औरतों के श्रम को कैसे नापा जाए?

क्या उनके हर घंटे का हिसाब हमें इसकी सच्चाई बता सकता है?

नारीवादी अर्थशास्त्रियों द्वारा लंबे समय से श्रम को मापने के लिए काम के घंटों, ख़ासकर, महिलाओं के काम के घंटों की गणना को मापदंड के रूप में पैमाना बनाने पर ज़ोर दिया गया है. इस महामारी के दौरान ये नज़रिया और भी महत्त्वपूर्ण हो गया है जब महिलाओं द्वारा किए जा रहे कभी न ख़त्म होने वाले काम थमे नहीं, जारी हैं. एक तरफ़ जहां सारा देश त्रस्त होकर अपने-अपने घरों में बंद, वायरस से बचने में जुटा है वहीं औरतें परिवार और बीमार मरीज़ की देखरेख में अभी भी व्यस्त हैं. 

पिछले साल, जनवरी-दिसंबर 2019 के बीच राष्ट्रीय सांख्यिकीय कार्यालय (एनएसओ) द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर किए गए पहले ‘समय के उपयोग के सर्वेक्षण (टीयूएस )’ के परिणाम महामारी के शुरुआती समय में ही सामने आए. इस सर्वेक्षण का उद्देश्य यह पता लगाना था कि देश भर में पुरुष और महिलाएं अपने 24 घंटे – सुबह 4 बजे से अगले दिन सुबह 4 बजे तक – कैसे बिताते हैं. कुल 1.4 लाख घरों के 4.5 लाख भारतीयों ने इस सर्वेक्षण में हिस्सा लिया, जिसमें 6 वर्ष से ऊपर के व्यक्ति शामिल थे. सर्वेक्षण ने पाया कि अगर अवैतनिक श्रम को भी मापा जाए तो 95% महिलाएं और 85% पुरुष काम करते हैं. इसके अलावा फ़ुर्सत के पलों, स्वयं की देखभाल तथा रख-रखाव, सामाजिकता और सीखने-सिखाने में बिताए गए समय को भी सर्वेक्षण में शामिल किया गया. 

लगभग एक साल तक चले इस सर्वेक्षण के पीछे महिलाओं के श्रम को दृश्यता प्रदान करने से जुड़ा पांच दशकों का नारीवादी संघर्ष रहा है. टीयूएस ने दरअसल उसी बात को रेखांकित किया जिस पर नारीवादी संगठन लगातार ज़ोर देते आ रहे हैं कि राष्ट्रीय स्तर के सर्वेक्षणों में अधिकांशत: लाखों-करोड़ों महिलाओं का श्रम — परिवारों, समुदायों, यहां तक कि राज्य द्वारा नज़रंदाज़ किया जाता रहा है. संक्षेप में कहें तो इसे अदृश्य बना दिया जाता रहा है, अर्थात, इसे दैनिक जीवन में मान्यता ही नहीं दी जाती. दरअसल, नौकरी या व्यवसाय में किए गए काम को ही सिर्फ़ ‘काम’ मानने से औरतों के श्रम का हिसाब नहीं किया जा सकता है. मुफ्त घरेलू श्रम की उन्हें कोई तनख्वाह नहीं मिलती जबकी वे इसमें पुरुषों के मुकाबले अधिक समय काम करती हैं. समय के उपयोग के सर्वेक्षण ने इसमें मदद की है क्योंकि इस सर्वेक्षण के मूल में ‘समय’ को काम के घंटे के माप के रूप में देखा जाता है.

1982 में नारीवादी अर्थशास्त्री देवकी जैन और मालिनी चंद ने पहला समय आवंटन सर्वेक्षण (टीएएस) प्रकाशित किया था. उन्होंने अपने आंकड़े पश्चिम बंगाल और राजस्थान से इकट्ठा किए थे. अपने सर्वेक्षण में उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि अगर महिलाओं के काम का सही आंकलन करना है तो हमें ‘श्रम या काम’ की तयशुदा अवधारणा से बाहर निकलकर, उसे नए सिरे से देखना होगा और ‘समय’ को इसे मापने का मुख्य आधार मानना होगा. इसके लिए सबसे पहले प्रत्येक व्यक्ति द्वारा किए जा रहे हर एक काम की लिस्ट तैयार की जाए. उसके बाद उसे लाभकारी काम या निरर्थक कामों के समूहों में छांटकर अलग करने के बाद ही हम ‘श्रम या काम’ से जुड़ी लाभकारी गतिविधियों का सही-सही पता लगा पाएंगे. (यहां लाभकारी गतिविधियों का मतलब उन गतिविधियों से है जिन्हें आर्थिक महत्त्व का दर्जा दिया जाता है.)

