दो दुनियाओं के बीच

व्यावसायिक सेक्स की दुनिया से बाहर निकलने वाली महिलाओं को एक ऐसे समाज की ज़रूरत है जो उनके बाहर निकलने में निवेश कर सके. और इस ज़िम्मेदारी का बोझ हममें से उन सभी लोगों पर है जो बाहर निकलने को सुविधाजनक बनाने का दावा करते हैं.

चित्रांकन: उपासना अग्रवाल

एलिना और मेरा जो रिश्ता है, वो हमारी असहमति पर सहमति पर आधारित है.

मैं समझती हूं कि व्यावसायिक यौन शोषण से बाहर निकलने में महिलाओं की मदद की जानी चाहिए. व्यावसायिक यौन शोषण से बाहर निकलना संभव है. अगर हम एक ऐसे समाज का निर्माण करना चाहते हैं जो अपनी औरतों की परवाह करता है, तो व्यावसायिक यौन शोषण को सामान्य नहीं माना जा सकता और न ही ऐसी गतिविधियों को जारी रहने दिया जा सकता है.

एलिना को व्यावसायिक सेक्स या यौनकर्म से कोई दिक्कत नहीं है और यौनकर्म के ज़रिए महिलाओं को जो आर्थिक और भावनात्मक स्तर पर जीने के लिए सहारा मिलता है, उसे उससे भी दिक्कत नहीं है. वह इस बात से सहमत है कि ऐसी महिलाओं को मदद मिलनी चाहिए, और व्यावसायिक यौनकर्म में हिंसा ठीक नहीं है. लेकिन उपलब्ध सहायता की प्रकृति या जिस तरह के परवाह और इज़्ज़त करने वाले समाज की मैं बात कर रही हूं, उसे लेकर उसके मन में संदेह है.

एलिना जब छोटी थी, तभी उसकी मां का देहांत हो गया था. पिता ने दूसरी शादी कर ली. क्योंकि नए रिश्ते के पनपने के लिए उन्हें अपने लिए थोड़ी जगह और एकांत चाहिए था इसलिए उन्होंने एलिना को अपने एक रिश्तेदार के यहां भेज दिया. उस रिश्तेदार ने एलिना को घरेलू कामकाज के लिए दूसरे ज़िले में नौकरी पर लगा दिया. उस जगह के मालिक ने उसके साथ बलात्कार किया और इस तरह एलिना को पता चला कि सेक्स क्या होता है. तब वह सिर्फ़ 13 साल की थी.

जान-पहचान वाले एक व्यक्ति ने कहा कि वह इस नर्क से निकलने में उसकी मदद करेगा. मदद के नाम पर उसने एलिना को व्यावसायिक यौनकर्म में झोंक दिया. उसे बहुत तकलीफ होती थी, दर्द से वह रोती-चिल्लाती थी. इस नई जगह पर उसके आसपास के लोगों ने कहा कि व्यावसायिक सेक्स भी एक नौकरी ही है और इस काम से बहुत सी औरतें पैसे कमाती हैं. अब उसका मासिक धर्म शुरू हो चुका था. उसने यौन संबंध भी बना लिया. वह सच में एक खूबसूरत औरत है, एक ऐसी खूबसूरत औरत जिसे बहुत से मर्द चाहते हैं.

उसे बार-बार यह याद दिलाया गया कि उसके पिता की अब एक नई बीवी है और अभी उसका अपने घर लौटने का मतलब है घर में कलेश बढ़ाना. कुछ समय के लिए घर से दूर रहना ही अच्छा है. कुछ पैसे हाथ में आ जाएं तब घर जाना और घरवालों की मदद करना. उसके किशोर मन में जो तस्वीर बनी, वह यह थी कि जो वह कर रही है सही कर रही है. अपने परिवार के लिए कर रही है और यही वह रास्ता है जिसपर चलकर वह अपना भविष्य बेहतर बना सकती है. उसे इस बात का तो एहसास ही नहीं था कि वह जो कर रही है, उसके कारण वह अपने घर-परिवार में अपनी जगह खो चुकी है.

व्यावसायिक सेक्स के दौरान ही एलिना को अपना प्यार मिला. बहुत सारे ब्रेकअप भी हुए. बच्चे भी हुए. एक एनजीओ की मदद से उसने शिक्षा हासिल की, अंग्रेज़ी बोलना सीखा और फिर विभिन्न मंचों पर सेक्स वर्कर्स से जुड़े मुद्दों को उठाना शुरू किया. शुरुआती दौर का उसका रोना-चीखना, अब कभी-कभी उठने वाली टीस में बदल गया. आज वह दूसरी महिलाओं को सरकारी योजनाओं और सुरक्षित यौन संबंध के बारे में सिखाने-समझाने का काम करती है. 

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यह कोई नई कहानी नहीं है. बहुत सारी महिलाओं की दास्तान कुछ ऐसी ही है, हालांकि इन पंक्तियों के बीच दो अलग-अलग दुनिया हैं. एलिना के शब्दों में कहें तो ‘यह’ (व्यावसायिक सेक्स) दुनिया और ‘आम लोगों’ (व्यावसायिक सेक्स से परे) की दुनिया बिल्कुल अलग-अलग है. दोनों के बीच का यह अंतर तब और अधिक स्पष्ट दिखाई देता है जब कोई एक से ‘निकल’ दूसरे में ‘दाखिल’ होने की कोशिश करता है या ऐसा करना चाहता है.

