शोकनाच

शहर के भीतर के संघर्षों और उससे बाहर निकलने की कहानी.

चित्रांकन: ज्योत्सना सिंह (@jyojondhar)
शहर ख़ुद में क्या महसूस करता है. शहर के भीतर तमाम तरह की घटनाएं रोज़ होती हैं. कुछ इतिहास बन जाती हैं और कुछ के साथ हम वर्तमान में जीते रहते हैं. इन घटनाओं का शहर के मन पर क्या असर होता है? पढ़िए शहर में रहने वाली और उसके दो साथियों – हवा और उदासी के बीच की बातचीत.

एक समय की बात है, एक भयावह और बेपरवाह उदासी आई, और आकर शहर के रोम-रोम में बस गई. वह वहां के चुप मकानों की नंगी दीवारों पर छा गई, ऊबड़-खाबड़ फुटपाथों की दरारों में भर गई, और ऊबकर फुसफुसाते हुए बोली अब कौन परवाह करता है? उदासी हर जगह जम गई: जुराबों में; टोपियों में; पानी-भरे गड्ढों की सतरंगी चिकनाहट में; लोगों की आंखों में; यहां तक कि उनके पैरों के अंगूठों के बीच भी.

अब शहर के पक्षियों की पुकार में भी उदासी थी, और सूखी पत्तियों की सरसराहट में भी. उसने वहां सब कुछ ढक दिया: पुलिस की गाड़ियों के चीखते साएरन, चलते एयर-कंडिशनरों की घूम-घूम, और सफ़ेद रंग की वह पुताई, जो विश्वविद्यालयों की दीवारें कफ़न की तरह ओढ़े रहती थीं. उदासी हर जगह पंचर पहिए की भाती दबकर बैठ गई, और बोली किसी को नहीं पड़ी कि तुम क्या सोचते या बोलते हो.

वह भयावह और बेपरवाह उदासी ख़ुद भी बहुत डरी हुई थी. उसके भीतर उदारता बिल्कुल नहीं थी. वह हमेशा डरी-डरी और भूखी रहती और इस तरह वह और बड़ी होती चली गई जब तक कि वह शहर की हवा में न घुल गई.

शहर की हवा के भीतर बहुत कुछ होता है. कभी वो स्थिर, नम, और बहुत ही अप्रिय महसूस होती है जैसे कोई ज़रुरत से ज़्यादा ही देर गले लग रहा हो. बेअदब तरीके से थपथपा रहा हो, जैसे धुएं और गर्म भाप में दम घुट रहा हो. तो, कभी वह सड़कों-सड़कों धूल के साथ नाचती हुई, चहकती, मटकती बारिश के आने की ख़बर देती. उसकी बातों में सुकून और भीगी घास की महक होती. उसकी बांहों में बेफिक्र शहर आंखें बंद कर लेता है.

चहकती, महकती हवा और भी बहुत कुछ हुआ करती थी, पर, अब जब उदासी ने उसके पंखों को जकड़ लिया है, वो निष्क्रिय हो गई है. अब वो ऐसा कुछ नहीं करती जैसा पहले वो किया करती थी.

वो दौड़ती हुई बरामदे में रखे अख़बार को छेड़ती और उसके साथ खेलने लगती थी, अब ऐसा करते ही उदासी उससे कहती, ‘क्या फ़र्क़ पड़ता है?’ उदासी की बात सुनते ही अख़बार की फड़फड़ाहट एकाएक रुक गई, और हवा नीचे गिर गई.

हवा बगीचे में ये सोचकर गई कि एक पेड़ की लम्बी शाखाओं पर लगे उसके फलों को झकझोर कर गिरा देगी, पर यहां भी विलाप का बोझ लिए उदासी ने उसकी बांहों को ज़ोर से पकड़ लिया, कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता. हवा एक पत्ता भी न हिला पाई. वहां से हवा एक पुराने घर की खिड़की पर जा उड़ी, सोचा कि उसकी सरसराहट से घर की बिल्लियां हरकत में आ जाएंगी, मगर उदासी वहां भी उसपर हावी रही, और उसे वहां से भी चुपचाप लौटना पड़ा.

आख़िरकार, हवा एक छोटी लड़की के पास आई जो पैर पटकते हुए अपनी मां के पीछे-पीछे कहीं जा रही थी. हवा ने उसे गुदगुदी कर हंसाना चाहा. लेकिन जब तक वह उस बच्ची के नज़दीक पहुंची, उसके भीतर उदासी इतनी गहरी हो गई कि वह उस छोटी लड़की को हंसाने की बजाए एक आह जैसी आवाज़ ही निकाल पाई. लड़की ने पीछे मुड़कर उसकी तरफ़ देखा, लड़की की आंखों में आंसू दिख रहे थे.

हवा थक कर ज़मीन पर गिर गई. वह रेंगते हुए एक कचरे के ढेर तक जा पहुंची और कुछ प्याज़ के छिलकों को उड़ाती हुई, उदासी से अपनी मुक्ति की विनती करने लगी, “तुम्हे अपने अंदर लिए मैं कैसे हवा रह पाउंगी? मैं एक आह भर बनकर रह जाउंगी!”

