यह 1988-89 की बात होगी. मैं कक्षा तीन या चार में पढ़ता था और उस समय की चीज़ों और घटनाओं की एक धुंधली सी स्मृति है. मेरी काकी को बेटा हुआ था और उसकी खुशी में मेरे फूफा रामबहादुर सिंह ने नौटंकी नाच करवाया था. खुशी के अवसरों पर नौटंकी होने के यह अंतिम दिन थे और गांवों में ‘वीडियो’ का प्रवेश बस शुरू ही हुआ था. उन दिनों निकट के कस्बे से एक रंगीन टीवी, एक वीसीआर और एक जेनरेटर आता और लोग रात भर वीडियो देखते. बिजली से यह सब कुछ चलता लेकिन बिजली कम रहती, वह भी सभी गांवों में, सबके यहां बिजली न थी. तो इस नौटंकी में ‘फूलन देवी’ का पार्ट खेला गया. उसके कुछ पात्र, विशेषकर फूलन और पुत्तीलाल, और उनकी भाव भंगिमा अभी तक मेरे स्मृति कोश का हिस्सा हैं.
फूलन का रोल जिस लड़के ने किया था, उसका नाम अब्दुल था. उसकी कमनीय काया, नाचने की अद्भुत क्षमता और आवाज़ में एक खुरदुरापन उसे एक बेमिसाल नौटंकीबाज़ बनाते थे. बाद में, वह मज़दूरी करने लगा. वीडियो के आगमन ने उत्तर भारत के हज़ारों नौटंकी कलाकारों को दिहाड़ी मज़दूर में बदल दिया.
असल बात जो है, वह नौटंकी नहीं है. असल बात फूलन देवी (10 अगस्त 1963- 25 जुलाई 2001) की है. फूलन को मैंने 2010 के बाद जानना शुरू किया जब मैंने उत्तर प्रदेश के सीमांत समुदायों पर पीएचडी करनी शुरू की, खासतौर से निषाद समुदाय पर. तब मुझे उस फूलन के दर्शन होने शुरू हुए जो शेखर कपूर की फिल्म बैंडिट क्वीन की फूलन से भिन्न थीं. फिल्म फूलन के जीवन में दर्द और हिंसा के चरम को प्रदर्शित करती है. फिल्म के अंत तक आते-आते फूलन एक वीरांगना के रूप में नज़र आने लगती हैं. उसके बाद के जीवन से दर्शक का संबंध वहीं खत्म हो जाता है. लेकिन फूलन देवी का जीवन उस फिल्म में दिखाई गई छवियों से कहीं ज़्यादा बड़ा है.
वास्तविक दुनिया में, उन्होंने ग्रामीण उत्तर भारत की लाखों-लाख महिलाओं के जीवन में यकायक एक रौशनी पैदा कर दी. एक बड़े हिस्से की महिलाओं की वे रोल मॉडल बन गईं. 1981 के बेहमई हत्याकांड (उस पर अभी भी कोई एक राय नहीं है) के बाद फरवरी 1983 में भिंड में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के सामने फूलन देवी ने आत्मसमर्पण कर दिया था. समर्पण करने से पहले उन्होंने महात्मा गांधी और मां दुर्गा की तस्वीर के सामने सिर झुकाया. 11 साल जेल में बिताने के बाद 1994 में वो जेल से बाहर आईं. 1996 में वे समाजवादी पार्टी के टिकट से मिर्ज़ापुर से लोकसभा की सांसद चुनी जा चुकी थीं, 1998 में वे चुनाव हार गईं, 1999 में फिर से चुनी गईं. 2001 में उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई.
फूलन पर किसी वृहद् उपन्यास या फिल्म का अभाव है. उनका जीवन एक संवेदनशील और व्यापक नज़रिए वाले कलाकार का अभी इंतज़ार कर रहा है. एक बार अपने एक लेख में लॉस एंजेलिस टाइम्स ने लिखा था कि “दुनिया के किसी कोने में भी जब कुख्यात अपराधियों का इतिहास लिखा जाएगा तो उसमें फूलन देवी का अपना एक पूरा अध्याय होगा.”