व्यावसायिक सेक्स से 'बाहर निकलना' केवल इससे होने वाली आमदनी से हाथ धोना भर नहीं है, बल्कि व्यावसायिक सेक्स उद्योग और आपराधिक नेटवर्क से जुड़े तस्करों, दलालों और दोस्तों से भी रिश्ते खत्म करना है.

व्यावसायिक सेक्स से बाहर की दुनिया में ‘दाखिल’ होने के लिए वैकल्पिक रोज़गार का होना ज़रूरी है. संकट की स्थिति में मदद, रहने के लिए घर, आमदनी के लिए रोज़गार, इमोशनल सपोर्ट और रोज़मर्रा की बुनियादी ज़रूरतों के लिए लोगों (जिनका संबंध व्यावसायिक सेक्स उद्योग से नहीं है) के साथ रिश्ता बनाना या बिगड़े रिश्तों को सुधारना ज़रूरी है. व्यावसायिक सेक्स की दुनिया से बाहर निकलना और आम लोगों की दुनिया में दाखिल होना अलग-अलग चीज़ें नहीं है. दोनों ही दुनियाओं में महिलाओं को मदद, अवसर और रिश्तों की तलाश रहती है. वह किस राह जाएंगी, यह उनके अनुभव पर निर्भर करता है. यहां मैंने तीन कहानियों को चुना है, तीनों ही कहानियां व्यावसायिक सेक्स की दुनिया से बाहर निकलने के पीछे की कुछ सच्चाइयों को सामने लाती हैं.

पहली कहानी: अगली मंज़िल

व्यावसायिक सेक्स से बाहर निकलने से जुड़ी पहली कहानी ‘अगली मंज़िल’ या ‘अगले ठिकाने’ की प्रकृति पर केंद्रित है. व्यावसायिक सेक्स की दुनिया से बाहर निकलना अपने साथ आम दुनिया में दाखिल होने की संभावना भी लाता है, (बशर्ते कि बाहर निकलना पुलिस द्वारा आरोपित न हो) यानी बाहर निकलना तभी संभव होता है जब दाखिल होने की परिस्थितियां बनती हैं. ये परिस्थितियां कुछ भी हो सकती हैं, मसलन, घरवाले उसी की शर्तों पर उसे अपनाने को तैयार हों, एक ऐसा अंतरंग साथी जो बाहर निकलने के बाद मदद कर सके, आमदनी का कोई दूसरा ज़रिया, या कोई ऐसा सुरक्षित आश्रय जहां वह यहां से निकलने के बाद रह सके आदि. बाहर निकलने में जिस चीज़ की भूमिका निर्णायक होती है, वह है भरोसा. यह भरोसा या विश्वास कि ‘आम लोगों’ की दुनिया में उसे घुलने-मिलने में अधिक परेशानी नहीं होगी. रीमा के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ था. मैंने रीमा के साथ भी काम किया है. रीमा के साथ जो हुआ, वह उसकी नज़र में सम्मान की बात थी और यही वह चीज़ थी जिसने उसे अंततः बाहर निकलने के लिए प्रेरित किया. वह उस दिन की घटना को याद करते हुए कहती है,

मैं [एक एनजीओ के] कार्यालय गई थी, क्योंकि एक आउटरीच कार्यकर्ता मुझे बार-बार फोन करके यह कहती रहती थी कि मैं उसके काम में उसकी मदद कर सकती हूं. वह मेरी दोस्त थी, और पहले वह भी इसी लाइन [व्यावसायिक सेक्स] में थी. मैं सिर्फ़ इसलिए गई कि वह मेरी दोस्त थी और मैं उसको लगातार मना नहीं कर सकती थी. जब मैं पहुंची तो मेरी दोस्त वहां नहीं थी, लेकिन बाकी लोग वहां बैठे थे. उन्होंने मुझे सोफे पर बैठने को कहा, फिर मुझे पानी और चाय दी गई. तभी एक आदमी [एक सामाजिक कार्यकर्ता] मेरे पास आया… वह चाहता था कि मैं महिलाओं के समूहों को संगठित करूं. मैंने कहा कि मैं कोशिश करूंगी और फिर वहां से जाने लगी तो उसने मुझे रोका और 500 रूपए दिए. उसने कहा कि अगर मैंने [उसके साथ काम किया] तो वह मुझे हर महीने तनख्वाह देगा. चूंकि मैं उसके कार्यालय तक दूर से यात्रा करके आई थी, इसलिए उसने मुझे 500 रूपए दिए थे.

मैं कार्यालय से बाहर आ गई और इंतज़ार करने लगी. मैं खड़ी-खड़ी यह सोच रही थी कि उनमें से एक मेरे साथ आएगा या फिर दो, मुझे किसी लॉज में ले जाएंगे या फ्लैट पर ले जाएंगे. मैं खड़ी उनका इंतज़ार कर रही थी, तभी उन्होंने कार्यालय बंद किया… और मुझे इस तरह वहां पर खड़े देखा तो कहा कि मैं [रेलवे] स्टेशन वाले रोड पर चली जाऊं [जहां से मुझे घर जाने के लिए टैक्सी मिल सकती थी]. मैं यह सोचकर हैरान थी कि आखिर उन्होंने मुझे पैसे दिए ही क्यों थे… मैं वह दिन कभी नहीं भूल सकती. मुझे जीवन में पहली बार कुछ न करने के लिए पैसा मिला था, इज़्ज़त मिली थी, उन्होंने मुझमें ज़रूर कुछ ऐसा देखा होगा जो खुद मुझे कभी नहीं दिखा. मैं घर गई और सोचा – ज़िंदगी में पहली बार मुझे कुछ करने से पहले ही मेहनताना दे दिया गया था. मुझे सोफे पर बैठने के लिए कहा गया था. पानी और चाय के लिए पूछा गया था. वरना तो हमेशा मुझे ही लोगों की सेवा करनी होती थी. [उस दिन] किसी ने मुझे छुआ तक नहीं… अब मैं यह जानने को उत्सुक हो रही थी कि आखिर मेरा वेतन कितना होगा! मैंने तय किया कि मैं बाद में दोबारा कार्यालय जाऊंगी और उनसे पूछूंगी. मैं उनके लिए समूहों को संगठित कर सकती थी, मेरे लिए यह कोई मुश्किल काम नहीं था. अगर मुझे बिना कीमत चुकाए ही इतनी इज़्ज़त मिल सकती है, तो फिर मैं कोशिश क्यों न करूं… 

