सहयोग : आर्या पाठक
“19 अप्रैल, रात 11 बजे फ़ेसबुक ग्रूप पर आए एक मेसेज पर मेरी नज़र रूकी. मैंने देखा वो मैसेज एक घंटे पहले लिखा गया था. रिक्वेस्ट लखनऊ से आ रही थी. उन्हें अपने एक करीबी के लिए अस्पताल में ऑक्सीजन बेड की ज़रूरत थी. उनका रिक्वेस्ट था ‘कोई भी जानकारी हो तो बताएं.’
मैंने तुरंत दिए गए कॉन्टैक्ट नंबर पर संपर्क करके, अपने डेटाबेस के ऑक्सीजन बेड की उपलब्धता वाले नंबर भेज दिए. उनका जवाब आया, “यहां नहीं हैं, पता कर लिया. ख़ैर, मेरे पास और भी कुछ नंबर्स हैं मैं वहां पता करने की कोशिश करती हूं.” मैंने कहा, “ठीक है.” इस बीच 12.30 बज चुके थे. लैपटॉप बंद कर मैं सोने चली गई. बिस्तर पर लेटे-लेटे बहुत अनमना-सा महसूस कर रही थी. अगर उन्हें कोई बेड नहीं मिला तो क्या होगा? मरीज़ एम्बुलेंस में इलाज के इंतज़ार में है.
मैं उठकर कमरे से बाहर आ गई. ड्राइंग रूम के कमरे की बत्ती जलाकर लैपटॉप खोलकर बैठ गई. सोशल मीडिया के ज़रिए जितने वैरिफाइड लीड मिल रहे थे, ढूंढ-ढूंढ कर उन्हें भेजन लगी. 4 बज गए. लखनऊ में ऑक्सीजन बेड की तलाश अभी भी जारी थी. निराशा हो रही थी. सुबह 7 बजे उन्हें लखनऊ के एक अस्पताल में बेड मिल गया लेकिन तब तक मरीज़ की हालत और ख़राब हो चुकी थी.” दिल्ली की रहने वाली सुमन परमार बातचीत के दौरान ऐसी कई घटनाओं का ज़िक्र करती हैं. वे पिछले कई दिनों से प्लाज़मा डोनर फ़ेसबुक ग्रुप और कई दूसरे समूहों के साथ जुड़कर बतौर वॉलिन्टियर काम कर रही हैं.
दिल्ली जैसे महानगर में सरकारी हेल्पलाइन नंबर तक नहीं है. सोशल मीडिया के ज़रिए वॉलिन्टियर्स हताश परिवारों के लिए अस्पताल में बेड. आईसीयू, ऑक्सीजन से लेकर दवाइयां, खाना...हर तरह की मदद कर रहे हैं. हम आम नागरिक हैं, बस!”
कोरोना की दूसरी लहर में जब लाखों की संख्या में लोग बीमार होते गए और अस्पताल में बेड और ऑक्सीजन की कमी होने लगी तब हमें समझ आया कि हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है. ये कुछ दिन, महीनों या पिछले डेढ़ साल की बात नहीं बल्कि वर्षों से कम बजट और सरकारी उपेक्षा के चलते पब्लिक हेल्थ सिस्टम ख़ुद वेंटिलेटर पर है. जब हमारा हेल्थ सिस्टम ही ख़ुद वेंटिलेटर पर है तो वो क्या जान बचाने में काम आएगा? लोग जीवन रक्षक ऑक्सीजन न मिलने की वजह से मरने लगे…
हताशा में अपनों की जान बचाने के लिए आम नागरिकों ने सोशल मीडिया के ज़रिए मदद मांगनी शुरू की. शायद किसी देश के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ होगा कि उस देश के बड़े-बड़े अस्पतालों ने ट्विटर के ज़रिए ऑक्सीजन की कमी को लेकर मदद मांगी. कई डॉक्टरों ने मदद की गुहार लगाने के लिए पहली बार अपना ट्विटर अकाउंट बनाया.
कई रातें ऐसी भी थीं जब दिल्ली के कई बड़े अस्पतालों में ऑक्सीजन ख़त्म हो जाने या लो फ्लो ऑक्सीजन की वजह से कई परिवारों ने अपने क़रीबियों को खो दिया.
लोगों की सहायता से एनजीओ द्वारा गाड़ियों के पार्किंग लॉट में ऑक्सीजन लंगर की व्यवस्था, देर रात हाई कोर्ट में ऑक्सीजन सप्लाई को लेकर बहस, श्मशानों में 24 घंटे जलती लाशों से उठती लपटें ये इस शहर की ही नहीं, बल्कि देश की हालत बयान कर रहे हैं.
दिल्ली में कई पार्कों को श्मशान घाट में तबदील कर दिया गया. यहां तक की जानवरों के श्मशान घाट में इंसानों का अंतिम संस्कार किया जाने लगा. सत्ता के शहर दिल्ली में जहां ‘तू जानता है मैं कौन हूं?’ किसी की निजी पहचान का आधार होता है, वहां मौत के आगे सब बराबर हो रहे हैं. पैसा और पहचान भी अस्पताल में एक बेड दिलाने में नाकामयाब साबित हो रहे हैं. कोरोना की दूसरी लहर इतनी तीव्र और भीषण है कि आम आदमी से लेकर डिप्लोमैट्स, मंत्री, जज, बिजनेस मैन, मज़दूर सभी ऑक्सीजन सिलेंडर, कंस्नट्रेटर, अस्पताल बेड के पीछे भागते-दौडते नज़र आ रहे हैं. हर कोई मदद के लिए गुहार लगा रहा है अकेले या साथ-साथ.