फूलन देवी एक ऐसे समुदाय में पैदा हुई थीं जो ऐतिहासिक रूप से समाज के सबसे निचले स्तर पर मौजूद था. माना जाता है कि निषाद नाव चलाकर और मछली मारकर अपनी जीविका चलाते थे लेकिन फूलन के मामले में उनके पिता छोटे-मोटे काम करके जीवन चलाते थे. उससे उनको उतनी आय नहीं हो पाती थी कि अपनी लड़कियों को कायदे का एक कपड़ा दिला सकें. “आई, फूलन देवी—द ऑटोबायोग्राफी ऑफ इंडियाज़ बैंडिट क्वीन (I, Phoolan Devi – The autobiography of India’s Bandit Queen) में फूलन ने अपने बचपन के संताप, दुख और अभाव को बड़ी शिद्दत से याद किया है. अपने पिता के दब्बूपन को भी उन्होंने याद किया है और बताया है कि वे उनकी रक्षा न कर सके और फूलन के चाचा उनकी मां, पिता, फूलन और उनकी बहन को डराया-धमकाया करते थे. एक बेमेल और हिंसक विवाह के बाद जैसे पुरुषों ने फूलन को बार-बार स्त्री होने का दंड दिया. बाद में फूलन ने शक्ति इकट्ठा करने के क्रम में उस जीवन को पलट देना चाहा, दुरुस्त करना चाहा जो जगह-जगह लोहे की किसी गर्म सलाई से जैसे दाग दिया गया था.
फूलन की हत्या के दो दशक बाद, 2021 में कानपुर, कानपुर देहात, जालौन और उसके आसपास के ज़िलों में अपने फील्डवर्क के दौरान हमने देखा कि फूलन देवी की उपस्थिति किसी मिथक और देवी के बीच कहीं जाकर ठहरती है.
इससे पहले मैं उत्तर प्रदेश में गंगा और यमुना के किनारे की निषाद बस्तियों में अपने शोध के सिलसिले में जाता रहा हूं. मुझे ऐसी कोई निषाद बस्ती नहीं मिली है जहां उनकी उपस्थिति न हो. फूलन हर जगह मौजूद हैं.
अपनी मृत्यु के बाद फूलन देवी निषाद समुदाय के राजनीतिक, सांस्कृतिक और सामाजिक स्मृति कोश का हिस्सा बन गईं. उनकी मृत्यु के बाद प्रतिष्ठित पत्रिका ‘फ्रंटलाइन’ की 18 अगस्त 2001 में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि वे तमिलनाडु के मछुआरों के बीच भी काफी लोकप्रिय थीं.
यह कहना एक भूल होगी कि फूलन देवी केवल निषाद समुदाय के बीच लोकप्रिय हैं. इस बात की एक धीमी पड़ताल मैंने 2022 के बाद की है कि उत्तर प्रदेश में वो किस तरह से मौजूद हैं. फूलन देवी परम्परागत रूप से समाज के सबसे निम्न धरातल पर मौजूद समूहों की स्त्रियों के साथ-साथ उच्च तबकों की स्त्रियों के एक हिस्से में भी बहुत लोकप्रिय हैं. वे स्त्रियां फूलन देवी का नाम बहुत ही दर्प के साथ लेती हैं. 2022 के विधानसभा चुनावों के दौरान कानपुर देहात की रनिया विधानसभा की एक सपेरा बस्ती में उस समुदाय की एक महिला ने एक दूसरी अपेक्षाकृत युवा महिला को ‘फूलन’ कहा क्योंकि वह अपने पति और उस गांव के प्रधान को अपने होने का अहसास करवा चुकी थी और अधिकारियों से स्पष्ट आवाज़ में बात कर लेती थी. वह किसी से नहीं डरती थी. इस बात को समझे जाने की आवश्यकता है कि
फूलन देवी के ‘उत्तर जीवन’ ने उत्तर भारत की स्त्रियों को अपनी ‘एजेंसी’ को पहचानने में स्थाई मदद की है. इसी तरह एक महिला जो परचून की दुकान चलाती थी, उसकी हिम्मत और खुदमुख्तारी के कारण लोग उसे फूलन कहते हैं.
यह तो बात हुई किसी व्यक्तित्त्व से प्रभावित होना और उसका मानवीय नामावलियों में शामिल हो जाना.
