प्रसव और गरिमा: स्वास्थ्य के नाम पर गर्भवती महिलाओं के साथ हिंसा

ऑब्सट्रेटिक हिंसा गर्भवती महिलाओं के साथ प्रसव के दौरान किया जाने वाला अमानवीय व्यवहार है, जो उनकी गरिमा और अधिकारों का खुला उल्लंघन है.

चित्रांकन: आस्था शर्मा
इरावती, इंदौर के पास के छोटे से गांव बेगमखेडी की रहने वाली है. जब वह अपनी पहली डिलीवरी के लिए इंदौर के सरकारी अस्पताल में भर्ती हुई, तो उसे उम्मीद नहीं थी कि पहली संतान के होने की खुशी, इतनी जल्दी ज़िंदगी भर के सदमे में बदल जाएगी. अस्पताल के मेटरनिटी वॉर्ड में इरावती को घंटों अपनी टांगें खोलकर लेटे रहना पड़ा. उसे बहुत ज़्यादा शर्म महसूस हो रही थी क्योंकि वॉर्ड में न सिर्फ नर्स बल्कि दूसरे मरीज़ों के परिवारजन भी आ-जा रहे थे. इरावती बताती है कि उसकी बहन जब उसे ढकने की कोशिश करती, तो नर्स उसे डांट देती. एक महिला डॉक्टर ने तो एक पुरुष डॉक्टर को उसके निचले हिस्से को छूने के लिए कहा, जिससे उसे शर्म और घृणा महसूस हुई. वह दर्द से कम, शर्म और गुस्से से ज़्यादा रो रही थी, लेकिन किसी को उसकी परवाह नहीं थी.

21 साल की करूणा के लिए पहली बार मां बनना एक दर्दनाक अनुभव था जिसने उसे जीवन भर के लिए डरा दिया. वज़न कम होने की वजह से सरकारी अस्पताल में डॉक्टर न सिर्फ उसे तरह-तरह की दवाइयां खिलाती रहीं, बल्कि उसे इस बात के लिए भी कोसती रहीं कि उसकी वजह से उसके होने वाले बच्चे के साथ कुछ भी बुरा हो सकता है. डिलीवरी के दिन अर्धनग्न स्थिति में जब वो लेबर रूम में दर्द से तपड़ रही थी और शर्म के मारे अपने निचले हिस्से को बार-बार ढकने की कोशिश कर रही थी तब एक नर्स ने उससे कहा, “मर्द के सामने तो कपड़े खोलकर बैठ जाती है, हमारे सामने टांगे भी नहीं खोली जा रहीं”. नर्स ने दर्द में ज़ोर से चिल्लाने पर करूणा को धमकी दी कि वो उसे थप्पड़ लगा देगी.

लेबर रूम के भीतर महिलाओं के साथ इस तरह के दुर्व्यवहार, अनादर, उनके साथ बदतमीज़ी आदि घटनाओं को नॉन-मेडिकल हिंसा की श्रेणी में रखा जाता है. इसपर बातचीत की शुरुआत 1990 के दशक के उत्तरार्ध में मुख्य रूप से लैटिन अमेरिका के देशों में वहां की स्थानीय महिलाओं द्वारा अपने-अपने देशों में प्रसव प्रक्रिया को लगातार एक रोग में बदलने की कोशिश और इसके लिए अपनाए जा रहे हथकंडो के खिलाफ़ आवाज़ उठाने से हुई. उसके बाद यूरोपीय देश और अमेरिका – जहां सबसे ज़्यादा संस्थानिक डिलीवरी होती है, गर्भ के दौरान महिलाओं के साथ होने वाले अपमानजनक व्यवहार, यातना, दुर्व्यवहार और शारीरिक हिंसा पर नारीवादी विचारकों एवं स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ताओं ने बहुत कुछ लिखा. 

भारत में 2010 के आसपास इन घटनाओं का संज्ञान लिया गया. सेंटर फॉर विमेन स्टडीज़ से जुड़ी प्रोफेसर बिजोया रॉय कहती हैं, “हमारे यहां प्रसूति हिंसा पर विचार स्वास्थ्य आंदोलनों से नहीं आया बल्कि विदेशी नारीवादी विचारकों ने प्रेरित किया कि हम अपने यहां हॉस्पिटल या नर्सिंग होम में गर्भवती महिलाओं के साथ होने वाले व्यवहार को परखें.”