कोविड 19 बीमारी के फैलने से पहले तक सोशल मीडिया कविताओं, शेरो-शायरी या बहस मुबाहिसे की जगह हुआ करता था. किसे पता था कि जल्द ही लोगों की टाइमलाइन दरियागंज, निज़ामुद्दीन, शाहीन बाग के ऑक्सीजन सिलेंडर सप्लायर्स की दुकानों की तस्वीरों और उनके फ़ोन नंबरों से अटी पड़ी होंगी. प्लाज़मा डोनर की तलाश हो या पूर्वी दिल्ली में अकेले रह रहे कोविड के मरीज़ के लिए खाना उपलब्ध करवाने की ज़रूरत, हर एक ‘मदद की पुकार’ सुनकर कोई अनजान व्यक्ति आगे आ जाता. 24 घंटे हर दिन, हर वक़्त दवाइयों से लेकर एम्बुलेंस का इंतज़ाम, यहां तक की अंतिम संस्कार तक करने की गुज़ारिश सोशल मीडिया के ज़रिए पूरी होने लगी.
सोशल मीडिया के ज़रिए मदद करने वाले वॉलिन्टियर्स के ग्रूप में ज़्यादातर कॉलेज के स्टूडेंट, एक्टिविस्ट्स, वर्किंग प्रोफेशनल, अलग-अलग ग्रुपों से जुड़ी महिलाएं, पेरेन्ट्स टीचर नेटवर्क ग्रुप से जुड़े लोग शामिल हैं. एक ज़िद्दी धुन की तरह ये वॉलिन्टियर्स उस समय लोगों की मदद करने के लिए आगे आए जब महामारी में हमारी ख़ुद की चुनी हुई सरकारों ने हमें अकेला छोड़ दिया.
दूसरी लहर ने हमारे आस-पास की जगहों को अपनी चपेट में लेना शुरू किया तो हमें लगा कि एक क्लिक की दूरी पर नंबर्स हैं, अस्पताल या सप्लायर्स से बात करनी है और मरीज़ को बता देना है, बस इसमें मुश्किल कुछ नहीं. उस वक़्त तक सोशल मीडिया ऑक्सीजन सिलेंडर कहां मिलेगा, रीफिल सेंटर, प्लाज़मा डोनर्स के नंबर, डॉक्टरों के नंबर, दवा दुकानों की जानकारी और ज़रूरी दवाइयों की उपलब्धता से संबंधित इंफोरमेशन से अटा पड़ा था. बड़े-बड़े ‘गूगल डॉक’ इधर से उधर सेकेंड्स में फॉर्वर्ड हो रहे थे. ये सब कुछ विश्वास और उम्मीद जगाने जैसा था.
इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं ..टूं..टूं...
7 मई को भारत में 24 घंटे में 414,188 पॉजिटिव कोविड केस रिकॉर्ड किए गए. 18 मई को एक दिन में कोविड से मरने वालों की संख्या 4329 थी. ये भारत में एक दिन में रिकॉर्ड किया गया सबसे ज़्यादा नंबर था.
साइंस कहता है कि गर्मियों में रातें छोटी होती हैं. लेकिन 2021 मई की रातें ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहीं. ऐसी ही एक रात में दिल्ली से 1421 किलोमीटर दूर पूणे में अपने कमरे में बैठी आर्या, दिल्ली में एक मरीज़ के लिए ऑक्सीजन सिलेंडर और आईसीयू बेड की तलाश कर रही है. गूगल डॉक में करीने से तैयार किए नंबरों के ज़खीरे से ढूंढकर, ज़रूरी फ़ोन नंबर निकालती है और फ़ोन घुमाती है. रात के 8 बजे हैं. कहीं कोई फ़ोन नहीं उठा रहा. टूं..टूं..टूं..जिस नंबर से आप संपर्क करना चाहते हैं वो अभी आपका फ़ोन नहीं उठा रहे…11.30 बज गए…सुबह के 2.30 बज चुके हैं. पिछले कई घंटों से वो बस यही टोन सुन रही है.
सुबह के 3 बजे अचानक दूसरी तरफ़ से किसी ने फ़ोन उठाकर आर्या को आठ और नंबर देते हुए कहा, “इन नंबरों पर बात करके देखिए शायद कोई मदद मिल जाए.” आर्या पिछले कई घंटों से एक ऑक्सीजन बेड के लिए 40 से 45 नंबरों पर संपर्क करने की कोशिश कर चुकी है!
ये सारे नंबर अंक गणित के अपने लबादे को छोड़ हिन्दी के शब्द – आशा, भरोसा, इंसानियत में बदल गए हैं. हर नंबर एक उम्मीद है.
