“पीछे छूट गए लोगों के लिए यह शहर मुगलन था, अकेलेपन और छोड़ दिए जाने का पर्याय.”

जिन अलग-अलग पहाड़ियों की गोद में दार्जिलिंग शहर बसता है, उन्हीं की तरह यहां रहनेवालों के लिए ये एक जैसा नहीं है.

चित्रांकन : श्रेया डैफनी (@shreyadaf)
दार्जिलिंग की हवादार गलियों में जब लोग दुकानों के बाहर और गलियों के मुहानों पर आग जलाकर बैठे होते हैं, तो किसी को भी ये आवाज़ें सुनाई दे सकती हैं कि “अइया! के सरो चिसो हो!” (“भगवान, इतनी ठंड क्यों है!”). सूरज का दिखाई देना यहां किसी सामूहिक उत्साह से कम नहीं. धूप के दिखाई देते ही पूरी फुर्ती से लोग अपनी छतों और बालकनी की रेलिंग पर कंबल, कालीन और अचार फैलाने लगते हैं. दार्जिलिंग के सभी लोगों को आपस में जोड़ने वाला (चौरस्था, मॉल के चारों ओर लंबी सैर या गर्म चाय के साथ गपशप के प्रति उनके प्यार के अलावा) अगर कोई साझा सूत्र है, तो वह पहाड़ियों के पीछे आराम फरमाने वाले सूरज के प्रति उनका प्यार, जोकि आमतौर पर बादलों से ढका होता है या जिसे पूर्वी हिमालय में बहने वाली ठंडी हवाएं बेज़ार कर देती हैं.
जिन अलग-अलग पहाड़ियों की गोद में दार्जिलिंग शहर बसता है, उन्हीं की तरह ये शहर यहां रहनेवालों के लिए एक जैसा नहीं है. यह शहर एक ऐसे सजीव जीवधारी की तरह है जिसका विकास अपने आस-पास के लोगों के साथ ही होता है. इसकी संरचनाएं अपने अतीत की यादों के साथ-साथ भविष्य को भी सहेज कर रखती हैं.

मेरा यह लेख ऐसे चार व्यक्तियों की नज़रों के माध्यम से इस शहर को खोजने का प्रयास है, जिनका इतिहास, हालिया अतीत और भविष्य उनके इर्द-गिर्द बढ़ते इस शहर के साथ उलझा और अटका हुआ है.

संपत्ति और घर

अपने बचपन के शहर को याद करते हुए हरीश कहते हैं, “दार्जिलिंग की कुछ ऐसी तस्वीरें जो मेरे दिल और दिमाग़ में बसी हुई हैं और जिन्हें मैं अक्सर याद करता हूं, वे हैं – सुबह स्कूल तक पैदल जाना, कंचनजंगा की सफ़ेद चोटियों के नज़ारे और सुनहरे गेंदे के फूलों को देखना.” हरीश बताते हैं, “लगभग साठ साल पहले मेरे दादा राजस्थान से दार्जिलिंग आए थे.” हरीश पहाड़ियों में बसे मारवाड़ी समुदाय से आते हैं. यहां इनकी संख्या बहुत ज़्यादा नहीं है, ये एक छोटा सा समुदाय है. वे कहते हैं, “कई मारवाड़ी अब यहां से दिल्ली और सिलीगुड़ी जाकर बस रहे हैं. मेरे ख़्याल से धंधे के मुनाफे में आ रही लगातार गिरावट के साथ-साथ मारवाड़ियों के लगातार बेगानों का सा व्यवहार इस पलायन के पीछे की मुख्य वजह है.”
हरीश का कहना है, “किसी शहर में अपनापन वहां बसे लोगों से ही पनपता है. लोगों के बिना, किसी शहर का अपने आप से कोई मोल नहीं है.”

