अपराध को देखने का नारीवादी नज़रिया क्या है?

आज के कानूनी नज़रिए और नारीवादी नज़रिए में क्या फ़र्क है? पढ़िए, दिल्ली विश्वविद्यालय के कार्यक्रम प्रोजेक्ट 39ए की प्रमुख इस बारे में क्या बता रही हैं.

चित्रांकन: देविका सुंदर

प्रोजेक्ट 39ए, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39-ए से प्रेरित है. एक ऐसा प्रावधान जो आर्थिक और सामाजिक बाधाओं को दूर करके समान न्याय और समान अवसर के परस्पर जुड़े मूल्यों को आगे बढ़ाता है. जिस तरह से विभिन्न असमानताएं हमारे समाज के एक विशाल वर्ग को प्रभावी ढंग से न्याय तक पहुंच से बाहर कर देती हैं, उसे देखते हुए ये अत्याधिक महत्त्व का संवैधानिक मूल्य हैं. अनुभवजन्य शोध की पद्धतियों का उपयोग कर आपराधिक न्याय प्रणाली में प्रथाओं और नीतियों की पुन: पड़ताल के साथ-साथ प्रोजेक्ट 39ए का उद्देश्य कानूनी सहायता, यातना, फोरेंसिक, जेलों में मानसिक स्वास्थ्य और मृत्युदंड पर नई बातचीत शुरू करना है.

जब हम अपराध को नारीवादी नज़रिए से देखने की बात करते हैं तो आपके हिसाब से इसका क्या मतलब है? इसमें क्या कुछ संभावनाएं हैं?

नारीवादी नज़रिया से मेरा आशय, विशेष रूप से देखभाल की नैतिकता (एथिक्स ऑफ केयर) से है जिसे वर्जीनिया हेल्ड जैसे दार्शनिक ने हमारे सामने रखा. यह उदारवादी सिद्धांत पर आधारित स्वतंत्र और आत्मनिर्भर व्यक्ति के मॉडल के बरक्स यह मानता है कि सभी व्यक्ति परस्पर एक-दूसरे से संबंधित हैं. देखभाल की नैतिकता (केयर एथिक्स) का सिद्धांत, दुनिया को समझने के पारंपरिक “सही” तरीके और उचित, अनुचित एवं नैतिकता के विचारों को चुनौती देता है. यह इसे एक मर्दवादी नज़रिए की देन मानता है. 1980 के दशक में इस सिद्धांत को प्रो. कैरोल गिलिगन द्वारा विस्तार दिया गया. देखभाल की नैतिकता (केयर एथिक्स) पर काम करने वाले लोग, इसे कानून के दायरे में भी लाने की कोशिश कर रहे हैं. और मुझे लगता है कि आपराधिक न्याय प्रणाली एक ऐसा महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है जहां हमें इस दृष्टिकोण को लागू करना चाहिए.

देखभाल की नैतिकता (एथिक्स ऑफ केयर) पीड़ित और आरोपी दोनों के प्रति एकपक्षीय दृष्टिकोण पर सवाल उठाती है. उन्हें एक खास संदर्भ में पीड़ित और आरोपित में वर्गीकृत तो किया जाता है लेकिन वे महज़ यह ही नहीं हैं. उनकी पहचान को इस दायरे तक ही सीमित नहीं रखा जाना चाहिए.

यही वजह है कि, अपराध पर नारीवादी दृष्टिकोण आपराधिक कृत्य का हिसाब तो रखता है, लेकिन केवल इसके बारे में चिंतित नहीं होता. मतलब मेरा मानना है कि अपराध के सवाल पर नारीवादी नज़रिए से विचार करने के लिए हमें हिंसा के उस खास क्षण से थोड़ा पीछे हटकर उसके अपेक्षाकृत बड़े संदर्भ को देखना-समझना होगा जिसमें अपराध की स्थितियां और अपराधी का संदर्भ निहित था. और मुझे लगता है कि इसमें बहुत सी संभावनाएं छिपी हुई हैं.

अपराध और अपराधी के सवालों पर नारीवादी नज़रिए से विचार के लिए हमें अपराध और दंड के व्यक्तिगत कारणों पर ध्यान केंद्रित करने की ज़रूरत नहीं है. हमें चाहिए कि हम सामूहिक, पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों में आए उन नकारात्मक परिवर्तनों, या टूट-फूट पर अपना ध्यान केंद्रित करें जिसने हिंसा को जन्म दिया है. नारीवादी नैतिकता यह मानती है कि अपराध या अपराधी शून्य में पैदा नहीं होते, उनकी पृष्ठभूमि और परिस्थितियां होती हैं. यह हमें उन रास्तों की ओर ले जाती है जो अपराध या अपराधी को एकमात्र वैध शुरुआती बिंदु नहीं मानते.