दूसरी कहानी: होना साथ और अलग होना

दूसरी कहानी अगली मंज़िल के अनुभवों पर आधारित है. जब ‘आम लोगों’ की दुनिया उन्हें अपनाने से इंकार करती है या वे अपनी आर्थिक ज़रूरतों को पूरा कर पाने में कठिनाई महसूस करती हैं तो उनके लिए व्यावसायिक सेक्स ही सबसे सहज विकल्प होता है. ‘आम लोगों’ की दुनिया में दाखिल होने की तुलना में व्यावसायिक सेक्स की दुनिया में वापसी ज़्यादा मुश्किल नहीं होती, उन्हें वहां बहुत कम प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है. इसके अलावा, व्यावसायिक सेक्स की दुनिया में दाखिल होने से पहले, अतीत में उनके साथ जो कुछ भी हुआ, जैसे कि घरेलू काम के साथ-साथ काम करवाने वाले (मालिक) द्वारा बलात्कार करना, परिवार के सदस्यों द्वारा ही यौन हिंसा करना, ससुराल से निकाला जाना, घरवालों की पाबंदियां, घर से बाहर जाने पर प्रताड़ित करना, घरेलू हिंसा, पति द्वारा यौन संबंध बनाते समय हिंसा आदि – ‘आम लोगों’ की दुनिया में अस्वीकृत कर दिए जाने के विश्वास को मज़बूत करता है. कई महिलाओं के लिए परिवार एक ऐसी जगह थी जहां परेशानी के सिवाय कुछ भी नहीं था और यह स्थिति आज भी बनी हुई है.

घर वापसी हमेशा सुखद अनुभवों से ही जुड़ी नहीं होती. बेहतर मौकों की तलाश में, या हिंसा और घुटन भरे रिश्तों से बचने के लिए घर और समुदाय को छोड़कर जाने वाली महिलाओं का अतीत परिवार को परेशान करता रहता है.

अगर इन महिलाओं को अपने घरवालों का सपोर्ट मिला भी तो वह बिना शर्त नहीं होता. ऐसी बहुत सी महिलाएं, जो पहले घर लौटने को लेकर बहुत उत्साहित थीं, और उन्होंने व्यावसायिक सेक्स से नाता भी तोड़ लिया था, बाद में फिर से इस दुनिया में लौट आईं.

जहां पहले वे ज़बरदस्ती लाई गई थीं, वहां अब वे अपनी ‘मर्ज़ी’ से लौटी थीं. परिवारों की अपनी परेशानियां होती हैं. ऐसी महिलाओं की घर वापसी से पैदा होने वाली नई परेशानियों से निपटने के लिए अक्सर उनके पास न तो वक्त होता है और न ही गुंजाइश. यही कारण है कि घर लौटने की योजना बना रही महिलाएं अक्सर अपनी ऐसी छवि बनाती हैं जो परिवार और समुदाय को स्वीकार्य हो – खुद आर्थिक रूप से स्थिर और मज़बूत हैं या उनके साथ ऐसा एक साथी है जो आर्थिक रूप से मज़बूत है. इस तरह से वे अपने घरवालों पर यह ज़ाहिर करती हैं कि वे उन पर निर्भर नहीं होंगी, बल्कि उनके पास अपना खर्च उठाने के साधन मौजूद हैं और ज़रूरत पड़ने पर वे घरवालों की मदद भी कर सकती हैं.

द थर्ड आई द्वारा बनाई गई फ़िल्म ‘सेक्स [वर्क] एंड द सिटी‘ (2002) से एक दृश्य

एलिना ने जब पहली बार व्यावसायिक सेक्स की दुनिया को अलविदा कहा, तब उसकी अगली मंज़िल परिवार ही था. साथ ही, उसके कई अंतरंग साथियों ने भी मदद का वादा किया था. फिर कई बार बाहर निकलने की कोशिश करने के बाद वह अंततः इस नतीजे पर पहुंची थी कि व्यावसायिक सेक्स की दुनिया से निकलना लगभग असंभव है. हां, अगर बढ़ती उम्र या बीमारी के कारण कोई रोज़ी कमाने के काबिल न रह जाए तो फिर अलग बात है. वह बहुत रूखे लहजे में कहती है,