एक तिब्बती महिला व्यवसायी ताशी बताती हैं, “अभी सर्दी का मौसम है, इसलिए काम ठीक चल रहा है. क्योंकि आजकल ज़्यादातर पर्यटक ही मेरी दुकान से ख़रीददारी करते हैं. वरना मैं आमतौर पर जल्दी घर आ जाती हूं.” ताशी की उम्र 50 वर्ष के आसपास है. दार्जिलिंग में प्रतिष्ठित केवेंटर्स रेस्तरां के सामने ताशी की एक अस्थाई दुकान हुआ करती थी, जहां वो स्वेटर बेचती थीं. “एक दिन हमें कहा गया कि हम वहां से अपनी दुकान हटाकर माल रोड की तरफ़ चले जाएं क्योंकि वे वहां दूसरी दुकानें बनाना चाहते थे. दिल से कहूं तो मुझे वहां (अपनी पुरानी जगह का ज़िक्र करते हुए) कहीं ज़्यादा अच्छा लगता था.” पिछले पांच सालों में, इस शहर ने पर्यटकों के लिए कई तरह के नए स्टोर और शॉपिंग कॉम्प्लेक्सों के नव-निर्माण को देखा है. खाली पड़ी जगहों पर तेज़ी से नए सिरे से कंस्ट्रक्शन के काम हो रहे हैं. हरीश ने हमें दार्जिलिंग में उभरने वाले असंख्य कैफे – अपने हमेशा के पसंदीदा नर्डवाना से लेकर द पैटियो तक – के बारे में भी बताया. “इन जगहों से शहर के अलग-अलग ठिकानों का सबसे सुंदर नज़ारा देखा जा सकता है.”

ताशी का जन्म चीन से दार्जिलिंग के रास्ते में हुआ था. उस समय ताशी की मां गर्भवती थीं और चीन द्वारा तिब्बत पर कब्ज़ा कर लिए जाने के बाद वहां से पलायन कर रहे लोगों में वे भी शामिल थीं. ताशी की कहानी घर के विचार की वो कोमल कहानी है जिसे हम अपने भीतर संजोकर रखते हैं. जब उनसे दार्जिलिंग में उनकी मनपसंद जगहों के बारे में पूछा गया जिससे वे सबसे ज़्यादा जुड़ाव महसूस करती हैं, तो उनका फौरी जवाब था “बौद्ध मठों से. मैं अक्सर वहां जाती हूं.”

जगहें और समुदाय

संतोष बताते हैं, “मैं एक अंतरजातीय विवाह से पैदा हुई संतान हूं. मेरे दादा आर्य समाजी थे. लेकिन जब मेरी मां ने नीची मानी जाने वाली जाति के एक व्यक्ति के साथ शादी करने का फैसला किया तो उन्होंने इसका विरोध नहीं किया. संतोष की उम्र 60 वर्ष से थोड़ी ज़्यादा है और वे नेपाली दलित समुदाय से हैं. “जब हम बड़े हो रहे थे, तो अपने उन दोस्तों के घर जाया करते जो लोसर का उत्सव मनाते थे. मुझे याद है कि एकबार छांग (एक मादक तिब्बती पेय) पीने के बाद मुझे चक्कर आ गया था.”

इस शहर और अपने इलाके के महानगरीय चलन के बारे में बताते हुए, संतोष कहते हैं, “ मुझे याद है जब मैं छोटा था, तो मेरे परिवार के लोगों को सामुदायिक नल से पानी लाना पड़ता था. मुझे वह दिन अच्छी तरह याद है जब हमारे सामने एक बाल्टी से पानी भरकर बाहर बह रहा था, लिहाज़ा हमने उस बाल्टी को हटाकर अपनी बाल्टी नल के नीचे लगा दी. वह बाल्टी छेत्री समुदाय (नेपाल की उच्च जाति समुदाय) के एक व्यक्ति की थी.” संतोष बताते हैं, “यह देखकर कि हमने उसकी बाल्टी को छुआ और हटा दिया है, उसने पानी से भरी हमारी पूरी बाल्टी उलट दी.”

“उस वक़्त मैं बहुत छोटा और मासूम था इसलिए उसकी इस हरकत को समझ नहीं पाया. मुझे पता नहीं था कि कैसे मेरा हाथ एक ख़ास समुदाय से जुड़ा है.”

