नर्सिंग और जाति की दर्जाबंदी

नर्सिंग के काम में कौन सी औरतें आईं और उन्होंने जाति का फ़र्क़ कैसे बनाए रखा? इसका इतिहास क्या है? जानिए इन सवालों के जवाब लेखक एवं शोधकर्ता पांचाली रे से।

'परेशां 'जेनिफर', दिल से खयाल रखती है / ये नर्स सारे मरीज़ों की थी भी शैदाई / मरीज़ दर्द की शिद्दत चीखता है जब / तो एक मां की तरह इनके दिल पे चोट आई / है पेशा नर्स का सच्ची हलाल की रोज़ी / मगर ज़माने ने बख्शी बस इनको रुसवाई' - कविता: सादिक रिज़वी / साभार: कविताकोश (चित्रकार – नीलिमा शेख़/ चित्र विवरण: सलाम चेची, बोर्ड पर कैसिइन टेम्पोरा शैली में)

छू-कर मेरे मन को…छूना अपने आप में बहुत तरह के भावों से भरा है। इसमें बहुत शक्ति है। हिन्दी फ़िल्म मुन्ना भाई एमबीबीएस में डॉक्टर मुन्ना झाड़ू लगाने वाले काका को जादू की झप्पी देकर प्यार बांटते दिखाई देते हैं और दर्शकों की तालियां बटोरते हैं। लेकिन, क्या असल ज़िन्दगी में ऐसा होता है? कई अस्पतालों में तो डॉक्टर और नर्स अपने नर्सिंग सहायकों के साथ लिफ्ट में भी नहीं चढ़ते, उनके साथ खाना तक नहीं खाते।

स्वास्थ्य सेवाओं के भीतर ये छूत-अछूत का मसला ही नहीं जेंडर भी यहां अपना रंग दिखाता है। ज़्यादातर नर्स महिलाएं हैं और इसके कारण कई तरह की जाति और जेंडर से जुड़ी दर्जाबंदी साफ़ दिखाई देती है। यह आज की बात नहीं, ये दोनों ढांचे इसकी नींव में उपस्थित थे जब अंग्रेज़ों के आने पर नर्सिंग का काम शुरू हुआ। 19 वीं शताब्दी में हिंदुस्तान में नर्सिंग को नीची नज़र से देखा जाता था। नर्सिंग को मुख्य रूप से पिछड़ी मानी जाने वाली जातियों की महिलाओं और विधवाओं के लिए एक नए काम के रूप में सोचा गया।

यह काम मरीज़ के साथ उसके शरीर की साफ़-सफ़ाई, उसकी देखभाल से जुड़ा है। और जाति व्यवस्था में तो शरीर की शुद्धि और उससे उभरी अशुद्धियों की देख-रेख तो अछूतों के मत्थे ही मढ़ा जाता है।

2019 में प्रकाशित किताब ‘पॉलिटिक्स एंड प्रीकैरिटी: जेंडर्ड सब्जेक्टस एंड द हेल्थकेयर इंडस्ट्री इन कंटेम्पररी कोलकाता’ में लेखक पांचाली रे ने कलकत्ता शहर के तीन भिन्न संरचना वाले स्वास्थ्य संस्थाएं- एक सरकारी, एक प्राइवेट और एक नर्सिंग होम, में अपने शोध के दौरान पाया कि आज भी इस काम में जाति और जेंडर का प्रभाव साफ़ दिखाई पड़ता है। अपनी किताब में उन्होंने विस्तार से चर्चा की है कि कैसे नर्सिंग की दुनिया की औरतों का एक समूह जाति और काम के विभाजन के आधार पर अपने को दूसरी औरतों के समूहों से अलग स्थापित करने में और दूरी बनाए रखने में लगा रहता है।

नर्सिंग के काम में कौन सी औरतें आईं और उन्होंने जाति का फ़र्क़ कैसे बनाए रखा? इसका इतिहास क्या है? जानिए इन सवालों के जवाब लेखक एवं शोधकर्ता पांचाली रे से

अपने शोध के लिए नर्सिंग को चुनने के पीछे मेरे दो बिलकुल ही भिन्न कारण थे। पहला, यह काम महिलाओं को सामाजिक और आर्थिक स्तर पर ज़बरदस्त तरीके से आगे बढ़ने का मौका देता है। नर्सिंग के क्षेत्र में देश के भीतर ही नहीं, विदेशों में भी काम करने के बहुत सारे मौक़े मिलते हैं। दूसरा, इस काम में जाति बहुत गहरे रूप से समाई हुई है। साथ ही इसके साथ बहुत तरह की बदनामी या कलंक भी जुड़ा हुआ है। मेरे लिए यह बहुत आश्चर्य वाली बात थी कि ये दोनों पहलू एक साथ कैसे काम करते हैं?

