दिखने की कोशिश करती और इस तरह बोलने के हर मौके को आगे बढ़ा देती. फिर, कार्यशाला के तीसरे दिन कुछ अलग ही माहौल देखने को मिला, जैसे ही हम सभी ने सुबह अपने विचार साझा किए, उसने कहा, “आज मैं बोलने जा रही हूं. मैं इस बारे में बहुत सोच रही थी, और मुझे पता है कि मेरे पास इतने सारे विचार हैं जो मैं साझा करना चाहता हूं इसलिए मैं बोलने जा रहा हूं.”
उसके इस पहली दहलीज़ को पार करने की संभावना से ही मैं रोमांचित हो उठी. मैं देख सकती थी कि यहां तक पहुंचने में उसने एक लंबा रास्ता तय किया है. फिर भी, मेरे लिए यह जानना काफी था कि वह बातचीत में भाग लेना चाहती थी. अगले दिन, वह कार्यशाला के लिए नहीं आई. “कोई साधन न होने की वजह से आज नहीं आ सकी.” उसने मुझे फोन पर आश्वस्त किया, “मैं कल वहां रहूंगी.” लेकिन फोन के दूसरे छोर पर खड़े होकर मैं यह महसूस कर सकती थी कि वह परेशान है क्योंकि जब उसने अपनी बात कहने का फैसला लिया उसी वक़्त वो नहीं आ सकी. लेकिन अपने वादे के अनुसार वह अगले दिन कार्यशाला में आई और जैसे ही कार्यशाला बंद हुई, वे सभी घंटों तक चलने वाले नृत्य में शामिल हो गए. रोज़मर्रा की अपनी परेशानियों से घिरी दुनिया से अलग, उन्होंने इस छोटे से समूह में, जैसी वे हैं वैसा ही प्रवाह खोज लिया था. उस ऊर्जा का बयान शब्दों में नहीं हो सकता बल्कि वो संगीत की ध्वनियों से निकलने वाली तरंग की तरह एक के शरीर से दूसरे के शरीर में प्रवाहित हो रही थी.
हमारी गतिशीलता के सांप और सीढ़ी हमें हमेशा बहने के लिए छोड़ देते हैं. हम आज़ादी का स्वाद चखते हैं, उसे छिनते हुए देखते हैं और उसे दुबारा पाने के लिए दुगुनी मेहनत करते हैं. फिर भी, वो संक्षिप्त क्षण जब हम अचानक एक असामान्य रूप से लंबी सीढ़ी पर चढ़ जाते हैं और दुनिया के प्रवाह का हिस्सा होने के मीठे आनंद का स्वाद लेते हैं, ये क्षण हमें ताकत और ऊर्जा से भर देता है ताकि हम सीमाओं के खिलाफ आगे बढ़ते रहें.
कार्यशाला
परिचय/चेक इन: 20 मिनट
कार्यशाला की शुरुआत उपस्थित समूह के आपसी परिचय से करें, अगर वे आपस में पहले से परिचित नहीं है तो या पता करें कि क्या वे एक-दूसरे से परिचित हैं. प्रत्येक प्रतिभागी को अपना नाम साझा करने के लिए कहें, वे कहां से हैं और साथ ही समूह को अपने पसंदीदा स्थान के बारे में विस्तार से बताने के लिए कहें. प्रतिभागियों को विस्तार से बताने दें कि वे अपने सबसे पसंदीदा स्थानों पर कैसा महसूस करते हैं या क्यों उन्हें ये जगहें पसंद हैं.
सांप और सीढ़ी: 20 मिनट
सभी प्रतिभागियों को सांप और सीढ़ी के खेल की तस्वीर दिखाएं. अब उन्हें यह कल्पना करने के लिए कहें कि उनकी खुद की गतिशीलता इस खेल की तरह है और उन्हें घर से बाहरी दुनिया की यात्रा में नौ ऐसी बाधाओं या सीमाओं को रेखांकित करने के लिए कहें जिन्हें वे पार करते हैं- जैसे घर, मोहल्ला, कस्बा, तहसील, ज़िला, शहर और भी बहुत कुछ. इसके बाद, उन्हें उन बाधाओं और सीमाओं को सांप और सीढ़ी के रूप में देखने को कहें जो उनकी यात्राओं में सामने आते हैं. सामने आने वाला हर एक झटका सांप है और इसके उलट जहां रास्ता दिखे वो सीढ़ी है. ज़रूरी नहीं कि वे पहले से ही सभी दहलीज़ों को पार कर चुके हों, कल्पना में जिन 9 बाधाओं को उन्होंने शामिल किया है ये वो आकांक्षाएं भी हो सकती हैं जिन्हें वे पार करना चाहते हैं, यानी वे सीमाएं जिन्हें वे किसी दिन पार करने की उम्मीद करते हैं.
साझा करना: 30 मिनट
इस लेख का अनुवाद अक़बर रिज़वी ने किया है. अक़बर हिंदी साहित्य अकादमी के साथ काम करते हैं और फ्रीलांस अनुवादक हैं.