इतना ही नहीं मैंने देखा कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में, सवर्ण महिलाओं का एक तबका इंदिरा गांधी और मायावती के साथ फूलन देवी के साहस की प्रशंसा करता है. गोंडा, अयोध्या, सुल्तानपुर, इलाहाबाद, भदोही, बनारस, चंदौली, कानपुर, कानपुर देहात, औरैया, बांदा, महोबा, हमीरपुर और ललितपुर में मैंने ऐसी महिलाओं से लंबी बातचीत की है जो कमज़ोर या निचले समूहों की नहीं थीं लेकिन वे फूलन देवी के जीवन और संघर्ष का आदर करती थीं. फूलन उनके लिए स्त्री सबलीकरण का प्रतीक थीं जिसने पुरुष वर्चस्व को चुनौती दी. यह बताता है कि एक प्रतीक और रूपक के रूप में फूलन देवी के व्यक्तित्त्व में बहुत संभावनाएं हैं और जिन्हें देर-सबेर समाज और मुख्यधारा की राजनीति को स्वीकार करना पड़ेगा.
वास्तव में विभिन्न समुदाय सत्ता के लिए संघर्ष को अपने पक्ष में करने के लिए, उसे अपने अनुकूल बनाने के लिए इतिहास और स्मृति का एक ही समय में सहारा लेते हैं. निषाद समुदाय के लिए महाभारत में वर्णित एकलव्य की कथा और बीसवीं शताब्दी में हुई फूलन देवी एक ही सामाजिक धरातल पर उपस्थित होकर उनका सबलीकरण करती हैं. एकलव्य का प्रतीक भी केवल निषादों तक सीमित नहीं है बल्कि इसने बहुजन चेतना को प्रतिरोधधर्मी बनाने में मदद की है. जैसा हम जानते हैं कि निषाद समुदाय के पास इतिहास, मौखिक परम्परा और सामूहिक स्मृतियों का सांस्कृतिक भंडार मौजूद है. यह उनके भविष्य की इमारत की कच्ची सामग्री है. अपनी हर बात में वे बताते हैं कि उनका एक राज्य हुआ करता था जिसका वर्णन महाकाव्यों में है. निषादराज गुह इतने शक्तिशाली थे कि उन्होंने राजा राम की सहायता की थी.
गौरव के इस आख्यान के साथ वे पीड़ा के आख्यान भी सुनाते हैं कि उनके प्रतिभाशाली नौजवान एकलव्य का अंगूठा काटा गया और फूलन देवी को उच्च जातीय लोगों के अत्याचार का सामना करना पड़ा.
उनके इन आख्यानों में इतिहास और मिथक आपस में घुलमिल जाता है और इससे एक बहुत ही सक्रिय ‘राजनीतिक समाज’ का निर्माण होता है. राजनीतिक समाज एक ऐसा समाज है जिसमें कमज़ोर तबके स्पर्धा और मोलभाव के द्वारा सत्ता से धीरे-धीरे अधिकार प्राप्त करने की कोशिश करते हैं. निषादों के मामले में इस धीरे-धीरे की जगह अब एक रफ़्तार आ चुकी है.
एकलव्य जैसे महाकाव्यात्मक युवक निषाद समुदाय की राजनीतिक प्रतीक योजना को इतिहास की प्राचीन सीमाओं की ओर ले जाते हैं तो उसके राजनीतिक कार्यकर्ता इसे भविष्य से जोड़ देते हैं. एकलव्य के अंगूठे को काट लिए जाने को बहुजन राजनीति एक सांस्कृतिक सदमे और धोखेबाज़ी के रूप में याद करती है और भविष्य को अपने पक्ष में करने का प्रयास करती है. इसी प्रकार वे निषादराज गुह को एक गौरवशाली अतीत की विरासत के रूप में याद करते हैं जब वे एक बड़े इलाके के शासक हुआ करते थे. वर्तमान इलाहाबाद शहर में इन दोनों की मूर्तियों का अध्ययन रोचक हो सकता है. यह मूर्तियां निषादों के संघर्ष और उनकी राजनीतिक चेतना के निर्माण में प्रतीकात्मक महत्त्व रखती हैं कि किस प्रकार निषादों ने अपनी सांस्कृतिक सामग्री से अपनी राजनीति बनाने का प्रयास किया है. इलाहाबाद शहर में अलोपीबाग से सिविल लाइंस की ओर जाने वाले मार्ग की शुरूआत में ही निषादराज गुह की मूर्ति लगी है. यहां से गंगा नदी बहुत दूर नहीं है. इस मूर्ति का अनावरण 1 मई 2002 को हुआ था. मूर्ति के नीचे ‘‘भारतवर्ष के प्रथम इतिहास पुरूष निषादराज गुह” लिखा है. इसी तरह से इलाहाबाद शहर के एजी आफिस चौराहे पर एकलव्य की भव्य मूर्ति लगी है. 27 अप्रैल 1997 को उद्घाटित हुई एकलव्य की मूर्ति के नीचे संगमरमर की पट्टी पर ‘‘दानवीर महा धनुर्धर वीर एकलव्य” खुदा हुआ है. एक सुगठित युवक अपने पैरों को भूमि पर मज़बूती से जमाए हुए अपने कान तक धनुष की प्रत्यंचा खींचे हुए है.