जैसा की जैन ने 1996 में प्रकाशित अपने लेख वैल्यूइंग वर्क टाइम एस मेजर्स में लिखा है – “अगर महिलाओं द्वारा किए जा रहे काम का सही से मूल्यांकन किया जाए तो संभव है कि वे कई समुदायों में घर की कमाऊ पूत या कम से कम पुरुषों के बराबर कमाने वाली के रूप में उभर कर सामने आएंगीं.”

अदृश्य कार्य या हम जिसे देखने के आदी नहीं

सरकारी सर्वेक्षण चाहे वो देश की जनगणना हो या फिर एनएसएसओ की स्वास्थ्य, शिक्षा, उत्पादकता, आर्थिक हालात आदि से जुड़े सर्वेक्षण हों, आज भी महिलाओं द्वारा किए जाने वाले श्रम जैसे धान की सफ़ाई या शिशु देखरेख के काम को मान्यता नहीं देते. आज भी वे इन कामों को ‘पूरक, सहायक या गौण कार्य’ के रूप में देखते है.

टीयूएस की जानकारी का आधार इससे बिलकुल हट कर है. वे प्रश्नकर्ताओं के वैतनिक, अवैतनिक कार्य तथा फ़ुर्सत के समय का जायज़ा लेने के लिए लोगों से पिछले 24 घंटों में बिताए गए समय को याद करके इसको रिकॉर्ड करते हैं. इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़ ट्रस्ट की डॉक्टर शाइनी चक्रवर्ती ने ग्रामीण महिलाओं का उदाहरण देते हुए ‘द थर्ड आई’ को बताया, “वे 55 मिनट पानी लाने और एक घंटे के क़रीब ईंधन जुटाने में ख़र्च करती हैं. अगर काम में इस अवैतनिक गतिविधि को भी शामिल कर लिया जाए तो हम ज़मीनी हक़ीक़त को आकंड़ों के बिलकुल उलट पाते हैं, यानी हिन्दुस्तान में महिलाएं, पुरुषों से ज़्यादा काम करती हैं.” अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए उन्होंने कहा,

“हमारे सर्वेक्षण महिलाओं द्वारा किए जाने वाले श्रम को पकड़ नहीं पा रहे हैं. यही कारण है कि भारत में महिला कार्यबल भागीदारी की दर कम दिखती है.”

टीयूएस के नतीजे बुनियादी सवालों के पेचीदा जवाबों को दर्शाते हैं. हम किसे श्रम मानते हैं और क्यों? 

मैं जब छोटी थी, तो स्कूल डायरी में अपनी मां का पेशा ‘घरेलू महिला’ लिखती थी यह जानते हुए भी कि वह हफ़्ते में तीन दिन पड़ोस के बच्चों को संगीत सिखाया करती थीं और एक स्कूल में आर्ट एंड क्राफ़्ट की पार्ट-टाइम अध्यापिका के रूप में भी काम करती थीं. ठीक ऐसा ही मेरे एक दूसरे साथी ने भी किया. हालांकि, उसकी मां भी गुड़ बेचने तथा गर्मियों में अपने दोस्तों के लिए ब्लाउज़ सीने का काम करती थीं. मां से अगर पूछो कि वह क्या काम करती हैं? तो वे भी यही कहतीं कि उनका मुख्य काम घर और हमारी देखभाल करना है. 