नर्स एवं नर्सिंग सहायकों से बात करने पर मैंने जाना कि वो मानसिक और शारीरिक तौर पर कितना ज़्यादा अपने को समर्पित करती हैं। दिन और रात के शिफ्ट के काम में बहुत ज़्यादा अंतर नहीं होता। दोनों ही समय कभी दवाइयों के लिए तो कभी किसी और तरह की ज़रूरत के लिए आईसीयू, में, वार्ड में भागते दौड़ते ही उनका सारा समय बीतता है।

ज़्यादातर इन महिलाओं का पूरा घर उनके पैसों से ही चलता है, कुछ अकेली महिलाएं हैं जो अपने बच्चों को संभाल रही हैं, तो कुछ अपने माता-पिता को संभाल रही हैं। वे दूसरों के जीवन में खुशियां ला रही हैं लेकिन ख़ुद का उनका जीवन उलाहना से भरा है, तिरस्कार से भरा है। वो जो काम कर रही हैं उससे उन्हें ख़ुशी नहीं मिल रही।

साथ ही नर्सिंग के ही भिन्न श्रेणियां हैं जैसे- प्राइवेट नर्स, वार्ड ब्वॉय, दाई, प्रसूति अटेंडेंट, नर्सिंग अटेंडेंट भी काम करते हैं लेकिन इनका पूरा काम अदृश्य होता है, ये कहीं दिखाई नहीं देते। इसमें ज़्यादातर दलित मर्द-औरतें, अन्य पिछड़े वर्ग की औरतें, वर्किंग क्लास औरतें, ग्रामीण औरतें शामिल हैं जो एक अदृश्य तरीके से ही काम करती हैं। एक योजनाबद्ध तरीके से उन नर्सों ने जो ट्रेंड हैं, उन्होंने अपने को नर्सिंग के मूल में शामिल काम – मरीज़ों की सेवा और उनकी शारीरिक साफ़-सफ़ाई से जुड़े कामों – को गंदा काम कहकर उससे अपने को अलग कर लिया। उन्होंने घोषित किया कि उनका काम हॉस्पिटल के रखरखाव और मेडिकल कार्यों से जुड़ा है। मेडिकल से मतलब दवाइयां देेने और उससे जुड़ी गतिविधियों से है। मरीज़ों की शारीरिक सफ़ाई से जुड़े सारे काम नर्सिंग सहायकों के ज़िम्मे आ गए। यहां बहुत विवाद भी रहा कि कौन क्या करेगा और फिर जाति के आधार पर काम का विभाजन इसके केंद्र में आ गया।
तथ्यों के अनुसार भारत में 1,000 लोगों के लिए 1.7 नर्स और सहायक चिकित्सा कर्मचारी हैं, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा निर्धारित संख्या से 43 प्रतिशत कम हैं। आंकड़ें बताते हैं कि भारत में लगभग 2 लाख नर्स दाईयां और लगभग 9 लाख सहायक नर्स दाईयां हैं जो देखभाल संबंधित स्वास्थ्य सेवाओं में सबसे आगे खड़े होकर, सबसे ज़्यादा थकाऊ काम करती हैं। दिसंबर 2020 में उड़ीसा में सहायक नर्स दाईयों ने बड़े पैमाने पर हड़ताल की। एक सहायक महिला नर्स दाई का कहना है कि "हमें कोविड केयर होम्स (CCH) में काम करने के लिए पंचायत स्तर पर नियुक्त किया गया था। हममें से बहुतों को अभी तक उनका वेतन भी नहीं मिला है। अब, सरकार ने नियुक्ति के तीन महीने बाद बिना किसी सूचना के हमें नौकरी से निकाल दिया। हम, हमारी नौकरी बहाली की मांग कर रहे हैं।"(चित्रकार – नीलिमा शेख़ / चित्र विवरण : सलाम चेची, बोर्ड पर कैसिइन टेम्पोरा शैली में)

नर्स का आगमन और दाई का डर?

