अंक 002: जन स्वास्थ्य

भारत की जन स्वास्थ्य व्यवस्था एवं उसके भविष्य पर नारीवादी तफ़्तीश

“या तो हम सभी एक सभ्य दुनिया में रह सकते हैं, या कोई नहीं रह सकता”

रीतिका खेड़ा जो एक विकासवादी अर्थशास्त्री हैं, सार्वजनिक स्वास्थ्य को एक विचार के रुप में देख रही हैं, साथ ही वे भारत में उसके भविष्य का स्वरूप कैसा होना चाहिए, तथा क्यों लोक कल्याण और लोगों की गरिमा एक दूसरे के पूरक हैं इसपर विस्तार से चर्चा करती हैं.

दर्द के नक्शे

हमारे डिजिटल एजुकेटर्स ने ऑनलाइन एक कार्यशाला के ज़रिए अपने शरीर के और अपने आसपास के दर्द को समझने का प्रयास किया. कार्यशाला में क्या बातें हुईं और कैसे साथियों ने अपने दर्द का नक्शा बनाया इस वीडियो के ज़रिए देखें.

दर्द की नक्शानवीसी

कोविड की दूसरी लहर की तबाही के बीचों-बीच हमने थर्ड आई के डिजिटल एजुकेटर्स के साथ यह कार्यशाला की थी. थिएटर, मानसिक स्वास्थ्य और आध्यात्म के अपने अनुभवों के आधार पर मैंने कार्यशाला से जुड़े साथियों से बात कर हर संभव कोशिश की, जिससे उन्हें एक सार्थक अनुभव हो और उनके साथ मैं भी अपनी आवाज़ खोज पाऊं.

“महिला हिंसा सार्वजनिक स्वास्थ्य का मुद्दा है.”

स्वास्थ्य, निजी होकर भी सार्वजनिक है. भारत में स्वास्थ्य सुविधाएं सभी को प्राप्त नहीं हैं. हालांकि हमारा संविधान यह मानता है कि स्वास्थ्य का अधिकार हमारे मौलिक अधिकारों का भाग है. जेंडर के आधार पर भी कई सवाल हैं. जन स्वास्थ्य व्यवस्था सीरीज़ की इस कड़ी में हमने महाराष्ट्र स्थित सेहत संस्था से बात की.

“किसी व्यक्ति को भोजन के लिए दिन में तीन बार लाइन में खड़ा करना उन्हें अपमानित करना है.”

कर्नाटक के कार्यकर्ता, क्लिफ्टन डी’रोज़ारियो, ने यह साफ़ किया कि खाद्य सुरक्षा के बिना कोई सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था टिक ही नहीं सकती. वे मंथन लॉ, बंगलुरू से जुड़े एक अधिवक्ता हैं और अखिल भारतीय केंद्रीय ट्रेड यूनियन परिषद (AICCTU) के राष्ट्रीय सचिव और सीपीआई (ML) लिबरेशन, कर्नाटक के राज्य सचिव हैं.

कोरोनाकाल और मैं – अकेले हैं तो क्या ग़म है?!

कोरोना की दूसरी लहर अब मद्धम पड़ रही है. लॉकडाउन खुल रहे हैं. धीरे-धीरे बाहर की दुनिया के पर्दे उठने लगे हैं. लेकिन, भीतर अब भी बहुत कुछ अंधेरे में हैं. कोई था जो अब नहीं है, हंसी-आंसू, आवाज़-स्पर्श, भाग कर गले लगा लेने की दबी इच्छाएं…इनके बीच से गुज़रती ज़िन्दगी. इस एपिसोड में हम उन लोगों से बात करेंगे जो इस महामारी में अकेले अपने को संभाल रहे हैं.

“हमारी सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली हमसे अपेक्षा रखती है कि हम ख़ुद का ख़्याल रखें.”

मेनका राव एक पुरस्कार विजेता पत्रकार हैं, जो स्वास्थ्य, पोषण और न्याय के मसले पर लगातार विस्तार से लिखती रही हैं. यहां वे पत्रकार के रूप में अपने सफ़र के बारे में बात कर रही हैं जिसमें वे सार्वजनिक स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने वाली बड़ी, जटिल और अक्सर चौंकाने वाली व्यवस्थाओं के बारे में रिपोर्टिंग करती रही हैं और यह बताती हैं कि कैसे कभी-कभी इनसे जुड़ी संस्थाओं की जड़ता नए स्वास्थ्य संकट का कारण बन सकती है.

कोरोनाकाल में जो सरकार नहीं कर पाई, वो इन ग्रामीणों ने कर दिखाया.

पर्यावरण और विकास के वैकल्पिक मॉडलों के दस्तावेज़ीकरण पर दशकों से काम कर रहे सामाजिक कार्यकर्ता आशीष कोठारी द्वारा, उन समुदायों की जानकारी जिन्होंने महामारी से अपने को सुरक्षित रखा. आशीष कोठारी को हम एक पर्यावरणविद के रूप में जानते हैं. लेकिन एक पंक्ति के परिचय में उनके काम के विस्तार को नहीं समेटा जा सकता.

हेल्प प्लीज़!

“19 अप्रैल, रात 11 बजे फ़ेसबुक ग्रूप पर आए एक मेसेज पर मेरी नज़र रूकी. मैंने देखा वो मैसेज एक घंटे पहले लिखा गया था. रिक्वेस्ट लखनऊ से आ रही थी. उन्हें अपने एक करीबी के लिए अस्पताल में ऑक्सीजन बेड की ज़रूरत थी. उनका रिक्वेस्ट था ‘कोई भी जानकारी हो तो बताएं.’

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