हम जानते हैं कि सर्वेक्षणकर्ता भी महिलाओं से सवाल करते समय उनसे किसी एक विशेष काम के बारे में ही पूछते हैं. जबकि महिलाएं दिन भर में कई तरह के कामों को अंजाम देती हैं. दरअसल, काम को लेकर हमारी जो धारणा है- जिसमें एक निश्चित सैलरी होती है, या कोई मानदेह होता है- सही जवाब सामने नहीं ला पाती. इसी तरह महिलाएं भी अपने बारे में बात करते हुए यही कहती हैं कि हम कोई काम नहीं करतीं!

अशोका यूनिवर्सिटी में सेंटर फ़ॉर इकोनोमिक डेटा एंड एनालिसिस (सीडा) की संस्थापक निदेशक, डॉक्टर अश्वनी देशपांडे ने भारत में समय के उपयोग के सर्वेक्षण के महत्त्व के बारे में बहुत कुछ लिखा है. ख़ासकर, उन क्षेत्रों के बारे में जहां महिलाएं अवैतनिक श्रम करती पाई जाती हैं जैसे खेतों में या परिवार-संचालित इकाइयों या दुकानों में. उनका तर्क है कि अगर इन कामों को पुरुष करते तो इसके लिए उन्हें वेतन मिलता. वे आगे कहती हैं, “दरअसल समय का उपयोग सर्वेक्षण ने महिलाओं के समय की भारी मांग की तरफ़ ध्यान आकर्षित किया है. शोधकर्ताओं ने इन आंकड़ों का उपयोग महिलाओं के अवैतनिक घरेलू काम का आर्थिक मूल्य निकालने में भी किया है.”

टीयूएस 2019

टीयूएस 2019 के बिलकुल विपरीत, 2018-19 के आवधिक श्रम शक्ति सर्वेक्षण (पीएलएफएस) ने महिला श्रम शक्ति भागीदारी दर सिर्फ़ 18.6% दर्ज की थी…18% बनाम 95%! पारंपरिक सर्वेक्षण में यह अंतर एकतरफ़ा कार्यपद्धति और गणना के कारण नज़र आता है, जो महिलाओं के अवैतनिक कार्य को नज़रंदाज़ करता है.

शाइनी चक्रवर्ती ने बताया कि टीयूएस 2019 इस बात का भी ख़ुलासा करता है कि महिलाएं दिन में साढ़े छः घंटे बेगार करती हैं, जबकि उनके मुक़ाबले पुरुष ढाई घंटे. महिलाएं बेगार में घरेलू कामकाज और रखरखाव करने में अपने समय का 17% हिस्सा खर्च करती हैं जबकि पुरुष केवल 7%. पुरुष स्वयं की देखरेख, रखरखाव और सीखने-सिखाने के कामों में भी महिलाओं की बनिस्पत ज़्यादा समय दे पाते हैं.

सर्वेक्षण की कई आलोचनाओं के बावजूद (इसका ज़िक्र लेख में आगे किया गया है) इसमें कई संभावनाएं भी निहित थीं — नीतियों, रोज़गार और श्रम के क्षेत्र में. सेंटर फ़ॉर डेवेलेपमेंट अलटेरनेटिव की प्रोफ़ेसर इंदिरा हिर्वेय ने ‘द थर्ड आई’ को बताया, “समय उपयोग सर्वेक्षण, अनियमित क्षेत्र के श्रम या साथ-साथ किए जाने वाली गतिविधियों को पकड़ने में मदद करता है, वैतनिक-अवैतनिक श्रम में लिंग असमानता को उजागर करता है, समय अभाव तथा कार्य जीवन के संतुलन के बारे में बताता है, तथा एकदम कम मूल्य पर काम करने वाले कामगारों के विवरण प्रदान करता है.”

महिलाएं अक्सर कई कामों को एक साथ अंजाम देती हैं, जैसे घरों में बिंदियों के पैकेट बनाने के साथ-साथ बच्चों और बुज़ुर्गों की देखरेख. टीयूएस, इन तमाम तरह के श्रमों की तरफ़ ध्यान आकर्षित करवाने का काम करता है. देविका जैन द्वारा 1996 में लिखे लेख के अनुसार उनके द्वारा किए जाने वाला श्रम अधिकांशत: ‘कम से कम दक्ष श्रेणी में आता है, उसके लिए उन्हें सबसे कम मेहनताना मिलता है, और यह उनका सबसे अधिक समय लेता है.’

