नारीवाद

शब्दों की आड़ में

मेरी एक छात्रा हुआ करती थी जो बहुत कम बोलती थी. बस उतना ही बोलती जितने की उसे ज़रूरत होती, वो भी काफी कम. ऐसा नहीं है कि उसे बोलने से डर लगता था या वह संकोची रही हो. बस अपने शब्‍दों को लेकर वह इतना सतर्क रहती थी कि जब तक समझ न आए क्‍या बोलना है, वह चुप रहती थी.

बात छिड़ेगी तो दास्तान बन जाएगी

ज़िंदगी में सबसे पहले हम अपनी सोच को एक संगठित तरीके से पेश करना कहां सीखते हैं? किस तरह की कल्पना और तथ्य के मिश्रण से इस सोच का जन्म होता है? वे कौन से कारक हैं जो एक सोच की उत्पत्ति से अभिव्यक्ति तक के फासले को प्रभावित करते हैं?

“पीछे छूट गए लोगों के लिए यह शहर मुगलन था, अकेलेपन और छोड़ दिए जाने का पर्याय.”

दार्जिलिंग की हवादार गलियों में जब लोग दुकानों के बाहर और गलियों के मुहानों पर आग जलाकर बैठे होते हैं, तो किसी को भी ये आवाज़ें सुनाई दे सकती हैं – “अइया! के सरो चिसो हो!” (“भगवान, इतनी ठंड क्यों है!”). सूरज का दिखाई देना यहां किसी सामूहिक उत्साह से कम नहीं.

“मैं”- शब्द एक, परिभाषाएं अनेक

“मैं”- इस पहेली के बारे में कभी न कभी तो हम सब ने सोचा ही है. आज सेल्फी के इस ज़माने में जहां मोबाइल फ़ोन का बटन दबाते ही ख़ुद से ही ख़ुद की तस्वीर सेकेंड्स में खींच लेना संभव है, वहां शायद यह सवाल और भी पेचीदा हो जाता है

देखो मगर प्यार से

दफ्तर जाते हुए, मंडी क्रॉसिंग चौक से आप रोज़ गुज़रती हैं. खचाखच भीड़ और गाड़ियों के शोर से होते हुए. सड़क पर आंख गड़ाए, निकलने की जल्दी में क्या देखा-अनदेखा हो जाता है, इसके बारे में सोचने का वक़्त ही नहीं होता.

दुनिया रोज़ बनती है

कोविड की दूसरी लहर के दौरान लोग न केवल बीमारी से परेशान थे बल्कि भूख, ग़रीबी, बेरोज़गारी से बेहाल वे अनाज के एक-एक दाने के लिए तड़प रहे थे. हाशिए पर रह रहे लोगों के लिए यह दोहरी मार है. मनीषा ने बाकि साथियों के साथ मिलकर द थर्ड आई रिलीफ़ वर्क के ज़रिए फलौदी गांव के कई इलाकों में घूम-घूम कर अनाज बांटने का काम किया ताकि लोगों को थोड़ी राहत मिल सके.

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