विश्व स्वास्थ्य संगठन और नारीवादी विचारक इसे ‘ऑब्सटेट्रिक हिंसा’ कहते हैं – यह गर्भवती महिलाओं के साथ प्रसव के दौरान किया जाने वाला अमानवीय व्यवहार है, जो उनकी गरिमा और अधिकारों का खुला उल्लंघन है. कुछ लोगों को लगता है कि इसके लिए “प्रजनन हिंसा” शब्द में अधिक बारीकियां हैं, और कुछ का मानना है कि इस मुद्दे से निपटने में “हिंसा” शब्द का उपयोग अधिक सही है. 

ऑब्सटेट्रिक हिंसा या गर्भवती महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा क्या है?

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार गर्भ के दौरान या प्रसूति गृह (लेबर रूम) में गर्भवती महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा, प्रसूति हिंसा या ऑब्सटेट्रिक हिंसा कहलाती है.

यह शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक एवं मौखिक रूप से की जाने वाली हिंसा है जो संस्थागत ढांचे के भीतर गर्भवती महिलाओं से उनकी स्वायत्तता, खुद के शरीर पर उनके इख्तियार से उन्हें वंचित करती है.

मतलब, संस्थागत ढांचे जैसे हॉस्पिटल, नर्सिंग होम, स्वास्थ्य केंद्र जैसी जगहों पर प्रसूति गृह या लेबर रूम के भीतर महिला के साथ होने वाली हिंसा की घटनाओं को स्वास्थ्य कर्मियों द्वारा महिलाओं के शरीर और प्रजनन प्रक्रियाओं के इस्तेमाल के रूप में परिभाषित किया गया है. इसमें अमानवीय व्यवहार, लेबर में होने वाले दर्द की अनदेखी, दवाइयों का अनौचित्यपूर्ण उपयोग, ज़बरदस्ती सी-सेक्शन करना, गर्भवती महिला को अनावश्यक रूप से दवाइयां खिलाना और एक प्राकृतिक प्रक्रिया को किसी रोग में परिवर्तित करना शामिल है. 

जिसका परिणाम महिला द्वारा खुद के शरीर और अपनी यौनिकता के बारे में स्वतंत्र रूप से निर्णय लेने की क्षमता और स्वायत्तता खोने के रूप में होता है और जो महिलाओं के जीवन की गुणवत्ता पर नकारात्मक प्रभाव डालता है. (सेहत संस्था, लेबर रूम वॉयलेंस रिपोर्ट) जैसा प्रेरणा के साथ हुआ. लेबर पेन के दौरान अचानक से उसे बताया गया कि उसका बच्चा ऑपरेशन से होगा. उसके लिए यह अबतक अनसुनी बात थी, उस पल उसे कुछ नहीं पता था कि उसके और होने वाले बच्चे के साथ क्या-क्या हो रहा है और उसका क्या असर हो सकता है!

ऑब्सटेट्रिक हिंसा - ज़बरदस्ती सी सेक्शन करना

वो अक्टूबर का महीना था. एक तरफ बाज़ार से लेकर गली-मोहल्ले में त्योहार का शोरगुल फैला था तो दूसरी तरफ झारखंड के एक संपन्न शहर जमशेदपुर के एक मध्यवर्गीय घर पर परिवार की सबसे बड़ी बेटी की पहली संतान के आने की तैयारियां चल रही थीं. ‘पहला बच्चा मायके में होगा’, ससुराल वालों ने ये कहकर दूसरे महीने में ही प्रेरणा को उसके घर भेज दिया था. घर के पास ही एक भरोसेमंद नर्सिंग होम में जांच करवाने के साथ प्रेरणा ने वहां अपना रजिस्ट्रेशन करवा लिया.