हो सकता है कि कुछ [औरतें] इससे बाहर निकल जाएं… लेकिन मैं आपको बता दूं कि अधिकांश के लिए यह संभव नहीं है! मुझे ही ले लो. अतीत में जो कुछ भी मेरे साथ हुआ, मैं उसको भूलकर इस [व्यावसायिक सेक्स] से बाहर ज़िंदगी के बारे में सोच भी नहीं सकती. वो स्मृतियां मुझे डराती हैं. लेकिन अब मैं [व्यावसायिक सेक्स में] मज़बूत हूं. इस दुनिया से बाहर निकलना हमेशा से मेरा मकसद रहा है लेकिन अभी तक मुझे यहां से बाहर निकलने और रहने का कोई रास्ता नहीं मिल पाया है. तब तक इस [एक और बार बाहर निकलने] के बारे में सोचना भी मेरे लिए संभव नहीं है. मैं अपनी बहनों [व्यावसायिक सेक्स से जुड़ी अन्य महिलाओं] को बताती फिरती हूं कि उनके भी कुछ अधिकार हैं. लेकिन मैं ‘आम लोगों’ की बस्ती में जाकर ऐसा कहने या करने के बारे में सोच भी नहीं सकती. वहां डर बहुत है. समाज हमें बुरी निगाह से देखता है, हम छिपकर रहते हैं. हमारी इच्छाएं यहीं पूरी होती हैं. हमें ‘आम लोगों की आबादी’ में रहने की इजाज़त नहीं है. आपको पता है कि हमें ‘सामान्य परिवार’ की महिलाओं की तुलना में अधिक किराया देना पड़ता है? हम ‘आम लोगों’ से डरते हैं, लेकिन यहां इस दुनिया में हमें कोई डर या खौफ नहीं है. हम यहीं ठीक हैं. यौनकर्म जोखिम भरा काम है, लेकिन ‘आम लोगों’ की दुनिया से ज़्यादा सुरक्षित है. वहां हमें लांछनों का सामना करना पड़ता है, लोग हमें अपने घर नहीं बुलाते, कोई भी हमें अपने आसपास देखना नहीं चाहता.

अपनी ‘अगली मंज़िल’ को लेकर जिन महिलाओं का अनुभव सकारात्मक था उनमें बाहर निकलने की योजना बनाने और उसपर अमल करने की संभावनाएं होती हैं. फिर बाहर निकलना पुलिस द्वारा उनपर जबरन थोपा ही क्यों न गया हो. एस्थर ने पहली बार बाहर निकलने के बारे में तब सोचा, जब उसकी गिरफ़्तारी हुई थी. कुछ समय के लिए उसे एक विदेशी जेल में कैद रखा गया था. रिहा होने के बाद उसने अपने बाहर निकलने की तैयारी शुरू कर दी. अपने साथ वो जेल की अच्छी यादें लेकर आई थी. वहां रहते हुए उसे अपने भविष्य के बारे में सोचने का मौका मिला. जेल ने उसे एक ऐसे धर्म से परिचित कराया जिसे उसने बाद में अपना लिया. उसने बताया कि जेल बहुत ही साफ-सुथरी थी. उसकी कोठरी में टेलीविज़न और गर्म पानी की व्यवस्था थी. जेल के कर्मचारी बहुत दयालु थे. चूंकि उस जेल में कुछ ही महिला कैदी थीं इसलिए वहां का माहौल बहुत ही शांत और सुकून भरा था.

उसका जेल जाना उसकी ज़िंदगी का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण मोड़ साबित हुआ. लेकिन जब वह अपने घर लौटी, तो घरवालों ने उसे वहां से चले जाने को कहा.

वह दोबारा व्यावसायिक सेक्स की दुनिया में लौट आई. दूसरी बार उसने बाहर निकलने के बारे में तब सोचा जब एक भारतीय पुलिस अधिकारी ने कहा कि वह उसे एक एनजीओ के साथ जोड़ने में मदद कर सकता है. एस्थर को व्यावसायिक सेक्स से जुड़ी अपने अतीत की स्मृतियों से जूझना पड़ा. उसको यह डर सताता रहता था कि सार्वजनिक जगह पर कोई उसे पहचान न ले. हालांकि, वह अब आर्थिक रूप से भी आत्मनिर्भर बन चुकी थी. जब उसके घरवालों को इस बारे में पता चला तो उन्होंने एस्थर से न सिर्फ़ घर लौट आने को कहा, बल्कि उसे अपने छोटे भाई / बहन के प्रति ज़िम्मेदारी की भी याद दिलाई, जिसे कैंसर था और जिसके इलाज के लिए पैसों की सख्त ज़रूरत थी. अब वह एक स्थापित सामाजिक कार्यकर्ता है. सामाजिक कार्यकर्ता एस्थर ने अपनी एक नई पहचान बनाई है. वह अपने बाहर निकलने और उसके बाद की ज़िंदगी का श्रेय जेल स्टाफ, पुलिस अधिकारी, एनजीओ और ईश्वर को देती है.

तीसरी कहानी: पूर्ण चक्र

तीसरी कहानी का संबंध व्यावसायिक सेक्स उद्योग में रहते हुए व्यावसायिक सेक्स से निकलने की कोशिशों से है. कुछ महिलाएं आमदनी के लिए अन्य महिलाओं के बच्चों की देखभाल करती हैं. कुछ दूसरों के लिए खाना बनाती हैं. कुछ भोजन, किराने का सामान और अन्य चीज़ें, सौंदर्य प्रसाधन से जुड़ी चीज़ें और कपड़े आदि बेचकर पैसे कमाती हैं. यह अतिरिक्त आमदनी का एक ज़रिया भी हो सकता है, या उन महिलाओं के लिए एक रास्ता भी जो अधिक उम्र, बीमारी, या ज़ख्मों और शारीरिक विकृति के कारण ग्राहकों को अपनी तरफ आकर्षित नहीं कर पातीं या कम कर पाती हैं.