पुराने दस्तावेज़ों और रिकॉर्ड्स के शोध से जो जानकारी मिलती है वो ज़्यादातर महिला डॉक्टर और दाई के बारे में ही है, नर्स के बारे में बहुत ही कम जानने को मिलता है। एक तथ्य यह है कि ब्रिटिश फौज के लोगों ने जब बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं की मांग की तो उसे पूरा करने के लिए इंग्लैंड से प्रशिक्षित नर्सों को बुलाया गया ताकि वे यहां महिलाओं को प्रशिक्षण दे सकें और काम कर सकें। यूरोपियन महिला नर्सों का यहां आने का एक कारण यह भी था कि वे इंग्लैंड में मेडिकल शिक्षा तो प्राप्त कर रही थीं लेकिन अपने ही देश में पितृसत्ता की जकड़नों की वजह से वहां काम नहीं कर सकती थीं। उन्होंने काम के लिए उपनिवेश देशों की तरफ़ रुख़ किया। लेकिन यहां डॉक्टर और नर्सों के लिए दाई बहुत बड़ा रोड़ा थी। भारतीय महिलाओं की ज़िन्दगी में दाई बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान रखती थी, ख़ासकर ग्रामीण इलाकों की महिलाओं के लिए। वैसे दाई यहां के स्वास्थ्य सेक्टर में एकदम निचले पायदान पर खड़ी दिखाई देती है। ज़्यादातर, दाईयां दलित हैं। उस समय भारतीय महिलाएं ब्रिटिश डॉक्टर या नर्स के पास जाना नहीं चाहती थीं। इसलिए दाईयों के खिलाफ़ राष्ट्रीय स्तर पर एक पूरा प्रचार चलाया गया कि वे बहुत ख़तरनाक हैं और महिला-बच्चों के स्वास्थ्य एवं सुरक्षा के लिए उन्हें बुरा बताया जाने लगा। दाईओं को स्वास्थ्य सेवाओं की बेहतरी में बाधा के रूप में देखा जाने लगा। उन्हें स्वास्थ सेवा के सिस्टम से हटा कर, औपनिवेशिक तौर तरीके वाली स्वास्थ्य सेवाओं, डॉक्टरों और नर्सों के लिए जगह बनाने का पूरा अभियान चलाया गया। एक नज़रिया यह भी तैयार किया गया कि हमारी स्थानीय स्वास्थ्य सेवाएं और अंग्रेज़ी स्वास्थ्य सेवाएं एक दूसरे के खिलाफ़ हैं और हमारी सेवाएं कमतर हैं। जबकि सच ये है कि दोनों ने एक दूसरे से चीज़ों को सीखा है। एक दूसरे की जानकारियों का बेहतरी के लिए इस्तेमाल किया है। इसलिए एक तरफ हिंदुस्तान में जहां दाईयों के काम को दरकिनार किया जा रहा था वहीं पश्चिमी स्वास्थ्य सेवाओं ने उनके काम को अपने स्त्री रोग विज्ञान में शामिल भी किया। हमारे पास इस तरह के दस्तावेज़ हैं जो इस बात की पुष्टि करते हैं।

पंखा कुली औरतें

भारतीय महिलाएं डॉक्टर तो बनना चाहती थीं लेकिन वे नर्स नहीं बनना चाहती थीं क्योंकि नर्स के काम के साथ जाति और कलंक जैसे धब्बे जुड़े थे। भारत आने वाली यूरोपियन नर्सों ने भी अपने को नर्स के मूल काम से अलग रखने की कोशिश की। उनका कहना था कि उन्हें पंखा कुली औरत कहकर पुकारा जाता है, जिसका मतलब नीची जाति की औरत है। फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने भी जब भारत के बारे में लिखा तो उन्होंने कहा कि हमें यहां एक अलग कैटेगरी बनानी होगी क्योंकि जातिगत भेदभाव की वजह से ऊंची जाति की औरतें शरीर की साफ़-सफ़ाई से जुड़ा काम नहीं करेंगी। इस तरह नर्स दाई का स्वरूप अस्तित्व में आया। नर्स दाई – जिन्हें ब्रिटिश स्वास्थ्य पद्धति के तहत कुछ ज़रूरी और न्यूनतम प्रशिक्षण देकर स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में नर्स के सहायक की तरह शामिल किया गया। 2021 में भी यह सिस्टम ऐसे ही काम कर रहा है।

जाति के आधार पर काम का विभाजन

नर्सिंग के काम में जाति का दख़ल बहुत साफ़ देखा जा सकता है। नाइट शिफ्ट के दौरान बातचीत में, मैं उस वक़्त पूरी तरह से हिल गई जब नर्सिंग सहायकों ने मुझे अपनी आपबीती बताई। उन्होंने बताया कि कैसे उनके साथ अछूत का व्यवहार किया जाता है, उन्हें नीची नज़र से देखा जाता है क्योंकि उनका काम मरीज़ों की साफ़-सफ़ाई, शारीरिक मदद से जुड़ा है।