मूर्तियों को पत्थर या धातुखंड समझने की भूल नहीं करनी चाहिए. मूर्तियां एक सुनिश्चित संदेश देती हैं. किसी देवी-देवता, ऐतिहासिक या सामुदायिक व्यक्तित्त्व की मूर्ति इतिहास और वर्तमान को जोड़ती है. यह पूरी दुनिया में हुआ है. जब कोई भारतीय मार्क्सवादी लंदन जाता है तो वह मार्क्स की मूर्ति के सामने फोटो खिंचवाता है. दक्षिण भारत में हीरो-हीरोइन की मूर्तियां और मंदिर आम हैं. मायावती ने अपने जीवनकाल में ही मूर्तियां स्थापित करवा दी हैं. लेकिन जगह-जगह पर फूलन देवी की मूर्तियां बहुजन समुदाय और विभिन्न राजनीतिक दल स्थापित करने की प्रक्रिया में हैं. जो बात मैं यहां ज़ोर देकर कहना चाहता हूं, वह यह है कि डॉ. अंबडेकर के साथ जहां ‘संघर्ष, शिक्षा और संगठन’ की बात थी, फूलन देवी का व्यक्तित्व उस विचार को आगे ले जाने की कोशिश करता है.
फूलन का व्यक्तित्व न्याय, जेंडर की बराबरी और स्त्रियों पर हिंसा को रोकने की न केवल वकालत करता है बल्कि वह इस बात का इसरार करता है कि स्त्रियों को बराबर समझा जाए और यदि वे कमज़ोर तबकों से आती हैं, तो उन्हें ज़्यादा तवज्जो दी जाए.
इधर एक अच्छी बात यह हुई है कि कुछ जगहों पर, एक व्यापक समझदारी के तहत डॉ. अंबेडकर और फूलन देवी बहुजन सबलीकरण की परियोजना में साथ-साथ दिखने लगते हैं.
जैसा कि हम जानते हैं राष्ट्रीय निषाद संघ और निषादों के अन्य संगठन फूलन देवी की हत्या के बाद 25 जुलाई को उनकी पुण्यतिथि मनाते रहे हैं. मसलन, वर्ष 2007 में राष्ट्रीय निषाद संघ ने निषादों के विभिन्न संगठनों के नाम एक अपील जारी की कि वे इसे ‘अन्याय विरोधी दिवस’ के रूप में मनाएं. वास्तव में किसी समुदाय को दृश्यमान होने के लिए बहिष्करण और गौरव की गाथाएं संदर्भ बिंदु के रूप में काम करती हैं. इन गाथाओं को आगे बड़ाने का काम उस समुदाय के बुद्धिजीवी करते हैं. यह निषाद बुद्धिजीवी एक ही साथ तीन काम कर रहा है: वह अपने समुदाय का इतिहास लिख रहा है, समुदाय के लोगों को संगठित कर रहा है और राजनीतिक शक्ति में भागीदारी के लिए चुनाव भी लड़ रहा है. रामायण में वर्णित निषादराज गुह, महाभारत के रचयिता वेद व्यास, वीर एकलव्य और फूलन देवी से वह सांस्कृतिक और राजनीतिक आत्मविश्वास हासिल कर रहा है.
