पुलिस सदैव (किसकी) सेवा में?

भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली में जाति, जेल व्यवस्था और पुलिसिंग पर तस्वीर परमार और निकिता सोनवणे से विस्तार में बातचीत.

चित्रांकन: बेकरी प्रसाद

सोचिए, आप घर में होने वाली शादी की खरीदारी करने बाज़ार गए थे और तीन दिन बाद पुलिस की हिरासत में आपकी मौत हो जाती है क्योंकि पुलिस ने आपको चोर समझ लिया. या फिर आपको किसी की हत्या के शक में गिरफ्तार कर लिया गया है, सिर्फ इसलिए क्योंकि आप अपराध स्थल से 5 किलोमीटर के दायरे में रहते हैं. ये न तो कोई एक बार की घटना है और न ही पहचान की गलतफहमी का मामला है. यह रोज़मर्रा की कड़वी सच्चाई है, जो कुछ खास जाति, जनजाति और धर्म से जुड़े लोगों की सामाजिक ज़िंदगी पर हावी है, जिन्हें ‘जन्म से अपराधी’ मान लिया जाता है.

आपराधिक न्याय प्रणाली की खामियां न तो छुपी हुई हैं और न ही ये कोई नई खोज हैं. लेकिन जिस चीज़ पर अभी भी ज़्यादा ध्यान नहीं दिया गया है, वह यह है कि कैसे ब्राह्मणवादी व्यवस्था, अपराधीकरण और हमारी पुलिसिंग प्रणाली के हर स्तर पर घुस चुकी है? और भाषा से लेकर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) तक, वो क्या-क्या चीज़ें हैं जिनका इस्तेमाल और दुरुपयोग किया जाता है ताकि हाशिए पर जी रहे समुदायों पर नियंत्रण रखा जा सके?

द थर्ड आई के अपराध संस्करण में हमने आपराधिक न्याय और पुलिस जवाबदेही पर आधारित सीपीए (CPA) प्रोजेक्ट से जुड़े तस्वीर परमार और निकिता सोनावणे से बातचीत की जो मध्य प्रदेश के भोपाल में सालों से विमुक्त समुदायों के साथ काम कर रहे हैं. तस्वीर और निकिता ने अपने काम और अनुभव के ज़रिए जाति, जेल व्यवस्था और पुलिसिंग के बीच गहरे संबंधों पर हमसे विस्तार से बातचीत की. पढ़िए यह बातचीत.

टीटीई: सीपीए (CPA) प्रोजेक्ट आपराधिक न्याय और पुलिस जवाबदेही पर आधारित है. तो पहला सवाल यही है कि आपने यह प्रोजेक्ट क्यों शुरू किया? आपको क्यों लगा कि इस पर शोध की ज़रूरत है?

निकिता: कानून की पढ़ाई और प्रैक्टिस के शुरुआती सालों में मुझे यह साफ समझ में आया था कि जिन तरीकों से कुछ समुदायों को हाशिए पर रखा जाता है और उनके अधिकार छीने जाते हैं, वह अपराधीकरण का तरीका है.

मैंने जब काम शुरू किया, उस वक्त फांसी की सज़ा को लेकर एक ‘डेथ पेनल्टी प्रोजेक्ट’ चल रहा था. इसमें उन लोगों की सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि को समझने की कोशिश की जा रही थी जिन्हें फांसी की सज़ा मिली थी. लॉ स्कूल शुरू करने से पहले से ही मैं इस प्रोजेक्ट पर काम करने लगी थी. तभी मुझे स्पष्ट हो गया था कि फांसी की सज़ा भुगत रहे कैदी अधिकांशतः वंचित समुदायों से हैं, उनमें भी खासकर – दलित, आदिवासी, घुमंतू समुदाय से. मुस्लिम कैदियों के भीतर भी जाति और वर्ग की स्थिति साफ तौर पर दिखाई देती है.

पढ़ाई खत्म करने के बाद मेरा काम वन अधिकारों (फॉरेस्ट राइट्स) पर ज़्यादा केंद्रित रहा. जंगल अधिकारों पर विमर्श मुख्य रूप से वन अधिकार अधिनियम (फॉरेस्ट राइट्स एक्ट) को लागू करने पर केंद्रित है लेकिन आए दिन वन विभाग, लोगों पर छोटे-मोटे वन अपराधों में केस दर्ज करता रहता है, जिनमें से कई, जैसे मछली पकड़ना, वन अधिकार में शामिल हैं. लोग इन्हीं मामलों में उलझे हुए हैं. इस तरह ज़मीनी स्तर पर यह विभिन्न आपराधिक कानूनों के तहत जंगल अधिकारों को अपराध मानने के कारण अपराधीकरण में बदल दिया जाता है.

अपराधीकरण के विमर्श में दो बातें जानने की हैं. पहला कि, आप आपराधिक कानूनी व्यवस्था में कैसे घुस रहे हैं और इससे आपका पहला संपर्क कैसे होता है? और ये पुलिस के ज़रिए होता है. असल में बहुत सारे लोगों के लिए पुलिस के साथ ही इसकी शुरुआत होती है और वहीं अंत भी हो जाता है. और इनमें से कुछ के साथ जो निगरानी होती है, या थाने में उनके साथ जो मारपीट होती है, उसका कोई रिकॉर्ड नहीं होता.

तो, पुलिस की भूमिका पर कभी ध्यान नहीं दिया गया और न ही उसकी कभी समीक्षा की गईृ है. पुलिसिंग का क्या ढांचा है? जो लोग फांसी की सज़ा का इंतजार कर रहे हैं – खासकर जो एक शोषित वर्ग से आते हैं – उनका और अपराधिकरण एवं पुलिसिंग व्यवस्था का क्या रिश्ता है?

पुलिसिंग से भी ज़्यादा जो ब्राह्मणवाद के ढांचे हैं उनका और अपराधीकरण का क्या संबंध है? इस पर अभी तक पर्याप्त काम नहीं हुआ है और जो हो रहा है वह अब भी बहुत कम है.

जाति का सवाल तो खैर मेरे लिए व्यक्तिगत तौर पर रहा है और एक तरह से अपने काम के ज़रिए मैं इससे बहुत जूझी भी हूं लेकिन मेरे लिए ये परिपक्व भोपाल में हुआ. वकालत का काम करने और कोर्ट में प्रैक्टिस करने के दौरान; वो भी खासतौर पर घुमंतू और विमुक्त समुदायों के साथ, जो एक बात साफ नज़र आ रही थी वह यह थी कि “जन्मजात अपराधी” की श्रेणी का पुलिसिंग, जाति और अपराधीकरण के तालमेल से या यूं कहें कि इन बहती धाराओं के बीच से ही जन्म हुआ है.

जब हमने काम शुरू किया, हम वकील के तौर पर कोर्ट और पुलिस स्टेशन में आते-जाते थे. तो हमारे लिए यह बिलकुल स्पष्ट था. ये कोई जटिल या गहराई वाली बात नहीं थी. आप सीधे-सीधे देख सकते थे कि एक ही तरह के लोग, सिस्टम में प्रवेश कर रहे हैं. वे ही वहां रहते आए हैं और कई मायनों में यह सिस्टम उन्हीं के इर्द-गिर्द बनाया गया है.

