“महिला हिंसा सार्वजनिक स्वास्थ्य का मुद्दा है.”

सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी शोधकर्ता ने बताया कि भारत में चिकित्सा की किताबें महिलाओं के प्रति पूर्वाग्रहों से भरी हैं.

चित्रांकन: ज्योत्सना सिंह

‘तन मन जन’ – द थर्ड आई के इस ‘जन स्वास्थ्य व्यवस्था’ संस्करण में हम, भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य के संभावित भविष्य पर स्वास्थ्य कर्मचारियों, अर्थशास्त्रियों, कम्यूनिटी लीडर और चिकित्सकों की व्यापक सोच एवं विचारों को प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं.

स्वास्थ्य, निजी होकर भी सार्वजनिक है. भारत में स्वास्थ्य सुविधाएं सभी को प्राप्त नहीं हैं. हालांकि हमारा संविधान यह मानता है कि स्वास्थ्य का अधिकार हमारे मौलिक अधिकारों का भाग है. जेंडर के आधार पर भी कई सवाल हैं. जन स्वास्थ्य व्यवस्था सीरीज़ की इस कड़ी में हमने महाराष्ट्र स्थित सेहत संस्था से बात की.

सेहत, एक स्वयंसेवी संगठन है और इसके कार्यकर्त्ताओं के दल में चिकित्सा, अर्थशास्त्र, सामाजिक विज्ञान, पत्रकारिता, विज्ञान और कानून जैसे बहुविध अनुशासनों के लोग शामिल हैं. वे कई तरह के क्रिया-कलापों के ज़रिए स्वास्थ्य पर होने वाले शोध और उसके कार्यान्वयन के बीच की खाई को पाटने की कोशिश करते हैं, ताकि सबसे निचले तबके के लोग भी इसका लाभ प्राप्त कर सकें. साथ ही, स्वास्थ्य सुविधाओं को लेकर बराबरी और समानता से जुड़े आंदोलनों में सक्रिय भूमिका निभाते हुए, वे जेंडर के आधार पर भी समान अधिकारों की वकालत करते हैं.

द थर्ड आई ने सेहत संस्था से जुड़ी डॉ. संजीदा अरोड़ा के साथ बात की, और पता लगाया कि जेंडर के नज़रिए से सार्वजनिक स्वास्थ्य का स्वरूप कैसा होना चाहिए?

सेहत संस्था सार्वजिनक स्वास्थ्य को कैसे परिभाषित करती है?

सार्वजनिक स्वास्थ इलाज या बचाव के लिए है. दरअसल, ये बीमारी की रोकथाम के बारे में है. मेरे ख़्याल से, ये एक अच्छे स्वास्थ्य का प्रोमोशन भी है. सरकार की मदद से, लोगों के बीच समुदायों एवं निजी स्तर पर हस्तक्षेप कर, किसी भी बीमारी की संभावना को बहुत कम किया जा सकता है. ये एक सतत चलने वाला सार्वजनिक प्रयत्न है, एक सुंदर, स्वस्थ्य जीवन के प्रति.

लेकिन ये एक सीधी रेखा पर काम नहीं करता. इसके कई घटक हैं. ये किसी एक मंत्रालय का काम नहीं. जैसे- बीमारी न हो इसके लिए ज़रूरी है- सभी को साफ़ पानी मिले, पौष्टिक भोजन मिले, देखभाल से जुड़ी सही जानकारी प्राप्त हो. इसे अलग-अलग घटकों द्वारा ही पूरा किया जा सकता है.

इसके अलावा, जो

सार्वजनिक स्वास्थ्य का सबसे मज़बूत आधार है और मेरा पसंदीदा भी- दस्तावेज़ीकरण. कोई भी स्वास्थ्य प्रणाली साक्ष्यों के आधार पर काम करती है. और साक्ष्य, ज़मीनी स्तर पर लोगों के साथ जुड़कर काम करने से प्राप्त होते हैं. तो, साक्ष्यों का दस्तावेज़ीकरण भी सार्वजनिक स्वास्थ्य के आधारभूत कार्यों का हिस्सा हैं.