वर्ष 2010 में जब बांदा ज़िले में शीलू दुष्कर्म कांड हुआ जिसमें सीबीआई के विशेष न्यायालय में मुकदमा चला और बांदा के नरैनी के तत्कालीन विधायक के खिलाफ सीबीआई ने दुष्कर्म तथा चार साथियों के खिलाफ छेड़खानी व मारपीट की धाराओं में आरोपपत्र दाखिल किया था. बाद में, 2015 में विधायक को दस वर्ष की सज़ा हुई. तो वर्ष 2011 के अक्टूबर-नवम्बर में इलाहाबाद में संगम क्षेत्र में निषाद समुदाय के एक समूह ने एक औपचारिक बातचीत में मुझसे कहा कि हमारी बहू-बेटियों पर अत्याचार किया जाता है और उन्हें फूलन बनने पर मजबूर किया जाता है. ध्यातव्य है कि राज्य सरकार ने आरोपी के खिलाफ कठोर कदम उठाए थे लेकिन एक ‘मॉडल’ के रूप में फूलन देवी की उपस्थिति ऐसे मौकों पर अहम हो जाती है जब महिलाओं पर भीषण अत्याचार होते हैं.
फूलन देवी पर उपलब्ध साहित्य से गुज़रने या निषाद समुदाय के स्त्री-पुरुषों से बात करने पर कोई भी व्यक्ति इस बात को नोटिस करेगा कि उनके लोकसभा सांसद बनने से निषाद जनों के भीतर प्रतिरोध की संस्कृति का प्रसार हुआ और उन्हें इसका व्यापक मूल्य भी ज्ञात हुआ. फूलन देवी का जीवन दिखाता है कि कैसे एक सामान्य बालिका स्त्री प्रतिरोध का एक सशक्त प्रतीक बन गई, वह भी जीती-जागती. निषाद समुदाय की सामाजिक वास्तविकता और भविष्य में हस्तक्षेप करने की आकांक्षा ने फूलन देवी को एक नायिका के रूप में स्थापित कर दिया है.
“उनके कारण नदियों के किनारे तरह-तरह के लोग हमसे बात करने के लिए आने लगे. वे न होतीं तो क्या आप मुझसे यहां नदी के किनारे मिलने आते? उनके कारण ही गांवों, पुरवों और बीहड़ों में रहने वाले गरीब लोगों और मल्लाहों में ताकत आई. अब हमें कोई धमका नहीं सकता है. कोई आंख नहीं दिखा सकता.”
अगस्त 2020 में चंदौली के एक निषाद नवयुवक ने मुझसे यह बात कही थी. उस समय वह गंगा नदी में मछली मारने जा रहा था. उसने इंटरमीडिएट तक की शिक्षा प्राप्त की थी. मैंने उससे पूछा कि क्या इससे आपकी आर्थिक दशा में भी कोई सुधार हुआ. उसने एक तल्ख आवाज़ में कहा कि ‘सब कुछ पैसा ही नहीं होता है. इंसान को इज़्ज़त भी चाहिए’. वास्तव में मनुष्य की आदिम हसरत मनुष्यों के समूहों के बीच गरिमा की प्राप्ति है. भारतीय समाज व्यवस्था में वर्ण, जाति और पेशा इसमें अवरोध उत्पन्न करते हैं. वे समाज के सबसे निचले पायदान पर रहने वाले समूहों को अवमानित करके उनकी गरिमा नष्ट कर देते हैं. वह निषाद युवक फूलन देवी के इसी प्रतीक के द्वारा अपनी गरिमा की पुनर्प्राप्ति कर रहा था.
वास्तव में, फूलन देवी के व्यक्तित्व को एक सबलीकृत प्रतीक में बदल जाने से निषाद जनों में सम्मान और सबलीकरण की भावना आई है. सम्मान और सबलीकरण कमज़ोर समूहों को गोलबंद होने में मदद करता है. जब वे गोलबंद हो जाते हैं तब वो सार्वजनिक स्थानों एवं राजनीतिक दायरों में दिखने लगते हैं. उत्तर भारत की दलित राजनीति पर लिखते हुए बद्री नारायण कहते हैं कि इसने हाशिये पर पड़े कई समुदायों को आत्मविश्वास, सम्मान की भावना, राजनीतिक क्षमता और ताकत हासिल करने के लायक बनाया है. अब यह जगह-जगह दिखता है.
बतौर सांसद जनवरी 1999 जब वे जापान गई थीं वहां उन्होंने एक पत्रकार से बात करते हुए महिलाओं को एक सलाह दी, “जो कोई भी तुम्हें रोकेगा – तुम्हारा पिता, समाज, तुम्हारा बेटा – तुम्हें उनसे अंत तक लड़ना होगा, अगर तुम्हें अपनी आज़ादी चाहिए.” उन्होंने अपने पूरे जीवन में भी इस विद्रोही सिद्धांत का पालन किया.