टीयूएस, विशेष रूप से, समय के अभाव को समझने के लिए महत्त्वपूर्ण है. हिर्वेय ने अपने लेख, अंडरस्टैन्डिंग पोवर्टी : इनसाइट एमर्जिंग फ्रॉम द टाइम यूस ऑफ द पूअर में लिखती हैं, “समय का अभाव – इसे प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में काम की महत्ता को लेकर जो प्रतिस्पर्धा या बोझ है उसके संदर्भ में समझा जा सकता है. इस अभाव की वजह से उन्हें मजबूरी में अपना विकल्प चुनना पड़ता है कि वे किस काम में अपना कितना समय देंगे. यही वजह है कि वे ज़्यादातर समय काम कर रहे होते हैं और बहुत सारे कामों के बीच अपने समय का व्यापार करते हैं. गरीबी में जीवन व्यतीत करने वाले लोगों के लिए समय का अभाव दरअसल एक बहुत बड़ा बोझ है जो उनके ऊपर हमेशा रहता है, खासकर महिलाओं के ऊपर.” उनके रोज़मर्रा के काम में बच्चों की देखभाल करना, घर का सारा काम और बच्चे पैदा करने का काम भी शामिल है. कुल मिलाकर ये सारे काम उनके जीवन में समय के अभाव की एक गहरी खाई पैदा कर देते हैं.

बतौर पत्रकार रुक्मिनी. एस लिखती हैं, टीयूएस 2019 ने जाति, वर्ग और भौगोलिक स्थलों तथा श्रम एवं मौजमस्ती के बीच के रिश्ते को समझने में मदद की है.

सर्वेक्षण ने पाया कि उच्च जाति की महिलाएं सबसे ज़्यादा समय अवैतनिक कार्यों में ज़ाया करती हैं; उच्च जाति के पुरुष अपना अधिकतर समय मौजमस्ती में बिताते हैं; जबकि अनुसूचित जाति एवं जनजाति की महिलाएं अपने रखरखाव में सबसे कम समय व्यतीत करती हैं.

अश्वनी देशपांडे के अनुसार, पहला टीयूएस 1900s में रूस में हुआ था जहां क्षेत्रीय प्रशासन इकाइयों ने किसानों के घरों पर नज़र रखने के लिए ‘समय उपयोग’ डायरी रखनी शुरू की. इन डायरियों को 1900s के दशक में लंदन की महिलाओं और फैक्टरी कामगारों पर नज़र रखने के लिए भी इस्तेमाल किया गया.

भारत में टीयूएस की हमारी कहानी की शुरुआत, 1975-77 में होती है. इसी क्रम में नारीवादी अर्थशास्त्री देविका जैन और मालिनी चंद ने अपना पहला सर्वेक्षण किया. उन्होंने पश्चिम बंगाल और राजस्थान के 127 घरों से आंकड़े एकत्रित किए. 1982 में प्रकाशित इस सर्वेक्षण ने, बड़ी संख्या में राजस्थान में महिलाओं एवं लड़कियों को घास काटने और पशु चराने का काम करते पाया. इसके अनुसार पश्चिम बंगाल में कुछ महिलाओं द्वारा किया जाने वाला सेक्स वर्क और घरेलू काम अदृश्य बना दिया जाता है. उनके काम ने इस तथ्य को उजागर किया. उन्होंने 5 से 14 साल के बच्चों को कृषि कार्य करते हुए भी पाया, जैसे लड़कियों द्वारा मढ़ाई तथा लड़कों द्वारा गुढ़ाई का काम.

जैन ने ‘द थर्ड आई’ को बताया कि वे महिलाओं की भागीदारी पर एनएसएसओ के आंकड़ों को दुरुस्त करना चाहती थीं. इसके साथ-साथ वे सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में महिलाओं के योगदान की भी गणना करना चाहती थीं.

लेकिन ऐसा वे क्यों करना चाहती थीं?

