जेंडर आधारित हिंसा पर काम करने वाले लोग प्यार को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते, क्योंकि यह अक्सर हिंसा की कहानियों का अहम हिस्सा होता है – कई बार यह मुख्य भूमिका में होता है. पितृसत्ता के साथ किए गए समझौते सिर्फ़ समझौते होते हैं, या ये महिलाओं के लिए अपनी ज़िंदगी चलाने की ज़रूरी रणनीतियां होती हैं? अपने छात्र जीवन की यादों और फील्ड अनुभवों को साझा करते हुए, निवेदिता मेनन (निदेशक, सेंटर फॉर बजट एंड पॉलिसी स्टडीज, बेंगलुरु) हमें जेंडर, पितृसत्ता और पितृवाद को समझने को समझने में मदद कर रही है. पढ़िए उनका लेख. 456
एक छोटी सी कहानी
एक लंबे दिन के अंत में, ज्योत्सना, राघवी और मैं, मस्जिद से सटे एक मकान की दीवार के ऊपर बैठे थे. हम हैदराबाद में थे और एक समुदाय की मीटिंग्स में भाग लेने, लोगों को सुनने आए थे.
मीटिंग एक चौक में हो रही थी जिसके चारों तरफ एक मंदिर, एक मस्जिद और कच्चे-पक्के अलग-अलग तरह के मकान थे. हम जो समझना चाह रहे ते वो यह था कि महिलाएं सार्वजनिक स्थानों का इस्तेमाल कैसे करती हैं और सार्वजनिक स्थानों पर जेंडर आधारित हिंसा से जुड़े उनके क्या अनुभव हैं.
हमने देखा कि एक प्रौढ़ महिला अपने घर के बाहर एक छोटे से चबूतरे पर लेटी हुई गहरी नींद में सो रही है. यह चबुतरा जो आमतौर पर बैठने या सामान रखने के काम में आता है. उसका घर ठीक सड़क पर था. वहां से लोग आना जाना कर रहे थे. गाय-बकरियां, स्कूटर और वो सबकुछ जो शहर के शोर-गुल का हिस्सा हैं वहां से गुज़र रहे थे. और वो इन सबके बीच, अपने घर की एकदम कोने पर आराम से खुले में गहरी नींद सो रही थी.
पहले तो हमने सोचा कि ये सहज क्रिया है. हमने सार्वजनिक जगहों पर महिलाओं के अधिकार को लेकर बहुत सारे अभियान चलाए हैं- यहां तक की हमारी कुछ पहल तो सार्वजनिक पार्को में महिलाओं के सोने के अधिकार को लेकर हैं. और यहां, एक औरत ऐसा ही कर रही है-किसी कैंपेन का हिस्सा बनकर नहीं-बल्कि ये उसकी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी है. वो कुछ साबित नहीं करना चाहती, वो तो जो है, वो, वही कर रही है.
ज्योत्सना, राघवी और मैं बाद में जब इस विषय पर चर्चा कर रहे थे तो हमारी बहस इसी बात पर थी कि क्या उसका अपने घर के बाहर सोना शहरी गरीबी की असुरक्षा को दिखाता है, या फिर गरीब इलाकों में जगहों की राजनीतिक व्यवस्था में एक खास कमी को बताता है. हमने इस बात पर भी चर्चा की, कि हो सकता है शायद ये हम ही हैं जिनकी सार्वजनिक/निजी जगहों को लेकर धारणा विकृत है.
लेकिन उस पल, ठीक उसी पल, जो बात हमें सबसे ज्यादा प्रभावित कर गई, वह यह थी कि:
महिलाओं का सार्वजनिक जगहों पर अपना हक जताना कोई ऐसा आदर्श सपना नहीं है जो सामाजिक क्षेत्र के लोग देखते हैं. महिलाएं यह पहले से ही कर रही हैं.
सार्वजनिक जगहों की कहानियां
सार्वजनिक जगहों पर किसी भी तरह की बातचीत की शुरुआत इस बिन्दू से होती है कि ये जगहें बहुत अलग-अलग तरह की होती हैं. लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि ये किस तरह गढ़ी जाती हैं.