पूरे नौ महीने उसने हर एक सलाह और नुस्खे को कभी खुशी से तो कभी घरवालों की ज़बरदस्ती के आगे हार मान कर फॉलो किया जो यह कहते हुए दी जाती कि इससे बच्चा स्वस्थ और तंदुरुस्त पैदा होगा (इसमें नारियल खाने से बेटा पैदा होगा जैसी सलाहें भी शामिल थी). इन सलाहों में एक बात जो उसने पूरी शिद्दत से निभाई वह थी घर में पोछा लगाना और सीढ़ियों से ऊपर नीचे करना. घर-परिवार की महिलाएं ही नहीं डॉक्टर और नर्सों ने भी प्रेरणा को यही सलाह दी कि नॉर्मल डिलीवरी के लिए पोछा ज़रूर लगाओ. ड्यू डेट के नज़दीक आने तक प्रेरणा ने घर में नियमित पोछा लगाया. 

उसकी बस एक ही ख्वाहिश थी – बच्चा नॉर्मल डिलीवरी से हो! नियमित जांच के दौरान डॉक्टर भी उसे आश्वस्त करते कि नॉर्मल डिलीवरी ही होगी. 22 मई की सुबह जब उसे दर्द उठा तो घरवालों ने नर्सिंग होम में भर्ती करा दिया. प्रेरणा की मां उसके साथ थी. उसे लेबर पेन शुरू हो चुका था और वे मैटरनिटी वॉर्ड में डॉक्टर के आने का इंतज़ार कर रहे थे.

एक-दो घंटे के बाद एक महिला डॉक्टर ने आकर कहा कि प्रेरणा को ऑपरेशन रूम में ले जा रहे हैं. दोनों मां-बेटी पूरी तरह से घबरा गए. “क्या हुआ, सब ठीक तो है?” मां लगातार नर्स से सवाल कर रही थी. नर्स का एक ही जवाब था कि डॉक्टर आकर बताएंगे.

अब प्रेरणा के बिस्तर के आसपास का माहौल एकदम बदलने लगा. उसे ऑपरेशन थियेटर में ले जाने के लिए तैयार किया जाने लगा. एक नर्स ने मां से कंसेंट फॉर्म पर साइन करने को कहा जिसमें लिखा था – ‘ऑपरेशन के दौरान अगर बच्चा या मां या दोनों को कोई नुकसान होता है, दोनों की या किसी एक की जान चली जाती है तो इसमें हॉस्पिटल की कोई ज़िम्मेदारी नहीं होगी.’

मां ने कंसेंट फॉर्म पर साइन कर दिया और कुछ देर बाद सी-सेक्शन से प्रेरणा की बेटी पैदा हुई. बच्ची बिल्कुल तंदुरुस्त और स्वस्थ थी. घर में खुशी का माहौल था. पर, प्रेरणा चाह कर भी पहली संतान के जीवन में आने की खुशी को पूरी तरह अनुभव नहीं कर पा रही थी. कई तरह की उलझने और परेशानियां उसे बेचैन कर रही थीं.

डिलीवरी के बाद प्रेरणा पांच दिनों तक नर्सिंग होम में रही और डिस्चार्ज के समय नर्सिंग होम ने 96 हज़ार का बिल बनाया क्योंकि वो अपने मायके में थी इसलिए ये खर्च भी उसके माता-पिता को उठाना पड़ा. उसे इस बात का बुरा लगा लेकिन सबसे ज़्यादा बड़ा धोखा उसने अपने डॉक्टर और नर्सिंग होम से महसूस किया जिनकी बातों पर वह आंख मूंद कर भरोसा कर रही थी. पर, डिलीवरी के बाद जो शारीरिक बदलाव प्रेरणा के जीवन में आए वो किसी हथौड़े के वार की तरह थे. लगातार बढ़ते वज़न और टांकों के आसपास बार-बार होने वाले घावों ने प्रेरणा को शारीरिक और मानसिक, दोनों तरह से कमज़ोर कर दिया!

पर, प्रेरणा के साथ जो हुआ वो कोई अकेली घटना नहीं है. हमारे आसपास सी-सेक्शन से बच्चा पैदा होना बहुत आम घटना है. और इन तथ्यों पर भी ध्यान न देना आम है कि इस प्रकार की डिलीवरी के बाद बहुत सारी महिलाएं कई तरह की शारीरिक परेशानियों से गुज़रती हैं!