इसके पीछे कोई विशेष कारण नहीं था. “यह देखना दिलचस्प रहेगा कि कितना समय आर्थिक रूप से लाभदायक कार्यों को दिया जा रहा है और कितना समय निजी या अन्य ग़ैर-आर्थिक गतिविधियों को, ताकि कामगारों की सही संख्या का अनुमान लगाया जा सके,” उन्होंने बताया. देविका जैन ने इंडियन काउंसिल ऑफ़ सोशल साइन्स (आईसीएसएसआर) के तत्कालीन सदस्य सचिव डी.डी नरूला से सम्पर्क किया और इस प्रोजेक्ट तथा इसके लिए फ़ंड की व्यवस्था कर दी.

एनएसएसओ के कर्मचारियों एवं इसके तत्कालीन अध्यक्ष वी.एम दांडेकर की मदद से समय आवंटन सर्वेक्षण शुरू किया गया. इसके नतीजों ने उजागर किया कि – महिलाओं और बच्चों के काम की भागीदारी के आंकड़े, मेथेडोलोजी बदलने से बदल जाते हैं.

एनएसएसओ के कार्य को समझने वाली कार्यपद्धति असमान एवं पुरुषवादी थी. मूंगफली के बीज बोने के काम में लगी महिलाओं पर किए जाने वाले समय आवंटन सर्वेक्षण में उनके काम को तीन घंटों तक देने के बाद भी इसे कार्य की श्रेणी में नहीं रखा गया था. वे महिलाएं जो दूसरों के घरों में पार्ट-टाइम काम करती हैं उन्हें भी एनएसएसओ सर्वेक्षण में नॉन-वर्कर माना गया.

एनएसएसओ की कार्यपद्धति विरले ही महिलाओं के असल काम को लेकर सवाल पूछती है; और, इस तरह आंकड़े एकत्रित करने के काम में भी यह सांस्कृतिक रूप से पूर्वाग्रहों से ग्रसित रहती आई है. इस पूर्वाग्रह के अनुसार महिलाओं का श्रम परिवार में पूरक कार्य के रूप में देखा जाता है और केवल पुरुष को ही ‘कमाऊ पूत’ के रूप में लिया जाता है.

1975-77 के इस पथ प्रदर्शक सर्वेक्षण को दिल्ली विश्वविद्यालय के इंस्टीट्यूट ऑफ़ इकोनोमिक ग्रोथ के समक्ष प्रस्तुत किया गया. जैन उस वाक़या को याद करते हुए बताती हैं कि कैसे उन्होंने एक समय पर विश्व बैंक में काम कर चुके प्रोफ़ेसर कृष्णा राव से संपर्क किया, जिन्होंने राज कृष्णा स्मृति व्याख्यान आयोजित किया. उन्होंने बताया, “मेरा सर चकरा गया जब मुझे पता चला कि प्रणब बर्धन, सुखुमोय चक्रवर्ती एवं हनुमंत राव जैसे प्रबुद्ध अर्थशास्त्री इस सेमिनार में हिस्सा लेने के इच्छुक थे और अपने विचार साझा करना चाह रहे थे.” सेमिनार में मौजूद एनएसएसओ के कर्मचारियों से आंकड़े एकत्रित करने की कार्यपद्धति को बदलने की गुज़ारिश की गई. 

जैन और चंद ने एक अलग कार्यपद्धति विकसित करने पर ज़ोर दिया, जो महिलाओं के श्रम को समझती हो, ‘जिसका स्पष्ट अर्थ था कि महिलाओं और बच्चों की लाभकारी गतिविधियां पुरुषों के काम के मुक़ाबले जांच के दायरे में उस समझ और बारीकी से नहीं लाई जातीं.

