बलकट्टी-परकट्टी

कहानियों के ज़रिए सामाजिक रिश्ते की ख़ूबसूरती और खोखलेपन दोनों को ज़ाहिर करने की कोशिश.

चित्रांकन: आकृति अग्रवाल

एक शहर में जाने कितने क़िस्से होते हैं! कुछ क़िस्से हममें होते हैं और कुछ क़िस्सों में हम होते हैं. पटना में रहनेवाली स्वाती को कहानियां सुनना-सुनाना पसंद है. वे रोज़मर्रा की ठेठ कहानियों को पटनहिया अंदाज में सजाकर हमारे सामने ला रही हैं. स्वाती इन कहानियों के ज़रिए कुछ बेड़ियों को टटोलती हैं और उन्हें चुनौती देती हैं.

पटनावाली की दूसरी क़िस्त में स्वाती हमें मिला रही हैं ‘संस्कारानंद’ से जिनकी तर्क-विद्या से आपके भी होश उड़ जाएंगें. एक ट्रेनिंग के दौरान 16 साल के लड़के से हुई मुलाक़ात और उसकी परेशानी का कारण जानने के बाद यह कहना अतिश्योक्ति नहीं कि महिलाओं को अपनी पसंद के कपड़े पहनने, बाल कटवाने या कहीं आने-जाने जैसी छोटी-छोटी आज़ादियों के लिए कई सवालों का जवाब देना पड़ता है.

तो सुनिए संस्कारानंद की परेशानी पर पटनावाली ने क्या जवाब दिया – सुनकर आप भी कहेंगे, ये केवल पटनावाली की कहानी नहीं, हम सभी की कहानी है…पेश है कहानी बलकट्टी-परकट्टी.

“मैडम जी, आप बाल छोटा काहे रखती हैं?”

हम पलटकर देखे. सोलह बरस का संस्कारानंद मेरे सामने खड़ा था. चौड़ी कद काठी, लम्बाई लगभग पांच फुट सात इंच. बालों में गमकता सुगंधित तेल. तेल की चमक चेहरे पर फैलती हुई और बाल सीधे ललाट पर गिरते हुए. कान थोड़े बड़े. नाक में भी थोड़ा फैलाव. सामने के दो दांत बाहर की ओर आते हुए. मुस्कुराने पर दोनों दांत नीचे के होंठ पर ठहर जाते. ललाट पर लाल टीका और उस पर चन्दन का टीका और उस पर चिपके चावल के दो दाने!

संस्कारानंद के इस सवाल से हम अकबका गए. जी में आया कि कहें ‘ये कैसा सवाल है, मेरी मर्ज़ी!’ पर उसका मुस्कुराता चेहरा देख अपने आप को रोक लिए.

“हमको पसंद है इसलिए.” हम मुस्कुरा कर बोले.

“पर “मैsssडम लम्बा रखिएगा तो और अच्छा लगिएगा.” यह कहकर वो थोड़ा और मुस्कुराया.

“पर हमको छोटा ही अच्छा लगता है. इससे किसी को कोई नुकसान तो नहीं है न!” अभी तक हम भी मुस्कुरा ही रहे थे.
“सो तो नहिए है… लेकिन आप अगर लंबा बाल रख लीजिएगा तो उससे भी कोई नुकसान थोड़े ना है! समाज में ऐसा ही होता है मैडम! हम लोग छोटा बाल रखते हैं और लेडीज लोग लम्बा बाल.” मेरे सामने खड़ा वो बहुत सादगी से मुस्कुराता हुआ अपनी बात के लिए तर्क दे रहा था.

“तुम्हारे लिए कोई और नियम मेरे लिए कोई और नियम, काहे?”

“मैडम जी! समाज चाहता है लेडीज लोग सुंदर लगे इसलिए ऐसा नियम बनाया.” बड़ी गम्भीरता से वो बोला.

"क्यों? क्यों हर समय हमको सुंदर देखना चाहता है समाज? औरत को ज्ञानी क्यों नहीं देखना चाहता ये समाज? और अगर कोई औरत सुंदर नहीं दिखना चाहे तो?" हम अब थोड़ा खीझने लगे थे.