अगर, जेंडर सिर्फ़ एक जैविक पहचान, या संस्था या ढांचा नहीं है- लगातार निर्मित होने वाली प्रक्रिया है जो विशेष जगह और स्थान में रंग रूप लेती है- तो यही बात सार्वजनिक स्थानों की अवधारणा पर भी लागू होती है.
हम अक्सर सार्वजनिक जगहों को मर्दाना रूप में ही देखते हैं, इसलिए इसे महिलाओं को बाहर रखने वाली जगह मानते हैं. या यह मानते हैं कि महिलाएं सार्वजनिक जगहों पर ‘सुरक्षित’ नहीं हैं और उनकी जगह घर के अंदर है. जब हम महिलाओं की अपनी जगह या उनकी ‘सहजता’ की बात करते हैं, तो हम ज़्यादातर यह सोचते हैं कि महिलाएं ‘स्वाभाविक’ रूप से (और इसलिए सुरक्षित रूप से) घर के अंदर ही रहती आयी हैं. इसी वजह से, उन्हें सार्वजनिक जगहों पर बाहरी या घुसपैठियां के रूप में देखा जाता है.
सच तो यह है कि दुनिया के अधिकतर साहित्य को उठा कर देख लें तो यही पता चलता है कि सार्वजनिक जगहों तक महिलाओं की पहुंच नहीं थी और इसके साथ ही वे खतरों को झेलते हुए इन जगहों पर अपनी पहुंच सुनिश्चित करती रहीं. (इसे शिल्पा फडके एवं अन्य लेखकों ने अपनी किताब ‘वाए लॉएटर’ में बहुत अच्छे से व्यक्त किया है)।
चंद्र तलपड़े मोहंती के लिखे शानदार निबंध ‘अंडर वेस्टर्न आइज़’ के आधार पर कहें तो ये निजी जगहें ही हैं जहां ‘महिला होने की धारणा’ का निर्माण किया जाता है, और वहीं इसे परिभाषित किया जाता है. इसलिए, भले ही महिलाएं सार्वजनिक जगहों में हों, पर यह विचार कि वे हमेशा ‘बाहरी’ हैं – बिना अधिकार प्रेवश कर रही हैं – यह धारणा हमारे सामाजिक और सांस्कृतिक ताने-बाने में गहराई में रच-बस गया है. लेकिन यह सोच हमें हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी की सच्चाइयों को समझने से और दूर कर देती है.
तो अगर हम इस वास्तविकता और हमारी सोच के बीच की असंगति पर विचार करें, तब हम यह भी देख पाएंगे कि जेंडर के आधार पर सार्वजनिक जगहों का उपयोग केवल इसके इस्तेमाल, पहुंच या सत्ता के संघर्षों तक सीमित नहीं है. बल्कि यह पहचान की अवधारणा से जुड़ा हुआ है. इसलिए जब शिल्पा फडके और अन्य लोग आवारगी को पितृसत्ता का विरोध मानते हैं, तो वे केवल जोखिम की बात नहीं कर रहे होते, बल्कि इस ओर इशारा कर रहे होते हैं कि महिलाओं को सार्वजनिक स्थान में अपनी पहचान – एक सार्वजनिक महिला होने की पहचान – बनानी और निर्मित करनी पड़ती है, क्योंकि यह परंपरिक रूप से उन्हें नहीं दी गई है.
लेकिन महिलाओं और स्थान को लेकर जेंडर आधारित विमर्श ने जो एक बहुत बड़ा नुकसान किया है वह यह है कि इसने सार्वजनिक स्थानों को लेकर हमारी सामूहिक कल्पना को भीतर तक हिंसा से जोड़ दिया है. इसकी वजह से हम सार्वजनिक जगहों में अपनी खुशी, अपनी इच्छाएं और अपना आनंद देख ही नहीं पाते.
एक तरह से, हमें अपनी कल्पनाओं की सीमाओं से भी लड़ना होगा ताकि सार्वजनिक जगहों में अपने लिए जगह बनाकर वहां नए तरह के अस्तित्व गढ़ सकें.
