बात कुछ दशक पुरानी है. पढ़ी-लिखी कुछ महिलाओं ने उत्तर-प्रदेश के ज़िला बुंदेलखंड के कस्बों में महिला शिक्षा केंद्र की शुरुआत कर, गांव की 13 से लेकर 50 साल की उम्र की महिलाओं को शिक्षित करने का काम शुरू किया. 90 के शुरुआती दौर में उत्तर-प्रदेश के ये कस्बे राग दरबारी के शिवपालगंज या मैला आंचल के मेरीगंज की तरह ही शिक्षा के क्षेत्र में सबसे निचले तो गरीबी के मामले में सबसे ऊपर वाले पायदान पर थे.
ये महिला शिक्षिकाएं अपने इरादे में मज़बूत थीं. जल्द ही इन शिक्षिकाओं ने गांव की महिलाओं के रोज़मर्रा के जीवन और वातावरण में घुली-मिली पहचानों को अध्यापन पाठ्यक्रम का हिस्सा बना लिया और इसके ज़रिए पढ़ने आने वाली महिलाओं को शिक्षा के प्रति आकर्षित करने का काम शुरू किया.
लेकिन, धीरे-धीरे उन्हें यह समझ आने लगा कि धान के खेत, महुआ और बरगद के पेड़ों और बलुआ या चिकनी मिट्टी जैसे स्थानीय ज्ञान के ज़रिए पढ़ाने की कोशिश महिलाओं में उत्साह को जगाने में कामयाब नहीं हो रही थी. यहां तक कि ग्रामीण महिलाएं इससे ऊब रही थीं. हद तो तब हुई जब उनमें से एक महिला ने ये कह दिया कि “दीदी, हम अपने खेत, दुआर, गांव, जंगल सबको अच्छी तरह पहचानती हैं. हमें मालूम है कि हमारे गांव में पानी कहां से आता है और क्या-क्या दिक्कतें हैं. हमें तो आप वो बताओ जो आप जानती हो. हमें तो किताबों में क्या लिखा है वो बातें जाननी हैं, जो हमारे बच्चे स्कूल की किताबों में पढ़ते हैं. हमें वो सब पढ़ना है.”
नारीवादी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि सीखना बहुत बार अपेक्षित जगहों या मौकों पर होता है!
शिक्षा के क्षेत्र में निरंतर संस्था लगभग तीन दशकों से काम कर रही है. आज जब हम ठहर कर सांस लेते हैं और पीछे पलट कर देखते हैं तो खुद से यही सवाल करते हैं – वो क्या है जो हमें शिक्षा पर निरंतर काम करने के लिए प्रोत्साहित करता रहा? वह है, इस शिक्षा में एक ‘नारीवादी नज़र’ को शामिल करना.
नारीवादी शिक्षा कोई आला या खालिस विचार नहीं है. नारीवादी शिक्षक कई सदियों से हमारे इर्द-गिर्द रहे हैं. कुछ की उपस्थिति तो 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से ही दिखाई देती है. कुछ को ज़रूर अपने समय में ‘पापी’ की उपलब्धि दी गई होगी, इसलिए इतिहास की अच्छी-अच्छी किताबों में उनके नाम शामिल नहीं किए गए. ऐसे लोगों में सबसे पहले जो नाम याद आता है वह है सावित्री बाई फुले और ज्योतिबा फुले का. खासकर “तृतीय नेत्र” नाटक जिसमें ज्योतिबा ने ब्राह्मणवादी ज्ञान को क्रांतिकारी नज़र से परखा और उसकी तटस्थ आलोचना कर नए तरह के ज्ञान के सृजन की ओर छलांग लगाई.