यह बहुत सारे समुदायों का पीढ़ियों से अनुभव रहा है और रोज़मर्रा की पुलिसिंग के संदर्भ में इसका कोई दस्तावेज़ीकरण नहीं हुआ था. जिसे आप अनुभवजन्य साक्ष्य, ठोस सबूत या प्रमाण कहेंगे, वह बहुत ही कम उपलब्ध था. तो हमें इस बात में बहुत रुचि थी कि रोज़मर्रा के जीवन में यह (भेदभाव) किस रूप और रंग में दिखाई देता है और इसके इतिहास को कैसे समझा जाए.

और यह जानने के लिए कि इस धारा का प्रवाह कहां से होता है, इसकी शुरुआत पर ध्यान देना ज़रूरी है. हमारे लिए इसका सोर्स रोज़मर्रा में होने वाली गिरफ्तारियां थीं, एफआईआर थे, जो डेटा पॉइंट्स थे – यह एक तरीके से पुलिस खुद अपनी कहानी बता रही थी. तो हमने उस डेटा को निकाला और उसे खंगाला, उसकी पूरी छानबीन कर देखा कि कौन-सी कहानी उभरकर आ रही है. इस तरीके से 2020 में CPA प्रोजेक्ट का काम शुरू हुआ और यह लगातार आगे बढ़ रहा है.

टीटीई: हमने जिंदल लॉ स्कूल में एक वार्ता में आपको सुना था जहां आप कह रही थीं कि सबको पता है कि जेलों में कौन हैं, और सदियों से वही लोग जेलों में हैं और किसे सुरक्षा दी जा रही है और किससे. यह समय के साथ नहीं बदला है लेकिन आपकी बातचीत में यह भी बात दिलचस्प थी जो आपने “घुमंतू समुदायों” के बारे में कहा. आपने कहा कि वे लोग जो एक जगह टिकते नहीं हैं उनसे हमें आपकी सुरक्षा करनी है. उनमें से एक ये घुमंतू लोग हैं. क्योंकि ये घुमंतू लोग, ये हमें कहीं न कहीं बहुत अस्थिर कर देते हैं क्योंकि एक समाज के रूप में भी, एक ऐसा व्यक्ति जो भटकता है, हर चीज़ को चुनौती देता है – विषमलैंगिकता को चुनौती देता है, घरेलूपन, परिवार की संरचना, ये जाति, पूंजी और औद्योगिक ढांचे को, सभी को चुनौती देता है. तो क्या आप इस बारे में थोड़ा विस्तार से बताएंगी कि ये कौन लोग हैं जिनसे ये ब्राह्मणवादी पुलिस ढांचा हमें “सुरक्षित” करता है?

तस्वीर: मैं एक उदाहरण के ज़रिए बताता हूं. विमुक्त या घुमंतू समुदायों के लिए पुलिस थाना ही सब कुछ है. मतलब, आपके जीवन का हर निर्णय पुलिस और पुलिस थाना ले रहा है. क्योंकि, ऐतिहासिक तौर पर घुमंतू समुदायों को एक ढांचे में बांधने की कोशिश की जा रही है. वे बार-बार उस ढांचे का विरोध कर रहे हैं. वे कह रहे हैं कि हमें इस ढांचे में नहीं बंधना, या हम इस ढांचे से अलग लोग हैं. हम इसका हिस्सा नहीं हैं, तो हम इसमें क्यों बंधें?

और ऐसा नहीं है कि पुलिस की पहुंच आपकी ज़िंदगी के केवल एक पहलू तक ही होगी. क्योंकि जब वे (पुलिस) नियंत्रित करेंगे तो वे निगरानी करेंगे. उन पर हिंसाएं करेंगे. कानूनी ढांचे के माध्यम से उनके संसाधनों, उनकी जीवनशैली, उनकी पद्धति, उनकी परंपरा के नियम-कायदों में घुस जाएंगे.

तो, सवाल यही उठता है कि जब वे (विमुक्त समुदाय) किसी व्यवस्था का हिस्सा ही नहीं हैं, तो ज़बरदस्ती उसका हिस्सा बनने के लिए क्यों कहा जाए? अगर इतिहास को उठा कर देखें तो विमुक्त और घुमंतू समुदायों के साथ बार-बार ऐसा किया गया है. उन्हें ज़बरदस्ती उस व्यवस्था का हिस्सा बनाने की कोशिश की गई है.

देखिए जो भी औपनिवेशिक कानून अंग्रेज़ी शासन के दौरान बनाए गए, उनका मकसद इन समुदायों को नियंत्रित करना था. चाहे 1871 का आपराधिक जनजाति अधिनियम (क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट) हो या हैबिचुअल ऑफेंडर एक्ट, या 1927 का वन अधिनियम जो बाद में वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन एक्ट (डब्ल्यूपीए) बना. इन कानूनों का इस्तेमाल विमुक्त और घुमंतू समुदायों को दबाने के लिए किया गया.

जब इन समुदायों को सीधे-सीधे नियंत्रित नहीं कर पाए, तो उन संसाधनों - जल, जंगल, ज़मीन - को ही नियंत्रित कर लिया गया, जिन पर उनका जीवन निर्भर था.

इस तरह आप उनकी जीवन शैली, उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में दाखिल होकर उसपर नियंत्रण करते हैं. जैसे, अगर मुझे जंगल से लकड़ी लानी है, तो वह अपराध है. मछली पकड़ना भी अपराध है.

विमुक्त-घुमंतू समुदायों में आपको अलग-अलग काम करने वाले समुदाय मिलेंगे. जैसे कंजर समुदाय, जो महुआ से शराब बनाते थे. यह उनका पारंपरिक काम था – महुआ के फुलों से शराब बनाना और अपने लिए भी थोड़ी मात्रा में रखना. उनके यहां पूजा-पाठ, मृत्यु, जीवन, बच्चों के जन्म जैसे सभी छोटे-बड़े अवसरों में महुआ का इस्तेमाल होता है. अब यह महुआ कहां मिलता है? जंगल में. लेकिन अब जंगल के महुआ के पेड़ पर चढ़कर महुआ तोड़ना या बटोरना मना हो गया है. अब आप जंगल की सीमा के अंदर नहीं जा सकते और अगर आपको इस सीमा के भीतर आना होगा, तो आपको उस ब्राह्मणवादी ढांचे में खुद को ढालना पड़ेगा, उनसे अनुमति लेनी पड़ेगी.

ऐसे में ये समुदाय क्या करें, किधर जाएं? इन समुदायों ने अपनी एक व्यवस्था बनाई हुई है. घुमंतू समुदायों में हमारे जैसी ही न्यायिक व्यवस्था है. उनकी अपनी पंचायत व्यवस्था है. पंचायत अपने निर्णय खुद लेती है, अपनी परंपराओं का पालन करती है. यहां सज़ा देने का तरीका ऐसा नहीं है कि किसी को जेल में डाल दिया जाए. अगर किसी ने कोई गलती या अपराध कर दिया है, तो सज़ा के तौर पर यही होता है कि पांच लोग समुदाय के बैठते हैं, परिवार के लोगों से मिलते हैं, फिर वे महुआ लाकर साथ में पी लेते हैं, या बीड़ी पी लेते हैं, और साथ में खाना खा लेते हैं. इसी प्रक्रिया में जो सज़ा का डर होता है, वह खत्म हो जाता है और सुलह हो जाती है.