मैं संतोष के स्वर में इस द्वंद्व को साफ़ महसूस कर सकती थी, “मुझे पता है कि वे मेरे साथ कैसा व्यवहार करते हैं. मैंने यह देखा है कि लोगों के घरों में मुझे किस तरह से भोजन परोसा जाता था और दूसरे समुदायों के मेरे दोस्तों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता था. लेकिन मैं कभी भी किसी के सामने नहीं झुका और न ही मैं अपनी पहचान से कतराता हूं.” सामाजिक न्याय के लिए काम करते हुए एक कार्यकर्ता के रूप में संतोष का अपना अनुभव रहा है. उन्होंने बताया,

“मुझे लगता है कि ज़्यादातर लोग भूल गए हैं, लेकिन लगभग 15 साल पहले हमारे समुदाय के एक व्यक्ति ने अपनी जातिगत पहचान की वजह से होने वाले अंतहीन उत्पीड़न का सामना करने के बाद आत्महत्या कर ली थी.

अपने सुसाइड नोट में उसने लिखा था कि उसे किस तरह प्रताड़ित किया गया और किसने किया उनका नाम भी लिखा था. हम लोगों ने विरोध में रैलियां निकालीं ये मांग करते हुए कि दोषियों को गिरफ़्तार किया जाए. दोषियों को गिरफ़्तार कर लिया गया, लेकिन एक हफ़्ते बाद वे ज़मानत पर छूट गए थे.”

अपनी सहज आशावादी शैली के साथ संतोष आज के समय के बारे में बात करते हुए कहते हैं. “चीज़ें अब पहले से काफ़ी बेहतर हैं. उतनी बुरी नहीं है, जितनी पहले हुआ करती थीं.” वे कहते हैं, “मैं चाहता हूं कि युवा जातिगत पहचान के मसले पर अधिक से अधिक चर्चा करें ताकि वे मेरी तरह अनजान न रहें. मुझे यह समझने में काफ़ी समय लग गया कि कुछ चीज़ें मेरे साथ क्यों हो रही हैं.” संतोष एक दर्ज़ी होने के साथ-साथ एक कलाकार भी हैं. “एक बार, एक कार्यक्रम के लिए, हमें मिरिक जाना था. कार्यक्रम स्थल पर मैंने देखा कि नौमती बाजा के कलाकार सोफे पर नहीं बल्कि फर्श पर बैठे हुए हैं. यह देखकर मुझे बहुत गुस्सा आया. मैंने एक आदमी को उसकी कमीज़ पकड़कर ऊपर खींचकर सोफे पर बिठा दिया.” संतोष आगे बताते हैं कि मुझे भले ही लोगों के घरों में प्रवेश करने की अनुमति है, लेकिन मुझे यह पता है कि पंडम बस्ती जैसे दार्जिलिंग के बाहरी इलाके में छुआछूत अभी भी प्रचलित है. यहां तक कि जो लोग जाति के भेद या विभाजन को नहीं मानते हैं, वे लोग भी आख़िरकार जाति प्रथा का पालन करने लगते हैं. ताशी भी संतोष की इस बात से सहमत दिखाई देती हैं. उन्होंने बताया कि उनके माता-पिता भले ही तिब्बती शरणार्थी थे, फिर भी वे छुआछूत का पालन करते थे.

“अगर ठंड का मौसम न हो, तो यह शहर ऐसा नहीं दिखेगा जैसा अभी ये है, इसीलिए मैं सारी जगहों के मुकाबले दार्जिलिंग की लाल कोठी को बेहद पसंद करता हूं.” दार्जिलिंग के थामी समुदाय से ताल्लुक रखने वाले रमेश कहते हैं कि अगर कभी रहने के लिए जगह चुननी हो, तो वे इसी जगह पर रहना पसंद करेंगे. उनके परिवार में उनके दादा पहले ऐसे व्यक्ति थे जो नेपाल से यहां आए और प्लांटर्स क्लब में काम किया. अपनी दादी को याद करते हुए रमेश कहते हैं,

“मेरी दादी ने अपना पूरा जीवन नेपाल में बिताया. वह कभी दार्जिलिंग नहीं आईं क्योंकि उनके लिए यह शहर मुगलन (भारत) था, एक ऐसा शब्द जो अकेलेपन और छोड़ दिए जाने का पर्याय था.”