1863 में ज्योतिबा फुले ने ऊंची जातियों की विधवाओं के बाल काटने से रोकने के लिए पुणे के नाईयों की केशवपन-निषेध हड़ताल संगठित की थी. यह सिर्फ एक कुप्रथा – जो पति के मरने के बाद बच्चियों/ लड़कियों/महिलाओं से जुड़ी थी – के इस विरोध के मूल में शामिल समझ समाज के अन्यायपूर्ण रिश्तों का विश्लेषण था. फुले, एक नारीवादी शिक्षक थे क्योंकि उनके प्रतिरोध की नींव में एक विशेष दृष्टि और ज्ञान था.
क्योंकि नारीवादी शिक्षाविदों को ज्ञान की सत्ता और उसकी ताकत का अंदाज़ा है, उनकी नज़र में शिक्षा हमारे द्वारा ही रची गई है जिसकी अपनी राजनीति है. वे आमफहम दस्तावेज़ों एवं धारणाओं को आलोचनात्मक एवं प्रतिरोध की नज़र से देखते हैं – हम जो जानते हैं वो कैसे जानते हैं? किसका अनुभव ज्ञान का आधार बनता है? क्या होता है जब हम, उन अनुभवों से वाकिफ होते हैं जिनसे हम अभी तक अनजाने थे? पहले से चली आ रही ज्ञान की परंपरा पर इसका क्या असर पड़ता है?
इसके साथ, कुछ नया करने की ललक के लिए नारीवादी शिक्षाविद हमेशा से ही प्रख्यात (या कुख्यात कह लें) रहे हैं. सिर्फ जानने तक सीमित न रहकर उनकी बेचैनी उस जानने को जीवन का हिस्सा बनाने में तत्पर रही है. वे लगातार नए विचारों को साकार रूप देने, शिक्षा के नए पाठ्यक्रमों को तैयार करने, सीखने-सिखाने के नए तरीकों एवं नए क्षेत्रों तक उसके विस्तार में लगे रहे हैं.
द थर्ड आई के इस अंक में हम नारीवादी कार्यकर्ताओं एवं शोध-विचारकों द्वारा तय की गई कुछ ऐसी ही यात्राओं की झलक आपके सामने लेकर आएंगे जिसने मुख्यधारा की शिक्षा को समृद्ध एवं संपन्न करने और आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण किरदार निभाया है.
नारीवाद के पतीले में ऐसे तमाम विचार और अवधारणाएं पकाकर तैयार की गई हैं जिसे अब तक हम हल्के में झटककर निकल जाते थे. जैसे, ‘काम‘ और ‘सामाजिक पुनरुत्पाद’ को लेकर हमारी समझ को विस्तार देने से लेकर ‘औरतों के काम’ के बारे में बात करना. ‘परिवार’, ‘अपनापन’, ‘नागरिकता’ जैसे विचारों को खोलकर सामने रखना. ‘सार्वजनिक’ एवं ‘निजी’ के बीच के अंतर को समझाना.
यह कहना अतिशयोक्ति नहीं कि इस अंक को लेकर हमारा उत्साह सच में यह जानने को लेकर है कि क्या होता है जब हम – नारीवाद और शिक्षा – इन दोनों शब्दों को एकसाथ रखकर इसे देखने की कोशिश करते हैं? किस तरह के सवाल सामने आते हैं? किन ढांचों की नींवें हिलती हुई दिखाई देती है? और कौन सी नई और अद्भुत बातें सामने आती हैं?
द थर्ड आई की वेबसाइट पर इस अंक की पहली खेप में हम रूमानियत से भरे, और भुला दिए जाने की कगार पर खड़ी ‘चिट्ठियों’ के लिखने और सीखने-सिखाने की परंपरा में इनके योगदान पर बात कर रहे हैं. चिट्ठी-लेखन, निरंतर संस्था की शिक्षा नीतियों में बहुत गहरे समाया हुआ है. पहले-पहल अक्षर-ज्ञान से रूबरू होती लड़कियों और औरतों के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण साधन की तरह है जिसके ज़रिए वे अपना मन कागज़ के पन्नों पर उडेल कर रख देती हैं. निरंतर संस्था से जुड़ी पूर्णिमा, बुंदेलखंड और झारखंड में काम करने के अपने दो दशकों के अनुभवों के ज़रिए शब्दों और चित्रों की ऐसी मज़ेदार दुनिया और बातें लेकर आई हैं जिनकी आपने कल्पना भी न की होगी.