आमतौर पर यह देखा जाता है कि नारीवादी चिंतन और अपराध पर होने वाली बातचीत अक्सर यौन हिंसा (अपराधी पुरुष, पीड़ित/ सर्वाइवर महिला) पर ही केंद्रित होती है और इसपर हमारा रद्दे-अमल भी यौन हिंसा के प्रति सामाजिक दृष्टिकोण में बदलाव, सर्वाइवर की ज़रूरतें, अपराधी की जवाबदेही (सज़ा के संदर्भ में और अक्सर मृत्युदंड के अलावा अन्य सज़ाओं के संदर्भ में) आदि तक ही सीमित रहता है. लेकिन, मेरा मानना है कि अन्य अपराधों के संदर्भ में भी नारीवादी नैतिकता पर बात करना उतना ही ज़रूरी है, उदाहरण के लिए हत्या, जिसमें अपराधी और पीड़ित की एक अलग प्रोफाइल हो, मसलन अपराधी महिला हो और पीड़ित/ सर्वाइवर कोई पुरुष या बच्चा.

नारीवादी नैतिकता व्यक्तिगत और सामूहिक हिंसा के एक बड़े हिस्से को सहानुभूति के नज़रिए से देखेगी. और यह ‘अपराधी के मन में पीड़ित के लिए कोई सहानुभूति नहीं थी’ जैसे वृतांत को ही अंतिम नहीं मान लेगी. बल्कि वह यह भी देखेगी कि अपराधी को उसके आसपास के लोगों, विशेष रूप से और आवश्यक रूप से राज्य से, किस प्रकार की देखभाल (संरक्षण) और सहानुभूति मिली है. क्या राज्य ने इस व्यक्ति की देख-रेख और संरक्षण के लिए पर्याप्त कोशिश की थी? बुनियादी तौर पर राज्य द्वारा किन मूल्यों को बढ़ावा दिया जाता रहा है, और उन मूल्यों का अपराधी के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है?

इसका मतलब यह नहीं है कि हिंसा करने वाले व्यक्ति को जवाबदेह नहीं ठहराया जाना चाहिए – यह तो नारीवादी नैतिकता का एक बहुत ही ज़रूरी हिस्सा है, लेकिन जहां तक ज़िम्मेदारी और जवाबदेही का सवाल है, जिस मात्रा में और जिस तरीके से इन्हें थोपा जाता है, वह निश्चित रूप से उस व्यापक नैतिकता के अनुरूप तो होना ही चाहिए. 

सार संक्षेप यह कि अपराध को देखने का नारीवादी नज़रिया इस बात पर ज़ोर देता है कि आपराधिक न्याय के सवालों को सामाजिक न्याय के सवालों से अलग करके नहीं देखा जा सकता.

सज़ा के उद्देश्य और लक्ष्य को नारीवादी फ्रेमवर्क (ढांचा) किस प्रकार देखता है?

नारीवादी नैतिकता सज़ा के व्यापक रूप से स्वीकृत उद्देश्य और लक्ष्य को चुनौती देती है. वह हमें बुनियादी सवालों पर फिर से विचार करने की मांग करती है. जैसे – चोट या नुकसान से हमारा क्या मतलब है? ये किसे और किसके द्वारा पहुंचाया गया है? यह अपराधी करार किए गए व्यक्ति के संदर्भ या परिस्थितियों की भी पड़ताल करेगी. नारीवादी नैतिकता यह देखेगी कि आरोपी व्यक्ति की परवरिश कैसे माहौल में हुई है और इन पहलुओं के अनुरूप ही जवाबदेही की मात्रा तय करेगी. अपराध और दंड से जुड़े मुद्दों पर गंभीर नारीवादी अनुसंधान के लिए सिस्टम में अंतर्निहित कई धारणाओं को खत्म करना और अपने आसपास की दुनिया के प्रति हमारे दृष्टिकोण को नए सिरे से डिजाइन करना ज़रूरी है.

उदाहरण के लिए, इसे प्रतिशोधात्मक न्याय (जस्ट डेज़र्ट्स/ उचित दंड) जैसे दंड के व्यापक रूप से स्वीकृत तर्कों को चुनौती देनी होगी. उचित दंड दरअसल दंड में आनुपातिक पात्रता की सोच पर आधारित है. अर्थात, किसी आरोपी को उसके किए की सज़ा मिलनी चाहिए, लेकिन सज़ा से जितना नुकसान आरोपी को होगा, वह आरोपी द्वारा किए गए नुकसान से अधिक नहीं होना चाहिए.

