द थर्ड आई प्रस्तुत करती है खबर लहरिया की पूजा पांडे और सुनीता प्रजापति के बीच बातचीत. जिसमें वे बात कर रही हैं गांव की पत्रकार होने के अनुभव पर, एक ऑनलाइन पत्रकार होने पर, ट्रोल्स व प्रशंसकों के बीच के अंतर (या उसके न होने) पर, हिंसा और उस मोलतोल पर जो ऑनलाइन दुनिया और असली दुनिया के मिल जाने पर पैदा होते हैं.
इसे पहली बार पॉइंट ऑफ व्यू और द इंटरनेट डेमोक्रेसी प्रोजेक्ट द्वारा 2019 में इमेजिन ए फेमिनिस्ट इंटरनेट पर प्रकाशित किया गया था.
मैं और मेरे ट्रोल्स
“अपने बाप को मारकर ही तुझे खुशी मिलेगी, ओ नारीवादी औरत!”
डिजिटल नेटवर्क्स और मोबाइल तकनीकी की जानकारी के साथ, खबर लहरिया की पत्रकार अपने काम के दौरान नई जगहों और नए रिश्तों से मोलतोल करती हैं. वक़्त-बेवक्त स्रोत और साथ काम करने वालों को तैयार करना, व्हाट्सएप्प और फ़ेसबुक पर, साथ−साथ उम्र, जाति, वर्ग, भूगोल आधारित यौनिकता से जुड़े दस्तूरों को तोड़ते-मरोड़ते हुए. इसमें भी अपना एक मज़ा है और एक एजेंसी भी. मगर इस तरह सामाजिक नियमों के लचीलेपन को जांचने में ख़तरा भी है, जो उनकी सार्वजनिक और निजी ज़िंदगी को बहुत प्रभावित करता है.
सोशल मीडिया पर जिस ट्रोल से हमारा सामना होता है, वह शहरी भारतियों के लिए भयानक सपना ही नहीं बल्कि हमारी ऑडियंस (दर्शक/श्रोता) भी है. दरअसल, 30,000 लाइक्स और 210,000 यूट्यूब सब्सक्रिपशन पर, ऐसी ऑडियंस है जो हमारी हर ख़बर पर बहुत ध्यान देती है. जब वह बस में सफ़र करते समय कूद कर हमारे बगल में सट कर सेल्फ़ी लेने आता है, तो कहीं न कहीं हम उसे अपना प्रशंसक बुलाने का साहस भी कर सकती हैं.
जैसाकि इस बातचीत का केंद्रबिंदु सुनीता, उत्तरप्रदेश के महोबा, बुंदेलखंड से एक युवा पत्रकार, बताती हैं, “पहली बार ट्रोल शब्द मैंने दिल्ली में एक पैनल पर सुना था”.
गांव के इलाकों में, इसकी संभावना बहुत अधिक होती है कि ट्रोल उस औरत को जानता हो जिसे वह परेशान कर रहा है. यह उन शहरी ट्रोल्स से बिलकुल अलग होता है जिन्हें कोई नहीं जानता, जिन्हें ब्लॉक करके अक्सर उनसे पीछा छुड़ाना पड़ता है और जिनकी चर्चा मुख्यधारा शहरी मीडिया में रहती है. सुनीता का ट्रोल उसे व्हाट्सएप्प पर ‘शुभ प्रभात’ या ‘नया साल मुबारक हो’ बोल सकता है. हो सकता है कि वह सुनीता के साथ प्रैस कांफ्रेंस में चाय पी रहा हो या वहां फोटो खींच रहा हो. वह पलट कर अपनी नज़र में बहुत ही स्वाभाविक सवाल पूछ सकता है, “अगर औरतें कमाने के लिए बाहर निकलने लगीं तो हमारा क्या होगा?”
हम इस आदमी से कैसे बात करें? बल्कि ज़्यादा ज़रूरी सवाल यह है कि हम क्या कहें, कैसे कहें कि वह हमारी बात सुनें.