अपने इस शोध कार्य से पहले भी मैंने इस विषय पर बहुत सारी जानकारियां इकट्ठा की थी। पश्चिमी नारीवादी नज़रिये के आधार पर भी सेवा भाव से भरे इस काम को लेकर बहुत सारी किताबें पढ़ीं थी। लेकिन, जब मैं फील्ड में गई तो मुझे समझ आया कि दलित महिलाओं के लिए नर्स का काम कोई सम्मान या ख़ुशी देने वाला काम नहीं है। उनके लिए यह काम तिरस्कार और उलाहना से भरा हुआ है। तिरस्कार, दरअसल इसका केन्द्रीय भाव है। मैं समझने की कोशिश कर रही थी कि तिरस्कार की भावना उनके ऊपर किस तरह का असर डालती है। एक ऐसा काम जिससे किसी दूसरे को आराम मिल रहा हो, लेकिन उसे पूरा करने वाला तिरस्कार की ज़िन्दगी जीता है ये किस तरह का विरोधाभास है!

शोध के दौरान ज़्यादातर औरतों ने बताया कि उन्हें गंदा कहकर लोग उनसे दूर खड़े होते हैं।

बांग्ला में एक शब्द है नोंग्रा जिसका मतलब है गंदा काम, उनका कहना था कि उनके काम को इस शब्द से पहचाना जाता है। डॉक्टर और नर्स उन्हें नोंग्रा कहकर पुकारते हैं।

वे उनके साथ अछूत जैसा व्यवहार करते हैं। चौंकाने वाली बात है कि तीनों हॉस्पिटल और नर्सिंग होम में डॉक्टर और नर्स के लिए अलग लिफ्ट है और नर्सिंग सहायकों और प्रसूति सहायकों के लिए अलग। प्राइवेट हॉस्पिटल में नर्सों ने हंगामा किया कि वो नर्सिंग सहायक स्टाफ के साथ खाना नहीं खाएंगी।

एक बार सरकारी हॉस्पिटल की प्रशिक्षित नर्सों ने एक साथ मिलकर आवाज़ उठाई और कहा कि प्राइवेट सहायक हमारी तरह कपड़े- स्कर्ट और सिर पर कैप – नहीं पहन सकतीं क्योंकि वो हमारी तरह प्रशिक्षित नहीं है। उनके अनुसार ये नर्सिंग के उसूलों के खिलाफ़ है। नर्सिंग के नियमों के आधार पर ऐसे कपड़े वहीं पहन सकते हैं जिन्होंने आधिकारिक रूप से नर्स के बतौर प्रशिक्षण प्राप्त किया है।

उनका विरोध इन नर्सिंग सहायक स्टाफ को हटाने के लिए नहीं था, वो ऐसा करना भी नहीं चाहती थीं क्योंकि ऐसा करने से, वो जिसे गंदा काम मानती हैं, उसे ख़ुद तो नहीं करेंगी! उनका विरोध बस इस बात को लेकर था कि उन्हेें नर्सिंग सहायकों से अलग कपड़े दिए जाएं ताकि दोनों के यूनिफॉर्म अलग दिखें और इससे पता लगाना आसान हो कि कौन नर्स है और कौन सहायक। 

दरअसल, मेरी किताब का मूल आधार यह भी है कि दूसरे से अपने को अलग करने की राजनीति कैसे काम करती है। मिडिल क्लास, और उच्च मिडिल क्लास की प्रशिक्षित नर्सों ने अपने को वर्किंग क्लास दलित सहायकों से अलग करते हुए जिस चीज़ को आधार बनाया वो था – यूनिफॉर्म!