रमेश बताते हैं, “इस (दार्जिलिंग के) शहर को ऐसे मुकाम के रूप में देखा जाता था जहां से कोई कभी वापस नहीं लौटता. उस समय संपर्क में बने रहना मुश्किल था. नेपाल के अपने गांव में, मेरी दादी को मेरे दादा की कोई भी ख़बर पाने में कई सप्ताह और कभी-कभी तो महीनों लग जाते थे.”

इस शहर के भीतर रमेश का अपने समुदाय के साथ एक जटिल रिश्ता है. “हम यहां थामी समुदाय के सदस्य नहीं हैं क्योंकि हम लोगों ने ईसाई धर्म अपना लिया है.” जिस थामी समुदाय से रमेश का ताल्लुक था, वह समुदाय शमनवाद के प्रभाव के साथ हिंदू धर्म का पालन करता है. ईसाई धर्म अपनाने के बाद उनके परिवार ने थामी समुदाय के रिवाजों और संस्कारों का पालन करना बंद कर दिया. रमेश चिंतित स्वर में कहते हैं, “एक परिवार के रूप में, हम अपनों से दूर हो गए हैं. हमने ऐसे कई उत्सवों और रीति-रिवाजों को छोड़ दिया है, जिनका हम पहले हिस्सा रहे थे. न तो समाज के सदस्यों ने अपने सामाजिक समारोहों से हमारी अनुपस्थिति के बारे में पूछा और न ही हम अब समुदाय की गतिविधियों में हिस्सा लेना पसंद करते हैं.”

दूसरी ओर, ताशी के अपने समुदाय के साथ बेहद मज़बूत संबंध हैं. मकान की तलाश करते समय उनकी एक मुख्य कसौटी तिब्बती समुदाय के पास वाली जगह में मकान ढ़ूंढना है. “जब मेरे आसपास तिब्बती लोग रहते हैं, तो मेरे लिए बातचीत करना आसान हो जाता है. उनके बीच मुझे घर जैसा महसूस होता है.” ताशी, हिमाचल प्रदेश के बीर में तिब्बती बस्ती में बिताए गए कुछ सालों को याद करते हुए कहती हैं, “अगर मुझे मौका मिले, तो मैं वहां वापस जाना पसंद करूंगी. मैं अपने बच्चों की पढ़ाई की ख़ातिर दार्जिलिंग आई थी. अब उन सभी की ज़िंदगी अच्छी तरह बस गई है और मैं दार्जिलिंग में अपने घर पर हूं, लेकिन मेरे लिए बीर हमेशा खास बना रहेगा.” वो धैर्य के साथ समझाती हैं, “मैं अब बूढ़ी हो रही हूं और बीर में बौद्ध मठों की संख्या अधिक है. यही वजह है कि मैं उस जगह को अक्सर याद करती हूं.”

यहां के होने और न होने के बीच

रमेश के लिए, दार्जिलिंग आशाओं और आर्थिक आकांक्षाओं का शहर है. यह एक ऐसा शहर है जिसने उन्हें अवसर मुहैया कराया है और उनके परिवार को फलते-फूलते हुए देखा है – उनके दादा से लेकर अब उनके बेटे तक, जो पढ़ाई करने वाली पहली पीढ़ी है. रमेश जब छोटे थे, तो वे नेपाल से दार्जिलिंग ख़ूब आना-जाना करते थे. लेकिन अब उनका कहना है कि अपने दिल के साथ-साथ दार्जिलिंग, दोनों को अच्छी तरह समझते हैं.