बिजोया कहती हैं, “शोध के दौरान हम जितनी महिलाओं से मिले ज़्यादातर ने कहा कि उनको एकदम अंत में जाकर बताया गया कि आपका सी-सेक्शन होगा. ऑपरेशन थियेटर में ले जाने से ठीक पहले आप गर्भवती महिला को यह नहीं बता सकते कि इसमें क्या होगा, क्यों होगा… ! उस पल में कोई भी महिला क्या बोलेगी उसके लिए तो ये एक लाचारी भरी परिस्थिति है.”

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्लूएचओ) का कहना है कि अगर महिला को यह नहीं बताया जा रहा कि इसकी ज़रूरत क्यों है, तो यह हिंसा है.

वहीं सी-सेक्शन को लेकर एक दूसरा तर्क यह है कि यह जीवन बचाने की एक प्रक्रिया है. पत्रकार मेनका राव, जो स्वास्थ्य, पोषण और न्याय के मामलों पर लेखन करती हैं, उनका कहना है कि डिलीवरी के समय और ठीक उससे पहले कई मामलों में डिलीवरी की जटिलताएं जैसे, बच्चे के अंदर पलट जाना, या गर्भनाल उसके गले में फंस जाना; ऐसे कई कारण हैं जिनकी वजह से सी सेक्शन करना ज़रूरी हो जाता है.

पर यहां यह देखने की ज़रूरत है कि यह सुविधा किसके लिए उपलब्ध है और कहां यह सबसे ज़्यादा देखने को मिलता है – प्राइवेट सेक्टर या पब्लिक सेक्टर के अस्पतालों में?

सरकारी बनाम प्राइवेट अस्पताल में सी-सेक्शन (सब-टेक्सट)

मेनका का कहना है कि अक्सर होता यह है कि सरकारी अस्पताल में अगर डिलीवरी में किसी तरह की कोई पेचीदगी आ जाती है और सर्जरी की ज़रूरत होती है तो कभी डॉक्टर नहीं हैं, तो कभी सर्जरी का सामान नहीं होता, या ब्लड बैंक की सुविधा नहीं है जैसी बहुत सारी दिक्कतों का हवाला देकर गर्भवति महिला को एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल दौड़ाया जाता है. इसलिए सी-सेक्शन के आंकड़े सरकारी अस्पतालों में कम देखने को मिलते हैं. मतलब शहरी क्षेत्रों और उच्च-संसाधन वाले राज्यों में सी-सेक्शन की दर अधिक है, जबकि ग्रामीण क्षेत्रों और कम संसाधन वाले राज्यों में यह दर कम होती है.

भारत में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) की एक रिपोर्ट के अनुसार, सी-सेक्शन डिलीवरी का चलन तेज़ी से बढ़ रहा है. 2005-06 में यह 8.5 फीसदी, 2015-16 में 17.2 फीसदी और 2019-21 में यह बढ़कर 21.5 फीसदी हो चुका है, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा सुझाए गए 10-15% के आदर्श से अधिक है

समय के साथ, यह देखा गया है कि निजी अस्पतालों में सी-सेक्शन प्रसव का प्रतिशत सार्वजनिक सुविधाओं की तुलना में अधिक रहा है. निजी अस्पतालों में यह दर 47.4% तक पहुंच गई, जबकि सरकारी अस्पतालों में यह लगभग 14.3% रही. 

वहीं, सी-सेक्शन पर बात करते हुए बीबीसी हिंदी की एक रिपोर्ट के हवाले से डॉक्टरों का तर्क है कि महिलाएं शुभ  महूरत, पति, सास-ससुर के कहने पर शुभ घड़ी देखकर ही बच्चा पैदा करना चाहती हैं लेकिन यहां सवाल यह उठता है कि डॉक्टर्स की अपनी नैतिकता क्या है? वे क्यों इन बातों को तर्जीह देते हैं.