खबर लहरिया की वरिष्ठ पत्रकार सुनीता और दिल्ली में रहने वाली उनकी सहकर्मी पूजा के बीच बातचीत के रूप में प्रस्तुत यह पेपर इस बहुत ही उलझे हुए मसले (phenomenon) के अलग-अलग पहलुओं से जूझता है.
स्मार्टफोन और भी सुविधाजनक होते जा रहे हैं और मोबाइल इंटरनेट प्रयोग करने वालों में से 75% की उम्र 20-30 साल है. राष्ट्र के युवा नागरिकों की तकनीक तक पहुंच में लगातार बढ़ोतरी हो रही है. ऐसे में जब आपका ट्रोल अपने आप को आपका सबसे बड़ा प्रशंसक बुलाता है तो ऐसे में आप क्या प्रतिक्रिया देंगे? क्या उनसे बात करना समाधान है? अगर हां, तो इसकी बारीकियां क्या होंगी?
I. सुनीता : एक पहचान, एक अस्तित्व
“आप जितना ज़्यादा ऑनलाइन रहो, उतना ही आपके लिए अच्छा है”
पूजा: महोबा में 20 साल की उम्र के आस पास या इससे भी छोटे लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कैसे कर रहे हैं?
सुनीता: तो हममें से सिर्फ वे लोग जिन्हें ऑनलाइन दुनिया के बारे में पता है. जो समझते हैं कि इंटरनेट क्या है, सोशल मीडिया क्या है? वही हैं जो यहां पर कुछ कर रहे हैं और जो यहां हैं भी, उनमें से ज़्यादातर के लिए इसका बहुत कम इस्तेमाल है. यहां पर इंटरनेट को सबसे ज़्यादा गाने सुनने, फिल्में डाउनलोड करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है. फिर थोड़ा व्हाट्सएप्प और फ़ेसबुक के लिए, बस. और मेरे हिसाब से मुट्ठी भर लोग ट्वीटर पर है और फिर इंस्टाग्राम पर.
सच तो यह है कि कुछ वक़्त पहले तक मुझे भी इंस्टाग्राम के बारे में नहीं पता था. मुझे इसके बारे में और इसके इस्तेमाल के बारे में दिल्ली में ही पता चला. अब तो मैंने इस पर अपना अकाउंट भी बना लिया है. अब मज़ा आता है, यह कुछ नया है.
पूजा: आपको पता है मैं अभी तक इंस्टाग्राम पर नहीं हूं! हालांकि मैंने कई बार सोचा कि अकाउंट बना लूं.
सुनीता: आपको ज़रूर बनाना चाहिए. आप जितना ज़्यादा ऑनलाइन रहो, उतना ही अच्छा है.
पूजा: तो, जितने भी लोगों को आप इंस्टाग्राम पर खोज पाई हैं, सब मर्द हैं?
सुनीता: ज़ाहिर है, सिर्फ मर्द.
हमारे इलाके में, सबसे पहले तो, लोगों के पास ऐसे फोन हैं जिनसे सिर्फ कॉल हो सकती है या रिसीव कर सकते हैं. ख़ासकर लड़कियों के पास और वह भी बहुत ज़्यादा नहीं हैं. कुछ ही ऐसी खुशकिस्मत हैं जो पढ़ाई या किसी काम से बाहर निकली हैं इसलिए उन्हें फोन दे दिए गए हैं. या उन लड़कियों के पास फोन की सुविधा ज़्यादा है जिनकी शादी हो गई है, ताकि वे मायके में बात कर सकें. नहीं तो, स्मार्ट फोन हैं किसके पास? और स्मार्ट फोन ज़रूरी हैं, सही? हम यहां सिर्फ स्मार्ट फोन की बात कर रही हैं, क्योंकि ऑनलाइन तो वही हैं.