आपने कहा सार्वजनिक स्वास्थ्य एक अकेली इकाई नहीं है. इसमें और कौन-कौन शामिल हैं?

एक साधारण से उदाहरण से इसे समझा जा सकता है. सेहत संस्था, महिलाओं के साथ होने वाली शारीरिक और मानसिक हिंसा को सार्वजनिक स्वास्थ्य का ही एक अंग मानती है. इसलिए हम स्वास्थ्य व्यवस्था के साथ बहुत गहरे तौर पर जुड़ कर काम करते हैं ताकि वे महिला हिंसा के मामलों को समझ सकें, उसके निदान में मदद कर सकें.

इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य का मुद्दा मानना इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि – जिन महिलाओं के साथ हिंसा हो रही है, अगर हम उनकी तलाश कर लेते हैं, तो हम उन्हें न सिर्फ़ हिंसा से बचा सकते हैं, बल्कि हिंसा से पैदा होने वाली गंभीर स्वास्थ्य दिक्कतों की भी रोकथाम कर सकते हैं. क्योंकि महिलाओं का स्वास्थ्य केन्द्रों के साथ एक रिश्ता होता ही है.

भले ही वो हिंसा में लगी चोटों को दिखाने न आएं लेकिन वे अपने गर्भ के दौरान या बच्चों के टीकाकरण के लिए किसी न किसी तरह से स्वास्थ्य केन्द्र के साथ जुड़ी होती हैं. यहां संस्थाएं महिला के शरीर पर चोट के निशान या किसी डॉक्टरी जांच के दौरान हिंसा के लक्षणों का पता लगने पर, मदद की पहल करती हैं.

हो सकता है महिला मदद लेने के पक्ष में न हो लेकिन उसे इस बात का यकीन तो दिलाया जा सकता है उसकी मदद के लिए कोई है.

लेकिन, इस अभियान में हम अकेले काम नहीं करते. हमारे साथ – क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम काम करता है. इसके अलावा सिविल सोसाइटी और सरकारी संस्था वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर भी हमारे काम में हिस्सेदार हैं. वन स्टॉप क्राइसिस सेंटर, भारत सरकार के महिला एवं बाल विकास मंत्रालय का अंग हैं. ये सारी संस्थाएं अलग-अलग स्तर पर काम करती हैं, लेकिन इन सभी का उद्देश्य एक है– महिलाओं पर हो रही हिंसा को रोकना तथा उसकी अग्रिम पड़ताल करना.

महिला हिंसा को सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दा मानने के पीछे आपके क्या संघर्ष थे?

ज़ाहिर तौर पर स्वास्थ व्यवस्था के भीतर भी सभी यही मानते हैं कि ये सामाजिक दिक्कत है. उनका कहना है कि ये स्वास्थ्यकर्मियों का काम नहीं, कि ऐसे मामलों में महिला के लिए सबसे पहले मदद का हाथ बढ़ाएं.

लेकिन इसे सार्वजनिक स्वास्थ्य का मुद्दा मानने के पीछे हमारे कई तर्क हैं. पहला,

महिलाओं के साथ हिंसा सिर्फ़ शारीरिक नहीं, मानसिक परेशानी भी है. दूसरा, अगर हिंसा की पहचान, उसके गंभीर होने से पहले कर ली जाए तो उसके प्रभाव से होने वाली शारीरिक दिक्कतों से जो स्वास्थ्य व्यवस्था पर पड़ने वाला बोझ है उसे कम किया जा सकता है.

तीसरा, इस प्रवृत्ति के संबंध में साक्ष्य निर्माण, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य सिस्टम का सबसे बुनियादी काम है.