निकिता: अगर आप अपराधीकरण पर कोई भी साहित्य पढ़ें, तो उसमें एक शब्द इस्तेमाल होता है – “पथभ्रष्ट”.

किसी माने गए आधार पर व्यक्ति पथभ्रष्ट माना जाता है. ऐसे में उसके लिए क्या कायदे हैं? वह किन “कायदों” से भटक रहा है? असल में यह जो कायदा है, वह वर्ण व्यवस्था का कायदा है. इसका मतलब है कि जन्म से ही आपका व्यवसाय तय कर दिया गया है.

लेकिन यह जो घुमंतू समुदाय हैं, उनका पूरा अस्तित्व इस व्यवस्था के विरोध में है क्योंकि यहां आपका जन्मजात कोई व्यवसाय नहीं होता, क्योंकि वे किसी एक जगह स्थिर होकर काम नहीं कर रहे हैं. इनके पारिवारिक ढांचे भी उस पारंपरिक हिंदू परिवार, खासकर ब्राह्मणवादी विचारधारा के परिवार के ढांचे से अलग हैं. हम इसे रोमांटिसाइज़ नहीं कर रहे हैं कि इन समुदायों में पितृसत्ता नहीं है. पितृसत्ता हर जगह है.

लेकिन महिलाओं के सम्मान का जो विचार है, उनकी शर्म या वे किस तरह से रहेंगी, उनकी भूमिकाएं क्या-क्या होंगी, यह काफी अलग है. जब अंग्रेज़ आए, तो उन्होंने भी यही देखा कि यहां कौन ‘पथभ्रष्ट’ है. इसके लिए उन्होंने जाति व्यवस्था को आधार बनाया और उसमें “पथभ्रष्ट होने वालों” को पहचानने की कोशिश की. उदाहरण के लिए, 1871 के आपराधिक जनजाति अधिनियम में हिजड़ा समुदाय को भी अपराधी घोषित कर दिया गया, यह कहकर कि यह यौनिकता के मापदंड से पथभ्रष्ट हैं. अब आप देखिए, मनुस्मृति में यौनिकता का जो उच्च स्तर है जिसे आप मानक स्तर रूप भी कह सकते हैं – वह ब्राह्मण महिला है, मतलब अंर्तविवाह यौनिकता – यानी जाति के अंदर रहने वाली.

विषमलैंगिक यौनिकता जिसे नियंत्रित करके जाति व्यवस्था को बनाए रखा गया है. मेरा मानना है कि घुमंतू समुदायों का जो ढांचा है, वह इसी मापदंड के विरोध में पनपा है. यही वजह है कि इन्हें स्थाई रूप से बसाना - इस प्रक्रिया का एक बड़ा हिस्सा है.

अगर इसे सरल बंबईया भाषा में कहें तो “लाइन पर आओ.” यानी जो व्यवस्था है, उसमें फिट हो जाओ.

टीटीई: तो जब हम किसी को “पथभ्रष्ट” के रूप में चिह्नित करते हैं, तो इससे किसे लाभ होता है, और वह लाभ क्या है? क्या यह लाभ भौतिक भी है?

निकिता: यहां स्पष्ट रूप से भौतिक लाभ है. जैसे, विमुक्त समुदाय हैं, उनके पारंपरिक व्यवसाय – चाहे वह शिकार करना हो, सड़क पर कलात्मक प्रस्तुति हो, जड़ी-बूटियां इकट्ठा करना, या मदारी, सपेरा आदि का काम – इन सबको आप अनौपचारिक अर्थव्यवस्था ही कहेंगे, सही? इसे असंगठित क्षेत्र भी कहा जाता है. तो एक समुदाय के पीढ़ियों से चले आ रहे व्यापार और जीवनशैली को “अनौपचारिक” और “असंगठित” करार दिया गया है.

अपराधीकरण की मूल कहानी और इसके कारण पुलिसिंग का मकसद संसाधनों, आजीविका और उन लोगों की गतिविधियों को नियंत्रित करना था, जिन्हें ‘व्यवस्थित’ जाति व्यवस्था के भीतर ‘अनौपचारिक’ माना जाता था. जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, जल, जंगल, ज़मीन के अपराधीकरण के माध्यम से संपत्ति छीनना इस प्रक्रिया का अहम हिस्सा है. लेकिन साथ ही, निगरानी के ज़रिए उनके चलने-फिरने, आदतों को नियंत्रित करना इस ब्राह्मणवादी योजना को साकार करने के लिए ज़रूरी था.

लेकिन इसका एक कम स्पष्ट पर ज़्यादा गहरा लाभ भी है, जिसे अगर ब्राह्मणवाद के दृष्टिकोण से देखें तो साफ समझ में आता है. इसे आप एक तरह का भुलावा या ध्यान भटकाने की तकनीक भी कह सकते हैं, जहां आप उन गैर-बराबरियों को खत्म करने का ऐलान करते हैं जिन्हें आपने खुद पैदा किया है. इस तरह असली मुद्दे से लोगों का ध्यान हटा दिया जाता है. अगर हम यौन हिंसा की बात करें, तो हर जगह यह मांग उठती है कि “इन्हें जेल में डालो, फांसी की सज़ा दो, अपराध कानून को और सख्त करो.” लेकिन इससे क्या होता है? इससे हम यह नहीं सोचते कि यह हिंसा क्यों हुई? इसका स्रोत क्या है? और यह किस प्रणाली के तहत पनप रही है? असल में इस तरह, संरचनात्मक मुद्दों से पूरी तरह ध्यान हटा दिया जाता है. मूल मुद्दे की जगह आप ध्यान को केवल अपराधीकरण और किसी एक व्यक्ति को सज़ा देने की मांग पर केंद्रित कर देते हैं, जिससे पूरी व्यवस्था को लेकर कोई सवाल नहीं उठता.

पुलिसिंग पर कोविड महामारी के दौरान हमारी पहली रिसर्च रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी. कोविड महामारी क्या थी? एक सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट. लोगों को सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की ज़रूरत थी, लेकिन हमारा हेल्थकेयर सिस्टम या तो मौजूद ही नहीं था या बुरी तरह बर्बाद था. नतीजा यह हुआ कि लोगों को स्वास्थ्य सेवाएं नहीं मिलीं और उनकी जान चली गई. लेकिन आपने इस स्वास्थ्य संकट को क्या बना दिया? एक कानून और व्यवस्था का मुद्दा और आपने पुलिस के ऊपर इसे छोड़ दिया. लॉकडाउन को ज़बरदस्ती लागू किया गया. रातोंरात, जो समस्या स्वास्थ्य सेवाओं की कमी को लेकर थी, असमान स्वास्थ्य सेवाओं का मुद्दा थी और लोगों की स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच की बात थी, उसे कानून और अपराधीकरण का मुद्दा बना दिया गया. इस तरह बड़ी आसानी से संरचनात्मक असमानताओं पर से लोगों का ध्यान हटाकर आप उन्हें एक व्यवस्था में केंद्रित कर देते हैं. फिर यह कहते हैं कि इसे हल कर लेंगे, जैसे – “थोड़ा सुधार कर दो, पुलिस को संवेदनशील बना दो, चीज़ें ठीक हो जाएंगी.” या “जेल में सुधार लाओ, तो सब ठीक हो जाएगा.”