तो, वे कुछ लड़कियां जिनके पास स्मार्ट फोन हैं, वे ज़्यादातर व्हाट्सएप्प ही इस्तेमाल कर रही हैं, क्योंकि व्हाट्सएप्प मैसेज ही है जो सिर्फ आपके फोन पर रहता है. इसका बाहरी दुनिया से कोई ताल्लुक नहीं है. बाहरी दुनिया में किसी को भी पता नहीं कि आपने क्या कहा है या शेयर किया है. कोई भी आकर उस पर कमेंट नहीं कर रहा है. ये सब आपके और उस व्यक्ति के बीच रहेगा जिससे आप बात कर रही हैं.
तो अगर आप तस्वीर भी साझा (शेयर) करती हैं तो ये आप दोनों के बीच ही रहेगी. फेसबुक पर आप जो भी पोस्ट करती हैं उसे पूरी दुनिया देख सकती है. तो वो थोड़ी-सी युवा लड़कियां जिनके पास स्मार्ट फोन है, वे भी फ़ेसबुक पर नहीं हैं. खैर, इतना तो पक्का है कि किसी भी लड़की को इंटर पास करने से पहले स्मार्ट फोन नहीं मिलता.
मेरी एक भी करीबी सहेली के पास एंड्राइड फोन नहीं है. एक है जो छतरपुर में शायद पार्लर चलाती है, उसके पास एंड्राइड फोन है और वो उसे इस्तेमाल भी करती है – मगर उसे भी मैं ज़्यादा फ़ेसबुक पर नहीं देखती हूं. हां, व्हाट्सएप्प पर वह है.
एक और सहेली है जो डॉक्टर है और वह भी अपनी तस्वीर फ़ेसबुक पर शेयर नहीं करती. प्रोफ़ाइल फोटो शायद उसने अपनी भतीजी की लगा रखी है. वह भी व्हाट्सएप्प पर ही है. पक्का, उसे ज़्यादा आज़ादी भी होगी. मेरे गैंग में से मुझे छोड़ कर किसी के पास भी स्मार्ट फोन नहीं है. ज़्यादातर की शादी हो गई है, उनके बच्चे हैं, सामान्य फोन भी उनके पास नहीं. मुझे पता है कि शहरों में तो सभी औरतों के पास होते हैं.
पूजा: असल में, यह सच नहीं है.
सुनीता: सच में? वो कैसे? मगर हां, शायद आप ठीक कह रही हैं. जैसे मेरी दोस्त टीना*. वह दिल्ली में रहती है. मगर फ़ेसबुक पर कुछ भी पोस्ट करते हुए उसे बहुत डर लगता है. और अगर कोई गलती से भी उसकी पोस्ट पर कमेंट कर दे, तो वह उसे जल्दी से डिलीट कर देती है. अगर उसके किसी अकाउंट पर बहुत अधिक फ्रेंड रिक्वेस्ट आ जाती हैं तब भी वह बहुत डर जाती है और अकाउंट बंद कर देती है. मगर फिर, अगले दिन वह नया अकाउंट बना लेती है.
टीना फेसबुक की ओर बहुत आकर्षित है और सोशल मीडिया पर आने के लिए मरी जाती है. मगर उसे डर भी लगता है कि कहीं ज़्यादा लोग उसे जान न जाएं, उसे पहचान न लें. अगर उसने ज़्यादा दोस्त बनाए, लोगों को पता चल जाएगा कि वह इंटरनेट पर है, फ़ेसबुक पर है.
पूजा: मगर आप इस पहचान को साफ रखना चाहेंगी?
सुनीता: बिलकुल, वरना इस सब का कोई मतलब ही नहीं है.
पूजा: तो, अपने और फ़ेसबुक के बारे में और फ़ेसबुक पर खुद के बारे में मुझे बताइए.
सुनीता: मैं फ़ेसबुक पर काफी लंबे वक़्त से हूं. मैंने 2012 में ख़बर लहरिया (KL) में काम करना शुरू किया था और फ़ेसबुक पर 2013-14 मे चली गई थी. मुझे याद है हमारे अकाउंट एक KL कार्यशाला मे लखनऊ में बनाए गए थे – फ़ेसबुक और ईमेल के लिए. उसी वक्त इसने मुझे मोह लिया था.