हम जानते हैं समाज में बदनामी की वजह से हिंसा को छिपाना बहुत आम बात है. समुदायों के स्तर पर भी इसके बारे में बात कर पाना बहुत आसान नहीं होता. अगर स्वास्थ्य केन्द्रों के स्तर पर हम कोई पहल करें तो ये न केवल महिला को सबल करता है बल्कि साक्ष्यों के दस्तावेज़ीकरण में अस्पताल सहायक होते हैं.

एक और बात जब हम मातृ मृत्युदर की बात करते हैं तो हम वहां 3 डी मॉडल का ज़िक्र करते हैं. समय पर एम्बुलेंस न मिलने की वजह से महिला देर से अस्पताल पहुंचती है, और उसकी मृत्यु हो जाती है. इसके पीछे एक कारण- हिंसा है. ये भले सीधे तौर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य के खांचे में फिट न हो, लेकिन अप्रत्यक्ष रूप से ये इसका ही हिस्सा है. क्योंकि हिंसा से जुड़ी परेशानियों की वजह से ही महिलाएं स्वास्थ्य सुविधाओं के दरवाज़े पर पहुंचती हैं. वास्तव में इसका रूप बहुत विस्तृत है और हमें इन सभी पहलुओं को एकीकृत करने की आवश्यकता है. इसे ही आधार बनाकर हम डॉक्टरों को सलाह देते हैं कि अगर महिला समय पर अपनी प्रेगनेंसी चेक करवाने नहीं आ रही या गर्भपात करवाने देर से आई है, या अपने रेगुलर चेकअप के लिए नहीं आ रही तो इसका कारण ये नहीं है कि वह आलसी है या आना नहीं चाहती बल्कि, महिलाओं की स्वास्थ्य परेशानियों को उनकी सामाजिक परिस्थिति की नज़र से देखा जाना ज़रूरी है. हो सकता है कि उसकी सामाजिक अड़चनें इसमें बाधा हों.

कोरोना की पहली लहर के दौरान हमने सेहत संस्था के साथ पॉडकास्ट रिकॉर्ड किया था जिसके निष्कर्ष से यह निकल कर आया कि महिलाओं के साथ हिंसा किसी महामारी की तरह बढ़ रही है. क्या दूसरी लहर के दौरान भी आपके अनुभव ऐसे ही हैं?

दूसरी लहर के दौरान महिला हिंसा पर कोई बात तक नहीं कर रहा. पहली लहर के बीच हमें हिंसा के बहुत सारे मामले सुनने को मिले, कुछ रिपोर्ट भी हुए. लेकिन, दूसरी लहर के साथ ऐसा नहीं है. पहली लहर में तो महिलाएं हमें फोन करके बताती थीं कि घर में क्राइसिस की स्थिति है क्योंकि वे, हिंसा करने वाले से साथ ही घर में बंद हैं. इन मामलों में हम पुलिस की मदद लेकर उसे हैंडल कर रहे थे. लेकिन दूसरी लहर के दौरान इन सारी कॉल्स में भारी गिरावट आई है.

ये भी हो रहा है कि इस दौरान ज़्यादातर मामले अस्पताल नहीं पहुंच रहे. जो पहुंच रहे हैं उनमें गर्भपात से जुड़े मामले ही हैं. ख़ासकर, बलात्कार से जुड़े गर्भपात के हैं. गर्भपात में किशोर बच्चियों के भी मामले हैं. हालांकि उन्होंने आपसी सहमति से शरीरिक संबंध बनाए होते हैं, लेकिन नाबालिग होने की वजह से वे पॉस्को क़ानून की जकड़न में फंस सकती हैं, जो एक क्रिमिनल ऑफेंस है. इसलिए वे हमारे सेंटर के अस्पताल में आती हैं गर्भ की समस्याओं को लेकर.

हमें लगता है, दूसरी लहर के दौरान हिंसा से जुड़े मामलों के सामने न आ पाने का कारण यह भी हो सकता है कि लॉकडाउन के इतने लंबे समय में महिलाओं ने इन परिस्थितियों से निकलने या बचने के अपने तरीके ढूंढ निकाले हों.