ठीक है, सुधार से चीज़ें बेहतर हो सकती हैं, लेकिन जो शोषण है, और उसकी जो संरचनात्मक सच्चाई है, वह मूल रूप से बदलती नहीं. वह अलग-अलग रूपों में बनी रहती है.

आप पशु अधिकारों (animal rights) के कानूनों को देखें – वन्यजीव संरक्षण अधिनियम (Wildlife Protection Act (WPA) जैसा कानून हो, यह केवल वन्यजीव संरक्षण की बात नहीं करते. यह क्या कहते हैं? यह कहते हैं कि मछली खाना गुनाह है. आप मांस खाते हैं तो वह गलत है, शिकार करना गलत है. महुआ है, उससे शराब पीना गलत है और सिर्फ शराब पीना गलत नहीं है, इस तरीके की शराब पीना गलत है. आप फाइव स्टार होटल में जाकर शराब पी सकते हैं, वह स्वीकार्य है लेकिन अगर आप महुआ से कच्ची शराब बनाकर पी रहे हैं, तो वह गलत है.

मतलब चीज़ों को सामान्य कायदों के रूप में परिभाषित कर रहे हैं. और वह जो कायदे हैं, उन्हें आप अपराधीकरण के माध्यम से परिभाषित कर रहे हैं, और यह सब ब्राह्मणवादी कायदों पर आधारित है. मुझे लगता है कि यह संसाधनों के शोषण, हड़पने, और संचयन की बात है लेकिन यह केवल यहीं तक सीमित नहीं है.

चित्रांकन: निधिन शोबना

टीटीई: आपने पथभ्रष्ट और सहयोग की बात की, और हमें लगता है कि यहां दो प्रक्रियाएं हो रही हैं, और दोनों आपस में जुड़ी हुई हैं. एक तरफ आप यह तय कर रहे हैं कि कौन पथभ्रष्ट को परिभाषित करते हैं, और दूसरी तरफ यह है कि एक सभ्यता निर्माण परियोजना भी चलाई जा रही है जो पथभ्रष्ट को परिभाषित करती है. तो इन दोनों के बीच जो ‘आदतन अपराधी’ की श्रेणी है, वह कैसे बनती है?

निकिता: आज़ादी के बाद संविधान सभा में इस बात पर सहमति थी कि आप यह नहीं कह सकते कि कोई “जन्मजात अपराधी” है या आप “ट्राइबल” जैसे शब्द का खुलकर उपयोग नहीं कर सकते क्योंकि यह माना गया कि ये उपनिवेशवाद का हिस्सा थे और अब हम वह भाषा नहीं अपना सकते. भाषा तो बदल गई पर उसके पीछे की जो सोच थी, वो तो वहीं है.

यहीं से "आदतन अपराधी (habitual offender)” की श्रेणी बनाई गई जिसमें ‘जन्म आधारित’ को एक नया मुखौटा दिया गया. यह दिखाने के लिए कि हम ‘आपराधिक जनजाति अधिनियम (Criminal Tribes Act) को खत्म कर रहे हैं लेकिन उसे इस नई श्रेणी से बदल देंगे.

मगर, “आदतन अपराधी” की यह श्रेणी मेरी समझ से कुछ मामलों में आपराधिक जनजाति की श्रेणी से भी ज़्यादा खराब है क्योंकि आपराधिक जनजाति में फिर भी समुदायों को अपराधी घोषित करने और चिन्हित करने का एक मापदंड था लेकिन “आदतन अपराधी” की श्रेणी पूरी तरह से पुलिस के विवेक पर आधारित है. इसका कोई स्पष्ट मापदंड नहीं है. यह पूरी तरह से एक मनमानी श्रेणी है. और इस वजह से, भले ही कोई अदालत से बरी हो गया हो या नहीं हुआ हो, आप किसी को भी इस श्रेणी में डाल सकते हैं. आदत का मूल्यांकन करने के लिए भी कोई प्रक्रिया नहीं है. मतलब, एक ही परिस्थिति में, दो पुलिस अधिकारी अलग-अलग तरीके से सोच सकते हैं कि कोई आदतन अपराधी है या नहीं.

आदत का मतलब क्या है? वे किसकी आदतों पर नज़र रख रहे हैं? असल में, वे उन्हीं आपराधिक जनजातियों के समुदायों को आदतन अपराधी के रूप में देख रहे हैं.

तस्वीर: ऐसे कई उदाहरण हैं जहां विमुक्त समुदाय के बच्चे और बड़े लोग बरी हुए हैं, लेकिन बावजूद इसके, उनका एक रिकॉर्ड तैयार कर उसे थाना, पुलिस स्टेशन में रखा जाता है. अगर कोई पांच साल पहले बरी हुआ था, लेकिन वह समुदाय से है तो सारा रिकॉर्ड रखा जाएगा. फिर यह देखा जाता है कि आजकल वह क्या कर रहा है, किस काम में लगा हुआ है, कहां जा रहा है, किससे मिल रहा है, उसके दोस्त कौन हैं, और उसके परिवार में कितने लोगों पर इस तरह के अपराधिक मामले हैं – यह सारी जानकारी रिकॉर्ड के रूप में तैयार की जाती है. और एक पुलिस स्तर का ढांचा है, जिसका इस काम में उपयोग हो रहा है. यहां हम ब्राह्मणवादी ढांचे का इसलिए ज़िक्र कर रहे हैं क्योंकि इस पूरी प्रक्रिया की सोच वहीं से आ रही है.

आप देखिए जब 1952 में इन्हें ‘पूर्व अपराधी’ घोषित किया गया था, बावजूद भारत में पुलिस प्रशिक्षण में पुलिस अधिकारियों को यह क्यों पढ़ाया जा रहा है कि ‘आदतन अपराधी’ कौन होंगे? उदाहरण के लिए, भोपाल जैसे शहर में, अगर हम प्रोफेसर्स कॉलोनी में बैठे हैं और कॉलोनी में कोई चोरी हो, कोई हत्या हो, यहां तक कि बलात्कार होता है. तो पुलिस यह पता करती है कि इसके चार-पांच किलोमीटर के दायरे में कौन-कौन से समुदाय रहते हैं. क्या वह नट समुदाय होगा, कंजर, पारधी, कौन होगा? और अगर ये समुदाय पांच-दस किलोमीटर के दायरे में हैं तो पक्का यही लोग अपराधी हैं.

इस तरह की थ्योरिटिकल चीज़ें, मनगढ़ंत कहानियों के ज़रिए गढ़ी जाती हैं और इसे डेटा के रूप में पुलिस अधिकारियों को पुलिस ट्रेनिंग के दौरान पढ़ाया जा रहा है.