दंड की लगभग सभी प्रणालियों में पात्रता का यह प्रश्न अंतर्निहित है. सभी प्रणालियां अपराधी द्वारा पहुंचाए गए नुकसान और बदले में सज़ा के तौर पर अपराधी को होने वाले आनुपातिक नुकसान पर केंद्रित हैं. लेकिन नारीवादी नैतिकता उन भौतिक, संरचनात्मक, पारिवारिक और सामाजिक अभावों पर भी विचार कर सकती है जिनका सामना किसी व्यक्ति को युवा अवस्था में करना पड़ा था. नारीवादी नैतिकता उक्त व्यक्ति की ज़रूरतों को पूरा करने में राज्य की लापरवाही या नाकामी को भी ध्यान में रखती है. इस प्रकार, यदि दंड विधान में नारीवादी नैतिकता का समावेश होता है तो उपरोक्त सभी कारकों को ध्यान में रखते हुए यह तय किया जाएगा कि अपराधी को कितना दंड दिया जाना चाहिए, साथ ही, इस तरीके से उस व्यक्ति की ज़रूरतों को पूरा करने का रास्ता भी निकलेगा. इसके लिए निश्चित रूप से आरोपी व्यक्ति/ कैदी के साथ सहयोग की ज़रूरत होगी. इसका सबसे बड़ा फ़ायदा यह होगा कि सभी को एक ही छड़ी से हांकने की प्रवृत्ति पर अंकुश लगेगा.  

नारीवादी नज़रिए में जो दूसरी बड़ी संभावना मुझे नज़र आती है, वह यह है कि यह अपराधी और पीड़ित को दो विरोधी ताकतों के रूप में पेश नहीं करता. वह अपराधी के प्रति राज्य की प्रतिक्रिया और पीड़ित/ सर्वाइवर की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए राज्य द्वारा किए जाने वाले उपायों पर विचार का मार्ग प्रशस्त करता है.

मान लीजिए कि एक व्यक्ति है जो बलात्कार का दोषी है. यह एक ऐसा व्यक्ति है जिसपर ‘बलात्कारी’ होने का ठप्पा लगा हुआ है लेकिन नारीवादी नैतिकता इस कृत्य के लिए उसको बार-बार कोसने या लज्जित करने में विश्वास नहीं रखती, बल्कि वह उसके इस अपराध से जुड़े तथ्यों पर जाने से पहले उसकी ज़िंदगी को, उसके अतीत को जानने-समझने की कोशिश करेगी. निश्चित रूप से पीड़ित की भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और शारीरिक सुरक्षा संबंधी जो ज़रूरतें हैं वे अपराधी की ज़रूरतों से अलग हैं और इनका अपराधी की ज़िंदगी से कोई खास लेना-देना भी नहीं है. इसमें भी दो राय नहीं कि पीड़ित को जो नुकसान हुआ, सीधे तौर पर अपराधी के कारण हुआ, इसलिए पीड़ित के लिए न्याय में जवाबदेही शामिल होगी ही, लेकिन नारीवादी दृष्टिकोण जवाबदेही के सवालों को पीड़ा (चाहे वह अपराधी की हो या सर्वाइवर की) के साथ नहीं जोड़ता है.

ऐसा क्या है जो नारीवादी दृष्टिकोण सामने ला सकता है लेकिन शायद जेंडर दृष्टिकोण नहीं?

मेरे ख्याल से नारीवादी चिंतन में सभी लैंगिंग भूमिकाएं शामिल हैं. यह जेंडर के खांचों को तोड़ने का काम करता है. यानी यह पुरुष को मर्दानगी और महिला को स्त्रीत्व के साथ नहीं जोड़ता. यह किसी व्यक्ति को जानने-समझने के लिए उसकी जेंडर पहचान तक ही सीमित होकर नहीं, बल्कि उसके आगे भी देखने की कोशिश करता है. यह उन भूमिकाओं की पड़ताल करता है जो लोग एक-दूसरे के साथ परस्पर निभाते हैं. ऐसा करते हुए, यह उन रास्तों को भी खोलता है जो हमें अन्य पहचानों को भी इसमें शामिल करने और निबाहने की दिशा में ले जा सकते हैं. यह मानता है कि जिस तरह एक पुरुष/ मर्द में अपराधी होने की क्षमता होती है, उसी तरह वह पीड़ित/ सर्वाइवर (परिस्थितियां अलग-अलग हो सकती हैं और अन्याय के प्रकार अलग हो सकते हैं) भी हो सकता है.