इस पहली और दूसरी लहर के बीच सेहत सार्वजनिक स्वास्थ्य को कहां खड़ा पाता है? बतौर सेहत संस्था और एक शोधकर्ता डॉक्टर होने के नाते आपके अनुभव क्या हैं?

अभी सभी कहेंगे कि देश कोविड महामारी की गिरफ्त में है. लेकिन, सच ये है कि हम एक नहीं, कई महामारियों की मार झेल रहे हैं. स्वास्थ्य से जुड़ी इन परेशानियों को देखते हुए हमें यही समझ आता है कि अगर- हमारे प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र और सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की जड़ें मज़बूत होतीं तो हम जनता को इस बदहाली के समय में कई गुणा ज़्यादा राहत पहुंचा सकते थे.

कोविड की दूसरी लहर में सारे अस्पताल अपनी क्षमता से दोगुने, तिगुने स्तर पर काम कर रहे थे. लेकिन पिछले लगभग डेढ़ साल से नॉन-कोविड मरीज़ों का इलाज़ लगभग बंद है या बुरी तरह से प्रभावित है. टीबी के मरीज़ों के लिए निश्चित अंतराल पर मिलने वाली डॉट्स की गोली उनके इलाज का सबसे बड़ा हिस्सा है. लेकिन महामारी के दौरान मरीज़ों को उनकी ख़ुराक समय पर नहीं मिल रही. इससे, उनकी पहले से ख़राब हालात में और ज़्यादा नुकसान हो रहा है. टीबी के मरीज़ों की बढ़ती ख़राब हालत भी महामारी का रूप ले रही है.

हमारे प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र सिर्फ़ टीकाकरण या प्रसव के दौरान मदद के लिए ही नहीं हैं, उन्हें मज़बूत कर बड़े अस्पतालों पर पड़ने वाले बोझ को कम किया जा सकता है.

इसके साथ ही प्राइवेट स्वास्थ्य व्यवस्था पर कड़ी नज़र एवं उन्हें रेगूलेट करते रहना भी बहुत ज़रूरी है. कोविड के समय में प्राइवेट अस्पतालों द्वारा लाखों का बिल बनाने के बाद भी मरीज़ को बचा न सकने की बात हम जानते हैं. मुम्बई का ही उदाहरण लें तो शुरुआत में प्राइवेट सेक्टर ने अपनी बहुत सारी सुविधाओं को बंद कर दिया था क्योंकि उन्हें उसमें प्रॉफिट नहीं मिल रहा था. इसके बाद बीएमसी (BMC), जो एक कॉर्पोरेशन है, उसने सख्ती से कुछ नियम बनाए और प्राइवेट हॉस्पिटल्स को निर्देश दिया गया कि वे 60 से 80 प्रतिशत बेड्स कोविड के मरीज़ों के लिए सुरक्षित रखेंगे और इन बेड्स के लिए बुकिंग एक केन्द्रीय हेल्पलाइन सिस्टम के द्वारा ही की जा सकती है. इस व्यवस्था ने मुम्बई में कोविड के इलाज में एक हद तक एकरूपता लाने की कोशिश की जिससे मरीज़ों को बहुत मदद मिली.

हमारे पास एक क़ानून भी है – क्लीनिकल इस्टैब्लिशमेंट एक्ट लेकिन इसके लागू करने में होने वाली अनियमितताएं हमें इस कग़ार पर ले आई हैं कि आज 80 प्रतिशत ओपीडी (OPD) की सुविधा और 60 प्रतिशत आईपीडी (IPD) की सुविधा प्राइवेट है. (स्रोत: लैंसेंट रिपोर्ट 2015)

आपका मतलब है कि भारत की 60 प्रतिशत आबादी प्राइवेट अस्पतालों में एडमिशन लेकर अपना इलाज करवाती है और 80 प्रतिशत आबादी किसी भी तरह की शारीरिक परेशानी में सबसे पहले प्राइवेट अस्पताल में जाती है?