एक तरफ कानूनी कागज़ों में घुमंतू या विमुक्त समुदायों को “पूर्व अपराधी” घोषित कर दिया गया है लेकिन आपके जो पूर्वाग्रह हैं, उन्हें तो आप छोड़ना ही नहीं चाहते क्योंकि पुलिस पर भी यह दबाव होता है कि इस तरह की घटनाओं को जल्दी निपटाएं लेकिन अगर इन्हें पता है कि मैं (विमुक्त या घुमंतू समुदाय के लोग) राजीव नगर में रहता हूं, तो वहां जाकर 4-5 बच्चों को, महिलाओं को उठा लो और यह साबित कर दो कि इन लोगों ने चाकचौबंद वाली प्रोफेसर्स कॉलोनी में चोरी की है. यह तो बहुत आसान है, क्योंकि इन्हें पहले से पता है कि राजीव नगर अपराध स्थल के दायरे में आता है.

मज़ेदार बात यह है कि इन जगहों के नाम कैसे पड़े. जैसे, राजीव नगर का एक नाम ‘गंदी बस्ती’ है और गौतम नगर की बस्ती को ‘कारगिल’ कहते हैं. कारगिल क्यों? पता नहीं लेकिन इन इलाकों की पहचान ऐसी बस्तियों के रूप मे है जहां मज़दूर वर्ग या लेबर क्लास के लोग रहते हैं – जो शराब पीते हैं, कचरा बीनते हैं, मज़दूरी करते हैं, गटर में उतरकर नाला साफ करते हैं.

एक केस के बारे में बताता हूं. एक तहसील है जिसका नाम बैरसिया है. एक दलित लड़का अपनी बाईक पर जा रहा था जब एक ट्रैफिक पुलिस वाले ने उसे रोका. उसने उसके लाइसेंस के बारे में न पूछकर लड़के के गले में लटक रही चेन के बारे में पूछा. लड़के ने कहा, “सर ये चांदी की चेन है, सोने की नहीं.” और चांदी वाला 2-3 तोला दो-तीन हज़ार में मिल जाता है. इसपर उस ट्रैफिक पुलिसवाले ने पलट कर कहा “चमार कब से सोना, चांदी पहनने लगे?”

इस तरह की मानसिकता छोटे-छोटे लेकिन हर जगह दिखने वाले तरीकों से सामने आती है – जैसे कपड़े, कहानियां, खाना-पीना, लोग कहां रहते हैं, और वे कौन से इलाके में रहते हैं. ये सब चीजें ब्राह्मणवादी ढांचें के सूचक हैं.

टीटीई: और यही सोच सार्वजनिक डेटा ट्रैकिंग में भी नज़र आती है.

तस्वीर: आपराधिक जनजाति अधिनियम (CTA) में भी यही सिलसिला चलता है. जिसकी शुरुआत निगरानी रखने के लिए हुई थी, वहां तथाकथित आदतन अपराधियों के रजिस्टर (Habitual Offenders Register HO) बनाए जाते हैं. मतलब यह शब्द अब रोज़मर्रा की भाषा में इस्तेमाल होता है. अगर किसी को यह बताना हो कि कोई व्यक्ति ठीक नहीं है, तो आप उसे “गुंडा,” “राउडी,” या “हिस्ट्रीशीटर” कह देंगे. यह शब्द बहुत से लोग, यहां तक कि अच्छे इरादे वाले लोग भी, आम बोलचाल में इस्तेमाल करते हैं.
पुलिस अक्सर लोगों को थाने बुलाकर उनसे पूछताछ करती है, जैसे, “तुम्हारे पास कौन-सी गाड़ी है, वह कहां से खरीदी, तुम्हारे पास कौन-सा फोन है, और तुम्हारे दोस्त कौन-कौन हैं?” कई बार ऐसा होता है कि पुलिस केवल इस आधार पर केस दर्ज कर देती है कि किसी ने नया मोबाइल खरीदा है. वे सोचते हैं कि अगर किसी के पास अच्छी गाड़ी है या अच्छे कपड़े और गहने हैं, तो यह ज़रूर चोरी का होगा या गलत तरीके से कमाया होगा. यहां तक कि बच्चों को भी इसी नज़र से देखा जाता है. उन्हें भी आदतन अपराधी के रूप में देखा जाता है, जबकि यह किशोर न्याय अधिनियम (Juvenile Justice Act) के खिलाफ है.

इसका मतलब यह है कि किस परिवार में पैदा हुए हैं, उससे तय होता है कि आप खानदानी अपराधी हैं या नहीं. और यह अपराधीकरण सिर्फ समुदाय तक ही नहीं बल्कि उस समुदाय के हर एक परिवार के भीतर है.

लेकिन, जब आप इसे दूसरे संदर्भ में देखते हैं. जैसे, उच्च जाति के परिवारों में, हिंसा को पहचाना ही नहीं जाता. अगर किसी ऊंची जाति के परिवार में घरेलू हिंसा या यौन हिंसा होती है, तो उसे छिपा दिया जाता है और उसे मान्यता नहीं दी जाती. वहीं विमुक्त या घुमंतू समुदाय के परिवारों के बारे में कहा जाता है कि वे जन्म से ही हिंसक हैं.

और यह जो जानकारी आप इकट्ठा करते हैं, यह खुद में एक भविष्यवाणी बन जाती है कि “देखो, ये लोग ऐसा ही करते हैं.”

निकिता: आपके पूरे शरीर को ही डेटा पॉइंट की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है.

आपके बाल छोटे हैं, आंखें भूरी हैं – पहले तो यह सब जैविक आधार पर भी किया जाता था, लेकिन अब थोड़ा होशियार हो गए हैं. कहते हैं कि ये घूमने वाले लोग हैं. आप कह देते हैं कि यह व्यक्ति ऐसा करता है, तो यही अपराधी है. फिर, जब आप इस व्यक्ति का डेटा इकट्ठा करेंगे, तो वह अपराध का सबूत बन जाता है. तो यह एक दुष्चक्र है. जहां मैं जो भी करती हूं, उसे अपराध मान लिया जाता है. और जो भी आप मुझसे इकट्ठा करते हैं, वह एक डेटा पॉइंट बन जाता है, जिसे अपराध को साबित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है.

टीटीई: सत्ता के इस पूरे तंत्र में भाषा का क्या रोल है, जो इस पथभ्रष्ट या अपराधी शरीर को बनाने में मदद करता है?

निकिता: भाषा का बहुत बड़ा रोल है. जैसे आदतन अपराधी शब्द लंबे समय तक विभिन्न राज्य कानूनों में या तो अस्पष्ट रूप से परिभाषित किया गया या बिल्कुल परिभाषित ही नहीं किया गया. ऐसा प्रशासनिक निष्पक्षता का दिखावा बनाए रखने के लिए किया गया, हालांकि आदतन अपराधी कानून को आयंगार समिति द्वारा आपराधिक जनजातिय अधिनियम (CTA) के रद्द किए जाने के बाद लागू किया गया था. इसे जानबूझ कर पुलिस की समझ पर छोड़ दिया गया था ताकि प्रशासनिक निष्पक्षता का दिखावा बना रहे. इससे पुलिस को बिना किसी रोक-टोक के यह अधिकार मिल गया कि वे जातिवादी तर्कों का इस्तेमाल करके उन ही समुदायों को अपराधी ठहराएं, जिन्हें पहले सीटीए के तहत अपराधी बनाया गया था, और अब हाल के समय में कई अन्य समुदायों को भी, जैसे कई मुस्लिम समुदाय (नीची मानी जाने वाली जातियों से और जो गरीब हैं) उन्हें भी इसमें शामिल किया गया है.

