शब्दों की आड़ में
मेरी एक छात्रा हुआ करती थी जो बहुत कम बोलती थी. बस उतना ही बोलती जितने की उसे ज़रूरत होती, वो भी काफी कम. ऐसा नहीं है कि उसे बोलने से डर लगता था या वह संकोची रही हो. बस अपने शब्दों को लेकर वह इतना सतर्क रहती थी कि जब तक समझ न आए क्या बोलना है, वह चुप रहती थी.