यहां एक बात गौर करने की यह भी है कि कई बार ज़्यादा उम्र में बच्चा पैदा करने से होने वाली दिक्कतों और लेबर के दर्द को सहने से बचने के लिए भी महिलाएं खुद ही सी-सेक्शन के ज़रिए बच्चा पैदा करना चाहती हैं. नारीवादी विचारकों का कहना है कि महिलाओं द्वारा खुद से सी-सेक्शन का चुनाव करना कहीं जाकर उन्हें थोड़ी एजेंसी तो देता है लेकिन ऐसे में डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मियों की ज़िम्मेदारी है कि वे इसके बारे में सही जानकारी उपलब्ध कराएं क्योंकि जानकारी न देना या उनकी सहमति के बिना ही निर्णय लेना, महिलाओं को असहाय महसूस करवा सकता है.

असल में डॉक्टरी किताबों के अनुसार सी-सेक्शन एक खास मेडिकल कंडीशन में ही किया जा सकता है, क्योंकि इससे महिला के साथ बहुत तरह की शारीरिक, मानसिक, और स्वास्थ्य संबंधित परेशानियां हो सकती हैं. जैसे, सर्जरी के बाद चीरे वाली जगह पर संक्रमण का खतरा, पेट की मांसपेसियों में कमज़ोरी, कॉन्सटिपेशन आदि. हालांकि हर महिला का अनुभव अलग होता है, लेकिन ये कुछ सामान्य चिंताएं या चुनौतियां हैं जो सी-सेक्शन से निकलकर आती हैं.

“सरकारी हो या प्राइवेट, हिंसा दोनों जगह है. फर्क सिर्फ इतना है कि दोनों जगहों पर इसकी प्रकृति अलग-अलग है. प्राइवेट में यह सामने से दिखाई नहीं देता क्योंकि वहां मामला रिवेन्यू का है. हॉस्पिटल या नर्सिंग होम चलाने के लिए पैसे चाहिए. सरकारी में भीड़ ज़्यादा है, लोग कम हैं. स्वास्थ्य पर सरकार का बजट वैसे ही कम से कम होता है. लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि इसकी वजह से आप किसी के साथ बुरा वर्ताव करेंगे.” बिजोया कहती हैं. 

ऑब्सटेट्रिक वायलेंस/ प्रसूति हिंसा: अपमान, दुर्व्यवहार और गालियों से बात करना

भारत में घरों में होने वाली डिलीवरी को कम से कम करने और इसे पूरी तरह सांस्थानिक ढांचें में लाने के लिए 2005 में सरकार जननी सुरक्षा योजना लेकर आई.

इस योजना का उद्देश्य बच्चे के जन्म के समय मां एवं नवजात मृत्यु दर को कम करना और सरकारी अस्पतालों में डिलीवरी को प्रोत्साहित करना है. इससे संस्थागत डिलीवरी में 43 फीसदी की बढ़ोतरी हुई.

विजयनगर, राजस्थान के एक सरकारी अस्पताल में प्रसूति के लिए एडमिट महिला ने बताया कि उसके बगल वाली टेबल पर लेटी महिला दर्द से बेहाल थी लेकिन नर्स उसके साथ लगातार बुरा व्यवहार कर रही थी. एक नर्स ने उससे यहां तक कहा, “हर साल 1400 रु लेने आ जाती है. शर्म तो तुझे आती नहीं. अब क्यों चीख रही है.” (जननी सुरक्षा योजना के अंतर्गत सरकारी अस्पताल में डिलीवरी होने पर मां बनने वाली महिला को आर्थिक मदद दी जाती है. ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं के लिए यह रकम 1400 रुपए है. इसके लिए महिला को सरकारी अस्पताल में रजिस्ट्रेशन कराना होता है लेकिन यह योजना पहले दो बच्चों की डिलिवरी पर लागू होती है.)

सेहत संस्था से जुड़ी संजीदा अरोड़ा का कहना है, “पब्लिक हेल्थ केयर कर्मचारियों के साथ काम करने के अपने अनुभवों से हमें पता है कि उनके लिए लेबर रूम वॉयलेंस एक सामान्य घटना है. वे प्रसूति गृह में महिलाओं पर चिल्लाते हैं, उन्हें बिस्तर से बांध देते हैं. महिलाओं को बाथरूम जाने से रोका जाता है. उनसे कहा जाता है कि वे चुपचाप से अपने बिस्तर पर लेटी रहें. नर्स उन्हें थप्पड़ मारती हैं.” संजीदा अरोड़ा, संस्था द्वारा लेबर रूम वायलेंस पर किए गए शोध से जुड़ी थीं.