इसके अलावा अपराध जगत के नियम-कायदों को स्वीकार करते हुए गैर-कानूनी कामों को अंजाम देना, एक और रास्ता है जिसे महिलाएं चुनती हैं. या जबरन उन्हें अपराध की इस दुनिया में धकेल दिया जाता है, जहां प्रतिरोध का अंजाम बहुत बुरा हो सकता है. जैसे, व्यावसायिक यौन संबंध के लिए मजबूर की गई बच्ची या महिला की निगरानी करना, बच्चों या महिलाओं की तस्करी करना, वित्तीय लेन-देन का हिस्सा बनना, दलाली करना – मतलब सेक्स ट्रैफिकिंग को बढ़ावा देने वाली हर तरह की आपराधिक गतिविधियां. इन गतिविधियों में पकड़ी गई महिलाएं, आमतौर पर व्यावसायिक सेक्स उद्योग से बाहर नहीं निकल पातीं बल्कि उल्टे आगे चलकर उनको इसका बहुत नुकसान उठाना पड़ता है और वे कर्ज़ के दलदल में फंस जाती हैं. जेल में कैद के दौरान ये महिलाएं, अपनी कमाई पर निर्भर घरवालों को पैसे भेजने और/या वकीलों की फीस भरने के लिए व्यावसायिक सेक्स उद्योग के नेटवर्क पर निर्भर रहती हैं. जेल में रहने के दौरान महिलाओं पर जो खर्च होता है, जेल से रिहा होने के बाद उन्हें वह पैसा बहुत अधिक ब्याज के साथ चुकाना पड़ता है. कर्ज़ चुकाने की खातिर वे नेटवर्क से जुड़ने के लिए बाध्य हो जाती हैं.

कमला जब बच्ची थी, तभी उसको तस्करी करके यहां लाया गया था. बाद में उसे व्यावसायिक सेक्स के लिए राज़ी होना पड़ा. एक आदमी से उसे प्यार हो गया और उसने उससे शादी कर ली. जिसके बाद वह व्यावसायिक सेक्स की दुनिया से बाहर निकल गई. बीस साल बाद जब उसकी शादी टूट गई तब वह वापस व्यावसायिक सेक्स की दुनिया में लौट आई.

वह क्यों लौटी? जवाब में वह कहती है, "खुद को लेकर मैं बहुत गर्व महसूस करती हूं. मैं किसी से मदद नहीं मांग सकती."

व्यावसायिक सेक्स से आर्थिक आज़ादी मिलती है, यह अलग बात है कि आय का एक बड़ा हिस्सा अपनी बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने, बिलों का भुगतान करने, कमीशन देने और कर्ज़ चुकाने में खर्च हो जाता है. चूंकि खर्च के नाम पर कुछ ज़्यादा ही वसूली की जाती है और भुगतान न करने की स्थिति में बहुत ज़्यादा ब्याज लगाया जाता है, इसलिए कर्ज़ का पहिया चलता रहता है. उम्र बढ़ने के साथ कमला एक दलाल बन गई है और दलाली ही उसकी कमाई का ज़रिया है.

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ट्रैफिकिंग (तस्करी) के अपराधों में महिलाओं की भागीदारी को लेकर सवाल पर एलिना आगाह करती है कि औरतों पर झूठे और मनगढंत आरोप लगाए जा सकते हैं. यह भी संभव है कि जिन अपराधों के आरोप उनपर लगाए गए हैं उन्हें इसके बारे में मालूम ही न हो और बाद में पता चले. ऐसी घटनाओं के मुख्य अपराधी – आमतौर पर सत्ता संपन्न और रसूखदार लोग बाहर चैन की ज़िंदगी जी रहे होते हैं. फिर भी ट्रैफिकिंग के अपराधों में महिलाओं की भागीदारी से इंकार नहीं किया जा सकता है. पर यहां पीड़ित और अपराधी के बीच की सीमाएं अक्सर धुंधली होती हैं. महिलाओं को ऐसी गतिविधियों में शामिल होने के लिए बाध्य किया जा सकता है या व्यावसायिक सेक्स उद्योग का भरोसा हासिल करने और वहां अपनी पूछ या पैठ बनाने के लिए वे ऐसा कर सकती हैं. ऐसा करने से महिलाओं को फायदा भी हो सकता है. उसकी कमाई में इज़ाफ़ा हो सकता है, उसको ज़्यादा आज़ादी मिल सकती है और यह भी संभव है कि सेक्स उद्योग से जुड़े उसके अंतरंग साथी उसपर ज़्यादा मेहरबान हो जाएं.

सेक्स उद्योग बहुत जटिल जगह है. देखभाल और ज़रूरत पड़ने पर मदद के साथ ही इसकी अंदरूनी दुनिया में होने वाले अपराधों को सामान्य बना दिया जाता है. मतलब अपराध भी और मदद भी. यहां महिलाओं को बलात्कार का शिकार होना पड़ता है. सेक्स के दौरान तकलीफ का सामना करना पड़ता है. परपीड़न रति से गुज़रना होता है. ग्राहकों, दलालों और अन्य लोगों द्वारा अपमानित किया जाता है. उनपर निगरानी रखी जाती है. उनको शारीरिक चोट पहुंचाई जा सकती है. उन्हें ऐसे अपराध में फंसाने की धमकी दी जा सकती है, जिससे उनका कोई लेना-देना हो भी सकता है या नहीं भी हो सकता है. अपराध संस्कृति के नियमों को तोड़ने या उनका विरोध करने पर सज़ा भी दी जा सकती है और इन सबकी वजह से वे तनाव का शिकार हो सकती हैं, यहां तक कि खुद को नुकसान पहुंचा सकती हैं या इससे भी अधिक जोखिम वाला व्यवहार कर सकती हैं.