हां. देश के नागरिकों द्वारा स्वास्थ्य से जुड़े ख़र्च का कुल 70 प्रतिशत ख़र्च, लोग अपनी जेब से करते हैं. इसके लिए लोगों के पास किसी तरह का कोई बीमा नहीं है. सेहत संस्था की वेबसाइट पर ये डेटा आसानी से उपलब्ध हैं. इसे कभी भी पढ़ा जा सकता है.

देश में ग़रीब, महिलाओं और बच्चों के कल्याण के लिए आयुष्मान भारत, प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना, जननी-शिशू सुरक्षा योजना, या राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना जैसे कई योजनाएं काम कर रही हैं. इन योजनाओं का फ़िर क्या मतलब है?

राज्य और केन्द्रीय सरकारों द्वारा चलाई जा रही सभी योजनाओं का फोकस बड़ी बीमारियों में सहायता देना है. न कि प्राथमिक और माध्यमिक दर्जे की बीमारियों में मदद करना. जैसे, महिलाओं में बच्चेदानी को निकालने के लिए अस्पताल में एडमिड होने पर इन योजनाओं के तहत आप राहत ले सकते हैं. लेकिन, वहीं मानसिक और शारीरिक प्रताडना की शिकार, गर्भपात या अन्य प्राथमिक और माध्यमिक स्तर की परेशानियां आपको अकेले झेलनी हैं.

हमने महाराष्ट्र सरकार द्वारा चलाई जा रही आरजीजेवाई (RGJY) योजना को लेकर शोध किया. शोध के नतीज़ों से पता चला कि लोगों को अस्पताल में भर्ती होने पर इसका लाभ मिल रहा है लेकिन बार-बार चेकअप के लिए आना और इसके लिए यात्रा-व्यय इतना ज़्यादा है कि इस योजना से लाभ का कोई मतलब नहीं रह जाता.

सबसे महत्त्वपूर्ण यह भी है कि इन योजनाओं को पूरा करने के लिए सरकार निजी स्वास्थ्य संस्थाओं को बहुत तरह की छूट देकर प्रेरित करती है कि वे गांव में जाकर अस्पताल बनाएं और गांववालों को स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध करवाएं. लेकिन, निजी संस्थाओं के लिए गांव में अस्पताल बनाना प्रॉफिट का सौदा नहीं है. वे महानगरों या छोटे शहरों में निवेश कर अपना प्रॉफिट बना सकते हैं. इसलिए वे गांव जाते ही नहीं हैं. गांववालों के पास कोई विक्लप नहीं होता. आसपास जो भी उपलब्ध होता है उससे काम चलाते हैं या अस्पताल जाते ही नहीं है. इसलिए ये योजनाएं शहर और गांव के बीच स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता की खाई को नहीं पाट सकतीं.

दरअसल,

सरकार, टैक्सपेयर का जो पैसा निजी कम्पनियों को रियायत देकर उन्हें बढ़ावा देने में लगाती हैं, वह यही पैसा और ऊर्जा प्राथमिक और सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को मज़बूत करने में क्यों नहीं ख़र्च कर सकती?

सरकारी और प्राइवेट की खींचतान में लोगों का भरोसा प्राइवेट पर ज़्यादा होता है जबकि वहां उन्हें इलाज के लिए अपना घर तक गिरवी रखना पड़ जाता है. वैक्सीन लगाने को लेकर भी हम देख रहे हैं कि लोगों के अंदर भरोसा नहीं है. हमने कब और कैसे भरोसा खो दिया?

पहली नज़र में देखें तो सारी ग़लती स्वास्थ्य कर्मचारियों की दिखाई देती है. उनके व्यवहार में क्रूरता और सहानुभूति की कमी इसका पहला कारण हैं. मरीज़ या उनके घरवालों के साथ दुर्वयवहार उनके स्वभाव का हिस्सा है. लेकिन, ठहर कर देखें तो समझ आता है कि उनके इस तरह के व्यवहार के पीछे काम के लंबे-लंबे घंटें, बुनियादी उपकरणों का न होना, सुरक्षा से जुड़ी चीज़ों का अभाव, मानव संसाधनों की कमी जैसी चुनौतिपूर्ण परिस्थितियों के बीच काम करना है. ये चुनौतियां उनके व्यवहार में सख्ती और चिढ़ जैसे भाव को स्थाई बना देती हैं.