इसी तरह, खुद को इन दोनों खांचों से अलग देखने वाले नॉन-बाइनरी लोग पीड़ित/ सर्वाइवर हो सकते हैं और उनमें नुकसान पहुंचाने की क्षमता भी होती है. दुर्व्यवहार करने वाली मां और दुर्व्यवहार की शिकार बेटी – दोनों एक ही इंसान हो सकते हैं. एक पुरुष घरेलू सहायक या रसोइया (परंपरागत रूप से इसे स्त्रियोचित काम माना जाता है) हट्टा-कट्टा व्यक्ति (पारंपरिक रूप से यह पुरुष का गुण माना जाता है) हो सकता है. एक औरत गाड़ी चला रही है और एक मर्द उस गाड़ी में बैठा है, क्योंकि वह गाड़ी नहीं चला सकता! यह सभी विभिन्न भूमिकाओं और पहचानों के उदाहरण हैं जो संदर्भ के आधार पर सह-अस्तित्व में हैं और इनमें बदलाव आते रहते हैं.

एक व्यक्ति को देखने के नारीवादी और आज के कानूनी नज़रिए में क्या फ़र्क है?

मोटे तौर पर कहूं तो, कानून या विशेष रूप से इस संदर्भ में आपराधिक कानून, व्यक्ति को पूरी तरह से स्वायत्त और बुद्धि सम्पन्न व्यक्ति के रूप में देखता है. यह स्वायत्त व्यक्ति कुछ खास मूल्यों और नैतिकता की आकांक्षा रखता है जिससे उसे प्रेरणा मिलती है. ऐसा व्यक्ति जिसपर किसी भी बाहरी कारक का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है और उसकी प्रेरणा, उसके काम और उसकी चूक या गलती भी सिर्फ़ और सिर्फ़ उसी की होती है. और इस तरह उसपर जवाबदेही का तर्क लागू होता है. यह एक संदर्भ रहित दृष्टिकोण है व्यक्ति को देखने का और कानून के सिद्धांतों में सामान्य व्यक्ति को एक अमूर्त व्यक्ति के रूप में अवधारणाबद्ध कर दिया गया है. लेकिन साथ ही उनमें कुछ निश्चित मूल्य/नैतिकता/गुण आदि भी आरोपित किए गए हैं. ये मूल्य और गुण निश्चित रूप से उन लोगों – मध्य वर्ग, बहुधा गोरे और अधेड़ पुरुषों – की सोच के अनुरूप हैं जिन्होंने इन अवधारणाओं को सिद्धांतबद्ध किया है.

नारीवादी विचार अपराधी के बारे में पूरी तरह से जानने के बारे में है. यह केवल ज़िम्मेदारी तय करने के संदर्भ में ही नहीं बल्कि उन अहम सवालों के जवाब तलाशने में भी है कि आखिर उस व्यक्ति को किन अभावों (जैसे कि भावनात्मक, सामाजिक, भौतिक, अवसर आदि के संदर्भ में) से गुज़रना पड़ा, उस व्यक्ति की सज़ा का उद्देश्य क्या होना चाहिए, और उस व्यक्ति विशेष को किस चीज़ की ज़रूरत है.

इस अर्थ में यह व्यक्ति को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखता है जो समय और स्थान में एक स्थिर इकाई न होकर, अलग-अलग तरीकों से लगातार गतिशील है.

नारीवादी विचार, मुकदमे की सुनवाई का हमारा जो तरीका है, उसको भी बदलेगा. मूल सिद्धांत तो वही रहेंगे लेकिन व्यक्ति के प्रति सिस्टम जिस तरह से प्रतिक्रिया करता है, उसमें बदलाव आएगा. आमतौर पर, जिन व्यक्तियों पर हत्या या बलात्कार जैसे गंभीर अपराधों का आरोप होता है, उनकी ज़िंदगी से जुड़ी कहानियों, उनके अपराध, उनके अनुभवों आदि को अविश्वास की दृष्टि से देखा जाता है. नारीवादी दृष्टिकोण उस व्यक्ति के स्पष्टीकरण का सम्मान करेगा और उसपर अविश्वास नहीं करेगा. उसने अपराध किया है, केवल इस आधार पर उसकी सच्चाई से मुंह नहीं मोड़ा जा सकता. ऐसा भी नहीं है कि आरोपी की बातों पर हमेशा विश्वास ही किया जाए और वह जो कुछ भी कहे उसे सच मान लिया जाए.