आर्या के लिए दिल्ली की सड़कें किसी अजनबी की तरह हैं और गूगल मैप हम-दोस्त. गूगल मैप उसे इस बहरूपिए शहर को पहचानने में मदद करता है. जब भी कोई परेशां हाल मदद की आशा लिए अपनी दास्तान साझा करता है वो गूगल मैप पर उसकी जगह को नोट करती है, फिर जल्द से जल्द उसके आसपास के इलाके से मदद पहुंचाने की कोशिश करती है. लेकिन हर रात अपने पीछे उजाला लेकर नहीं आती. उस रात सुबह 7 बजे आर्या ने अपने दोस्त को बताया कि “सॉरी, कहीं कुछ नहीं मिल रहा.”
सोशल मीडिया एक आकाशगंगा की तरह है जिसमें ट्विटर, इंस्टाग्राम और फेसबुक उसके ग्रह हैं. सोचिए, इस हर ग्रह के आकाश में ‘कोविड हेल्प’, ‘कोविड मदद’, ‘#SOS नंबर’, ‘कोविड दिल्ली हेल्प कॉन्टैक्ट’, ‘आईसीयू नंबर’ के नाम से असंख्य मोबाइल नंबर तारों की तरह टिमटिमा रहे हैं. कभी कोई नंबर अचानक से जल उठता है और रौशनी का सबब बनता है, और कभी अंधेरे में टूं..टू…करता बुझ जाता है.
स्वास्थ्य व्यवस्था का सच
शोध के अनुसार दिल्ली में प्रति 1000 लोगों के लिए सरकारी अस्पतालों में 1.05 बेड है. मतलब हर एक हज़ार बीमार लोगों में से सिर्फ़ 1 व्यक्ति को बेड मिल सकता है. यह डब्लूएचओ के निर्देशों के आधार पर बहुत कम है. डब्लूएचओ के अनुसार प्रति 1000 लोगों के लिए 5 बेड होने चाहिए.
एनडीटीवी को दिए अपने एक साक्षात्कार में मूलचंद अस्पताल की मेडीकल डायरेक्टर मधु हांडा बता रही थीं, “हमने अपने मरीज़ों के परिवारवालों से अनुरोध किया कि वे अपने सिंगल रूम को डबल रूम में बदलने में मदद करें. और अब हमारे पास एक भी सिंगल रूम नहीं है.” दिल्ली के होली फैमिली अस्पताल ने अपने आईसीयू को, बेड आईसीयू में बदल दिया है. अस्पताल के कॉरीडोर में भी पांव रखने की जगह नहीं है.
ठीक इसी तरह एम्स ने अपने ट्रॉमा सेंटर में शुरुआत में 12 बेड कोविड के मरीज़ों के लिए संरक्षित किए. लेकिन जल्द ही 250 बेड वाले ट्रॉमा सेंटर को कोविड के मरीज़ों के लिए पूरी तरह सुरक्षित कर दिया गया. अब ट्रॉमा सेंटर कोविड सेंटर है.
मार्च महीने के अंत से मई के बीच दिल्ली के कई प्राइवेट अस्पतालों और सरकारी अस्पतालों को कोविड मरीज़ों के लिए रिज़र्व कर दिया गया था. मतलब वहां सिर्फ़ कोविड के मरीज़ों का ही इलाज हो सकता था. लेकिन फ़िर भी दिल्ली में वेंटिलेटर बेड या आईसीयू बेड की तलाश भूसे के ढेर में राई का दाना ढूँढने जैसी थी…है.
वॉलिन्टियर्स को यह बात जल्दी ही समझ में आने लगी. सुमन बताती हैं, “दरअसल हम अस्पताल में कोई नया बेड नहीं जोड़ रहे, बल्कि जो पहले से मौजूद हैं उसी की सूचना को इधर से उधर कर रहे हैं.”
‘वेरिफाइड लिंक प्लीज़’
दूसरी लहर ने जैसे-जैसे बड़े शहरों- मुम्बई, दिल्ली, बंगलुरू, कलकत्ता में अपनी डैने फैलाना शुरू किया, सोशल मीडिया पर SOS कॉल की सुनामी-सी आ गई. हर पल ऑक्सीजन सिलेंडर, ऑक्सीजन बेड, आईसीयू बेड, रेमडिसिवेयर दवाई, फैवीफ्लू, प्लाज़मा जैसी ज़रूरतों के मेसेज तेज़ रफ़्तार से लोगों के बीच फैलने लगे. इन सारी ज़रूरतों की मांग इतनी ज़्यादा थी कि घंटें भर में सप्लाई आउट ऑफ स्टॉक हो रही थी. आपने अभी जाना कि गंगा राम अस्पताल में 10 ऑक्सीजन बेड खाली हैं और अगले पल वो दस के दस भरे जा चुके हैं.
इसी वजह से गूगल स्प्रेडशीट और एक्सेल शीट के नंबर प्रति घंटे के हिसाब से आउट डेटेड यानी पुराने हो रहे थे. ज़रूरत थी इन बिना काम के नंबरों को हटा कर नए नंबरों की तलाश करने की. शुरुआत में तो गूगल शीट की लंबी-लंबी फ़ेहरिस्तें वॉलिन्टियरों द्वारा बिना जांच के आगे बढ़ाई जाती रहीं. इसमें नंबरों के दुहराव की समस्या ने और ज़्यादा परेशानी बढ़ाई. इसके साथ ही जिन सप्लायर्स के नंबर शेयर हो रहे थे वो लगातार आ रहे फ़ोन कॉल से परेशान होकर अपना फ़ोन बंद कर देते या जवाब नहीं देते.