एक और कारण मेडिकल की पढ़ाई की रूपरेखा भी है, जिसकी बुनियाद में ही मरीज़ों के साथ समानता का व्यवहार शामिल नहीं है. लेकिन यही स्टूडेंट्स प्राइवेट अस्पतालों में बिलकुल अलग व्यवहार करते दिखाई देते हैं, इसका सीधा संबंध पैसे और निजी फायदे से भी है.

एक उदाहरण है लेबर रूम वॉयलेंस. इसका अर्थ प्रसूति गृह में महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा से है. ये तब होती है जब महिलाएं डिलिवरी के लिए अस्पताल आती हैं. पब्लिक हेल्थ केयर कर्मचारियों के साथ काम करने के अपने अनुभवों से हमें पता है कि उनके लिए लेबर रूम वॉयलेंस एक सामान्य घटना है. वे प्रसूति गृह में महिलाओं पर चिल्लाते हैं, उन्हें बिस्तर से बांध देते हैं. महिलाओं को बाथरूम जाने से रोका जाता है. उनसे कहा जाता है कि वे चुपचाप से अपने बिस्तर पर लेटी रहें. नर्स उन्हें थप्पड़ मारती हैं.

हमने जब नर्सों से बात की तो उन सभी का मानना था कि इस तरह का व्यवहार बहुत ज़रूरी है, इससे बच्चा पैदा होने की प्रक्रिया में आसानी होती है और महिलाएं उनकी बात सही से मानने को तैयार हो जाती हैं. साथ ही बातचीत में उन्होंने कहा कि एक ख़ास समुदाय की महिलाएं तो बिना हिंसा के बात ही नहीं सुनतीं. वे वर्ग, जाति और धर्म के आधार पर भी अपनी धाराणाओं को मज़बूत बनाती हैं.

आपके विचार में हम इन स्वास्थ्य केन्द्रों को, शहर हो या गांव सभी जगह जेंडर सेंसटिव कैसे बना सकते हैं?

इस विषय पर हमने यूएनएफटीए (UNFPA) के साथ मिलकर एक प्रोजेक्ट किया था. प्रोजेक्ट में स्वास्थ्य व्यवस्था में महिला हिंसा के संबंध में भी ज़रूरी हस्तक्षेप शामिल था. क्योंकि स्वास्थ्यकर्मी भी तो उसी समाज से आते हैं जिस समाज में महिलाओं के प्रति दुर्व्यवाहर बहुत आम है. उनके लिए महिलाओं के साथ हिंसा आम बात है और किसी की निजी परेशानी है, ये उनका मैटर नहीं.

ज़ाहिर है इस तरह के ज्ञान के आधार पर वे सिर्फ़ मेडिकल शब्दावली में ‘बायोमेडिकल केयर’ ही करते हैं. जैसे, “अच्छा बुखार है, ये ले लो, बदन दर्द है वो ले लो…” जैसी बात की और महिला को चलता कर दिया. इससे होता ये है कि वो महिला बार- बार वापस आती है. क्योंकि डॉक्टर कभी आगे बढ़कर, उनसे बार-बार ये जानने की कोशश नहीं करते कि इसके पीछे महिला की सामाजिक परेशानियां भी कारण हो सकती हैं.

अब,

महिला आयरन की गोली नहीं ले रही तो उसपर चिल्ला कर आप उसकी मदद नहीं कर रहे. जब तक आप ये नहीं समझेंगे कि किन परिस्थितियों की वजह से वह अपनी गोली नहीं ले रही तब तक परेशानी बनी रहेगी.