दरअसल, इसका यह मतलब है कि आरोपी, पीड़ित और समाज तीनों के लिए न्याय की भावना बनी रहे, यह सुनिश्चित करने के लिए सिस्टम और व्यक्ति को साथ मिलकर काम करने की ज़रूरत है. यह एक जटिल संतुलन है, लेकिन मुझे लगता है कि यह ज़रूरी है क्योंकि एक बार जब किसी व्यक्ति को दोषी ठहरा दिया जाता है तो उसको ऐसा लगता है कि सिस्टम द्वारा उसके साथ अन्याय किया गया है. उसके अंदर अन्याय की यह भावना इतनी प्रबल हो जाती है कि वह सिस्टम पर ही अविश्वास करने लगता है. सिस्टम द्वारा अक्सर उसका पक्ष नहीं सुना जाता. न्याय प्रक्रिया और स्थापित दृष्टिकोण कैदियों और आरोपी व्यक्तियों को अमानवीय बना देते हैं. जो लोग सिस्टम में हैं वे इनके साथ जिस तरह से बात करते हैं, उसमें अक्सर नफ़रत और अविश्वास होता है. वकील भी अक्सर अपने मुवक्किल (संभव है कि वह गरीब हो) से नहीं मिलते. अभियुक्त को न तो कुछ भी बताया जाता है और न ही समझाया जाता है. कोई भी एक दूसरे पर भरोसा नहीं करता क्योंकि निष्पक्षता महज़ एक कानूनी आवश्यकता बनकर रह जाती है, संबंधों की नहीं.

क्या नारीवादी फ्रेमवर्क में जेल और सामाजिक व्यवस्था के बीच की निरंतरता पर विचार किया जा सकता है?

जी बिल्कुल! मुझे तो लगता है कि यह नारीवादी विचार के सबसे महत्त्वपूर्ण योगदानों में से एक है, जो आपराधिक न्याय को दिया सकता है. हालांकि हमारे यहां सज़ा का उद्देश्य ‘सुधार’ है, लेकिन यह कुछ हद तक विरोधाभासी भी है. एक ही समय में आप किसी को दंडित भी कर रहे हैं और उसे खुद में सुधार के लिए प्रोत्साहित भी, ऐसा कैसे संभव हो सकता है! (यह तभी संभव है जब आप अपनी नज़र से जिसे बेहतर समझते हैं वह उसी दिशा में आगे बढ़े) न कि उन तरीकों और क्षेत्रों को चुनने में उनका सहयोग करें, जिन पर उन्हें लगता है कि उन्हें काम करने की ज़रूरत है.

मुझे लगता है कि नारीवादी फ्रेमवर्क की मदद से हम सज़ा के विचार को जवाबदेही के विचार से अलग कर सकते हैं. दोनों चीज़ें एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं लेकिन दोनों का महत्त्व अलग-अलग है.

हम अभी भी इसे सज़ा कह सकते हैं, लेकिन जिस तरह से हम ‘सज़ा’ को संहिताबद्ध करते हैं उसमें नारीवादी विचार के अनुरूप बदलाव लाना होगा. सज़ा का संबंध केवल सुरक्षा से नहीं होना चाहिए. बल्कि कुछ मामलों में तो सज़ा के लिए सुरक्षा की बिल्कुल भी ज़रूरत नहीं है. यह किसी व्यक्ति को कैसा होना चाहिए इसकी एक निश्चित छवि थोपने की राज्य की कोशिश के बारे में नहीं है, यह कैदियों के अनुभव को लगातार अवैध ठहराने के बारे में भी नहीं है. बल्कि कैदी के साथ सिस्टम के जुड़ाव का शुरुआती बिंदु तो उसके जीवन की पूर्ण व्याख्या (जितना वह फिर से जीना चाहें) होनी चाहिए जिसमें आपसी सम्मान की स्थिति से लेकर, भरोसा पैदा करने की दिशा में बढ़ना और कैदी को क्या चाहिए, यह समझने के लिए सहयोगात्मक दृष्टिकोण विकसित करना – सबकुछ शामिल है.

संभव है कि यह सब बहुत आदर्शवादी और बहुत दूर की बात लगे, लेकिन हम छोटे स्तर पर शुरुआत तो कर ही सकते हैं. हम ऐसे बदलाव के लिए कदम उठा सकते हैं जो ज़्यादा मुश्किल न हों और इस तरह बदलाव की शुरुआत हो सकती है. मिसाल के तौर पर उस मानसिकता को बदलने की कोशिश कर सकते हैं जिससे मैं मौत की सज़ा सुनाए गए कैदियों के साथ काम करते हुए अक्सर गुज़रती हूं कि – वैसे लोग जिनको गंभीर अपराधों के लिए दोषी करार दिया गया है या मौत की सज़ा सुनाई गई है, हमेशा झूठ ही बोलेंगे. या फिर अविश्वास की भावना को दूर करना जो बिल्कुल साफ़ नज़र आती है और जो अक्सर जेल मैनुअल का हिस्सा होती है. जैसे कि अगर कोई कैदी मानसिक बीमारी की शिकायत करता है, तो पहले यह सुनिश्चित करें कि कहीं वह रोग के लक्षणों का दिखावा तो नहीं कर रहा है. आखिर इसकी ज़रूरत क्यों है? वैसे भी यह सुनिश्चित करना नियमित मनोरोग/ मनोवैज्ञानिक मूल्यांकन का एक हिस्सा है लेकिन ऐसा अविश्वास हम जेल के बाहर मुक्त समुदायों में तो नहीं पाते!

