समाज

जहां हम राज्य, कानून, जाति, धर्म, अमीरी–ग़रीबी और परिवार की मिलती बिछड़ती गलियों के बीच से निकलते हैं और उन्हें आंकते हैं. यह समझने की कोशिश करते हैं कि कैसे ये ढांचे अपने आप को नए ढंग और नए रूप से संचित करते हैं, फैलते और पनपते हैं. इस सबमें पितृसत्ता जीवन के अलग–अलग अनुभवों पर कैसे अपनी छाप छोड़ती है.

कुन्तला

पेश है इस संस्करण की पहली कहानी ‘कुन्तला’. सच्ची घटना पर आधारित यह कहानी लेखक सीमा आज़ाद ने दो साल तक इलाहाबाद की नैनी जेल में रहने के अपने अनुभवों के आधार पर तैयार की है. ये उनकी किताब ‘औरत का सफर’ में प्रकाशित है.

अपराध को देखने का नारीवादी नज़रिया क्या है?

प्रोजेक्ट 39 ए, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39-ए से प्रेरित है. अनुभवजन्य शोध की पद्धतियों का उपयोग कर आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रथाओं और नीतियों की पुन: पड़ताल के साथ-साथ प्रोजेक्ट 39 ए का उद्देश्य कानूनी सहायता, यातना, फोरेंसिक, जेलों में मानसिक स्वास्थ्य और मृत्युदंड पर नई बातचीत शुरू करना है.

सक्षमतावाद और मेरिट का जंजाल

‘हमेशा देर कर देता हूं मैं हर काम करने में’ कॉलेज कैम्पस के भीतर ऐसे स्लोगन वाले टी-शर्ट पहने विद्यार्थी आसानी से दिखाई दे जाते हैं. मुझे लगता है कि पिछले कुछ हफ़्तों के दौरान ऐसे स्लोगनस ने मेरे कैम्पस में अच्छी-खासी लोकप्रियता हासिल कर ली है. मेरी नज़र में इसका कारण फाइनल इग्ज़ैम है, जिसका वक्त बहुत नज़दीक आ पहुंचा है.

उपस्थिति दर्ज करने की ज़िद

किसान मां और पुलिस में नौकरी करने वाले पिता की बेटी, सेजल राठवा, पत्रकार बनने वाली अपने समुदाय की पहली लड़की है. छोटा उदयपुर की रहने वाली सेजल ने बतौर ब्रॉडकास्ट जर्नलिस्ट, वडोदरा, गुजरात के वीएनएम टीवी के साथ पत्रकारिता के करियर की शुरुआत की.

हमारा हिसाब कौन देगा?

मैं एक आदिवासी गोंड समुदाय में पैदा हुई. मेरे मां-बाप की मैं पहली संतान हूं. वैसे तो मेरे घर में 6 सदस्य हैं. माता-पिता के अलावा हम तीन बहन और एक भाई है. मेरे पिताजी और मां दूसरों के खेतों में काम करते हैं.

क्या आप हमें जानते हैं?

सन् 2013 में निरंतर संस्था ने एक डॉक्यूमेंट्री फ़िल्म का निर्माण किया था. यह फ़िल्म उन लोगों के स्कूली अनुभवों पर आधारित थी जो स्त्री-पुरुष बाइनरी में खुद को अनफिट महसूस करते थे. नृप, सुनील और राजर्षि इस फ़िल्म के केंद्रीय पात्र हैं जो क्रमशः ठाणे, बेंगलुरु और कोलकाता में रहते हैं.

क्या आपको लाइब्रेरी का पता मालूम है?

भोपाल में रहने वाली सबा का मानना है कि “शिक्षा के बारे में स्कूल के बाहर बात की जानी चाहिए, स्कूल के बाहर स्टुडेंट होना ज़्यादा आसान है.” सबा भोपाल में 2010 से शिक्षक साथियों (पुस्तकालय के भूतपूर्व सदस्य) की मदद से ‘सावित्री बाई फुले फातिमा शेख पुस्तकालय’ चला रही हैं.

देश छूटा लेकिन जाति नहीं छूटी, जातिवाद नहीं छूटा, जाति के नाम पर भेदभाव की फितरत नहीं छूटी

सन् 2018 में, आईआईटी मुम्बई में माधवी ने एपीपीएससी की सदस्यता ली थी. वे सर्किल की गिनीचुनी महिला सदस्यों में से एक थीं. अभी वे पीएचडी कर रही हैं. वे समूह में शामिल हुईं क्योंकि अपने बीए के दिनों की तरह यहां भी कैंपस ऐक्टिविज़्म का हिस्सा बने रहना चाहती थीं…

क्या जाति को खत्म करने की मशीन बन सकती है?

यह भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) में सक्रिय छात्र समूहों पर तैयार की गई रिपोर्ट का एक अंश है. वह समूह जो कि प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थानों, विशेष रूप से इंजीनियरिंग संस्थानों में जाति आधारित भेदभाव के बारे में छात्रों को शिक्षित करने और उनमें जागरूकता पैदा करने का काम करते हैं.

क्या वाकई भारत गांवों में बसता है?

द थर्ड आई के शहर संस्करण में गौतम भान के साथ हमने सरकारी नीतियों के बरअक्स वास्तविकता के बीच शहरों के बनने की प्रक्रिया, शहरी गरीबों की पहचान के सवाल, शहरी अध्ययन एवं कोविड महामारी की सीखें और भारत में शहरी अध्ययन शिक्षा के स्वरूप पर विस्तार से बातचीत की है.

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