“मैडम जी, सब कोई अगर अपने-अपने बारे में तय करने लग जाए तो समाज चलेगा कैसे? और परंपरा बचेगा कैसे? अच्छा एगो बात बताइए, आप अच्छा लगिएगा तो आप ही को न अच्छा लगेगा.” एकदम शांत भाव से वो बोला. “अच्छा लगेगा…? अरे! हमको या बाक़ी औरत लोग को क्या अच्छा लगता है ये समाज को कैसे पता चल गया भई? और क्या सच में हमारा समाज औरत और लड़की सब की इतनी परवाह करता है?” मेरी खीझ थोड़ी और बढ़ गई.

इस बात पर वो कुछ नहीं बोला. चुप खड़ा रहा. हम अब थोड़ा नरम होकर बोले “फोगाट बहनों का नाम सुने हो ना! और इंदिरा गांधी का भी नाम सुने होगे. देश का नाम इन लोग का बाल रौशन किया कि इन लोग का काम रौशन किया? ये सब छोटे बाल वाली हैं.” ये कहते हुए हम हंस पड़े. “मैडम! बाल से लेकिन सुंदर दिखते हैं.” वो अपनी बात पर एकदम अड़ा हुआ था.

“कितनी औरत का बाल उनके पति के मर जाने के बाद छील दिया गया और अभी भी छील दिया जाता है. समाज उनको सुंदर नहीं देखना चाहता? काहे? किसी औरत को कहता है बाल लंबा रखो, किसी को कहता है बाल छोटा रखो. बस अपने मन से बाल मत रखो! तुमसे भी यही समाज कहता है बाल छोटा रखो. तुम अगर लंबा बाल रखना चाहो तो तुम भी लंबा बाल नहीं रख सकते.” हमने तर्क दिया.

“हमको लंबा बाल रखना ही नहीं है मैडम तो हम काहे रखेंगे?” उसने तुरंत स्पष्ट किया. “हूं! इसी तरह अगर कोई औरत लंबा बाल नहीं रखना चाहे तो उसपर ज़बरदस्ती करना भी तो ठीक नहीं! और अगर किसी औरत को बाल छीलना हो तो?” हम चुटकी लेते हुए पूछे. “नsssहीं मैडम कोई भी लेडीज अपने मन से बाल नहीं छीलेगी!” उसकी लगभग चीख़-सी निकल पड़ी.

“पर जब तुम्हारा मन करता है तुम तो टकले हो जाते हो. तब तुमको ना तो कोई कुछ बोलता है ना कोई चिढ़ाता है. तुम टकले भी हो जाओ तो कोई परेशानी नहीं और हम बाल छोटा करा लें तो बलकट्टी कहलाएं!” हम हंसकर कहा. “मैडम जी! पर हम तो आपको बलकट्टी नहीं ना बोले. मैडम जी, औरत का लंबा बाल हमारे समाज का संस्कार है.” उसने दुख प्रकट किया और बाल की बात पर फिर से अड़ गया.

खाने की व्यवस्था कमरे से बाहर थी. अगला सत्र शुरू होने में बस दस मिनट ही बाक़ी था. हम जल्दी से बाहर निकलते-निकलते बोले, “बंदर हमारे पूर्वज थे… पर अब हम तो हम बंदर नहीं हैं न! पुराने ज़माने का आदर्श कुछ और था इस नए ज़माने में हम नए ज़माने का आदर्श गढ़ रहे हैं.”

इस तर्क-वितर्क के बाद संस्कारानंद थोड़ा कंफ्यूजियाया हुआ दिख रहा था. हम जानना चाहते थे कि उसके मन में क्या चल रहा था… पर उसके चेहरे के भाव से कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. अभी भी वो पहले की तरह ही अपने विचारों पर तटस्थ दिख रहा था.

पटना में रहनेवाली स्वाती को कहानियां सुनना और सुनाना पसंद है. इन कहानियों में समाजी रिश्ते के ताने-बाने को, उसकी विविध छटाओं को वे सामने लाती हैं. इन्हें आप मनबताशा ब्लॉग और यूट्यूब चैनल पर भी पा सकते हैं. उनके बिहारी अंदाज़ में ऐसी ही कुछ कहानियां पेश हैं.

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