शुरू में मैंने इन सोशल मीडिया अकाउंट्स को लगातार इस्तेमाल नहीं किया. देखिए, उस वक़्त इंटरनेट तक मेरी ज़्यादा पहुंच नहीं थी. जब कुछ प्रोडक्शन का काम करना होता था, ज़्यादातर संपादकीय ऑफिस में, तो वहां मैं अपनी फ़ेसबुक देख लेती थी. लॉगइन करती थी और देखती थी किसकी रिक्वेस्ट आई है. किसकी क्या तस्वीर है. थोड़ा बहुत देखती थी मगर शौक बहुत था. कभी-कभी कुछ पोस्ट कर देती थी या कभी तस्वीर लगा देती थी या कभी कुछ और.
उस समय मुझे यह पता नहीं था कि अगर मैं तस्वीर लगाती हूं तो हज़ारों लोग उसे देख सकते हैं, यहां तक कि डाउनलोड भी कर सकते हैं. मतलब, इन बातों और आइडियाज़ की मुझे समझ नहीं थी.
ऐसा होता रहता है. अभी कुछ महीने पहले, जब मैं अपने गांव गई, तब एक दोस्त से मिली जो मेरे घर से 15-20 कि.मी. दूर रहता था. मैं इलाहबाद एक इम्तेहान देने गई थी, वहां पर भी मैं उससे मिली थी. तो वह एक दोस्त जैसा बन गया था.
उस लड़के के पास मेरी अनगिनत तस्वीरें थीं – अनगिनत! जो उसने डाउनलोड करके अपने फोन पर रखी हुई थीं. मैं तो शॉकड रह गई. ये तस्वीरें 2015 से अब तक की थीं. मुझे पता है कि वे फ़ेसबुक से थीं, क्योंकि मैंने उन सब को पहचान लिया. मैंने उससे कहा,
‘ज़ाहिर है तुमने इन्हें फ़ेसबुक से डाउनलोड किया है. क्योंकि इन मौकों पर पक्का मैं तुम्हारे साथ नहीं थी!’
ये सब किसी के फोन पर हैं. बिना मेरी सहमति के. यहां तक कि मुझे इसके बारे में पता भी नहीं है. न इजाज़त है, न कुछ. ‘मुझे तो यह भी नहीं पता कि ये तस्वीरें सिर्फ तुम्हारे फोन पर ही हैं या इन्हें तुम किसी के साथ साझा करते हो. किन्हीं वजहों से सिर्फ तुम इनको देखते हो या औरों को भी दिखाते हो, मुझे ये सब पता भी नहीं है’. और सच कहूं तो मैं जानना भी नहीं चाहती.
II. डिजिटल हिंसा को तोड़ना और ऑनलाइन होने के ख़तरे
“ऑनलाइन हिंसा किसी को पल्ले नहीं पड़ती. दरअसल मुश्किल से ऑनलाइन की समझ ही है, है न?”
पूजा: आपने कहा कि आपने ट्रोल शब्द पहली बार हाल ही में सुना. कहां सुना था इसे?
सुनीता: दिल्ली में चल रही एक प्रैस कॉन्फ्रेंस के दौरान. मुझे इसके बारे में अच्छी तरह पता चला जब मैंने इस पर सत्र लिए. स्थानीय तौर पर मेरी बॉस कविता (KL की Digital Head) ने इसके बारे में मुझे बताया था कि ट्रोलिंग का मतलब होता है जब कोई आपको ऑनलाइन गाली देता है और बुरी-बुरी बातें बोलता है.
कविता ने उसी समय खबर लहरिया चेनल पर सति पर एक शो किया था जिसके लिए उन्हें काफी बुरी बातें कही गईं. जैसे ‘नारीवादी वह औरत होती है, जो हर रात शौहर बदलती है’’ और भी बहुत कुछ. तो उस वक़्त उन्होंने मुझे बताया कि यह ट्रोलिंगहै. इस तरह मैंने पहचानना शुरू किया कि ट्रोलिंग क्या है.