मकान किराया, खाना, बिजली, पानी, कपड़ा, सौंदर्य प्रसाधन, बिस्तर, गर्भनिरोधक और दवा जैसी ज़्यादातर रोज़मर्रा की ज़रूरतों के लिए उन्हें पैसा खर्च करना पड़ता है, यह मुफ़्त में नहीं मिलतीं. इन चीज़ों को हासिल करने के लिए आर्थिक, शारीरिक, यौनिक या भावनात्मक रूप में कीमत चुकानी पड़ती है. इन सबके बीच में, महिलाएं संकट की स्थिति में अपनी व अपने परिवार की ज़रूरतों का ख्याल रखने, दोस्तों की तलाश, सैर-सपाटे और मनोरंजक गतिविधियों में बुलाए जाने और अपने प्रति हमदर्दी रखने वाले लोगों को पाने के लिए व्यावसायिक सेक्स उद्योग से जुड़े लोगों पर भरोसा कर सकती हैं लेकिन यही भरोसा उन्हें ‘आम लोगों’ की दुनिया में नहीं मिल पाता है. सामान्य समाज में ऐसी कोई मज़बूत समर्थन प्रणाली नहीं है जो बाहर निकलने के बाद उनकी मदद कर सके. यहां या तो उन्हें अपनी ज़रूरतों से समझौता करना पड़ेगा या यह भी हो सकता है कि सुविधा या मदद के नाम पर उन्हें कुछ मिले ही नहीं.

व्यावसायिक सेक्स से जुड़ी महिलाएं भी ‘आम लोगों’ के लिए सहज उपलब्ध तमाम सरकारी योजनाओं, जैसे कि बच्चों के लिए चाइल्ड स्पॉन्सरशिप या बाल प्रायोजना, स्वास्थ्य बीमा, आजीविका और सामाजिक सुरक्षा आदि की हकदार हैं. हालांकि इन योजनाओं तक पहुंच, योजना के लिए पात्रता साबित करने पर निर्भर करती है. चूंकि व्यावसायिक सेक्स से जुड़ी ज़्यादातर महिलाओं का अपने परिवार से कोई संबंध नहीं होता है, ऐसे में उनके लिए निवास, आय, जाति, आयु आदि के प्रमाण पत्र जुटाना या बनवाना आसान काम नहीं है. अगर वे ऐसे तमाम दस्तावेज़ जुटा भी लें तब भी सरकारी योजनाओं का लाभ पाने के लिए उन्हें संबंधित सरकारी विभागों के चक्कर लगाने होंगे जो कि उनके लिए बहुत ही मुश्किल काम है.

इसके साथ ही, सेक्स वर्कर होने का जो कलंक उनपर लगा दिया गया है, वह उन्हें ‘आम लोगों’ की दुनिया में बाहरी बना देता है.

इसका एक सटीक उदाहरण है - बलात्कार पीड़ितों के लिए चलाई जा रही योजनाओं का लाभ इन्हें नहीं मिल सकता, जबकि यह हकीकत है कि बलात्कार इनकी ज़िंदगी का हिस्सा बन चुका है.

एलिना जैसी कुछ महिलाओं का मानना है कि वैवाहिक बलात्कार तकलीफ़देह और बुरा है, लेकिन व्यावसायिक सेक्स में होने वाले अपने बलात्कार को वह अपने काम का हिस्सा मानती हैं, जिससे उनकी रोज़ी-रोटी चलती है. ग्राहकों द्वारा महिलाओं के साथ ज़बरदस्ती करने को या ऐसी यौन सेवाओं की मांग करने को जिन्हें वे नहीं करना चाहतीं शारीरिक शोषण या ज़बर्दस्ती मानने के बजाय काम का हिस्सा माना जाता है.

कुछ योजनाओं की आवेदन प्रक्रिया और शर्तें भी कलंकित करने वाली हो सकती हैं. उदाहरण के लिए, कोविड महामारी के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को यौनकर्मियों और उनके बच्चों को वित्तीय सहायता प्रदान करने का निर्देश दिया था. महाराष्ट्र के कुछ ज़िलों में इसके लिए महिलाओं को एक नोडल एजेंसी में जाकर अपना पंजीकरण कराना ज़रूरी था. यह नोडल एजेंसी व्यावसायिक सेक्स से जुड़ी महिलाओं के लिए काम करती थी और इसका कार्यालय भी ऐसी ही महिलाओं की बस्ती के नज़दीक था. वहां जाना वैसी महिलाओं के लिए सचमुच बहुत ही मुश्किल और चुनौतीपूर्ण था जो व्यावसायिक सेक्स की दुनिया से बाहर निकल चुकी थीं. एक डर यह भी था कि अगर वे नोडल एजेंसी चली भी गईं और वहां अपना पंजीकरण करा भी लिया तो बाद में नोडल एजेंसी के लोग जांच-पड़ताल के लिए उनके घर तक पहुंच सकते हैं और इस तरह उनके घरवालों को उनके अतीत का पता चल सकता है. यही कारण है कि वित्तीय संकट की शिकार होने के बावजूद कुछ महिलाओं ने वित्तीय सहायता के लिए आवेदन ही नहीं किया.