वाट्सएप्प पर मेसेज के ज़रिए कंफर्म करने की कोशिश कुछ हद तक कारगर तरीका साबित हुई. इसने फ़ोन के लगातार बजते रहने की समस्या को भी थोड़ा कम किया.
यह बात समझते देर न लगी कि मामला हर पल घटती सांसों का है और ऐसे में मरीज़ के परिवार के लिए फ़ोन नंबरों के समुद्र में गोता लगाना नामुमकिन है. इसके साथ ही ‘वेरिफाइड लिंक प्लीज़’ का मतलब यह भी है कि अगर आपने खुद से सप्लायर्स से बात की है तभी नंबर साझा करें.
‘रात अंधेरे में हाथ पीटने से नहीं कटती. रात कटती है दीया जलाने से’
ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोशिएसन – AISA (भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी एमएल का स्टूडेंट ग्रूप) की सदस्य दीपशी कई महीनों से संगठन के साथ मिलकर राहत कार्यों में जुटी हुई हैं. दीपशी संगठन के अलावा ख़ुद से भी अपनी क्षमता के अनुसार लोगों की सहायता करती हैं. अपने अनुभवों को साझा करते हुए फ़ोन पर उन्होंने बताया, “हमारे पास संगठन से जुड़े बहुत सारे वाट्सएप्प ग्रुप पहले से थे, जो विभिन्न कार्यक्रमों में हमारे साथ काम करते रहे हैं. कुछ महीनों से ये वॉलिन्टियर ग्रुप पब्लिक हेल्थ नेटवर्क के एक छोटे से सेंटर में बदल गए हैं. कभी-कभी महसूस होता है कि अगर हमारे पास पहले से ऐसे ग्रुप न होते तो पता नहीं अब तक और कितने लोगों की जान चली गई होती.”
दीपशी याद करती हैं “मुझे नहीं लगा था कि परिस्थितियां इतनी ज़्यादा बुरी हो जाएंगी. सब कुछ बहुत डरावना था.
हमने सोचा कि हम हर शहर के अनुसार वहां के अस्पताल, बेड, ऑक्सीजन सिलेंडर जैसी चीज़ों की लिस्ट तैयार करेंगे जिससे मदद में आसानी होगी, लेकिन कैसी लिस्ट, कौन सा डेटा...कहीं कोई जानकारी ही नहीं है और हर एक रिसोर्स मिनटों में ख़त्म हो जा रहे हैं. ऐसे में कोई मुकम्मल डेटा कैसे तैयार किया जा सकता है? लिस्ट में आधे नंबर तो काम नहीं करते, और जो करते हैं वो जल्द ही आउट ऑफ स्टॉक हो जाते हैं.”
ऐसा नहीं कि, इंटरनेट की सतह पर लगातार घूम रहे सभी फ़ोन नंबर हमेशा नाउम्मीदी का दरवाज़ा ही खोलते हैं. कुछ वॉलिन्टियर्स के लिए उनकी पहले की ट्रेनिंग इन नंबरों को छांट कर, काम के नंबरों को अलग करने और उसमें लगातार जोड़- घटाव करते रहने में बहुत कारगर साबित हुई.
बैंग्लुरू की रहने वाले राउम, कम्यूनिकेशन और पीआर की फील्ड में काम करती हैं. बिजनेस एनालिस्ट के अनुभवों ने कोविड रिसोर्स को सही से इस्तेमाल करने में उनकी मदद की. राउम कहती हैं, “कोविड की दूसरी लहर के दौरान हम सभी ने देखा कि शुरुआत में लंबे-लंबे स्प्रेडशीट, एप्पस, गूगल डॉक फॉर्वर्ड हो रहे थे. मुझे तभी समझ आ गया कि ऐसे काम नहीं बनेगा, हमें एक रणनीति बनानी है. मैं डेटा वेरिफिकेशन के काम में जुट गई. इसमें इसका ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है कि सरकारी मान्यता प्राप्त सप्लाई और दवाइयों को लेकर पल-पल जानकारियां बदल रही हैं. इसके अलावा भरोसे वाले विक्रेताओं की जानकारी इकट्ठा करना और असली और नकली दवाइयों की पहचान भी ज़रूरी है. दरअसल, इमरजेंसी में जल्द से जल्द मिलने वाली सही जानकारी किसी की ज़िन्दगी बचा सकती है.
इसलिए हमारी कोशिश थी कि हम सोर्स का एक नेटवर्क तैयार कर सकें, इसका एक आसान तरीका है – उन नंबरों की जानकारी को सेव कर उसे सभी से साझा कर लेना जो असल में मदद कर सकते हैं. इससे बहुत सारा समय भी बचता है.”
आख़िर हर एक मेसेज के साथ किसी की ज़िंदगी जुड़ी है. SOS कॉल्स की मदद करते वक्त ये वॉलिन्टियर्स इस बात का ध्यान रखते हैं कि इनका काम उस ज़िंदगी को थोड़ा आसान करना है, मुश्किल में डालना नहीं.