पितृसत्ता की स्याही
पितृसत्ता को समझने के लिए हम एक और कहानी से शुरू करते हैं – एक छोटी सी झलक. तो, बहुत सालों पहले जब मैं ग्रेजूएशन की पढ़ाई कर रही थी, उस दौरान क्लासरूम में पितृसत्ता पर जो कुछ पढ़ाया जा रहा था मैं उससे और असंतुष्ट हो रही थी. अक्सर मैं दुविधाओं से घिरी रहती. क्योंकि अबतक जो पढ़ा वो यही था कि हिंसा के मूल में पितृसत्ता है और क्लास में नारीवादी विमर्श में हमें सिखाया गया कि पितृसत्ता की पुरातन धारणाओं से हमें आगे बढ़ना है.
आखिरकार एक दिन क्लास में खड़े होकर मैंने एक बेवकुफाना सवाल पूछ ही लिया कि- क्यों नारीवादी विचारकों ने सत्ता को समझने के औज़ार के रूप में पितृसत्ता को छोड़ दिया?
इसलिए जब हम पितृसत्ता का इस्तेमाल हर ताले की चाभी के रूप में करने लगते हैं तो इसकी आड़ में कुछ ज़रूरी सवाल आसानी से छिप जाते हैं. जैसे, पितृसत्ता के कायदों को निभाने पर किस तरह के फायदे मिलते हैं? ये कैसे काम करती है? और ये क्यों काम करती है?
पितृसत्तात्मक समझौते
इसका एक आसान उदाहरण है कि हम किन स्थितियों में आज्ञाकारी या फिर अपने आप को समर्पित कर देते हैं, किनमें हम लेन-देन करते हैं या फिर फिर प्रतिरोध करते हैं.
मैंने इसे पहली बार पितृसत्तात्मक समझौतों (patriarchal bargains) की अवधारणा से समझा जिसे डेनिज कंदियोत्ति ने बहुत गहराई से अध्ययन किया है. पितृसत्तात्मक समझौते वे खास रणनीतियां, लेन-देन और सुलह होते हैं जो महिलाएं रोज़ाना करती हैं, ताकि उन्हें स्वीकृत सुरक्षा या कभी-कभी स्वतंत्रता मिल सके. 1988 में किए अपने महत्वपूर्ण शोध के आधार पर, कंदियोति, एशिया और सब-सहारा अफ्रीका में पितृसत्तात्मक पारिवारिक प्रणालियों के विभिन्न रूपों का अध्ययन करती हैं.
वह इस बात की पड़ताल करती हैं कि कैसे महिलाएं व्यक्तिगत रणनीतियों का उपयोग करके पितृसत्ता की प्रणालियों और उसकी मांगों को स्वीकार करती हैं, उनमें हेरफेर करती हैं, या उन्हें पलटती हैं, ताकि उन्हें वित्तीय, मानसिक, भावनात्मक या सामाजिक लाभ मिल सकें.
कंदियोति बताती हैं कि महिलाएं, एक बड़े दबावकारी तंत्र (जैसे पितृसत्ता) की स्याह छाया में रहकर भी कुछ व्यक्तिगत फायदे हासिल करती हैं. इसी कारण वे इस व्यवस्था में बदलाव का भी विरोध करती हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि वे इस व्यवस्था से जितना लाभ पा रही हैं, उससे अधिक शायद नहीं पा सकेंगी. हम भले ही यह आलोचना करें कि ऐसे समझौते व्यवस्था को ज्यों का त्यों बनाए रखते हैं, लेकिन ये समझौते उन महिलाओं के हित में होते हैं जो इस दबावकारी व्यवस्था में रहते हुए अपने तरीके से फायदा उठा पाती हैं.
वास्तव में, इन पितृसत्तात्मक समझौते की प्रकृति को समझने से मुझे पितृसत्ता को उसके विभिन्न रूपों में देखने का मौका मिला, न कि उस काले बॉक्स में जिसे हम इसे डाल देते हैं.
इससे मुझे यह समझने में मदद मिली कि किस तरह महिलाएं अपने आस-पास के पितृसत्तात्मक नियमों का रोज़मर्रा की छोटी-छोटी चीजों में इस्तेमाल कर अपने सपनों और इच्छाओं को आकार देती हैं.
इसका एक उदाहरण जो अक्सर हम देखते हैं कि किस तरह लड़कियां और महिलाएं ‘अच्छी महिला/लड़की’ की छवि का उपयोग करती हैं, ताकि वे पितृसत्ता की सख्त सीमाओं को पार कर सकें. इन सीमाओं का उल्लंघन कभी चुनाव में खड़े होने, अपने लिए फुर्सत के पल निकालने, या अपने जीवनसाथी को खुद चुनने के रूप में हो सकता है.