जिस क्षण यह शब्द किसी व्यक्ति के साथ जुड़ जाता है, तो फिर उसके साथ कुछ भी हो, उस पर सवाल नहीं उठाया जाएगा. क्योंकि यह मान लिया जाता है कि वह जन्मजात अपराधी श्रेणी का है. यहां तक की ज़मानत लेने के समय भी जज यह देखेंगे कि इसका कोई पूर्व आपराधिक रिकॉर्ड है या नहीं, और अपराध करना इसकी आदत तो नहीं है? यही ज़मानत का आधार बन जाता है.

हमने मध्य प्रदेश में एक्साइज़ (आबकारी) विभाग को लेकर एक स्टडी की थी, खासकर गुमंतु समुदाय की कुछ महिलाओं पर. जबलपुर ज़िले में महुआ से शराब बनाने वाली इन महिलाओं पर आबकारी अधिनियम के तहत 25-28 मामले दर्ज हैं. जब हमने मध्यप्रदेश हाई कोर्ट के ज़मानत ऑर्डर्स का अध्ययन किया, तो यह साफ हुआ कि जब भी कोई जज कोई ऑर्डर पास करता है, तो उसे एक कारण देना होता है कि वह जो भी निर्णय ले रहा है, उसका आधार क्या है. लेकिन यहां केवल एक ही कारण था: ‘आदतन अपराधी’. मतलब इसके इस्तेमाल को लेकर एक खुली छूट है. हर कोई समझता है कि इसका मतलब क्या है, लेकिन कोई भी इसे सही से परिभाषित नहीं कर पाता.

तस्वीर: मैं राजीव नगर में रहता हूं. इस मोहल्ले की पहचान ऐसी है कि यहां के युवाओं को कोई काम नहीं देता. बस्ती से कुछ युवा वेटर का काम करते हैं, खासकर शादी-ब्याह के सीज़न में. जब रात को शादी या पार्टी का काम खत्म होता है, तो वे 3-4 बजे घर आते हैं. ऐसे में उनके पीछे 2-2 किलोमीटर तक पुलिस पिकअप लेकर चलती रहती है.

जो युवा होते हैं, उन्हें शादी-पार्टी से खाना साथ में लाना पड़ता है यह बताने के लिए कि, "साहब, हम शादी-पार्टी से आ रहे हैं, हमारे पास सबूत के तौर पर खाना है." कई बार ऐसे किस्से भी हुए हैं कि जो खाना वे लाते हैं, उसे पुलिसवाले खाकर चेक करते हैं

कि भाई, यह खाना ही है या इसमें कुछ और है. विमुक्त समुदायों पर ऐसे मामले और भी ज़्यादा देखने को मिलते हैं. भोपाल और मध्य-प्रदेश के अन्य शहरों में इन समुदायों में हिंसा के मामले काफी बढ़ रहे हैं, क्योंकि अब पुलिस का टॉर्चर बहुत ज़्यादा हो गया है. कई बार यह बहुत खतरनाक भी हो जाता है.

ऐसा ही एक मामला बैरसिया तहसील का है. भोपाल के पास के राजगढ़ ज़िले का एक व्यक्ति, जो कंजर समुदाय से था, भोपाल में अपने परिवार के पास शादी में शामिल होने आया था. उस व्यक्ति का नाम तुलसीराम था. तुलसीराम अपने परिवार के साथ आए थे और बैरसिया की लोकल मार्केट में शादी-ब्याह का सामान खरीद रहे थे. यह घटना 2021 की है. जब वह सामान खरीद रहे थे, तो बैरसिया पुलिस थाने के पुलिसकर्मियों ने उनकी गिरफ्तारी कर ली. पुलिस ने बाज़ार में ही उनके साथ बहुत बुरी तरह मारपीट की. फिर तीन दिनों तक थाने में बुरी तरह पीटा. चौथे दिन उन्हें कोर्ट में पेश किया और पांचवें या छठे दिन, भोपाल जेल में तुलसीराम कंजर की मौत हो गई. पूरा परिवार, पूरा समुदाय, और बाज़ार में मौजूद लोगों ने विरोध किया. सभी ने कहा कि वह केवल सामान खरीद रहे थे, उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया था. उनके परिवार में बच्चे भी हैं और उनके साथ 8-10 लोग और थे जो बाज़ार में सामान लेने आए थे. इस तरह की घटनाएं बहुत आम हो चुकी हैं.

निकिता: मुख्यधारा के विमर्श में, हम अपराध या अपराधी को सिर्फ जेल में डालने के नज़रिए से देखते हैं, है ना? इस बात से कोई इंकार नहीं कि यह अपराध का एक परिणाम है और जेल के भीतर जिस तरह के काम किए जाते हैं वो ज़रूरी हैं. लेकिन जिसपर कम बात होती है, वह यह है कि जेल में न रहते हुए भी आपने असल में लोगों की ज़िंदगी को एक कैद व्यवस्था में डाल दिया है.

अगर कहीं चोरी हो गई तो विमुक्त-घुमंतु समुदाय के लोग बाहर जाने से डरेंगे, क्योंकि उन्हें पता है कि पुलिस उनके साथ उनके बच्चों को भी उठा लेगी.

यह पूरी तरह से पुलिसिंग और अपराधीकरण से ही प्रभावित है. आप देखिए, कई बार पारधी समुदाय में जब शादी भी होती है, तो पहले थाने में जानकारी देनी पड़ती है क्योंकि अगर एक ही जगह पर इतने सारे पारधी इकट्ठा हो गए, तो यह कहा जाएगा कि वे कोई अपराध करने के लिए जमा हुए हैं, जबकि वे शादी के लिए, अपने मेहमानों के साथ इकट्ठा हुए हैं.

आप देख सकते हैं कि इसका असर बहुत ही विस्तृत और गहरा है. हैदराबाद में हम आदतन अपराधियों को लेकर एक अलग संदर्भ में एक पुलिसवाले से बात कर रहे थे. उन्होंने कहा कि “असल में आदतन अपराधी मतलब वे लोग, जो हमारी हिरासत में नहीं भी हैं, तब भी ऐसे हैं मानो वे हमारी ही हिरासत में चौबीसो घंटे जी रहे हैं.” यहां हिरासत का मतलब पूरा जीवन ही निगरानी में है.

चित्रांकन: बेकरी प्रसाद

टीटीई: ऐसे समुदायों के मानसिक स्वास्थ्य और मनोस्थिति पर काम करने का मतलब क्या है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी अपराधी माने जाते रहे हैं?

तस्वीर: मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समस्याएं यहां बहुत ज़्यादा हैं, क्योंकि इन समुदायों के लोग रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हर पल पुलिस और उसकी जैसी व्यवस्था से जूझ रहे हैं. मानसिक स्वास्थ्य बहुत ज़रूरी है क्योंकि पुलिस उनके जीवन जज भी है, कानून भी है और उसे थोपने वाला भी है. न्याय, आज़ादी और स्वायत्त्ता की उनके जीवन में कोई जगह नहीं है.