कौन बड़ा कौन छोटा, कौन जाने कौन माने

स्वास्थ्य सेवाओं में देखें तो डॉक्टर, नर्स और नर्सिंग सहायकों के बीच क्लास और जाति की बहुत बड़ी खाई है। ऐसा क्षेत्र जहां समाज के हर तबके, हर जाति, हर समुदाय से लोग साथ आकर काम कर रहे होते हैं वहां इस खाई को पहचानना अपने आप में एक सीख थी।

सत्यजीत रे की चर्चित फ़िल्म है – प्रतिद्वंदी। इस फ़िल्म में एक बार डांसर ‘मिस शेफाली’ को एक नर्स की भूमिका में दिखाया गया है साथ ही वे एक सेक्स वर्कर भी है। फ़िल्म के अनुसार वे अपने नर्सिंग के काम को लेकर बहुत लापरवाह है। एक तरह से फ़िल्म में वे शहर के गिरते चरित्र को प्रतिबिंबित कर रही है।

नर्सों के एक समूह ने सत्यजीत रे से इस कैरेक्टर को लेकर अपनी नाराज़गी जताई। वो फ़िल्म से कैरेक्टर को हटाने की मांग नहीं कर रही थीं। उनकी मांग थी कि फ़िल्म में नर्स के कपड़े पर जो लेबल लगा है उसे हटा दिया जाए क्योंकि इससे यह दुविधा पैदा होती है कि वे एक प्रशिक्षित सरकारी नर्स है। लेबल न होने पर वो नर्सिंग सहायक की तरह पहचानी जाएगी जो एक सेक्स वर्कर भी हो सकती है। दरअसल, उनका विरोध इस बात से था कि प्रशिक्षित सरकारी नर्स, सेक्स वर्कर नहीं हो सकतीं।

यहां सारा मामला इज़्ज़त से जुड़ा है जिसका एक अर्थ यह भी है कि नर्स सेक्स एजेंट नहीं है। लेकिन जब बात दलित औरतों की होती है जो एक नर्सिंग सहायक के बतौर काम कर रही हैं, तो वहां सेक्स बहुत आसानी से जोड़ दिया जाता है।

नर्सों का कहना था कि इस तरह उनका नाम ख़राब होता है। क्योंकि आम जनता तो प्रशिक्षित नर्स और सहायकों में अंतर नहीं कर पाती। यहां भी नर्स अपने को अपने सहायकों से अलग कर, सारा इल्ज़ाम वर्किंग दलित सहायकों पर लगा देती हैं।

"हर बच्चा एक नर्स के हाथों पैदा होता है। जीवन भर नर्स ही उसे आश्वासन और हिम्मत देती है। मैंने, अपने बीमार माता-पिता की देखभाल में लगीं मलयालम नर्सों को बहुत क़रीब से जाना है, उनका व्यवहार प्रोफेशनल होते हुए भी अति आत्मीय भावों से भरा था। मैंने मलयाम नर्सों के बारे में शोध कर जाना कि वे अपने परिवार से दूर, कठिन परिस्थितियों में काम करती हैं।" - (चित्रकार – नीलिमा शेख़ / चित्र विवरण :सलाम चेची, बोर्ड पर कैसिइन टेम्पोरा शैली में बनाया गया चित्र)

नर्सिंग सेवा या कलंक?

आज़ादी से पहले भी सामाजिक सेवा और राष्ट्र निर्माण के लिए किए गए कार्यों को महान कार्य का दर्जा दिया जाता था। जैसे स्वामी विवेकानंद और सिस्टर निवेदिता ने कहा था कि “राष्ट्र की सेवा उसके लोगों की सेवा है।” इसलिए स्वामी विवेकानंद अपने अनुयायियों के साथ प्लेग के रोगियों के बीच काम करते हैं उनकी देखभाल करते हैं। इस तरह के कार्यों को हमेशा से समाज सेवा की नज़र से देखा गया, एक महान कार्य जिसे देवता के समान माना जाता था। लेकिन जैसे ही यह काम मार्केट में आता है और आप एक नर्स, एक स्वास्थ्य कर्मी के रूप में अपने काम के लिए पैसे लेते हैं तो, ये बुरा काम हो जाता है। उसके भीतर का देवत्व वाला गुण फिर ख़त्म हो जाता है। नर्सिंग को लेकर हमेशा से ही कुछ बुरी बातें, कलंक जैसी चीज़ें जुड़ी रही हैं। ये 19 वीं शताब्दी की शुरुआत से ही चला आ रहा है, और आज भी कायम है।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ नर्स ही नाइट शिफ्ट में काम करती हैं, होटल बिज़नेस या और भी तरह के बिज़नेस हैं जहां औरतें नाइट शिफ्ट में काम करती हैं। लेकिन नर्सिंग के साथ कलंक के जुड़ने का बड़ा कारण यह भी है कि नर्स पुरुष मरीज़ों के साथ काम करती हैं, पुरुष डॉक्टरों के साथ काम करती हैं, वार्ड ब्वाय इन सबके साथ काम करती है। मरीज़ों के साथ उनको छूना, उनके काम का हिस्सा है।