यह समझना कि पितृसत्ता कैसे काम करती है या सदियों से चलती आ रही हैं—भौतिक, सांस्कृतिक और प्रतीकात्मक रूप में—इस बात को पहचानने में सहायक है कि यह हिंसा से कैसे और क्यों जुड़ी हुई है, या यह समझने में भी कि सार्वजनिक क्या माना जा सकता है. और पितृसत्ता के तरीके और उसकी चालों को समझने का एक तरीका यह है कि हम पितृवाद को देखें, जिसमें महिलाएं सार्वजनिक स्थान पर रहने के लिए सौदे करती हैं.
हिंसा और पितृवाद
अक्सर हमारा विश्वास इसी पर टिका होता है कि हिंसा, पितृसत्ता की पैदल सैनिक है. और पितृसत्ता एवं हिंसा (बतौर एक अवधारणा) का एक दूसरे के साथ बहुत मिलनसार नाता है. लेकिन समाजविज्ञानी मैरी जैकमन इससे सहमत नहीं है. मैं इसे उनकी किताब ‘द वेलैट ग्लोव‘ में दी गई अवधारणा के साथ परखने की कोशिश करती हूं. जैकमैन लिखती हैं पितृसत्ता और हिंसा के बीच बहुत ही झगडालू रिश्ता है.
असल में पितृसत्ता की साख को बनाए रखने में जो सबसे महत्त्वपूर्ण है वो है- पैटरयलिज़्म यानि की पितृवाद शासन प्रणाली जिसका अर्थ है सामने वाले की बिना जानकारी, बिना सहमति के उसकी तरफ से निर्णय लेना या यह जताना कि ये उसकी भलाई के लिए है.
जैकमैन कहती हैं कि ऐसे में महिला के ऊपर (उसके शरीर के ऊपर) इख्तियार करने में अक्सर हिंसा की ज़रूरत नहीं होती. वे खुद-ब-खुद इस व्यवस्था (या अवपीड़क प्रेम) के साथ प्यार में होती है.
सामाजिक नियमों का पालन करने के लिए तारीफ़, इसके लिए इनाम, समाज में पहचान मिले और प्रतिरोध करने पर बदनामी मिले, तो ऐसे में शारीरिक बल के इस्तेमाल की ज़रूरत अक्सर नहीं होती है. खासकर उन सामाजिक धारणाओं में, जहां महिलाओं को ‘अच्छी महिला’ के रूप में पुरस्कृत किया जाता है, वहां महिलाएं खुद अपने परिवारों में हो रही जेंडर आधारित असमानताओं को नहीं देख पातीं. इसके बजाय, वे इसे अपने परिवार का ‘स्वाभाविक हिस्सा’ समझती हैं, जैसे प्यार करना और प्यार पाना स्वाभाविक होता है.
इसलिए यह सोचना कि शोषणकारी संबंधों का एकमात्र संकेत टकराव या हिंसा ही है, सैद्धांतिक रूप से कमज़ोर है. असल में, असमानता को संस्थागत बनाने के लिए एक विशेष प्रकार की विचारधारा का उपयोग किया जाता है, क्योंकि जो व्यक्ति शोषित हो रहा है, उसे अक्सर (कई तरीकों से) इस व्यवस्था को स्वीकार करने के लिए तैयार किया जाता है.
भले ही कुछ लोग विरोध करें, लेकिन इसे समझाने के लिए पितृवाद- अपनापन, प्यार और रोमांस का सहारा लेता है. इससे उसे यह छिपाने में मदद मिलती है कि असल में समझाने के नाम पर ताकत का इस्तेमाल हो रहा है.
अगर हम पितृवाद को पितृसत्ता के एक पक्ष के तौर पर देखें, तो समझ सकते हैं कि पितृसत्ता कैसे रिश्तों में ताकत की यथास्थिति को बनाए रखती है. यह दिखाती है कि सामाजिक नियम कैसे महिलाओं को ‘अच्छी’ महिलाओं की परिभाषा में कैद करती है और कैसे ताकत बिना विरोध या प्रदर्शन के आसानी से लोगों की भूमिकाओं को प्रभावित कर सकती है.