कई बस्तियों में तो स्थिति और भी भयानक है. जैसे, एक बस्ती है जहां पिछले 1-1.5 साल में लगभग 40-50 आत्महत्या की कोशिशें हो चुकी है. ये लोग न सिर्फ़ अपने भीतर के संघर्षों से गुज़र रहे हैं बल्कि पूरा समाज- शासन, प्रशासन, पूलिस सभी के साथ लगातार संघर्ष में हैं.

हम लोग इस मुद्दे पर थोड़ा-बहुत काम कर रहे हैं. उदाहरण के लिए, काउंसलिंग जैसी चीज़ें शुरू की गई हैं. जैसे, महाराष्ट्र में दीपा पवार हैं, और भोपाल में मुस्कान एक संगठन है, जो पूरी टीम के साथ काम कर रही है. ये विमुक्त समुदायों के मानसिक स्वास्थ्य पर ध्यान दे रहे हैं.

इन समुदायों की कुछ विशेष परिस्थितियां हैं जिसे ध्यान में रखना ज़रूरी है. खासतौर से महिलाओं के संदर्भ में. पारधी और विमुक्त समुदायों में ज़्यादातर महिलाओं के कंधों पर घर चलाने की ज़िम्मेदारी होती है. और परिवार में वे ही नेतृत्व की भूमिका में होती है. पारधी समुदाय की महिलाएं कबाड़ बीनने का काम करती हैं. वे सुबह 4-5 बजे से अपना दिन शुरू करती हैं और पूरे दिन संघर्ष करती हैं. उन्हें कबाड़ बीनते समय लोगों की गालियां सुननी पड़ती हैं, कभी पुलिस का सामना करना पड़ता है, और अब शहर को साफ-सुथरा बनाने के नाम पर कबाड़ भी कम मिलने लगा है.

इससे उनका तनाव और बढ़ गया है. कबाड़ से मिलने वाले पैसे से ही उनके घर का खर्चा चलता है. इस वजह से उनके परिवार-समुदायों में लोगों के साथ रिश्तों में भी झगड़े बढ़ रहे हैं. कई बार छोटी-छोटी बातों पर लोग खुद को नुकसान पहुंचा लेते हैं. महिलाएं अपने हाथ काट लेती हैं, फांसी लगा लेती हैं, या तालाब में कूद जाती हैं. कभी-कभी कबाड़ बीनते समय लापरवाही के कारण बिजली के तार छू जाने से दुर्घटनाएं भी होती हैं.

पुलिस के साथ तनाव इतने बढ़ गए हैं कि मारपीट के दौरान कुछ लोग जान तक गंवा देते हैं. इन सब समस्याओं के चलते मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर पड़ रहा है.

निकिता: मुझे लगता है कि हमें ट्रॉमा और मानसिक स्वास्थ्य को उन समुदायों के संदर्भ में समझने की ज़रूरत है जहां पीढ़ी दर पीढ़ी आपराधिकरण का अनुभव चला आ रहा है. ट्रॉमा को समझने और उसकी परिभाषा का दायरा बढ़ाने की आवश्यकता है.

विमुक्त समुदाय जैसे ऐतिहासिक रूप से दबाए गए समूहों का इतिहास बाकी समुदायों से अलग है. जैसे दीपा पवार भी कहती हैं कि

“यह सिर्फ मानसिक स्वास्थ्य का मुद्दा नहीं है, यह न्याय का मुद्दा भी है. आप पीढ़ियों से चले आ रहे उत्पीड़न को ‘खुद की देखभाल (सेल्फ केयर) और वेलनेस’ के ज़रिए मुक्त नहीं कर सकते.”

टीटीई: यहां तकनीक की क्या भूमिका होनी चाहिए? और आज के डिजिटल युग में हम कैद या निगरानी को कैसे समझते हैं? क्योंकि जैसा आपने बातचीत में कहा था, निगरानी में रखा गया शरीर अब डेटा में परिवर्तित शरीर है…

निकिता: यह जो तकनीक के ज़रिए हो रहा है, चाहे वह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) हो या कोई और चीज़, यह कुछ नया नहीं कर रही है. मतलब, जो पहले आपका क्रिमिनल रजिस्टर था, अब उसे क्रिमिनल डेटाबेस बना दिया है.

आप एआई (AI) का उपयोग करके और फेसियल रिकग्निशन (facial recognition) के ज़रिए उन्हीं लोगों को फेस मैपिंग के लिए टारगेट करेंगे, जिन्हें आप पहले से ही टारगेट कर रहे थे. तो मुझे लगता है कि एआई और तकनीक का जो ढांचा है, वह सिर्फ़ ऐतिहासिक रूप से किए गए अपराधीकरण को ही दोहराता है.

और जो अभी हम हैदराबाद में देख रहे हैं, क्योंकि वह इन तकनीकों का सेंटर प्वाइंट है, वहां “क्रिमिनल हॉटस्पॉट्स” बनाए जा रहे हैं. अब यह “क्रिमिनल हॉटस्पॉट्स” क्या हैं? वे वही बस्तियां हैं, जिन्हें पुलिस पहले से ही जानती है कि वहां ‘अपराध’ होता है. बस अब आप इसे ऐसा दिखा रहे हैं कि यह सब कुछ ‘निष्पक्ष’ हो रहा है. मतलब, यह किसी व्यक्ति ने नहीं बल्कि तकनीक ने किया है.

हो यह रहा है कि सरकार और राज्य इसी नैरेटिव का उपयोग कर रही है. वे कहते हैं, “अच्छा, आप कह रहे हैं कि यह सिस्टम में कुछ व्यक्तियों की गलती है, तो चलो हम इन व्यक्तियों को हटा देते हैं. और उसकी जगह तकनीक डाल दी. अब देखिए, वही नतीजे सामने आ रहे हैं.” लेकिन सवाल ये है कि उस तकनीक को डिज़ाइन कौन कर रहा है? उस डिज़ाइन को आप किस ढांचे में ढाल रहे हैं? वह ढांचा तो मानव निर्मित है, है ना? और वह मानव निर्मित ढांचा ऐतिहासिक और समाजशास्त्रीय ढांचा है.

तो मुझे लगता है कि तकनीक को जातिविहीन नज़रिए से देखने का यह नतीजा है कि इसका सारा फोकस ‘सुधार पर है. और अब बहुत सारे लोग यह दुहाई दे रहे हैं कि एआई चीज़ों को और खराब कर देगा. पर चीजें पहले से ही बहुत खराब थीं. लोगों ने पहले इस पर ध्यान नहीं दिया कि वो कितनी खराब थी.

टीटीई: क्या इसी वजह से अपराध को समझने में जाति का नज़रिया इतना ज़रूरी है?

निकिता: कोई भी विमर्श जो जातिविहीन होता है, वह हमेशा स्वीकार्य होता है.

क्योंकि जातिविहीन विमर्श ने सवर्ण लोगों को सिस्टम से बात करने का अवसर दिया है बिना खुद को उसमें शामिल किए.