आम्हीं कोविड योद्धा ग्रूप से जुड़े सचिन शेरखाने का कहना है, “हम तीन घंटे से लगातार एक मरीज़ के लिए कोविड बेड की तलाश कर रहे हैं. तभी मरीज़ के परिवार वाले फ़ोन कर बताते हैं कि अब उन्हें बेड की ज़रूरत नहीं…क्योंकि मरीज़ की डेथ हो गई है. इस घटना से हम सभी थोड़े डर गए. मुझे मालूम है कि बेड, ऑक्सीजन की भारी कमी है.. इसलिए अब जब भी मेरा फ़ोन बजता है तो मैं यही मनाता हूं कि सामने वाला मुझसे ऐसी कोई मदद न मांग ले जो मैं अभी पूरी नहीं कर पाउंगा.”
दुनिया को सुंदर बनाने वालों की भाषा
मशहूर ख्याल गायक पंडित राजन मिश्रा, दिल्ली के सेंट स्टीफन अस्पताल की पार्किंग में घंटों एक वेंटिलेटर बेड के इंतज़ार में बैठे रहे. आख़िरकार जब उन्हें बेड मिला तब उनकी सांसों की डोर मध्यम पड़ चुकी थी.
ये राजधानी दिल्ली की स्वास्थ्य व्यवस्था की बदइंतज़ामी का एक नमूना भर है. जहां हम अपने बुजर्गों और संरक्षकों की भी मदद नहीं कर सके. वहीं 16 से 20 साल के युवा वॉलिन्टियर्स अस्पतालों में भाग-भाग कर किसी बिलकुल अनजान के लिए बेड के इंतज़ाम में सारी रात आंखों में काट रहे हैं.
इनके पास क्रिटिकल मरीज़ की कैसे मदद की जानी चाहिए इसकी कोई ट्रेनिंग नहीं है. लेकिन ये अपने हौसले के दम पर खड़े हैं, हर #SOS कॉल की मदद के लिए.
गीतांजलि, दिल्ली विश्वविद्यालय में थर्ड इयर की स्टूडेंट हैं. वे दिल्ली मेडिकल सपोर्ट ग्रूप के साथ बतौर वॉलिन्टिर जुड़ी है. गीतांजलि बताती हैं कि शुरुआत में क्रिटिकल मरीजों की मदद को लेकर वे बहुत डरी रहती थी. “मैं इस ग्रूप के साथ 2020 से जुड़ी हुई हूं जब दिल्ली के नॉर्थ-ईस्ट इलाकों में दंगे हुए थे. उस वक़्त यह ग्रुप दंगे में घायल लोगों को मेडिकल सुविधाएं उपलब्ध करवाने के लिए था. धीरे-धीरे हम कोविड मरीज़ों की सहायता करने लगे. सब कुछ जैसे अचानक ही बदल गया. वो तो ग्रुप से जुड़े डॉक्टर्स ने जब हमसे बातकर ज़रूरी बातें समझाईं तब जाकर मुझे विश्वास हुआ कि मैं किसी क्रिटिकल मरीज़ के लिए बेड्स और ऑक्सीजन ढूंढने का काम कर सकती हूं.”
“वॉलिन्टियर्स के लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि मरीज़ को ऑक्सीजन सिलेंडर से ही दिया जा सकता है या छोटे कैन का या और कोई विक्लप भी है. “हमने डॉक्टरों से मीटिंग की तो पता चला कि किन परिस्थितियों में हम ऑक्सीजन सिलेंडर, कॉन्संट्रेटर या कैन का इस्तेमाल कर सकते हैं और ये भी कि ये एक-दूसरे के पूरक हैं या नहीं.” टीवाईसीआईए (TYCIA) फाउंडेशन की फाउंडर सांची ने फ़ोन पर बात करते हुए बताया.
सांची दिन में एक स्टार्ट अप फर्म के साथ नौकरी भी करती हैं. टीवाईसीआई फाउंडेशन, कोविड मरीज़ों के बीच जाकर उनकी सहायता करने का काम करती है. लेकिन राहत कार्य करते हुए उन्हें मरीज़ो के परिवार वालों को यह समझाना पड़ता है कि वे डॉक्टर या नर्स नहीं हैं, वे मरीज़ का इलाज नहीं कर सकते. इसके लिए उन्हें डॉक्टर के पास ही जाना पड़ेगा. “दिल्ली दंगों के दौरान काम करते हुए मैंने एक बुरी तरह से घायल व्यक्ति को एम्बुलेंस तक पहुंचाने में मदद की. वो सब देखकर मैंने सोच लिया था कि अब ऐसे काम के लिए कभी हां नहीं बोलूंगी. लेकिन कोविड की दूसरी लहर के बाद मैं अपने को रोक नहीं सकी. ऐसा ही होता है, आप एक बार इस काम से जुड़ जाते हैं तो फिर अपने को इससे अलग नहीं कर पाते.”
ये वॉलिन्टियर्स वो ‘पॉज़िटिव चेन’ हैं जो अस्पताल-मरीज़ -डॉक्टर के बीच की लाइफ लाइन बनते चले गए. कहते हैं कि हर सौ साल पर एक महामारी आती है. इन युवा वॉलिन्टियर्स के लिए इससे पहले न कभी देखा, न कभी सुना वाले इस दौर में अपने आप को इसके बीच में खड़ा पाना बहुत बहादुरी वाला काम है. वे बात करते हैं, सीखते हैं उसे बांटते हैं और इस तरह मददगारों की कड़ी बनाते हैं. जितना हो पा रहा है, बस किए जा रहे हैं.