पूजा: क्या स्थानीय तौर पर कोई इस शब्द का प्रयोग करता है? और अगर यह शब्द नहीं तो कम से कम इस बात की कुछ समझ है?
सुनीता: कोई यह शब्द इस्तेमाल नहीं करता. किसी को पता भी नहीं कि इस तरह का कोई शब्द है. स्थानीय तौर पर लोग इसे ‘परेशान करना’ कहते हैं. ‘हिंसा’ शब्द का इस्तेमाल लोग ऑनलाइन हुई किसी भी घटना के लिए नहीं करते.
ऑनलाइन हिंसा की कोई समझ (अवधारणा) नहीं है. ऑनलाइन की समझ (अवधारणा) ही मुश्किल से है, सही? ख़ासकर, गांवों और छोटे कस्बों में. मुमकिन है कि कुछ पढ़े-लिखे लोगों को नगरों और शहरों में पता हो.
दहेज की मांग भी परेशान करना है. मारपीट इसलिए होती है कि उसने आज खाना नहीं बनाया. ये तो आम, हर रोज़ की बातें हैं. ‘हिंसा’ बहुत दमदार शब्द है. ये ऐसे मौकों पर इस्तेमाल किया जाता है जब अति ही हो जाती है. इस बात की कोई समझ ही नहीं है कि कितनी तरह की हिंसा आपके साथ हो सकती है या हो रही है. सीधा सीधा कहूं तो कोई समझ नहीं और कोई कल्पना नहीं हिंसा की. जैसे –
- मुझे रिश्ते में आने के लिए मजबूर करना हिंसा है.
- बिना मेरी मर्ज़ी के मुझे छूना या छूने की कोशिश करना हिंसा है.
- मुझे बुनियादी व्यक्तिगत आज़ादी– जैसे कहीं आने जाने की आज़ादी या घर से बाहर निकलने की आज़ादी न देना भी हिंसा है.
- मानसिक और भावनात्मक उत्पीड़न भी हिंसा है.
तो इस दुनिया मे ऑनलाइन हिंसा की कल्पना कैसे हो सकती है?
पूजा: ख़तरा (एक पत्रकार के रूप में) आपकी पहुंच के अनुपात में होता है. आपको क्या लगता है?
सुनीता: क्या ऐसा नहीं है? आपको क्या लगता है?
पूजा: शायद इसकी भी भूमिका है. मीडिया के क्षेत्र मे ऐसी कई औरतों को हम जानती हैं, जिन्हें ऑनलाइन ट्रोल किया गया और जो अपनी फील्ड मे मशहूर थीं.
सुनीता: हां, तो कई बार मैं सोचती हूं कि कैसे मेरे लिए समय के साथ चीज़ें बदलेंगी? और क्या वे बदलेंगी भी? आज मेरी इतनी ही पहुंच है, जो बहुत ज़्यादा नहीं है. और कल, यह बढ़ेगी. मैं मीडिया में हूं और मेरे लिए ये महत्त्व रखता है कि इस जगह होने के नाते मैं अपनी आवाज़ व्यवस्था के खिलाफ बुलंद कर पाऊं. सही? हो सकता है मुझे किसी नेता के खिलाफ या किसी और ताकतवर व्यक्ति के खिलाफ लिखना हो – तो जब मेरी पहुंच बढ़ेगी.
ऐसा करके मैं ख़तरे को न्योता दूंगी?
क्या मैं खुद को मुश्किल मे डाल रही हूं?
अगर ताकतवर लोगों को, जिनकी ऑनलाइन इतनी पहुंच है, निशाना बनाया जा सकता है तो मैं कौन होती हूं? गांव की एक लड़की? शायद मुझे कुछ भी हो सकता है. क्या तब कोई मेरे साथ खड़ा होना चाहेगा? कभी-कभी मैं ये बातें सोचती हूं. मगर अभी तक व्यक्तिगत रूप से मेरे साथ ऐसा कुछ हुआ नहीं है.
