अंक 002: जन स्वास्थ्य

भारत की जन स्वास्थ्य व्यवस्था एवं उसके भविष्य पर नारीवादी तफ़्तीश

मज़दूरों के स्वास्थ्य के लिए मज़दूरों का अपना अस्पताल

जन स्वास्थ्य व्यवस्था सीरीज़ में द थर्ड आई के साथ बातचीत में डॉ. प्रियदर्श तुरे ने विकेन्द्रीकृत एवं कम्युनिटी द्वारा संचालित स्वास्थ्य मॉडल और उसकी प्रक्रिया पर विस्तार से चर्चा की.

नाकाम स्वास्थ्य व्यवस्था ने जनता को डाला क़र्ज़ में

स्वास्थ्य का अधिकार हमारे मौलिक अधिकारों में शामिल है. लेकिन आज़ादी के 75 साल बाद भी क्या स्वास्थ्य सुविधाएं सभी के लिए समान रूप से उपलब्ध हैं? इस वीडियो प्रस्तुति में चंबल मीडिया और द थर्ड आई टीम के साथ जानिए—क्या है जन स्वास्थ्य व्यवस्था और कर्ज़ में डूबते भारत का असल सच?

“महिलाएं भुगतती हैं चिकित्सा सेवाओं के निजीकरण का सर्वाधिक ख़ामियाज़ा”

उदारीकरण के दौर में आर्थिक सुधारों के साथ जो चीज़ सबसे ज़्यादा उभरकर सामने आई वह थी सरकारी क्षेत्रों में प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी. स्वास्थ्य में इस मॉडल के असर को गहराई से समझने के लिए हमने पेशे से शोधकर्ता बिजोया रॉय से बात की.

डर

मैं उठते ही पलंग पर बैठ गई. बालों में रबड़बैंड लगाते हुए ज़मीन पर खड़ी हो गई. शाम के छह बज रहे थे. कान बंद होने के कारण बाहर से आती हुई आवाज़ें धीमी सुनाई दे रही थीं. नाक में कफ़ जमा होने की वजह से मुंह से सांस लेने पर गला एकदम सूख रहा था.

स्कूल के नाम पत्र

प्रिय स्कूल तुम कैसे हो? इन दिनों जब हम स्कूल नहीं आ रहे हैं, क्या तुम अभी भी रोज़ खुल रहे हो? सुना है, आज-कल तुम राशन-घर बन गए हो, कुछ प्रवासी मज़दूर तुम्हारे कमरों में रह रहे हैं. उनका ख्याल रखना. समझना कि यही लोग हमारी कमियों को पूरा कर रहे हैं.

“स्वास्थ्य का अधिकार हर व्यक्ति के लिए अनिवार्य है, चाहे वह जेल के भीतर हो या बाहर”

अनुभव अत्रेय पेशे से वकील हैं और असम के शोध-संगठन स्टूडियो नीलिमा के संस्थापक सदस्यों में से एक हैं. सुधार-गृहों में अपने काम के ज़रिए अनुभव नीतियों पर शोध के साथ ही न्यायिक सेवाओं और ज़रूरी मुक़दमों में भी मदद करते हैं.

जन स्वास्थ्य व्यवस्था के लिए विकलांगता प्राथमिक क्यों नहीं है?

2011 की भारतीय जनगणना के अनुसार सिर्फ़ दो या ढाई फीसदी लोग ही शारीरिक एवं मानसिक विकलांगता से ग्रसित हैं। क्या ये पूरा सच है? जन स्वास्थ्य व्यवस्था में शारीरिक एवं मानसिक विकलांगता वाले लोग सबसे निचले पायदान पर क्यों खड़े दिखायी देते हैं?

लोगों की रज़ामंदी के बिना सरकार बना रही है उनका UHID कार्ड

15 अगस्त 2020 को लाल किले की प्राचीर पर खड़े होकर प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में नेशनल डिजिटल हेल्थ मिशन को ‘भारत के हेल्थ सेक्टर में नई क्रान्ति’ का नाम दिया. क्या हेल्थ आईडी कार्ड से देश की स्वास्थ्य सेवाएं सच में बेहतर हो जाएंगी? इंटरनेट फ्रीडम फाउंडेशन के एक कार्यकर्ता ने बताया कि वहां तक पहुंचने के रास्ते में कई सवाल हैं जिनके जवाब जानना ज़रूरी है.

“आईएएस सेवाओं की तरह ही हमारे यहां भारतीय जन स्वास्थ्य कैडर होना चाहिए.”

ट्रांसजेंडर या सिसजेंडर – जो किसी तयशुदा खांचे में अपने को फिट नहीं पाते, वे सार्वजनिक स्वास्थ्य के ‘सिस्टम’ में अपने को कहां खड़ा पाते हैं? क्या वैक्सीन या स्वास्थ्य से जुड़े किसी भी प्रचार का केंद्र ऊंची जाति के लोग और ख़ासकर उत्तर भारत के लोग ही हैं?

“हम लोगों से सिर्फ़ डेटा कलेक्ट करती हैं, उनके सवालों का जवाब हमारे पास नहीं होता.”

समुदाय और सरकार के बीच अपनी भूमिका निभाती आशा वर्कर की ज़िन्दगी में डर, असुरक्षा और आर्थिक तंगी स्थाई है. उनकी स्थिति में परिवर्तन स्वस्थ समाज के लक्ष्य को पाने की तरफ एक सकारात्मक कदम हो सकता है.

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