कई महिलाओं के लिए यह हिंसा की दोहरी मार है. ममता का पति दिहाड़ी मज़दूरी करता है और शराब के नशे में लगभग रोज़ उससे मार-पीट करता है. गर्भ के बावजूद वह पूरे दिन घर का काम करती है और सास की सेवा भी करती है. दवाइयों और चेकअप के लिए पास के स्वास्थ्य केंद्र जाना उसके लिए राहत की एक वजह है जहां कुछ समय के लिए ही सही घर के दमघोंटू माहौल से उसे बाहर निकलने का मौका मिलता है. लेकिन, स्वास्थ्य केंद्र में नर्स और दूसरे कर्मचारी उससे ठीक से बात तक नहीं करते. पति काम की तलाश में सुबह ही निकल जाता है. ममता अपने पांच साल के छोटे लड़के को लेकर खुद ही स्वास्थ्य केंद्र जाती है. नर्स इस बात से भी नाराज़ होती है कि उसका बच्चा इधर-उधर क्यों भाग रहा है, वो उसे संभाल क्यों नहीं सकती. एक दिन नर्स ने ममता को कहा, “सेक्स करने में तो बहुत मज़ा आता है तब बच्चे के बारे में नहीं सोचती, बच्चा करती ही क्यों हो अगर संभाल नहीं सकती.”

ऑब्सटेट्रिक वायलेंस/ प्रसूति हिंसा: जाति, धर्म, वर्ग के आधार पर भेदभाव

2020 में ऑनलाइन खबरीया वेबसाइट ‘द प्रिन्ट’ में प्रकाशित एक खबर के अनुसार झारखंड राज्य की राजधानी रांची के एक प्रतिष्ठित सरकारी अस्पताल में बदसलूकी, मार-पीट और इलाज न मिलने के कारण एक गर्भवती महिला के चार महीने का बच्चा पेट में ही मर गया. राज्य के मुख्यमंत्री के नाम शिकायती पत्र में रिज़वाना ने बताया कि अचानक शरीर से खून निकलने के कारण आनन-फानन में अपने भाई के साथ वो रांची के एक सरकारी अस्पताल पहुंची जहां कॉरीडोर में खड़े होते हुए फर्श पर थोड़ा खून गिर गया. फर्श गंदा होता देख वहां मौजूद नर्स ने गुस्से में रिज़वाना को उसके धर्म से जोड़कर भद्दी गालियां दीं और कहा कि वो फर्श साफ करे. रिज़वाना का शरीर कांप रहा था. फर्श साफ करने में उससे थोड़ी देर हो गई इसपर नर्स ने अपनी चप्पल निकालकर उसे मारना शुरु कर दिया. रिज़वाना के भाई ने उसे बचाने की कोशिश की और वहां से उसे दूसरे नर्सिंग होम ले गया जहां पहुंचने पर डॉक्टरों ने उसे बताया कि उसके बच्चे की मौत हो चुकी है. यह उसका पहला बच्चा था.

स्वास्थ्य संस्थाओं में गर्भवती महिलाओं के साथ, जाति, वर्ग, धर्म, भाषा के आधार पर भेदभाव बहुत आम है. इसके आधार पर ही स्वास्थ्यकर्मी अपनी धारणाएं बनाते हैं. कई बार यह भेदभाव बहुत ही बारीक और सहज तरीके से भी होता है. खासकर दलित, आदिवासी और हाशिए पर धकेल दिए गए समुदायों से आने वाली महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव आम नज़र से दिखाई भी नहीं देते.

जैसे पहले से लाइन में लगी दलित महिला को रोककर उसके आधे घंटे बाद आई ऊंची जाति की महिला को चेकअप के लिए पहले भेजना, महिला गरीब है यह जानते हुए उसे एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल भेजना, प्रसूता के दर्द को यह कहकर नज़रअंदाज़ करना कि, ‘इनकी कम्यूनिटी के लोगों को तो चिल्लाने की आदत है.’

दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल के मैटरनिटी वॉर्ड के वेटिंग रूम में बैठे हुए ऐसी बहुत सारी बातें कानों में पड़ीं, जैसे नॉर्थ-ईस्ट की एक महिला को देख कर कहना, “अरे, वो चिंकी फिर आ गई है.” या एक अन्य महिला के बारे में कहना, “दो बच्चे के बाद फिर आ गई है, यहां एक बच्चे की फीस नहीं दी जा रही…अरे, इनके तो धर्म में ही लिखा है कि बच्चा करो.” हमारे टोकने पर जवाब में एक नर्स ने कहा, “ कुछ खास समुदाय की महिलाएं तो बिना हिंसा के बात ही नहीं सुनतीं.”

बिजोया का कहना है कि स्वास्थ्यकर्मियों के बीच यह आम मानसिकता है, “जबकि सम्पन्न परिवार में भी किसी के तीन बच्चे हो सकते हैं. नीता अंबानी को ही देख लीजिए उनके तीन बच्चे हैं लेकिन उन्हें यह नहीं कहा जाएगा कि उनके तीन बच्चे क्यों हैं, उन्हें इंश्योरेंस पॉलिसी के लिए मना नहीं किया जाएगा, उन्हें सरकारी मैटरनिटी केयर की सुविधाओं से वंचित नहीं किया जाएगा.” वर्तमान में सरकारी नियमों के अनुसार अगर आपके दो से ज़्यादा बच्चे हैं तो आपको सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती.

ऑब्सटेट्रिक वायलेंस/ प्रसूति हिंसा: स्वास्थ्यकर्मी क्या कहते हैं?

सेहत संस्था द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जब नर्सों से पूछा गया कि वे प्रसूता के साथ इस तरह का दुर्व्यवहार क्यों करती हैं तो उन सभी का मानना था कि इस तरह का व्यवहार बहुत ज़रूरी है, इससे बच्चा पैदा होने की प्रक्रिया में आसानी होती है और महिलाएं उनकी बात सही से मानने को तैयार हो जाती हैं.

एक तरफ अगर नर्सों का तर्क यह है तो दूसरी तरफ डॉक्टरों को लगता है, “महिलाएं हर दर्द को बहुत बड़ा दर्द बना लेती हैं.” ऐसी घटनाएं भी सामने आई हैं जहां डॉक्टर ने लोकल एनिस्थिसिया दिए बिना ही प्रसूता के चीरा लगा दिया या एक केस में तो सी-सेक्शन तक कर डाला!

भारत में प्रसव के दौरान हिंसा पर डॉक्टरों का नज़रिया कई कारणों से जटिल और चुनौतीपूर्ण हो सकता है. अक्सर कई डॉक्टरों को यह एहसास ही नहीं होता कि उनके द्वारा अपनाई गई कुछ प्रक्रियाएं या व्यवहार असम्मानजनक हैं, क्योंकि उन्हें इस बारे में विशेष प्रशिक्षण नहीं मिलता है. जब प्रसव के दौरान महिलाओं के साथ संवेदनशीलता और सम्मान से पेश आने की बात आती है, तो कुछ स्वास्थकर्मियों को यह समझने में कठिनाई होती है कि उनकी कार्यप्रणाली महिला की भावनात्मक और शारीरिक स्थिति पर नकारात्मक प्रभाव डाल सकती है.

दुर्गा वर्नेकर और संगीता रेगे की रिपोर्ट “लेबर रूम में महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार: स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं की  धारणाएं” भारत में प्रसव संबंधी हिंसा और स्वास्थ्यकर्मियों के दृष्टिकोण पर केंद्रित है, यह बताती है कि भारत में मेडिकल शिक्षा के पाठ्यक्रम में जाति, धर्म और भाषा के आधार पर संवेदनशीलता का प्रशिक्षण पर्याप्त रूप से नहीं दिया जाता, विशेषकर महिलाओं के संदर्भ में.