हां, एक घटना मुझे याद आती है हालांकि मैं कहूंगी कि ख़तरा इतना बड़ा नहीं था.
महोबा में एक दरोगा था जिसने स्थानीय नेता के घर पर छापा मारने की मंजूरी दे दी थी. यह शराब की अवैध तस्करी का मामला था. उसे कई व्हाट्सएप्प ग्रुप्स पर स्थानीय नेता के समर्थकों द्वारा गालियां दी गईं. नेता ने भी उसे गालियां दी थीं, उसकी जाति को लेकर अपशब्द भी कहे थे. दरोगा दलित था और नेता उच्च जाति का.
मैंने इसके स्क्रीन शॉट ले लिए और एक पोस्ट बनाकर फ़ेसबुक पर डाल दी. इसके बाद मुझे कई कॉल आईं, जिनमें कहा गया, ‘तुम तो हमारे इलाके की ही हो’, ‘हमारी बेटी हो’, ‘हमारी बहन हो’ पोस्ट को डिलीट क्यों नहीं कर देतीं.
शुरू में मैंने इनकी तरफ ध्यान नहीं दिया. फिर मैं दोबारा सोचने लगी. शायद डर से, तुम ऐसा कह सकती हो.
मैंने अपने आप से ही तर्क-वितर्क किया और नतीजे पर पहुंची कि मैंने अपनी बात तो रख दी है. अब वे ऐसा दोबारा नहीं करेंगे क्योंकि उन्हें बात समझ आ गई. इसके बाद मैंने वह पोस्ट डिलीट कर दी.
मैंने उस समय इसके बारे में गहराई से नहीं सोचा. मुझे समझना चाहिए था कि यह सिर्फ जाति का ही नहीं किसी के सम्मान का भी मामला है. मुझे अपना पोस्ट नहीं हटाना चाहिए था.
उस समय एक मैं ही थी जिसने इस बारे में फ़ेसबुक पर कुछ लिखा था. ऐसा करके मैंने दरोगा और इस मुद्दे के लिए बहुत समर्थन बटोर लिया था. कई लोगों ने मेरी बहादुरी की तारीफ़ की थी. जहां तक मुझे याद है पोस्ट पर हुई कमेंटबाज़ी से प्रेरित होकर दरोगा ने इस मामले को कोर्ट तक ले जाने का निर्णय ले लिया था. आगे जाकर उसने भी एफआईआर तक नहीं करवाई.
उस समय, मैंने सोचा, ‘हां, बना कर रखनी चाहिए. इसी इलाके में रहना है हमें. सही बात है. डिलीट कर देते हैं.‘ ये सब एक ही रात में हो गया. मैंने रात 10 बजे पोस्ट लिखी थी और अगले दिन सुबह 11 बजे हटा भी दी. क्या आप सोच सकती हैं कि इस बीच मुझे कितनी कॉल्स आई होंगी?
जब मैंने पोस्ट डिलीट कर दिया तब कुछ लोगों से सुना कि ‘फलाना कह रहे थे, अगर डिलीट नहीं करती, तो उसे देख लेते’. मगर शायद ये सिर्फ बातें थीं. कहने और करने में बहुत फर्क होता है न. मैं इस फर्क की पहचान कर सकती थी. मुझे यह मौका मिला था. मुझे इस बात का आज पछतावा होता है और यह ज़िंदगी भर रहेगा.
(इस लेख के अगले भाग में सुनीता प्रजापति से बातचीत जारी रहेगी)
भारत की 26% जनसंख्या की इंटरनेट तक पहुंच है. इनमें से 89% प्रयोग करने वाले मर्द हैं और केवल 27 प्रतिशत प्रयोगकर्ता छोटे शहरों में रहते हैं. 27% लड़कों की तुलना में लगभग 20% लड़कियां मोबाइल फोन का प्रयोग 10 साल की उम्र में कर लेती हैं. जैसे-जैसे युवा परिपक्वता (puberty) की तरफ बढ़ते हैं ये अंतर बढ़ता जाता है. और जब तक लड़कियां 18 साल की होती हैं ये अंतर 21 प्रतिशत पॉइंट्स तक बढ़ जाता है. ऐसा अंतर जो सारी ज़िंदगी औरतों की हक़ीक़त बना रहता है.