मदद करते हुए सामने वाले को एक मरीज़ की तरह देखना शायद ट्रेंड डॉक्टरों और नर्सों के लिए आसान हो सकता है लेकिन इन युवाओं के लिए उतना आसान नहीं.
लेकिन, उन्होंने फिलहाल अपने आप को ही स्थगित कर दिया है, अभी उनके पास समय नहीं है कि वे किसी के न रहने का ग़म मना सकें.
‘प्रवीण लता’ संगठन के साथ काम करने वाली शोभा उस वक्त अपने को असहाय महसूस करने लगीं जब दो हफ्ते पहले उन्होंने कोविड 19 से अपने परिवार के दो सदस्यों को खो दिया.
शोभा कहती है, “मैंने इतना असहाय कभी महसूस नहीं किया था. कोविड से मेरी मौसी और मेरे मौसेरे भाई की मौत हो गई और मैं कुछ न कर सकी. मैं उनके लिए सही समय पर ऑक्सीजन अरेंज नहीं कर सकी और न ही उन्हें जयपुर के अस्पताल में भर्ती करा सकी. ऑक्सीजन के लिए तड़पता चेहरा मैं भूल नहीं पाती हूं. हमेशा यही लगता है कि मेरे वॉलिन्टिर के काम का क्या फायदा जब मैं अपने ही घरवालों के लिए ऑक्सीजन नहीं जुटा पाई.”
शोभा के लिए 20 साल के अपने भाई के चेहरे को भुला पाना बहुत मुश्किल है. वे कहती हैं, “6 दिन हो गए हैं, अभी भी मुझे विश्वास नहीं. लेकिन यही है जो मुझे वापस से अपना काम शुरू करने के लिए प्रेरणा भी दे रहा है. अगर आज मैं भी घर बैठ गई तो कितने लोग मेरे भाई की तरह अपनी जान गंवा देंगे, जिनको हमसे मदद मिल सकती थी.”
आंकड़ों का खेल
महामारी में आंकड़ों की भूमिका भी बहुत महत्वपूर्ण है. लेकिन लोग सिर्फ़ आंकड़े नहीं हैं. वॉलिन्टियरर्स के लिए इन आंकड़ों के बीच अपनी भावनाओं को साधे रखकर लगातार काम करते रहना कैसा होता है? टेलिग्राम पर सक्रिय वॉलिन्टियर ग्रूप आईसीयूएल ने 29 अप्रैल को एक मेसेज लिखा, “हमारे बीच से आज हमारा एक बेहद अज़ीज हमें छोड़कर चला गया. हम ग़म में हैं. शायद मदद करने में हमारी रफ़्तार आज थोड़ी धीमी हो सकती है. लेकिन हम रुकेंगे नहीं. हम साथ खड़े हैं.”
दिल्ली की अम्बेडकर यूनिवर्सिटी की स्टूडेंट रूक्मणी के लिए बतौर वॉलिन्टियर ज़िंदगी और मौत के बीच झूलते ये पल बेहद दुविधा से भरे हैं. रूक्मणी बताती हैं, “हम दो पोल के बीच झूलते रहते हैं. एक पोल जहां हम एक मशीन की तरह हर एक मौत को नंबरों की गिनती में प्लस वन मानकर आगे बढ़ जाते हैं ताकि जिनकी लड़ाई अभी जारी है उनकी मदद कर सकें और दूसरा जो हमें रोक कर हर जाने वाले को एक इंसान की तरह देखने की नज़र देता है, जहां हम खुद को जाने वाले के करीबीरियों के ग़म में डूबा हुआ पाते हैं, जो सिर्फ़ आंकडा भर नहीं है.”
पिछले साल इसी समय 24 मई 2020 को न्यूयॉर्क टाइम्स ने अमेरिका में कोरोना महामारी में जान गंवाने वाले लोगों के नाम अख़बार के फ्रंट पेज पर छाप कर बताया था कि ये लोग थे, सिर्फ़ नंबर नहीं.
वॉलिन्टियर्स का मानना है कि इस क्रूर समय में जब एक-एक मिनट में सप्लाई ख़त्म हो रही है, आपके पास मरने वाले के पीछे रोने का भी वक़्त नहीं क्योंकि बीमार लोगों की लड़ाई जारी है. मैंने और मेरे दोस्तों ने खुद को रोने का सिर्फ़ वही एक पल दिया था जब एक 18 महीने की बच्ची के लिए आईसीयू बेड नहीं ढूंढ पाए. वो दर्द अभी भी बैठा हुआ है.
डिजिटल की फांक
फिलहाल ये मई का तीसरा हफ्ता है. सोशल मीडिया पर #SOS कॉल में धीरे-धीरे गिरावट आने लगी है. कारण? बीमारी शहरों से आगे बढ़कर गांवों तक पहुंच गई है. गांवों और शहरों के बीच डिजिटल पहुंच की खाई बहुत गहरी है. इसलिए उनकी चीख ट्विटर और इंस्टाग्राम के पर्दो से कोसों दूर है.