इस रिपोर्ट के अनुसार, डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्यकर्मियों को पेशेवर आचरण सिखाया जाता है, लेकिन विभिन्न सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक समूहों से आने वाली महिलाओं, खासकर हाशिए पर खड़ी महिलाओं, निम्न जाति, अल्पसंख्यक समुदायों या ग्रामीण पृष्ठभूमि से आने वाली महिलाओं को अक्सर सम्मानजनक व्यवहार नहीं मिलता.
स्वास्थ्य पत्रकार मेनका का कहना है कि “जब आपसे भी कम उम्र के रेज़िडेंट डॉक्टर आपसे कहते हैं, “आपको पता नहीं है, बच्चा ऐसे नहीं होता” तो बहुत गुस्सा आता है. असल में वे हर एक स्तर पर खुद को बहुत ऊंचाई पर रखकर बात कर रहे होते हैं.”

महिला केंद्रित प्रसव देखभाल कितनी महत्त्वपूर्ण है इसे लेकर डॉक्टरों को और अधिक जागरूक करने की आवश्यकता है, ताकि प्रसव के दौरान महिलाओं को सम्मानजनक और सुरक्षित माहौल मिल सके. इसके लिए पेशेवर आचरण के साथ-साथ भावनात्मक और मानसिक समर्थन देने वाले प्रशिक्षण भी आवश्यक हैं, जिससे स्वास्थ्य प्रणाली में सकारात्मक बदलाव आ सके.

लेबर रूम वायलेंस: लक्ष्य कार्यक्रम

महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा खासकर लेबर रूम हिंसा पर बातचीत तो बहुत लंबे समय से हो रही है, लेकिन इसे स्वासथ्य व्यवस्था के दायरे में लाकर इसपर मुक्म्मल बातचीत 2014 के आसपास ही शुरू हुई जब पहली बार डब्लूएचओ ने इस सिलसिल में एक गाईडलाइंस जारी कीं. भारत में भी इन चर्चाओं ने ज़ोर पकड़ना शुरू किया कि हॉस्पिटल के अंदर, नर्सिंग होम में अच्छा केयर नहीं होता है, बहुत तरह के दुर्व्यवहार होते हैं तो आपको लेबर रूम में केयर देना होगा. समुदाय एवं संस्था के स्तर पर ऐसी कई रिपोर्ट देखने को मिल जाती हैं. इसका परिणाम यह है कि 2018 में सरकार लक्ष्य कार्यक्रम लेकर आई जिसका उद्देश्य गर्भवती महिला और सार्वजनिक स्वास्थ्य संस्थानों में जन्म लेने वाले बच्चे और मां के लिए सुरक्षित प्रसव सुनिश्चित करना है.

मेडिकल साइंस की दुनिया में डिलीवरी या प्रेग्नेंसी एक प्राकृतिक एवं साधारण प्रक्रिया है. लेकिन आज इसे एक अप्राकृतिक या रोग का रूप देने की कोशिश लगातार जारी है.

जिसमें स्वास्थ्य के क्षेत्र में शामिल बड़े व्यापरियों सहित राज्य की भूमिका पर भी सवाल उठाया जा सकता है. संस्थागत डिलीवरी को बढ़ावा देने के लिए तमाम तरह की सरकारी योजनाएं चालू हैं, जैसे जननी सुरक्षा योजना, मातृ वंदना योजना, सुरक्षित मातृत्व अभियान और अन्य; अपने नाम एवं काम से तो ये योजनाएं मां बनने वाली स्त्री को केंद्र में रख, उसकी संपूर्ण देखभाल की बात करती हैं; उन्हें सुरक्षा देने की बात करती हैं. पर इस सुरक्षा के भीतर महिलाओं के जो अनुभव हैं, वे बहुत ही भयावह है जिनपर बात करना बहुत ज़रूरी है. फ़िलहाल ज़मीनी स्तर पर अस्पताल, नर्सिंग होम एवं स्वास्थ्य केंद्र इसे अपनी तरह से ही परिभाषित कर रहे हैं जो ज़रूरी नहीं कि महिलाओं के हित में ही हो. 

सुमन परमार द थर्ड आई में सीनियर कंटेंट एडिटर, हिन्दी हैं.

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