अंक 005: अपराध

नारीवादी निगाह से

सफीना नबी: स्वतंत्र पत्रकारिता की धुन में रमीं

F-रेटेड इंटरव्यूह में आगे बढ़ते हुए हम पहुंच चुके हैं अपने पांचवें एपिसोड में जहां इस बार हमारे साथ हैं एक ऐसी पत्रकार जो कभी किसी न्यूज़रूम या एडिटोरियल मीटिंग का हिस्सा नहीं रहीं. उनके लिए स्वतंत्र पत्रकारिता ही वो रास्ता है जिसके ज़रिए वो अपनी बात अपने दम पर रख सकती हैं.

“सब जानता हूं कि तुम लोग क्या खाते हो, क्या नहीं.”

‘खाना’ शब्द सुनते ही भूख सी लगने लगती है. तरह-तरह के व्यंजन और पकवान दिमाग में घूमने लगते हैं. लेकिन मेरे लिए यह जीभ, पेट या मन की भूख को मिटाने का साधन भर नहीं है. इसके साथ मेरा एक अजीब ही रिश्ता है. इसे लेकर मेरे दिल और दिमाग में एक डर सा बैठा रहता है, या यूं कहें कि यह डर बिठाया गया है. ये वो डर है जो बचपन से अब तक गया नहीं.

खौफ!

पूर्वी दिल्ली का इलाका खिचड़ीपुर, यहां छह नंबर की गली में रहने वाली नौ साल की एक लड़की किडनैप हो गई. न जाने कौन उसे उठा कर ले गया. इस खबर को सुनकर आठ नंबर की गली में रहने वाली सातवीं क्लास की काव्या के होश गुम हो गए. उस वक्त उसकी मम्मी घर पर नहीं थी. आज वह आएंगी भी देर से.

हमारी देह हिंसा को कैसे देखती और महसूस करती है?

साल 2021 का ग्यारहवां महीना यानी नवंबर. इंदौर, मध्य प्रदेश का शहर. इंदौर में किसी मकान के एक कमरे में साथ बैठीं ग्यारह महिलाएं. कमरे में जिज्ञासा और घबराहट का एक मिश्रण था जो कमरे में बैठी महिलाओं के चेहरों पर भी झलक रहा था.

नेहा दीक्षित: “क्राइम सीन की जांच कर, अलग-अलग कड़ियों को जोड़ना खोजी पत्रकारिता है.”

F-रेटेड इंटरव्यूह के चौथे एपिसोड में हमारे साथ हैं नेहा दीक्षित, जो एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और दिल्ली में रहती हैं. उन्होंने कई विभिन्न माध्यमों में चर्चित एवं प्रसिद्ध संस्थानों के साथ काम किया है. इसमें प्रमुख हैं: कारवां, आउटलुक, द वायर, न्यूज़मिनिट, अल जज़ीरा टीवी, और वॉशिंगटन पोस्ट.

दिल्ली की दीवार

अपराध संस्करण में हम हिंदी की मूल कहानियों के ज़रिए भी अवधारणाओं पर बात करने की कोशिश कर रहे हैं. इस कड़ी में पेश है दूसरी कहानी – दिल्ली की दीवार. इस कहानी के लेखक हैं प्रतिष्ठित एवं चर्चित साहित्यकार उदय प्रकाश.

निधि सुरेश: ब्रेकिंग न्यूज़ के दौर में निःशब्द और मौन सवालों का क्या मतलब है?

F – रेटेड इंटरव्यूह के तीसरे एपिसोड में मिलते हैं निधि सुरेश से जो हमें लखीमपुर और हाथरस ले जाती हैं और घटनास्थल पर अपराध के बाद होने वाली हिंसा को अपनी पत्रकारिता के ज़रिए दिखाती हैं. वह स्थानीय पत्रकारों के साथ काम करने के लिए रणनीतियां आज़माती हैं और धीमे और शांत प्रश्नों के महत्त्व पर प्रकाश डालती हैं, तब भी (और विशेष रूप से) जब पत्रकारों की भीड़ एक कहानी को कवर कर रही हो.

कैसे सामाजिक कार्यकर्ता कैदियों को कानूनी भूलभुलैया में रास्ता दिखाते हैं

यह लेख सामाजिक कार्य (सोशल वर्क) के क्षेत्र में काम करने वाले उन पेशेवरों एवं छात्रों की बात करता है जिन्हें कैदियों के साथ काम करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है. यह उन महत्त्वपूर्ण बिंदुओं का पता लगाने का काम करता है जिन्हें इस काम के दौरान पार करने की ज़रूरत होती है ताकि एक ऐसी आबादी के साथ काम किया जा सके जिसके बारे में मौजूदा आख्यान सकारात्मक नहीं होते.

नीतू सिंह: एक मुकम्मल कहानी के पीछे क्या-क्या होता है?

F रेटेड इंटरव्यूह के दूसरे एपिसोड में मिलिए नीतू सिंह से जो एक स्वतंत्र पत्रकार, मीडिया प्रशिक्षक और शेड्स ऑफ रूलर इंडिया यू-ट्यूब चैनल की संस्थापक हैं. पत्रकारिता के अपने करियर की शुरुआत ग्रामीण मीडिया संस्थान ‘गांव कनेक्शन’ से करने वाली नीतू अपने काम के ज़रिए इस सोच को चुनौती देती हैं कि एक रिपोर्टर का काम सिर्फ़ घटना के बारे में जानकारी देना भर है.

कहते हैं कानून के हाथ बहुत लंबे होते हैं, पर क्या होगा जब कानून का दिल भी बहुत बड़ा हो?

पुनर्स्थापनात्मक न्याय/ रिस्टोरेटिव जस्टिस के दूसरे हिस्से में पढ़िए ज़मीनी स्तर पर यह कैसे काम करता है और जेल में बंद महिला कैदियों के जीवन में इसकी क्या भूमिका है.

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