आज भी राज्य द्वारा संचालित ऐसी कोई समुदाय-आधारित योजना नहीं है, जो बाहर निकलने के दौरान इन महिलाओं को मदद उपलब्ध करा सके. वर्तमान में जो कानून और योजनाएं हैं वे ऐसी महिलाओं को महज़ अस्थाई सुरक्षात्मक कस्टडी प्रदान करती हैं, जिसका मतलब है – ऐसे संस्थानों में आश्रय उपलब्ध कराना जो अक्सर चारदीवारी से घिरे होते हैं. वहां ज़्यादा लोग मिलने-जुलने नहीं आ सकते और उनपर निगरानी भी रखी जाती है. अपनी मर्ज़ी से बाहर घूमने जाने के लिए महिलाओं को कारण बताना होता है. इन संस्थानों के अंदर, उन्हें तनाव से बचाने के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम और दूसरी गतिविधियों का संचालन किया जा सकता है. हालांकि, विभिन्न देशों की तरह, इन संस्थानों में महिलाओं को जो सुविधाएं मिलती हैं, बहुत हद तक हिरासत जैसी व्यवस्था के समान होती हैं और वैसे ही नियम-कायदों से संचालित होती हैं.

महिलाओं का मानना है कि वे मदद की हकदार हैं न कि इस तरह के दान की जो उन्हें एक मांगने वाली स्थिति में धकेलता है. अक्सर वे ऐसे संस्थान को जेल ही मानती हैं.

यही कारण है कि ऐसी संस्थाओं को वे अंतिम विकल्प के रूप में देखती हैं. हालांकि कुछ महिलाएं ऐसी भी हैं जो इन संस्थानों में खुद को सुरक्षित महसूस करती हैं. वे इन संस्थानों को एक ऐसी जगह के रूप में देखती हैं, जहां उन्हें अपने दुखद अतीत से छुटकारा पाने और बेहतर भविष्य की योजना बनाने का मौका मिलता है.

संस्थागत ढांचे से बाहर निकलने के बाद महिलाओं की बुनियादी ज़रूरतों, जैसे कि मकान का किराया, शिक्षण/प्रशिक्षण/रोज़गार स्थलों तक आने-जाने पर होने वाला खर्च, शिक्षा और प्रशिक्षण के माध्यम से वैकल्पिक रोज़गार के काबिल बन जाने तक उनकी और उनके बच्चों की रोज़मर्रा की ज़रूरतों की पूर्ति का किसी भी विशेष योजना में ख्याल नहीं रखा गया है. दुर्भाग्य से, सरकारी सुधार गृहों के कर्मचारियों के पास ऐसे साधन नहीं है कि वे यहां से बाहर निकलने के बाद ज़रूरत पड़ने पर महिलाओं की मदद कर सकें.

समय-समय पर हम ऐसे संस्थानों के कर्मचारियों, पुलिसकर्मियों, न्यायालय के अधिकारियों के बारे में सुनते हैं. नागरिक समाज एजेंसियां जो उनसे संपर्क कराती हैं और जिन्होंने ऐसी महिलाओं तक पहुंचने और उन्हें गैर-सरकारी एजेंसियों से जोड़ने के लिए ठोस प्रयास किए हैं और जो इन महिलाओं को हिंसा की दुनिया से बाहर निकल कर नए सिरे से ज़िंदगी  शुरू करने में मदद कर रही हैं. ऐसी महिलाएं, जिन्होंने व्यावसायिक सेक्स की दुनिया से बाहर निकलने का काम किया और फिर दोबारा उस दुनिया में नहीं लौटीं, उन्हें फिर से हुनर सीखने, अकेलेपन की भावना को कम करने, ज़रूरत पड़ने पर चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने, उनके बच्चों का भविष्य संवारने के लिए लम्बे समय तक बाहरी मदद मिलती रही है. कई बार तो ऐसा भी हुआ है कि उन्हें एक ऐसा साथी मिल गया जो हर सुख-दुख में उनके साथ खड़ा रहा है.

बाहर निकलने वाली सभी महिलाओं के लिए ज़िंदगी के मतलब एक जैसे नहीं होते. कुछ के लिए निकलने के बाद की ज़िंदगी का मतलब अपने दम पर ज़िंदगी जीने में सक्षम होना, अपनी अलग पहचान बनाना, सुरक्षित और शांतिपूर्ण जीवन व्यतीत करना, लोगों की सेवा करना और खुद को सशक्त महसूस करना है. लेकिन बहुतों के लिए इसका मतलब अन्याय, बेबसी, चिंता और निराशा भरी जिंदगी जीना भी है. ऐसी महिलाओं के मुंह से यह सुनना असामान्य बात नहीं कि उनके साथ तस्करों या बलात्कार करने वाले ग्राहकों ने नहीं, बल्कि परिवार, कानून लागू करने वाली एजेंसियों, संस्थागत कर्मचारियों और नागरिक समाज ने अन्याय किया है. उन्हें उनकी ज़रूरत के हिसाब से नहीं, बल्कि इन सामाजित संस्थाओं के पास जो उपलब्ध है वही चीज़ें दी जाती हैं. दिक्कत यह है कि महिलाओं को हिंसा से मुक्ति दिलाने की न्याय प्रणाली की जो मंशा है, वह मनोवैज्ञानिक सुरक्षा प्रदान करने वाली मंशा में तब्दील नहीं हो पाती है. इसमें प्रमुख रूप से सामाजिक नियंत्रण, जीवन-यापन के आधे-अधूरे विकल्प, प्रक्रियाओं द्वारा सामाजिक रूप से बहिष्करण आदि शामिल हैं. एलिना के विचार भी अन्य महिलाओं द्वारा साझा किए गए विचारों से अलग नहीं हैं,