मरीज़ की सामाजिक परेशानियों को समझकर एवं मदद पहुंचाकर आप स्वास्थ्य संबंधित अपने ही बोझ को कम कर रहे होते हैं. ये बहुत सीधे तरीके से जुड़ा है.

इसके अलावा, मेडिकल की पढ़ाई में जेंडर का विषय जितनी जल्दी शामिल किया जाए उतना अच्छा है. एक रोचक जानकारी आपसे साझा करती हूं – मेडिकल की किताबों में अगर आप मलेरिया का विवरण पढ़ेंगे तो आपको पता चलेगा कि पुरूषों को मलेरिया इसलिए होता है क्योंकि वे खेतों में काम करते हैं. महिलाओं का क्या? इसके बारे में किताब कुछ नहीं बताती. दरअसल,

किताब महिलाओं के बीमार होने की किसी परिस्थिति का ज़िक्र नहीं करती. वहां प्राथमिकता पुरूषों के बीमार होने को ही दिया जाता है. वैसे ही जब आप हार्ट अटैक के बारे में पढ़ते हैं तो वह पुरूषों के शरीर के अनुसार सारा विवरण प्रस्तुत करती है, महिलाओं के शरीर को लेकर विवरण तभी मिलता है जब बच्चे के पैदा होने की बात हो रही हो!

इस स्थिति में सेहत कैसे मदद करता है?

यूएन के साथ प्रोजेक्ट में हमने मेडिकल की किताबों की छानबीन की और उन हिस्सों को छांट कर अलग किया जहां जेंडर असमानता की बात हो रही थी. हमने महाराष्ट्र के कुछ संवेदनशील एवं कुशल डॉक्टरों की टीम के साथ मिलकर इन चुनिन्दा विषयों पर जेंडर समानता वाले कॉन्टेंट तैयार किए और महाराष्ट्र के कुछ मेडिकल कॉलेज में एमबीबीएस के छात्रों के साथ इसकी क्लासेज़ लीं. हमने महाराष्ट्र यूनिवर्सिटी के साइंस और हेल्थ विभाग से इस करिकुलम को अपने सिलेबस में शामिल करने का अनुरोध भी किया.

हमने ज़ोर दिया कि मेडिकल सर्विस की शुरुआत में ही जेंडर ट्रेनिंग भी करिकुलम का हिस्सा होना चाहिए. साथ ही इसे लगातार जारी रखा जाना चाहिए. सिर्फ़ दो दिन की ट्रेनिंग से कुछ नहीं हो सकता.

एक उदाहरण है- औरंगाबाद के मिराद सांगली ज़िले में हमने डॉक्टरों के साथ ट्रेनिंग कर, उन्हें महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा की पहचान, और उन्हें फौरन दी जाने वाली मदद के बारे में बताया. ट्रेनिंग में हमने सेक्स और जेंडर में अंतर, इंटरसेक्शनैलिटी क्या है, पितृसत्ता क्या है, जैसे विषयों के बारे में उन्हें बताया. 6 महीने बाद हमने ट्रेनिंग के दौरान दी गई जानकारियों का मूल्यांकन किया. मूल्यांकन से पता चला कि किताबों में जेंडर की दिक्कतों को लेकर वे ज़ागरूक थे और उनके बीच इसे लेकर प़ॉज़िटिविटी थी. लेकिन उनके व्यवहार में गिरावट आई थी. जो समझदारी ट्रेनिंग के दौरान उन्होंने दिखाई थी वो 6 महीने में ही बहुत कम हो गई. उनके अनुसार अगर महिला खाना न बनाए और सेक्स के लिए मना करे तो उसे मारना जायज़ है!

दरअसल, ये सतत निरंतर प्रक्रिया है। इसके लिए ज़रूरी है कि लगातार इन विषयों पर बात की जाए. तभी हम सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था में बराबरी और समानता के व्यवहार को शामिल कर पाएंगे.

सुमन परमार द थर्ड आई में सीनियर कंटेंट एडिटर, हिन्दी हैं.

ये भी पढ़ें

Skip to content