नारीवादी सोच हमारे कानूनी ढांचों की अपनी एक सीमा और खामियों को कैसे उजागर करती है?

मुझे लगता है कि कानूनी फ्रेमवर्क और कानूनी प्रणाली, खासतौर से आपराधिक कानून कुछ ज़्यादा ही “सभी के साथ एक जैसा सलूक करने” पर आधारित है और इसका मूल इस बात में है कि कैसे वे – समानता, समान व्यवहार और समान प्रक्रिया की व्याख्या करते हैं. सभी कानूनों को समान रूप से लागू किया जाना चाहिए. यह सही है, लेकिन समान व्यवहार का क्या मतलब है? हमें पता है कि इसको अमल में कैसे लाया गया है. उदाहरण के लिए, 2016 में प्रकाशित ‘डेथ पैनल्टी इंडिया रिपोर्ट’ के अनुसार मौत की सज़ा पाने वाले 70 प्रतिशत से अधिक कैदी आर्थिक रूप से कमज़ोर थे, या राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा हाल ही में जारी जेल सांख्यिकी, भारत (2022) में पाया गया कि जेल की लगभग 40 प्रतिशत आबादी ने दसवीं तक की पढ़ाई पूरी नहीं की है और लगभग 25 फीसदी आबादी ‘निरक्षर’ है.

जेल में कैद ज़्यादातर लोग गरीब हैं, ऐसा इसलिए नहीं है कि सिर्फ़ गरीब लोग ही अपराध करते हैं. सामाजिक-आर्थिक रूप से कमज़ोर और हाशिए पर रहने वाले समुदायों के लोगों को अक्सर मौत की सज़ा सुनाई जाती है, और ऐसा इसलिए नहीं होता कि वह सचमुच इसी सज़ा के काबिल होते हैं.

लोगों के साथ समान व्यवहार नहीं किया जाता है. हैसियत, वर्ग, धन - सभी की सत्ता समीकरण में अपनी भूमिका होती है और इसी के आधार पर चीज़ें तय होती हैं.

बढ़ती आपराधिक गतिविधियों पर कड़ी प्रतिक्रिया, सभी को एक नज़र से देखने का एक और उदाहरण है. यह इस धारणा पर आधारित है कि हर कोई एक ही नैतिक संहिता का पालन करता है, हर कोई इसे समान रूप से समझता है, हर किसी के पास इसमें योगदान करने का समान अवसर है, हर किसी के पास जीवन की समान स्थितियां हैं जो उनका मार्गदर्शन करती हैं. यह बिल्कुल भी सच नहीं है.

लेकिन नारीवादी विचार इन बेमेल नियमों का विरोध करता है, यह बिना संदर्भ के व्यक्ति को देखने और उसके साथ व्यवहार करने का विरोध करता है. यह परस्पर निर्भरता, एक-दूसरे के साथ संबंध, संदर्भ, परवाह करने, सहानुभूति और व्यवहार पर ज़ोर देता है, जो कि अधिक उपयुक्त है. यह सुनिश्चित करता है कि सभी को यह महसूस हो सके कि उसके साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार किया गया है जो कि सिस्टम को और अधिक प्रभावी बनाने के लिए ज़रूरी है. बहुत सीमित अर्थों में ही सही, लेकिन यह कानूनी फ्रेमवर्क में पहले से मौजूद भी है. उदाहरण के लिए, आरोपी ने किन परिस्थितियों में ऐसा किया, सज़ा देते समय इसको ध्यान में रखने की कुछ गुंजाइश है. विकलांग व्यक्तियों के लिए मुकदमे की सुनवाई के दौरान विशेष सुविधा की मांग भी लगातार बढ़ रही है.

और मेरी समझ से तो सिस्टम (जो कि वास्तव में राज्य द्वारा प्रशासित होता है) अपने सभी हितधारकों  – पुलिस, आरोपी, पीड़ित, न्यायाधीश, वकील, जेल – के प्रति लापरवाह है. इसने कई ऐसे नियम बनाए हैं जिन्होंने कई मामलों में समाधान के बजाय समस्याओं को जन्म दिया है (जैसे कि जांच के लिए विधायी रूप से अनिवार्य छोटी अवधि का पुलिस पर इतना दबाव रहता है कि कई मामले अनसुलझे ही रह जाते हैं) और अब यह हितधारकों पर निर्भर है कि वह इसके लिए न सिर्फ़ कोई रास्ता तलाशें बल्कि समस्या का समाधान भी करें.