यह बात अब मुझे परेशान नहीं करती कि मेरे साथ बलात्कार हुआ था. मैं इस बात से भी परेशान नहीं होती कि मुझे बेच दिया गया था. मैं उन बातों को लगभग भूल चुकी हूं. लेकिन जो बात मुझे याद है, वह यह है कि यहां से बाहर की दुनिया सुरक्षित नहीं है. जब छोटी थी तो वह आदमी मुझे घूरता था. जैसे ही उसने देखा कि मैं बड़ी हो रही हूं, उसने मौके का फ़ायदा उठा लिया. मेरे अपने ही परिवारवालों को लगा कि मैं किसी के साथ भाग गई हूं और इसीलिए उन्होंने मुझे तब तक नहीं अपनाया, जब तक कि मैं अपना और उनका भरण-पोषण करने के काबिल नहीं हो गई. आज जिन लोगों पर मुझे भरोसा है वह सभी इस दुनिया [व्यावसायिक सेक्स] का हिस्सा हैं, उस दुनिया के नहीं. मुझे पुलिस से डर लगता है, हालांकि मैं जानती हूं कि मुझे डरने की ज़रूरत नहीं है. लेकिन मुझे डर है कि मेरे अतीत के कारण मेरे साथ अलग व्यवहार किया जा सकता है. मुझे मदद की पेशकश करने वाले लोगों पर भी शक होता है.

जब मैं पीएच.डी. कर रही थी, तब शोध में शामिल एक महिला ने बताया था कि समाज में महिलाओं की स्थिति उनकी आय और/या उनके रिश्तों से बनती-बिगड़ती है. महिलाओं की यही तो मांग है कि समुदायों में नए सिरे से अपनी ज़िंदगी दोबारा शुरू करने का उन्हें मौका दिया जाए, फिर से कौशल सीखने के लिए, वैकल्पिक सामाजिक नेटवर्क विकसित करने के लिए, रोज़गार तलाश करने और पिछले आघात से उबरने के लिए पर्याप्त आर्थिक मदद मुहैया कराई जाए.

मेरे शोध प्रबंध में यह स्पष्ट है कि महिलाओं के लिए हिंसा मुक्त जीवन सुनिश्चित करने के लिए तीन महत्त्वपूर्ण चीज़ों पर ध्यान देना ज़रूरी है – एक ऐसा स्थाई आश्रय, जहां का माहौल स्वस्थ्य और प्रोत्साहित करने वाला हो, शांति और सुकून हो, कहीं भी आने-जाने की आज़ादी हो, जहां खुद पर हक हो. ऐसे साथियों के साथ रिश्ता हो जो व्यावसायिक सेक्स से महिला की होने वाली आमदनी पर आश्रित न हों, और जो उस महिला के अतीत से मनोवैज्ञानिक रूप से अप्रभावित रहने में सक्षम हों. और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि उस महिला के पास काम करने का अवसर हो. इन तीनों क्षेत्रों में काम के लिए पर्याप्त समय और संसाधन की ज़रूरत है.

हमें एक ऐसे समाज की ज़रूरत है जो महिलाओं को इससे बाहर निकालने में निवेश कर सके. ऐसी विशेष योजनाओं और कार्यक्रमों की आवश्यकता है जो व्यावसायिक सेक्स की दुनिया से बाहर निकलने के लिए रास्ता तलाशने में महिलाओं की मदद कर सके. इस ज़िम्मेदारी का बोझ हममें से उन सभी लोगों पर होना चाहिए जो बाहर निकलने को सुविधाजनक बनाने का दावा करते हैं. जब तक ऐसा नहीं होता, तब तक एलीना का सच ‘सामान्य समाज’ के सच को झुठलाता रहेगा. सभी कहानियां अंततः एक ही इच्छा के इर्द-गिर्द घूमती हैं और वह इच्छा है – एक न एक दिन व्यासायिक सेक्स की दुनिया से बाहर निकलना और आम लोगों की दुनिया में दाखिल होना. जो महिलाएं बाहर निकलने की इच्छा रखती हैं, उनतक पहुंचने के लिए क्या करने की ज़रूरत है – इस बारे में ज़रूरी दिशा-निर्देशों की कोई कमी नहीं है. वे महिलाएं जो कभी व्यावसायिक सेक्स की दुनिया में थीं या आज भी उसी दुनिया में हैं, वे हमें बता सकती हैं कि बाहर निकलने की इच्छा रखने वाली महिलाओं को किन चीज़ों की ज़रूरत है और हमें उनकी मदद करने के लिए क्या करना चाहिए. पहला सवाल तो यह है कि क्या हम इतने मज़बूत हैं कि उनकी बातें सुन सकें? यह तो बाद का सवाल है कि फिर किसके सच को माना जाएगा?

इस लेख का अनुवाद अकबर रिज़वी ने किया है.

सेंटर फॉर क्रिमिनोलॉजी एंड जस्टिस (सीसीजे), स्कूल ऑफ सोशल वर्क (एसएसडब्ल्यू), टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टीआईएसएस) में प्राध्यापक के पद पर कार्यरत शेरोन मेनेज़ेस, इसी संस्थान की एक परियोजना प्रयास की संयुक्त परियोजना निदेशक भी हैं. यह आलेख उन महिलाओं के जीवन और विचारों पर आधारित है, जिनसे शेरोन अपने पीएच.डी. शोध के दौरान कभी मिली थीं. उन महिलाओं के विचार आज भी शेरोन की समझ को आकार देने में अपनी भूमिका बखूबी निभा रहे हैं.

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