इतिहास भी गवाह है कि कामकाजी औरतों के साथ बदनामी हमेशा से चिपका दी जाती रही है। बंगाली समाज मिडिल क्लास औरतों की शिक्षा को लेकर बहुत जागरूक है। लेकिन बात जब काम की आती है तो उनके भीतर एक विचलन पैदा हो जाती है। क्योंकि महिलाओं के काम करने में यह ताकत है कि वो जेंडर की असमानताओं को चुनौती दे सकती हैं। फ़िल्मों के ज़रिए भी हम इसे बहुत आसानी से समझ सकते हैं। साथ ही हाउस वाइफ होना भी समाज में एक इज़्ज़त की बात है। श्रम शिक्षा के क्षेत्र में बहुत सारे शोध बताते हैं कि कोई परिवार अपने ओहदे में तब ऊपर उठ जाता है जब उस परिवार की औरतें बाहर काम करने नहीं जाती हैं। इससे समाज में उनकी प्रतिष्ठा बढ़ती है। सभ्य घरों की औरतें बाहर काम पर नहीं जाती, इसका सीधा संबंध इज़्ज़त से है।

कोविड 19 महामारी और फ्रंटलाइन वॉरियर

कोविड महामारी ने जहां हमारी स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जर स्थिति को उजागर किया है वहीं सरकार ने उस पर पर्दा डालने के लिए उसका महिमामंडन करना शुरू कर दिया। डॉक्टर, नर्स, नर्सिंग सहायक और सफ़ाई कर्मचारियों को ‘कोविड वॉरियर’ कहकर उन्हें सलाम करना, उन पर फूल बरसाना दरअसल इस बात से नज़र चुराना है कि असल में ज़्यादातर वर्किंग क्लास दलित कर्मचारी जो सबसे निचले स्तर पर काम कर रहे हैं, उनके पास किसी तरह की सुरक्षा नहीं है, पैसा नहीं हैं, इज़्ज़त नहीं है। सरकार को करना यह चाहिए था कि वे इन्हें पहचानें और इन्हें बराबरी पर लाकर खड़ा करें।

सरकार द्वारा महामारी को युद्ध या लड़ाई का नाम देने के पीछे की मंशा भी बहुत जटिल है। अगर हम देखें तो महामारी के दौरान कौन है तो सबसे आगे आकर काम कर रहा है – ये महिला आशा वर्कर हैं, आंगनबाड़ी की महिलाएं, नर्स हैं, और नर्सिंग सहायकों का पूरा तबका जिसे हम पहचानने से भी इंकार कर देते हैं- जो 24 घंटे मरीज़ों के साथ हॉस्पिटल में रहती हैं। महामारी से मरने वालों के आंकड़ों को भी देखें तो सरकार डॉक्टरों, नर्स, आशा वर्कर के आंकड़ें पेश करती है लेकिन नर्सिंग सहायक या प्राइवेट नर्स के बारे में कुछ नहीं पता चलता। क्योंकि बहुत बार तो ये हॉस्पिटल के कर्मचारी के रूप में भी रजिस्टर्ड भी नहीं होतीं।

इस तरह महामारी को युद्ध का नाम देकर इसके नारीवादी पक्ष की भी पूरी तरह से अवहेलना है। युद्ध का संबंध शक्ति और पौरूष से है, जिसे महिलाओं का गुण नहीं माना जाता। लेकिन यहां महिलाएं ही हैं जो स्वास्थ्य सेवाओं के सबसे निचले स्तर पर, सबसे आगे खड़े होकर इस महामारी में लगातार काम कर रही हैं।

इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है।

द थर्ड आई की पाठ्य सामग्री तैयार करने वाले लोगों के समूह में शिक्षाविद, डॉक्यूमेंटरी फ़िल्मकार, कहानीकार जैसे पेशेवर लोग हैं. इन्हें कहानियां लिखने, मौखिक इतिहास जमा करने और ग्रामीण तथा कमज़ोर तबक़ों के लिए संदर्भगत सीखने−सिखाने के तरीकों को विकसित करने का व्यापक अनुभव है.

लेखक एवं शोधकर्ता पांचाली रे बातचीत, जिन्होंने कोलकाता के अस्पतालों और नर्सिंग होम में नाइट शिफ्ट में काम कर रही नर्स और नर्सिंग अटेंडेंट्स के साथ सालों बिताए। भारत में नर्सिंग के काम में जाति और जेंडर की क्या भूमिका है, जानते हैं इस वीडियो के ज़रिए।

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