सच ये है कि गांवों में कोरोना की लहर, कहर मचा रही है. गांव से मिली जानकारी के अनुसार लगभग 90 प्रतिशत घरों में कोई न कोई बुख़ार, खांसी से परेशान है. टेस्ट न होना, बीमारी को लेकर अफवाहें, चौपट स्वास्थ्य व्यवस्था और सरकार द्वारा सही जानकारी के अभाव से ग्रामीणों की जान खतरे में है. गीत बताती हैं, “मेरी आंटी उत्तर प्रदेश में रहती हैं. एक दिन वो सुबह उठीं ही नहीं. बाद में हमें पता चला कि वो कोविड पॉज़िटिव थीं. सभी को लग रहा था कि उन्हें मामूली बुख़ार है.”
गीत, भोपाल से कुछ किलोमीटर की दूरी पर बसे सांगवारी गोंड नेटवर्क के साथ काम करती हैं. उन्होंने बताया, “लॉकडाउन के दौरान हमने घऱ-घर जाकर गोंड समुदाय के लोगों को राशन, दवाइयां और मल्टी विटामिन बांटे. हमने घूमन्तू समुदाय के लोगों के बीच भी राशन पहुंचाया.”
छोटी जगहों पर वॉलिन्टियर का काम घर जाकर ही होता है. गीत कोविड में बाहर निकलकर घर-घर जाने के ख़तरे जानती हैं, “राशन पहुंचाते वक्त मुझे भी डर लगता है. हमें राशन देते वक्त लोगों से दूरी बनाए रखना है, मेरा भी परिवार है. लौटने के बाद अगर मेरे परिवार को कोविड हो गया तो मैं क्या करूंगी? मेरी मां डरती है लेकिन मेरा दिल नहीं मानता.” गीत के अनुसार कुंभ मेला और चुनावी रैलियों ने बीमारी को तेज़ी से फैलाने का काम किया है.
प्रवीण लता संगठन से जुड़ी शोभा ने इस महामारी का बहुत ही मार्मिक पक्ष हमारे सामने रखा. दरअसल, शहरों में लोग जहां न मिल पाने वाले ऑक्सीजन सिलेंडर और कॉन्संट्रेटर के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हैं, वहीं, गांव में लोग भूखा मरने के लिए मजबूर हैं.
“मुझे मेरे घरवाले अक्सर डांटते हैं कि मैं क्यों बाहर जाकर वॉलिन्टियर का काम करती हूं. लड़की होने की चिंता तो है ही पर मेरे पास इसे न करने का ऑप्शन ही नहीं है. मैंने लोगों को देखा है अपने घुटनों पर झुक कर रोते हुए, खाली डिब्बे दिखाते हुए कि उनके घर में एक दाना भी नहीं है. एक औरत मुझे रसोई में ले जाकर बोली कि आपको बताते हुए शर्म आ रही है कि हम उबली हुई दाल खा रहे हैं क्योंकि हमारे पास दाल छौंकने के लिए तेल नहीं है. ऐसे समय में इन्हें अकेला कैसे छोड़ा जाए? हमारे गांव में दवा की सुविधा नहीं है और हर किसी के पास खाने को अन्न नहीं है.”
मज़दूर किचन से जुड़े राशिद अंसारी कहते हैं, “खाना न होने की तड़प अपने चरम पर है. बीमारी से तो वे मर ही रहे हैं, लेकिन जो ज़िन्दा हैं उन्हें खाना चाहिए. प्रशासन के साथ मेरा अनुभव भयावह है. 6 महीने पहले हम देख चुके हैं कि गोदाम में राशन भरा हुआ था लेकिन किसी को यह नहीं सूझ रहा था कि उसे लोगों के बीच बांट दें. ये कोई दान या परोपकार नहीं है बल्कि ये उनका अधिकार है, जीने का अधिकार है.
‘यह दुनिया खोई हुई चीज़ों का संग्रहालय है जिसका दरवाज़ा खोलने में मुझे डर लगता है’
बैंगलुरू की रहने वाली अरुंधति घोष शाम को अपनी कॉलोनी में टहल रही थीं. उन्होंने घूमते हुए पास खड़ी एक छोटी बच्ची को, “हेलो डियर’ कहते हुए नमस्ते किया. बच्ची के पिता भी वहीं बगल में खड़े अपनी भाषा में किसी से फ़ोन पर बात कर रहे थे. बच्ची ने अरुंधति के नमस्ते के जवाब में अपना मास्क उतारकर कहा, “ऑक्सीजन!”
इस महामारी में हम बहुत कुछ खो रहे हैं. लेकिन सबसे ख़तरनाक है इन बच्चों और युवाओं के बचपन का खो जाना. कितने ही बच्चों और युवाओं ने माता-पिता, अपना घर, अपना क्लासरूम, पढ़ाई, दोस्त, पिकनिक, सपने, बातें न जानें कितना कुछ खो दिया है. अभी हमारा समाज सामूहिक शोक में डूबा हुआ है.
हम बाहर नहीं जा सकते. सड़कों पर एक दूसरे के साथ खड़े होकर इन खोई हुई चीज़ों के लिए नारे नहीं लगा सकते. हमारे पास अपने सामूहिक दुख को साझा करने का एक ही रास्ता है – लोगों की मदद. एक और रात और हम अपने गूगल शीट पर लिखे नंबर को नौंवी बार वेरिफाई करने की कोशिश कर रहे हैं.