उदाहरण के लिए, ट्रायल पीरियड को लगातार छोटा किया जा रहा है. इसे लेकर विधायिका लगातार दवाब बना रही है बिना यह सोचे कि हमारी क्षमता कितनी है, आरोपी पर क्या प्रभाव पड़ रहा है और पीड़ित पर क्या असर पड़ा है. तेज़ सुनवाई का मतलब न्याय नहीं है, इससे तो मुझे लगता है कि अंततः अन्याय को ही बढ़ावा मिलता है! वैसे हद से ज़्यादा लंबा ट्रायल पीरियड भी उचित नहीं है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि हमने सिस्टम के कामकाज को समझने के लिए कोई खास कदम उठाया है. हमने दरअसल एक गंभीर समस्या का बहुत ही अगंभीर हल ढूंढा है. यह कह देना कि अच्छा, लंबे ट्रायल पीरियड का उल्टा छोटा ट्रायल पीरियड होता है, तो चलिए इसको लागू करते हैं!

एक और उदाहरण लेते हैं: जेल एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण जगह है, जो सज़ा के अन्य तथाकथित उद्देश्यों में से एक को पूरा करती है, यानी सुधार. यहां कैदियों को सुधरने का अवसर दिया जाता है. लेकिन भारत में जेल अत्यंत शक्तिहीन बनाने वाली जगह है. यहां सुधार की बात थोड़ी खोखली लगती है क्योंकि जेल का बुनियादी तर्क भरोसा निर्माण और इस आधार पर कैदियों का सशक्तीकरण न होकर, सुरक्षा है. अगर हम चाहते हैं कि जेल से बाहर निकलने वाले लोग एक स्वस्थ और अनुशासित जीवन जी सकें, तो इसके लिए जेलों को इतना सक्षम बनाना होगा, ऐसा माहौल बनाना होगा कि कैदी स्वस्थ निर्णय लेने, अपने निर्णयों की ज़िम्मेदारी लेने और दुनिया में बेहतर तरीके से अपनी ज़िंदगी जीने का आत्मविश्वास और कौशल हासिल कर सकें.

भारतीय जेलों में सभी तरह के कैदी रहते हैं, विचाराधीन कैदी (जो जेल की आबादी का सबसे बड़ा हिस्सा हैं), वैसे कैदी जिनपर आरोप सिद्ध हो चुका है लेकिन अभी सज़ा नहीं सुनाई गई है और वह भी हैं जिन्हें दोषी करार दिया जा चुका है. लेकिन सभी को एक ही डंडे से हांकने वाली प्रवृत्ति, संसाधनों की कमी, जेलों के प्रति प्रतिबंधात्मक दृष्टिकोण – इन सभी का कैदियों पर बहुत बुरा असर पड़ता है और जो कमज़ोर थे, कमज़ोर ही रह जाते हैं और उनके लिए आगे बढ़ना मुश्किल हो जाता है. अगर कोई व्यक्ति पहले से ही उच्च शिक्षित है तो जेल में उपलब्ध शिक्षा में उसकी कोई रुचि नहीं होती है. अगर कैदी बहुत ज़्यादा गरीब है (जैसा कि अधिकांश कैदी होते हैं) तो अपने घरवालों से बात करना उसके लिए लगभग असंभव है. कोई कैदी जो अपने गलत काम के अपराधबोध से जूझ रहा है तो इससे उबरने और सहायक तरीकों से आगे बढ़ने में उसकी मदद की जानी चाहिए, ऐसा करने के बजाय अगर जेल में महज़ एक दोषी के रूप में उसके साथ व्यवहार किया जाता है तो फिर इसका कोई मतलब नहीं बनता. अगर कैदी अविश्वास के कारण, या खुद का आंकलन किए जाने के डर से, या फिर पेचीदा और जटिल भावनाओं से निपटने का कोई प्रभावी तरीका नहीं होने के कारण आक्रामक है, तो यह भी सही नहीं है.

जब तक कैदियों की ज़रूरतों को ध्यान में नहीं रखा जाता, उन्हें महत्त्व नहीं दिया जाता, तब तक पुनर्वास और सुधार जैसे बड़े-बड़े विचारों का कोई मतलब नहीं बनता, बल्कि यह उल्टे कैदियों को शक्तिहीन ही बनाएगा.

क्या आप हमें कुछ ऐसे उदाहरण दे सकती हैं, जहां आपने अपने काम में नारीवादी नज़रिए का इस्तेमाल किया है? और यह भी कि इससे आपको कितनी मदद मिली और आपने किन चीज़ों को उजागर किया? जैसे कि प्रोजेक्ट 39ए के अंतर्गत मृत्युदंड के प्रावधान पर काम?