जनगणना की ख़ामियां भी

जनगणना में भी, कार्यपद्धति में सूक्ष्मता की कमी पाई गई. नारीवादी अर्थशास्त्री मैत्रेयी कृष्णाराज ने 1990 के अपने लेख वीमेनस वर्क इन इंडिया सेंसस- बिगनिंग ऑफ चेंज में इंगित किया कि 1981 की जनगणना में 13% से थोड़ा ऊपर महिला श्रमिक दर्ज किए गए थे. यह आंकड़ा विचित्र इसलिए भी था क्योंकि 1988 में महिलाओं के स्व-रोज़गार को लेकर राष्ट्रीय आयोग ने 89% महिलाओं को संगठित क्षेत्र में काम करने वाला बताया. 1981 की जनगणना में जो सवाल पूछा गया था वह था: ‘क्या आपने पिछले साल किसी भी समय कोई रोज़गार किया?’ इस सवाल में महिलाओं को शामिल नहीं किया गया था क्योंकि वे स्वयं को विरले ही कामगार बताती हैं.

संयुक्त राष्ट्र संघ के महिला फ़ंड (यूनीफ़ेम) के प्रोजेक्ट द्वारा एक छोटे परंतु महत्त्वपूर्ण इज़ाफ़े ने इस सवाल में कुछ तब्दीलियां कीं. अत: 1991 की जनगणना में सवाल पूछा गया, ‘क्या आपने पिछले साल किसी भी समय कोई रोज़गार किया?’ (ख़ुद के खेतों या पारिवारिक औद्योगिक इकाई या दुकान में अवैतनिक कार्य समेत?). उस जनगणना में पाया गया कि 20% महिलाएं कार्यरत थीं. यह कोई ज़्यादा इज़ाफ़ा नहीं था, लेकिन इस सवाल ने काम की परिभाषा को व्यापक रूप दिया.

कृष्णाराज लिखती हैं, “काम को लेकर जनगणना की अवधारणा लेनदेन के लिए उत्पादन पर ज़्यादा ज़ोर देती है; और हालांकि, यह कुछ स्व-उपभोग हेतु ग़ैर-बाज़ारू उत्पादन जैसे खेती को, जहां पुरुष काम करते हैं, भी शामिल करती है. लेकिन यह कैसा तर्क है कि कुछ अन्य स्व-उपभोग के उत्पादन, जैसे मवेशियों की देखरेख या रखरखाव (अधिकांशत: महिलाओं द्वारा किया जाने वाला कार्य) इसमें शामिल नहीं किया गया है. ज़मीनी अध्ययन में देखा गया है कि एनएसएसओ और जनगणना के काम में ख़ामियां हैं, जिसके कारण महिलाओं की उत्पादक गतिविधियों को कम करके आंका गया है, जो कि साफ़ तौर पर वैचारिक पक्षपात के कारण है.”

प्राथमिक टीयूएस

1988 में, लगभग दो दशक बाद, सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय (एमओएसपीआई) द्वारा समय आवंटन सर्वेक्षण हेतु एक समिति का गठन किया. यह सच था कि इसके पीछे नारीवादी विचारकों एवं अर्थशास्त्रियों का महत्त्वपूर्ण योगदान शामिल था. यह सर्वेक्षण भारत के 6 राज्यों में किया गया तथा उस समय संयुक्त राष्ट्र संघ विकास कार्यक्रम में काम करने वाली प्रोफेसर इंदिरा हिर्वेय, तकनीकी तथा सर्वेक्षण को डिज़ाइन एवं लागू करने वाली टीम की अध्यक्ष चुनी गईं.

समय के उपयोग के सर्वेक्षण को लेकर संयुक्त राष्ट्र संघ में हुए एक सम्मेलन में उन्होंने माना कि भारत को इसमें परिवर्तन करने की ज़रूरत है. अपने अनुभवों को साझा करते हुए हिर्वेय बताती हैं, “दरअसल, उस समय उपलब्ध ‘समय उपयोग सर्वेक्षण’ की संरचना एवं इस पर विमर्श मुख्यत: विकसित देशों के लिए तैयार किया गया था. हमें इसकी कार्यपद्धति में बहुत कुछ बदलाव करने की ज़रूरत थी.”

हिर्वेय ने बताया कि वे अपनी तैयारी में मोटी निर्देश-पुस्तिका, जांचकर्ताओं की गहन ट्रेनिंग एवं सावधानी से तैयार की गई कार्यपद्धति से पूरी तरह लैस थीं और कैसे इस प्राथमिक सर्वेक्षण की तैयारी बेहद सूक्ष्मतापूर्वक की गई थी. “हम हमेशा से तर्क देते रहे हैं कि भारत जैसे देश के लिए टीयूएस बहुत आवश्यक है और सरकार भी इसके महत्त्व को समझ चुकी है, इसलिए उसने इस प्राथमिक सर्वेक्षण को करवाना ज़रूरी समझा.”