इसका एक सरल उदाहरण वह सवाल है जो हमने हाल ही में राजस्थान में युवा लड़कियों के एक समूह से पूछा था. हमने पूछा कि क्या वे रात के 9 बजे के बाद अपनी गली के बाहर जाती हैं? सभी लड़कियों (और कुछ महिलाओं) ने कहा कि उन्हें ऐसा करने में असहजता महसूस होता है.
और ये जवाब तब आया था जब उन्होंने हमें बताया था कि उनका मोहल्ला कितना सुरक्षित है, और तब हमने पूछा कि वे रात में बाहर क्यों नहीं जातीं.
तो, महिलाएं और लड़कियां जो खुद के ऊपर आत्म नियंत्रण रख रही हैं- (1) यह उनकी खुद की इच्छाओं के सीधा विरोधाभासी है (वे रात में स्वतंत्र रूप से बाहर जाना चाहती थीं), (2) उनके अनुभव (क्योंकि ऐसा कभी हुआ ही नहीं था), और (3) इस झूठी धारणा को बनाए रखता था कि हिंसा बाहर से आती है और लगभग हमेशा रात में होती है.
सच तो यह है कि कई बार लड़कियां और महिलाएं इस विश्वास प्रणाली की कैद में होती हैं, जो उनके हर एक चुनाव जो वे रोज़मर्रा में लेती हैं उसे प्रभावित करता है. उनके वास्तविक अनुभव अक्सर उनके ‘बाहरी दुनिया’ के बारे में बने भ्रमों या कल्पनाओं से मेल नहीं खाते, और इस तरह यह विचारधारा उनके जीवन की वास्तविकता को धुंधला कर देती है. यह सब दिखाता है कि किस तरह पितृत्वाद प्रभावशाली ढंग से काम करती है.
पितृवाद(पैटरनलिज़्म) को समझने का एक अच्छा तरीका यह है कि इसे गैसलाईटिंग का एक रिश्तेदार माना जाए. (गैसलाइटिंग, भावनात्मक शोषण का एक रूप है. यह किसी व्यक्ति को उसकी खुद के विश्वास पर सवाल उठाने के लिए मजबूर करने का एक तरीका है. गैसलाइटिंग का मकसद किसी व्यक्ति को कमज़ोर बनाकर उस पर नियंत्रण हासिल करना. यह शब्द अंग्रेज़ी के एक नाटक और उस पर आधारित फ़िल्म ‘गैसलाइट’ से निकला है.) पितृवाद, जो पितृसत्ता का एक रूप है, लोगों को प्यार, करूणा, सहानुभूति और चिंता जैसे मजबूत रिश्तों में बांध देता है, जिससे खुली दुश्मनी या हिंसा की संभावना ही नहीं होती.
जब वर्चस्व के रिश्ते प्यार और स्नेह के साथ गहराई से जुड़े होते हैं, तो सामाजिक परंपराओं और विचारों के जरिए धीरे-धीरे समझाना भी बिना किसी विरोध के वर्चस्व स्थापित करता है. इसका मतलब यह नहीं है कि नकारात्मक भावनाएं नहीं होतीं, लेकिन अक्सर उन्हें प्यार, मेल-जोल, जिम्मेदारी, सामाजिक भूमिका और परंपरा के रंगों से ढक दिया जाता है.
जब शिल्पा फडके अपने काम में “परोपकारी तर्क” पर बात करती हैं, तो वह उनके “उदार” तरीकों की ओर इशारा करती हैं, जिनसे महिलाओं के शरीर उनके ही भले के नाम पर नियंत्रित किए जाते हैं. उदाहरण के लिए, यह कहना कि घर पर रहो क्योंकि यह ज्यादा सुरक्षित है (तुम्हारे भले के लिए), हर समय फोन के ज़रिए निगरानी रखना ताकि परिवार या साथी चिंतित न हों. ऐसे सामान्य व्यवहार पितृवादी सोच का हिस्सा हैं, जो एक आदर्श “अच्छी” महिला या लड़की की छवि बनाते और बढ़ावा देते हैं. यह छवि अक्सर उन्हें उनके खुद के इच्छाओं से बचाने के नाम पर बनाई जाती है.