कभी गैस एजेंसी में एक मज़दूर (कुली) का काम करने वाले रमेश बताते हैं, “वहां काम करने वाले कई मज़दूर (कुली) युवा हैं. कभी-कभी, ग़लती से, वे कुछ अतिरिक्त रुपए वसूल कर लेते हैं.” ज़्यादातर मज़दूर थामी समुदाय से आते हैं.

“मज़दूर के रूप में काम करते हुए हम लोगों में अधिकांश को “तिमा हारु नेपाल बता आयेको हमिलई तगनू” (क्या तुम लोग नेपाल से हमें बेवकूफ बनाने के लिए आए हो?) जैसे तंज़ सहने पड़ते हैं. हमारे साथ ऐसा व्यवहार किया जाता है जैसे मानो हम ऐसे विदेशी हैं जो नेपाल से यहां लोगों को धोखा देने के इरादे से आए हैं."

थोड़ी देर के लिए रमेश शांत हो जाते हैं. ख़ुद को थोड़ा संभालते हुए, संयत आवाज़ में वे कहते हैं, “हमें ऐसी फब्तियां रोज़ सुनने को नहीं मिलती हैं. लेकिन हमने अतीत में ये सब सुना है और हमें यह जानकर दुख होता है कि हमारा नेपाली समुदाय हमें अस्वीकार करता है. थामी समुदाय को अभी लंबा सफ़र तय करना है. हमारे परिवारों में शिक्षा को अभी भी तरजीह नहीं दी जाती है. कई बच्चे आठवीं कक्षा के बाद पढ़ाई छोड़ देते हैं और उन्हें शारीरिक श्रम करने के लिए धकेल किया जाता है.” रमेश इस समय उसी गैस एजेंसी के कार्यालय में काम करते हैं जहां एक समय वे मज़दूर के रूप में काम करते थे. हमारी पूरी बातचीत के दौरान वे ज़ोर देकर कहते हैं कि अगर वे शुरू में पढ़ाई पूरी करने से चूके नहीं होते, तो वे अपने परिवार को एक बेहतर ज़िंदगी देने में समर्थ होते.

इन अलग-अलग अफसानों ने एक ही शहर में जन्म लिया है जो भिन्नता का समावेश है. दार्जिलिंग एक ऐसा कैनवास है जिस पर गूगल में दिखाई गई दार्जिलिंग की पारंपरिक तस्वीर या दास स्टूडियो में टंगे पोस्टकार्ड पर पहाड़ी शहर के चित्रों के उलट इन लोगों की तकलीफों और खुशियों से जुड़ी कई यादें उकेरी गई हैं.

दार्जिलिंग ने अपनी एक लंबी और परस्पर विरोधी राजनीतिक एवं सामाजिक यात्रा देखी है. यह कई अस्थाई और स्थाई आशियानों का आशियाना रहा है. यहां के लोगों और उनके इतिहास से निर्मित, यहां का कोई भी इतिहास सर्वोपरि नहीं है और न ही कोई भव्य कथानक इस शहर के भीतर पलने वाली आकांक्षाओं और संस्कृतियों की विविधता को बयान करता है. यह शहर टॉय ट्रेन की आवाज़ है, जापानी मंदिर के घड़ियाल की नाद, चौक बाज़ार की चहल-पहल और साथ ही इस्तेमाल किए जा चुके (सेकंड हैण्ड) सामानों के दुकानदारों द्वारा “दस रुपए… दस रुपए… दस रुपए…” की लगातार लगाई जाने वाली हांक है, जिसका साउंडट्रैक ओरिएंट को उक्कालो की चढ़ाई के साथ परिभाषित किए जाने और समझने में कठिन होता जाता है.

*लेख में सभी पात्रों के नाम बदल दिए गए हैं.

इस लेख का अनुवाद जितेन्द्र कुमार ने किया है.

नांगसेल शेरपा एक स्वतंत्र शोधार्थी हैं जो लिंग, प्रवास और अल्पसंख्यक समुदाय के अधिकारों पर काम करती हैं.

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