इस प्राथमिक सर्वेक्षण के बाद टीयूएस को मुख्यधारा में लाने हेतु साल-दर-साल कई सम्मेलनों का आयोजन किया गया और कई समितियां भी गठित की गईं. बाद के वर्षों में यह अपने लक्ष्य से भी अधिक फैला और विकसित हुआ.

अब सीधे 2019 पर आते हैं. आख़िर राष्ट्रीय स्तर पर पहला टीयूएस अपने मक़सद में कामयाब रहा. भारत सरकार ने माना कि किसी के काम का सही आंकलन तभी किया जा सकता है जब इसमें शामिल व्यक्ति के ‘समय’ को भी मापा जाए. लेकिन इसकी खामियों की तरफ़ इशारा करते हुए हिर्वेय बताती हैं, “कई ग़लतियां की गईं. सर्वेक्षण में बिलकुल नए लोग थे जिनको समय के उपयोग के सर्वेक्षण की अवधारणा या उसका इस्तेमाल कैसे किया जाना है, इसका कोई ज्ञान नहीं था. इससे नुकसान भी बहुत हुआ.”

कई ख़ामियां

डॉक्टर चक्रवर्ती ने बताया कि टीयूएस को लेकर कुछ महत्त्वपूर्ण बातें थीं जिसपर ध्यान देना आवश्यक था. सबसे बड़ी बात कि सर्वेक्षण केवल 24 घंटे का ही ब्यौरा लेता है. ऐसे में “असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले व्यापक कामगार काम की अनियमित प्रकृति के कारण समय उपयोग सर्वेक्षण के दायरे से बाहर ही रहते हैं.”

जैसा कि हिर्वेय अपने लेख द टाइम यूस सर्वे एज़ एन ऑपरट्यूनिटी में लिखती हैं, हिन्दुस्तानी टीयूएस ने अन्तर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन के हालिया प्रस्ताव को नज़रंदाज़ किया, जिसमें काम को परिभाषित किया गया था. इस प्रस्ताव के अनुसार काम का अर्थ ‘किसी भी लिंग और आयु के व्यक्ति द्वारा किया जाने वाला ऐसा श्रम, जो दूसरों के इस्तेमाल के लिए चीज़ों का उत्पादन या सेवाएं प्रदान करता हो.’ टीयूएस का मुख्य उद्देश्य, लोगों के वैतनिक एवं अवैतनिक समय उपयोग को मापना है, लेकिन जैसा कि हिर्वेय और चक्रवर्ती लिखती हैं, यह उद्देश्य लोगों के रोज़गार की अवस्था को नहीं दर्शाता, जो आईएलओ प्रस्ताव के केंद्र में है. [MOU4]

हिर्वेय अपने लेख में लिखती हैं कि टीयूएस, सतत विकास लक्ष्य (2030) में निर्धारित 5.4 दिशानिर्देश को लागू करने में पूरी तरह चूक गया है. इस दिशानिर्देश में यह प्रावधान है कि, “देखभाल और घरेलू काम जैसे अवैतनिक कार्यों की पहचान कर उन्हें मान्यता देना तथा सार्वजनिक सेवाओं, मूलभूत सुविधाओं और सामाजिक सुरक्षा की नीतियों में उन्हें शामिल करना. साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर परिवारों के भीतर श्रम की बराबर की भागीदारी सुनिश्चित करना.” हालांकि हिर्वेय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि अवैतनिक कार्यों का सही आंकलन ‘सैटलाइट अकाउंट’ के ज़रिए किया जा सकता है. सैटलाइट अकाउंट से मतलब है – उस एरिया या समुदाय के खर्चों एवं उनकी आमदनी का आंकलन कर उसे राज्य के खर्चों एवं आमदानी से जोड़कर देखना. इससे जीडीपी एवं अर्थव्यवस्था में अवैतनिक कार्यों की भागीदारी का भी पता लगाया जा सकता है.