उदासी पर हवा की बात का कोई असर नहीं हुआ. अपनी जगह से थोड़ा सा खिसक कर वह बोली, “तुम्हारा कोई महत्त्व नहीं है.” और प्याज़ के छिलके ऐसे उड़े मानो उदासी का समर्थन कर रहे हों.

“क्या तुम नहीं देख रहीं…” हवा ने रोते हुए कहा, “शहर को मेरी ज़रुरत है. वो मैं ही हूं जो उस थके हारे आदमी को तसल्ली देती है जो सीमेंट की टूटी छत पर भीतर से जलता हुआ जाम पीता है.

मैं ही स्कूल ख़त्म होने के बाद शटलकॉक के साथ खेलती हूं. ढलते सूरज के साथ अटखेलियां करती हूं. मेरी यहां ज़रुरत है. क्या तुम ये सब देख नहीं पातीं? अगर, मैं नहीं रहूंगी तो कौन भौंहों से टूट कर प्रेमियों के गालों पर ठहरने वाली पलकों को उड़ाएगा? कौन तूफ़ानी रातों में बारिश के साथ नाचेगा?

तुम्हारा भारीपन उठाए मैं किस काम की?”

इतना कुछ सुनकर भी उदासी पर जूं तक नहीं रेंगी, अपनी आंखें बंद कर वह बड़बड़ाई, “किसे पड़ी है तुम क्या करती हो!”

“परवाह है, शहर परवाह करता है!”, हवा ज़ोर से चिल्लाई. “सड़कों पर इकट्ठा होकर लोगों को ये समझाने वाले कि ‘अपने पागल शासक से सतर्क रहो’ के पैर मैं ही सहलाती हूं, मैं ही टूटी-फूटी कब्रों से उनके बुलंद शब्दों को सब जगह बीजों की तरह फैलाती हूं. मैं ही…”

हवा बोलती रही. उदासी ने अपनी अधखुली आंखें खोल चरमराते हुए करवट ली, और फुसफुसाते हुए बोली, “तुम्हें लगता है तुम बहुत महान काम करती हो”. उसकी आवाज़ इतनी हल्की थी जैसे हवा में बहते कटे हुए पंख, जैसे दोस्तों के बिना कोई छोटा बच्चा. “तुम जो करती हो उसका कोई अर्थ नहीं है, न ही यह किसी परिणाम तक पहुंचता है.”

“मैं…”. हवा ने कहा, “मेरा वो मतलब नहीं था.”

किसी को फ़र्क़ नहीं पड़ता, यह कहते उदासी अपनी आंखें बंद कर हवा के पंखों में सो गई.

“तुम जो कह रही हो, इससे किसी को कोई मतलब नहीं है”,  हवा के मुंह से शब्द निकले, “कोई तुम्हारी चिंता नहीं करता.” हालांकि, हवा को पता था कि उदासी उसकी बातें नहीं सुन रही. वह जितना बोल रही थी उसे उतना ही लग रहा था कि उसके शब्द उसका साथ छोड़ रहे हैं, फ़िर भी वह बोलती रही.

उदासी ने ऊबकर एक जम्हाई ली.

"एक हवा कितनी चीज़ें हो सकती है. एक फड़फड़ाहट, एक झोंका, एक उम्मीद."

उदासी खर्राटे लेकर सोती रही. हवा ने उसकी आलसी सांसे एक-एक कर उठाईं और अपने पंखों में भरने लगी. चुपचाप, सावधानी से, उसने भागने की कोशिश की. तभी फटी कमीज़ पहने एक आदमी अपने गाल पर से पसीना पोंछता हुआ कचरे के ढेर के पास आया. खर्राटों से भरी हवा ऊपर उठ, फ़ुदक कर, खड़ी हो गई. क्या ये सच था, जो उसने अपने पैरों में महसूस किया? और अचानक उदासी नाक सुड़कते हुए छींकी.

काफ़ी था! इतना काफ़ी था हवा के लिए. उसके दिल के सब कोमल और ताज़े भाव, जो भरोसा करना जानते थे और उसे नर्मी देते थे, उन सब को समेट हवा ने पसीने पोंछते उस आदमी को चूम लिया.

‘एक हवा कितनी चीज़े हो सकती है. एक फड़फड़ाहट, एक झोंका, एक उम्मीद.’, हवा ने उड़ते हुए , अपने परों में आज़ादी के ख़्याल लिए, सोचा.

लेखक, संपादक एवं पत्रकार पार्वती शर्मा ने अंग्रेज़ी साहित्य और भारतीय इतिहास विषय में अपनी पढ़ाई पूरी की है. उनकी प्रकाशित किताबों में एतिहासिक जीवनी ‘जहांगीर एन इंटिमेट प्रोट्रेट ऑफ़ ए ग्रेट मुग़ल’; ‘डेड कैमल और अदर स्टोरीज़ ऑफ़ लव’ एवं अन्य शामिल हैं. बच्चों के लिए लिखी गई उनकी किताब ‘द स्टोरी ऑफ़ बाबर’ उनकी चर्चित पुस्तकों में से एक है.

इस लेख का अनुवाद अपूर्वा सैनी ने किया है.

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