उदाहरण के लिए मथुरा का जो मामला था, वह हिरासत में बलात्कार (custodial rape) की श्रेणी में है या फिर आप देखें कि भंवरी देवी का जो मामला था, उसमें कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न की बात है, तो काम का मतलब अलग-अलग लोगों के लिए बहुत अलग होता है. और काम भी इस बात से तय होता है कि आपका जन्म किस जाति में हुआ है.

उसी तरह हिरासत का अनुभव क्या है, वह भी बहुत अलग-अलग है. मथुरा के मामले में जिस तरह से उन्हें हिरासत में रखा गया, जिस तरह से सुप्रीम कोर्ट ने आरोपियों को बरी किया, यह कहकर कि वह बस उद्दंड हैं, यह पूरा नैरेटिव यही कहता है कि ये महिलाएं सम्मान से रहित हैं, और इन्हें यौन रूप से शोषित करना वास्तव में कोई उल्लंघन नहीं है, बल्कि यह अधिकार का मामला है.

भंवरी देवी के मामले में भी देखें तो फैसले में यही कहा गया. कानूनी रूप से इस तरह के कई उदाहरण हैं. उन मामलों के अनुभव और जो लोग इससे बाहर निकले, उनके अनुभव को भी आपने मिटा दिया है.

टीटीई: आपको क्यों लगता है कि पुलिसिंग को सिर्फ़ राज्य के एक उपकरण के रूप में देखने के बजाय, इसे एक दार्शनिक विचार के रूप में रोज़मर्रा की ज़िंदगी में समझना ज़रूरी है? क्या यह शायद एक शुरुआत हो सकती है कि हम अपराध और अपराधी को एक नारीवादी दृष्टिकोण से देख सकें?

तस्वीर: पुलिसिंग एक शब्द है और जो पुलिस है, उसमें फ़र्क है. पुलिस तो बस उसकी एक छोटी सी इकाई है. असल में पुलिसिंग के पूरे ढांचे में जेल, निगरानी के तरीके, अलग-अलग विभाग और अधिकार प्राप्त अलग-अलग प्रकार के लोग शामिल हैं. खासकर निगरानी के ज़रिए कुछ विशेष समुदायों की ऐतिहासिक तौर पर निगरानी हुई है और आज तक उसका असर है.

विमुक्त समुदायों पर निगरानी के लिए जिस तरह के कानून और उसके ढांचों का डिज़ाइन बनाया गया था, वह आज भी है. ये वही कानून हैं जिन्हें आज भी इस्तेमाल कर उनके साथ भेदभाव जारी है.

कोई जन्म से कैसे अपराधी हो सकता है? सारे कानून भी उसी ढांचे के हिसाब से बनाए गए हैं.

इसमें हम देखते हैं कि अलग-अलग विभाग हैं, और अब इसमें “नगर सुरक्षा समिति” बना दी गई है. इस समिति को इस उद्देश्य से बनाया गया है कि यह इलाकों, मोहल्लों और नगरों की सुरक्षा के लिए काम करेगी. लेकिन असल में, यह समिति लोगों पर निगरानी का काम करती है.

मैं खुद एक-दो बार नगर सुरक्षा समिति की बैठकों में गया हूं और मैंने वहां ऐसे लोगों को देखा है, जिन्हें मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और जो आपराधिक गतिविधियों में शामिल रहे हैं. जैसे, आर्म्स एक्ट के मामले दर्ज हैं, यहां तक कुछ पर बलात्कार के मामले भी दर्ज हैं. और यही लोग पुलिस के साथ मिलकर नगर सुरक्षा समिति के तहत काम कर रहे हैं. अब यह समझ में नहीं आता कि ऐसे लोग नगर की सुरक्षा करेंगे या कुछ और करेंगे?

एक बार हमारे पास एक केस आया था, जिसमें दो बच्चे थे. उन बच्चों को हिरासत में लिया गया था. लेकिन उन्हें पुलिस स्टेशन में नहीं रखा गया, बल्कि एक जानेमाने अपराधी के घर पर रखा गया, जिसके खिलाफ 25 आर्म्स एक्ट का मामला दर्ज़ था. उस ने बच्चों से पूछताछ की, उनके साथ मारपीट की. और उस बस्ती की महिलाओं ने हमें बताया कि यह जो व्यक्ति है, इसने पहले तलवार मारी थी.

यह न्याय के चुनिंदा इस्तेमाल, दोहरापन और पक्षपात को दर्शाता है. निगरानी का ज्यादा बोझ विमुक्त समुदायों पर डाल दिया जाता है, जबकि खास सुविधाजनक स्थिति वाले लोगों के गलत कामों को नजरअंदाज किया जाता है.

अगर यही अपराध किसी वंचित समुदाय के लोगों द्वारा होता, तो उन्हें अब तक फांसी पर लटका दिया गया होता. यह एक तरह का पक्षपात है. न्याय देने में भी पक्षपात है. न्याय की अवधारणा को समझने में भी पक्षपात है. और यह तय करने में भी कि न्याय किस पर लागू होगा और किस पर नहीं.

यह सब दिखाता है कि असंगठित क्षेत्र में किसे आसानी से दबाया जा सकता है और किसे दबाना मुश्किल है. ऊंची जाति के लोग अपने समाज का निर्धारण कर सकते हैं. वहीं से लोग शासन-प्रशासन और इस तरह की नौकरियों में आते हैं. पुलिस विभाग में भी वही लोग आते हैं. इनकी सोच और मानसिकता एक जैसी होती है. इस तरह समान विचारधारा वाले लोग बैठे हुए हैं.और वह गैर-बराबरी और यथास्थिति को बनाए रखते हैं.

निकिता: इसमें एक बात और जोड़नी है कि हमें पुलिसिंग को एक बड़े ढांचे से जोड़कर देखना होगा, फिर चाहे वह पुलिस व्यवस्था हो, खाप पंचायत हो, या सोसाईटी के रेजिडेंशियल एसोसिएशन हों. ये सभी बुनियादी तौर पर यथास्थिति को सुदृढ़ कर रहे हैं. अगर पुलिसिंग का सबसे बड़ा उदाहरण कहीं है, जहाँ से यह उभरकर आता है, तो वह है परिवार का संस्थान. क्योंकि यही वह बुनियादी इकाई है जहाँ पर लोगों को बचपन से सिखाया जाता है कि उन्हें कैसा होना चाहिए, क्या नहीं होना चाहिए. अलग-अलग भूमिकाओं के अनुसार लोगों को ढाला जाता है.

मुझे लगता है कि यह भी पुलिसिंग का एक बड़ा स्रोत है. पूरे जाति व्यवस्था का जो निचोड़ है, जो केंद्र बिंदु है, वह परिवार में ही है और निश्चित रूप से शादी में भी.

इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है.

द थर्ड आई की पाठ्य सामग्री तैयार करने वाले लोगों के समूह में शिक्षाविद, डॉक्यूमेंटरी फ़िल्मकार, कहानीकार जैसे पेशेवर लोग हैं. इन्हें कहानियां लिखने, मौखिक इतिहास जमा करने और ग्रामीण तथा कमज़ोर तबक़ों के लिए संदर्भगत सीखने−सिखाने के तरीकों को विकसित करने का व्यापक अनुभव है.

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