कामकाजी महिलाएं अक्सर घर के पुरुषों के मोबाइल फोन प्रयोग करती हैं ताकि वे कहां जा रही हैं, क्या कर रही हैं इस पर मोबाइल द्वारा नज़र रखी जा सके.
पारंपरिक न्यूज़ मीडिया में आदमियों की तुलना में औरतें कम नज़र आती हैं, यही अंतर अब डिजिटल खबरों के मंचों पर भी दिखाई देने लगा है: इंटरनेट मीडिया स्टोरीज़ में और मीडिया न्यूज़ की ट्वीट में मिलाकर कुल व्यक्तियों में से केवल 26% ही औरतें हैं. न्यूज़ मीडिया द्वारा किए गए ट्वीट्स में से सिर्फ 4% ही स्पष्ट रूप से जेंडर संबंधी रूढ़िवादी विचारों को चुनौती देते हैं. जो टीवी, रेडियो और छपी ख़बरों के कुल मिलाकर बने प्रतिशत के एकदम बराबर है.
24 वर्षीय सुनीता प्रजापति खबर लहरिया में पत्रकार हैं. सुनीता महोबा ज़िले से हैं, जो उस जगह से 100 किलोमीटर दूर है जहां पहली बार खबर लहरिया ने जड़ें जमाईं थीं. सुनीता का परिवार एक पत्थर की खदान के कोने पर रहता है. उनका गांव बारीक सफ़ेद धूल से ढका रहता है जो पत्थर तोड़ने के लिए लगातार चल रहे विस्फोटों और क्रशर मशीनों से उड़ती है. उनकी बहन का इस इलाके में रहने वाले कई और लोगों की तरह ही टीबी की बीमारी से देहांत हो गया था. सुनीता जब स्कूल में थीं तो खुद भी इस खदान में काम करती थीं और अपना स्कूल का खर्च इसी कमाई से उठाती थीं. उन्होंने खबर लहरिया में काम करना 2012 में शुरू किया जब वे 18 साल की थीं. गुज़रे सालों में, सुनीता ने राजनीतिज्ञों, मीडिया और खान कांट्रैक्टरों के गठजोड़ और उत्तरप्रदेश मे महिलाओं के खिलाफ हिंसा से जुड़ी ख़बरों और रिपोर्टों के साथ ही कई अन्य महत्त्वपूर्ण राजनीतिक मुद्दों पर काम किया है.
पूजा पांडे एक लेखक और संपादक हैं जिन्हें विभिन्न मीडिया आउटलेट्स में काम करने का 17 साल से अधिक अनुभव है. इनमें कला और संस्कृति पर मशहूर पत्रिका फ़र्स्ट सिटि शामिल है, जहां उन्होंने संपादक के रूप में काम किया था. उनकी किताबों में ‘रेड लिपस्टिक’ (पेंगुइन रैनडमहाउस, 2016),‘ट्रांसजेंडर अधिकार एक्टिविस्ट लक्ष्मी की जीवनी’ और ‘मॉमस्पीक’ (पेंगुइन रैनडमहाउस, 2020),‘भारत मेंमातृत्व के अनुभव पर एक नारीवादी खोज’ शामिल हैं. अंतरनुभागीय (intersectional) यानी अलग-अलग सामाजिक वर्गों द्वारा किए जाने वाले नारीवादी आंदोलनों के लिए उनका लगाव 2017 में इन्हें खबर लहरिया ले आया. जहां उन्होंने संपादकीय, पहुंच, साझेदारी, से संबंधित विभागों में काम किया. फिलहाल वे, यहां चंबल मीडिया की कार्यनीति प्रमुख के रूप में कार्यरत हैं.
इस लेख का अनुवाद सादिया सईद ने किया है.