इतिहास की विद्यार्थी दीपशी पूछती हैं, “मुझे एक बात समझ नहीं आती कि कोई वॉलिन्टियर के काम को बहुत महान और अच्छा कैसे बोल सकता है? पहली बात तो ये हमारा काम नहीं है!! हमें यहां होना ही नहीं चाहिए था. हम पर ये सब थोपा गया है.” पॉपुलर मीडिया चैनल भी वॉलन्टियर्स को योद्धा का नाम देकर हमें कोविड वॉरियर्स कहते है. जैसे हम एक साथ किसी युद्ध के मैदान में खड़े हों, जैसे कि हम रोज़ नई लड़ाइयां लड़ते हैं, ‘वॉर हीरो’ की छवि फायदे से ज़्यादा नुकसान कर रही है. ऐसा कहकर वे सरकार को अपनी ज़िम्मेदारियों से पीछे हटने का मौका देते हैं.
फिलहाल कोविड की वैक्सीन के लिए सरकारी वेबसाइट से जुड़ी परेशानियों ने वॉलिन्टियर्स की एक नई फ़ौज तैयार कर दी है जो 68 प्रतिशत पॉपुलेशन को वैक्सीन स्लॉट उपलब्ध करवाने में मदद कर रहे हैं.
ग्रामीण इलाकों में डिजिटल की सहायता से मदद कैसे जुटाएं:
हमें पता है कि गांवों और शहरों के बीच डिजिटल की खाई बहुत गहरी है. ऐसे में कोरोना महामारी में सहायता के लिए हम कुछ ज़रूरी जानकारियां एवं कार्यविधियां साझा कर रहे हैं. जो गांव में कोरोना से बचाव में मददगार साबित हो सकती हैं.
- सोशल मीडिया का सहायता मांगने/ देने में कैसे इस्तेमाल करना है, इस संबंध में एक छोटी ट्रेनिंग दी जाए. यह लोगों को सही समय पर, सही सोर्स के ज़रिए मदद मांगने/देने में मददगार साबित हो सकता है. साथ ही इंटरनेट की दुनिया में पहले से मौजूद जानकारियों से अवगत करा सकता है. ‘द थर्ड आई’ में डिजिटल प्रशिक्षकों का भंडार है. हमारे डिजिटल शिक्षकों से दो दिवसीय प्रशिक्षण के लिए संपर्क किया जा सकता है.
- पहले से ऑनलाइन काम कर रहे वॉलिन्टियर्स गांव और शहरों के बीच डिटिटल पुल बन सकते हैं. वे गांवों से आ रही मदद की पुकार को शहरों के उन सप्लायर्स से जोड़ सकते हैं जो जल्द से जल्द गांवों में मदद पहुंचा सकें. साथ ही वे उस क्षेत्र के ज़िला अधिकारियों को भी सोशल मीडिया में टैग कर ख़बर पहुंचा सकते हैं.
- मदद से जुड़े सभी फ़ोन नंबर्स की समय-समय पर पड़ताल करते रहें. ऑक्सीजन सिलेंडर, टेलीमेडिसिन डॉक्टरों और अपने मोहल्ले में कोविड 19 बीमार लोगों की सूची बनाएं एवं उनकी जानकारी रखें.
- वैक्सीन या कोविड का टीका लगाने को लेकर वाट्सएप्प ग्रूप और सोशल मीडिया के ज़रिए फैलायी जा रही अफवाहों पर ध्यान न दें और दूसरों को भी इन अफवाहों पर ध्यान न देने के बारे में बताएं.
- कोविड -19 से जुड़ी ग़लत सूचनाओं से लड़ने के लिए झोलाछाप डॉक्टरों का उपयोग करें. साथ ही ग्रामीण परिवारों के लिए सामाजिक दूरी और आईसोलेशन का क्या अर्थ है, इस संबंध में उचित जागरूकता और व्यवहार का निर्माण करें.
- दो टीमें बनाएं: ऑन-ग्राउंड और ऑनलाइन, और दोनों के बीच परस्पर सहयोग और समन्वय को प्रोत्साहित करें. ऑन-ग्राउंड टीम, कोविड प्रोटोकॉल का पालन करते हुए, ज़िला अस्पतालों, टेलीमेडिसिन डॉक्टरों, ऑक्सीजन आपूर्तिकर्ताओं और एम्बुलेंस सेवाओं की लाइव जानकारी ऑनलाइन टीम को प्रदान करे जिससे ज़रूरत के आधार पर मदद पहुंचाई जा सके.
ग्रामीण इलाकों में ज़रूरी संसाधनों की उपलब्धता के लिए इस लिंक पर रजिस्टर करें – https://ruralindia.help/ और साथ ही बतौर वॉलिन्टियर आपूर्तिकर्ताओं की सूची की जांच में सहायता करें.
खबर लहरिया के कोविड 19 से जुड़े संसाधनों और हेल्पलाइन नंबर को फॉलो करें.
आर्या पाठक आईआईएचएस (IIHS), बैंगलोर में अर्बन फेलो हैं. वह जेंडर, आवास, सार्वजनिक स्वास्थ्य के मीडिया के साथ रिश्तों पर शोध करना पसंद करती हैं. उनसे [email protected] पर संपर्क किया जा सकता है.
इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है.