इसी वजह से बेमतलब का मज़ा, खुशी, जुनून और आज़ादी का विचार इतना ताकतवर है. यह सिर्फ इसलिए नहीं कि ये विचार हिंसा के नियंत्रण से बचाते हैं, बल्कि इसलिए भी कि ये पितृसत्ता के छिपे हुए तरीकों और पितृवादी प्यार के ज़रिए किए गए नियंत्रण से भी बचाते हैं.
यही वजह है कि जो लोग जेंडर आधारित हिंसा पर काम करते हैं, वे प्यार को नज़रअंदाज नहीं कर सकते, क्योंकि यह अक्सर हिंसा की कहानियों का अहम हिस्सा होता है – कई बार यह मुख्य भूमिका में होता है. लेकिन इसका मतलब यह भी है कि पितृसत्ता से लड़ाई सिर्फ “हिंसा से निपटने की रणनीतियों” में नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की ज़िंदगी में देखनी होगी.
हिंसा को टूटन के रूप में समझना
जैसे यह ज़रूरी नहीं है कि सहमति का मतलब हमेशा कामकाजी तालमेल ही हो, उसी तरह हमारी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में यह साफ होता है कि हिंसा हमेशा शोषण का ही संकेत नहीं होती. मैरी जैकमैन अपनी किताब में कहती हैं कि कई बार हिंसा, पितृसत्ता की सहयोगी न होकर यह देखने और समझने में मदद करती है कि उसके नियम कैसे टूट रहे हैं. अगर हम हिंसा को एक ऐसे नज़रिये से देखें- जहां व्यवस्था टूटने लगती है और अपने अंदर के विरोधाभास दिखाती है- तो हम यह समझ सकते हैं कि पितृसत्ता का ढांचा किस तरह से पितृवाद के साथ मिलकर चलता है.
इसलिए, जब हम सार्वजनिक जगहों पर जेंडर आधारित हिंसा के बारे में जानकारी इकट्ठा करते हैं, तो हमें हमेशा इसे पितृसत्ता के नियंत्रण के प्रतीक के रूप में नहीं देखते. बल्कि ये एक ऐसी जगह भी हो सकती है जहां पितृसत्ता अपना नियंत्रण खोने से डरती है.
जेंडर आधारित हिंसा पर एक समान सिद्धांत या विचार बनाने के बजाय, हम इस हिंसा की प्रकृति और तरीके पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं. इसे एक असामान्यता के रूप में देख सकते हैं, जो हमें उस छिपे हुए नियंत्रण की ओर इशारा करती है, जिसे हिंसा उजागर करती है.
इस व्यापक दृष्टिकोण के ज़रिए हम उन पुरुषों के अनुभवों पर भी ध्यान दे सकते हैं जिन्हें सार्वजनिक जगहों पर हिंसा के शिकार (दूसरे मर्दों द्वारा) होते हैं.
इसके ज़रिए हम सार्वजनिक जगहों पर होने वाली हिंसा को महिला-केन्द्रित परेशानी के रूप में नहीं, बल्कि एक ऐसी समस्या जो भेदभाव, अलग-थलग कर दिए जाने के डर, अकेलापन से निकलने वाली परेशानियों की वजह से है. ये हमें अपने आसपास की दुनिया को ज़्यादा बेहतर तरीके से समझने और जो सच्चाई हम देखते हैं उसे जानने-समझने में मदद कर सकता है.
और आखिर में एक ज़रूरी सवाल- अगर हमें हिंसा को एक दृष्टिकोण के रूप में देखना है और सार्वजनिक स्थानों की इस कहानी में पिता-तंत्र (पैतृक सत्ता) को मुख्य किरदार मानना है, तो हम चीजों को अलग तरीके से कैसे देख सकते हैं? इसका उत्तर देना अभी जल्दी होगा, लेकिन जिस तरह से हम इन सवालों का जवाब खोजने की कोशिश कर रहे हैं, वह यह है कि क्या हम अपनी कहानियों को बताने का तरीका बदल सकते हैं। अगर कहानियाँ अलग-अलग हकीकतें बना सकती हैं, तो हम सार्वजनिक स्थानों पर लिंग आधारित हिंसा की कहानियां कैसे अलग तरीके से बता सकते हैं?
इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है.