महिलाओं और उनके काम की समझ

अश्विनी देशपांडे का कहना है कि, श्रम और परिवार के सर्वेक्षण के मुक़ाबले “टीयूएस सर्वेक्षण बेहतर है. दरअसल यह हम पर निर्भर है कि हम इन्हें मान्यता देते हैं या नहीं. लेकिन इतना तो है कि हमारे पास जानकारी है.” वे बताती हैं कि महिलाओं के काम को समझने में यह सही दिशा में क़दम है. हालांकि टीयूएस महिलाओं के आर्थिक काम के योगदान का सही आकलन कर पाए, इसके लिए ज़रूरी है कि वह 1988-89 के प्राथमिक टीयूएस सर्वेक्षण को अपने केन्द्र में रखे.” इस बीच टीयूएस 2019 के आंकड़े अपनी तमाम चेतावनियों के बावजूद कार्यस्थल और घर-परिवारों में लैंगिक भेद की गहरी पैठ की याद दिलाते हैं.

दूसरी तरफ़ देवकी जैन इंगित करती हैं कि शुरू में सारा ध्यान आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं के योगदान को पहचान दिलवाने पर था, जो अब रखरखाव के काम पर चला गया है. उनका तर्क है, “मेरे लिए सबसे पहले असल कामकाजी और फिर उन महिलाओं को, जो घरेलू कामों में उलझे रहने के बावजूद भी अलग-अलग तरह के काम करती हैं, कामगारों की सूची में लाना है.” वे बताती हैं कि सीधे रूप से अर्थव्यवस्था में योगदान देने के बावजूद भी उनका काम हमारी ‘काम’ की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आता. [MOU6]

कई आलोचनाओं के बावजूद भी पायलेट और पहला राष्ट्रीय टीयूएस सर्वेक्षण महिलाओं की कई परेशानियों को उजागर कर, ज़मीन पर कई बदलाव लाने में सफल रहा.

देवकी जैन ने इंगित किया कि कैसे उनके सर्वेक्षण ने दर्शाया कि गुजरात के काईरा ज़िले में भैंसों को पालने के कारण महिलाओं को 18-18 घंटे काम करना पड़ता है. इन्हीं महिलाओं ने डॉक्टर वर्गीज़ कुरियन के ‘ओपेरेशन फ़्लड’ को बनाया और उसे मज़बूती दी थी. अंतत: त्रिभुवन फ़ाउंडेशन ने उनके स्वास्थ्य के रखरखाव का इंतजाम किया, क्योंकि उनका काम उनके स्वास्थ्य पर विपरीत असर छोड़ रहा था. जैन ने यह भी बताया कि इस तरह के आंकड़े एकत्रित करना नीतियां बनाने के लिए बहुत आवश्यक हैं.

उन्होंने विस्तार से बताया कि कैसे कर्नाटक के सेरीकल्चर वाले इलाक़ों में महिलाएं रात-रात भर नहीं सो पाती हैं, क्योंकि रेशम के कीड़ों को रात भर खाना देते रहना पड़ता है. उन्होंने कहा, “उनके समय के अध्ययन ने हमें बताया कि सेरीकल्चर के काम में लगीं महिलाओं के स्वास्थ्य पर यह विपरीत असर डालता है.”

इस तरह की जानकारियां, जिन्हें पहले कभी मापा नहीं गया, “नीतियों और कार्यक्रमों को बदलने के काम में महत्त्वपूर्ण औज़ार साबित हो सकती हैं.”

हिर्वेय एक बार फिर मैदान में आ चुकी हैं. वे इस समय भविष्य में किए जाने वाले सर्वेक्षणों के लिए सुझावों पर काम कर रही हैं. टीयूएस को लागू करवाने की लड़ाई यहीं ख़त्म नहीं होतीं. न ही महिलाओं के काम को अदृश्य से दृश्य बनाने की लड़ाई.

इस लेख का अनुवाद राजेन्द्र नेगी ने किया है.

अर्चिता रघु फ्रीलांस लेखक हैं जो बेंगलुरु में रहती हैं.

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