हमारी मिटिगेशन प्रैक्टिस निश्चित रूप से अपने काम के सभी पहलुओं में नारीवादी नज़रिए का इस्तेमाल करती है. ऐसा करना ज़रूरी है. मुवक्किल के साथ भरोसे का रिश्ता बनाने की ज़रूरत है, उनके अनुभवों, जेल के बाहर और भीतर की उनकी ज़िंदगी और उनके परिवार का सम्मान करना ज़रूरी है. सैद्धांतिक रूप में हमारा काम ही यही है कि हम मौत की सज़ा पा चुके व्यक्ति के जीवन संदर्भों को देखें और उसकी कहानी अदालत के सामने रखें. बेशक यह साक्ष्य पर आधारित होता है, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि हम अदालत के समक्ष व्यक्ति का जो विवरण पेश कर रहे हैं, वह बिल्कुल सटीक है. यह देखभाल की नैतिकता (केयर एथिक्स) पर अमल करने और इसे कठोर आपराधिक न्याय प्रणाली में जगह दिलाने का भी एक तरीका है, जिससे अदालतें अपने फैसलों में कुछ हद तक इसका इस्तेमाल कर सकें. हाल ही में मनोज और अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य केस के मामले में सुप्रीम कोर्ट का जो फैसला आया है और उसमें सुधार के महत्त्व पर जिस प्रकार बल दिया गया है, वह सज़ा के विचारों में देखभाल की नैतिकता (केयर एथिक्स) के समावेश का एक बहुत ही अच्छा उदाहरण है.

हमारी मुकदमेबाज़ी भी देखभाल आधारित है. कानूनी प्रतिनिधित्व के मूल सिद्धांतों में से एक यह भी है कि हम उस व्यक्ति की अभिव्यक्ति का सम्मान और आदर करें जिसका हम प्रतिनिधित्व करते हैं. इसका मतलब यह भी नहीं है कि हम अपने मुवक्किल की हर बात को सच मान लेते हैं. हम उन्हें उनके विरोधाभासों के साथ पेश करते हैं, और कानूनी या व्यक्तिगत बयानों में जो भिन्नता होती है उसको कमज़ोर नहीं करते. लेकिन हां, हम ऐसा करते समय इन्हें पूरी तरह से अवैध नहीं ठहराते.

प्रोजेक्ट 39A और रीफ्रेम द्वारा एक ऑनलाइन प्रदर्शिनी

एक और तरीका जिसके ज़रिए हम नारीवादी नैतिकता को लागू करने का काम करते हैं, वे हैं – चिट्ठियां. चिट्ठियों के माध्यम से अपने मुवक्किलों के साथ संपर्क में रहना और उन्हें वैसी किताबें भेजना जिन्हें वे पढ़ना चाहते हैं. रंग उपलब्ध कराना जिसके माध्यम से वे खुद को अभिव्यक्त करना चाहते हैं. हमने हाल ही में एक ऑनलाइन प्रदर्शनी – कैपिटल लेटर्स लॉन्च की है. यह हमारी तरफ़ से केयर प्रैक्टिस के परिणामों को जनता तक पहुंचाने की एक कोशिश है. इस ऑनलाइन प्रदर्शनी में उन कैदियों के अनुभव हैं जिन्हें मौत की सज़ा सुनाई जा चुकी है. इस सज़ा का उनके मानसिक स्वास्थ्य पर क्या और कैसा असर पड़ा है, उनके द्वारा बनाई गई कलाकृतियों और खुद उनकी आवाज़ में उनकी कहानियां शामिल हैं. प्रदर्शनी का उद्देश्य मृत्युदंड पर केयर एथिक्स की दृष्टि से सार्वजनिक विमर्श को बढ़ावा देना है क्योंकि मौत की सज़ा पाने वाले व्यक्ति के प्रति सार्वजनिक सोच बहुत ही घिसी-पिटी और गलत है.

 लेख का अनुवाद अकबर रिज़वी ने किया है.

मैत्रेयी मिसरा, राष्ट्रीय विधि विश्वविद्यालय, दिल्ली द्वारा चलाए जा रहे आपराधिक न्याय कार्यक्रम प्रोजेक्ट 39 ए की प्रमुख हैं. यह कार्यक्रम मृत्युदंड से जुड़े मिटिगेशन प्रैक्टिस के साथ-साथ मानसिक स्वास्थ्य और आपराधिक न्याय के विषयों पर काम करता है. वे प्रोजेक्ट 39 ए द्वारा जारी रिपोर्ट ‘डेथवर्दी:ए मेंटल हेल्थ पर्सपेक्टिव ऑफ द डेथ पेनल्टी’ की प्रमुख लेखिका भी हैं.

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