2005, में निरंतर संस्था ने राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) के आग्रह पर बच्चों की पाठ्य-पुस्तिका को ‘जेंडर संवेदनशील’ (आधिकारिक आग्रह में यही लिखा था) बनाने का काम किया था. निरंतर संस्था द्वार तैयार की गई किताबें 15 साल से भारतीय स्कूलों में पढ़ाई जा रही हैं. इस साल 2022 में निरंतर द्वारा जाति पर तैयार किए गए कुछ पाठ्यक्रमों को किताबों से बाहर निकाल दिया गया.
स्कूली पाठ्य-पुस्तिका पर काम करना हमारे लिए एक शानदार अनुभव था. इन अनुभवों को हम डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘मेकिंग टेक्सटबुक्स फेमिनिस्ट (किताबों को नारीवादी बनाने की ओर)’ के ज़रिए आपके साथ साझा कर रहे हैं. औरतों के काम को समझने एवं देखने का नज़रिया, मर्दानगी और पाठ्य-पुस्तिका में भाषा की राजनीति एवं सत्ता पर फिल्म सटीक उदाहरणों के साथ बात करती है.
विज्ञान एवं तकनीक से जुड़े भारतीय उच्च शिक्षण संस्थानों के भीतर होने वाले जातिवाद और गैर-बराबरियों के खिलाफ खड़े हुए आम्बेडकर-पेरियार स्टडी सर्किल कैम्पस के भीतर एवं बाहर ब्राह्मणवादी आधिपत्य एवं सत्ता को चुनौती दे रहे हैं. पत्रकार रिया तलिथा प्रतिरोध की इन आवाज़ों के उद्भव एवं उनके संघर्ष को जानदार शब्दों एवं तथ्यों के साथ अपनी रिपोर्ट में साझा कर रही हैं.
पिछले अंक में शुरू हुई इंस्टीट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट (IIHS) में अध्यापन कार्य से जुड़े गौतम भान के साथ हमारी बातचीत इस अंक में भी जारी है. इस अंक में गौतम हमसे, सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में क्रोध और उसकी बंदिशों पर चर्चा कर रहे हैं. गौतम का मानना है कि आनंद और उल्लास सीखने की प्रक्रिया में गहराई लाते हैं.
एक तरफ हम खामोश या दबा दी गई आवाज़ों के बारे में बात करने के लिए शब्दावली गढ़ने की कोशिश में लगे होते हैं, वहीं शिक्षण के क्षेत्र से जुड़ी लेखक विजेता कुमार अपने कॉलम ‘थ्रोइंग चॉक’ के ज़रिए हमसे पूछती हैं कि क्या अनुभवों को परिभाषित करने के लिए भाषा के विकास और उसकी उपलब्धता ने हमें आलसी बना दिया है? अंग्रेज़ी संस्करण में प्रकाशित यह लेख इस अंक के ज़रूरी सवालों में से एक है.
जैसे हमने पहले भी कहा कि नारीवादी इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि सीखना बहुत बार अपेक्षित जगहों या मौकों पर होता है! इस बार जगह है सामुदायिक पुस्तकालय. टीटीई टीम से जुड़ी जुही जोतवानी ने कई कम्यूनिटी लाइब्रेरी में जाकर यह जानने की कोशिश की, कि आखिर वहां क्या होता है? वे कौन हैं जो इन पुस्तकालयों में जाते हैं? वे वहां क्या सीखते हैं?
इस अंक में हम हिंदी पाठकों एवं श्रोताओं के लिए टीटीई एवं निरंतर रेडियो के सौजन्य से भिन्न भारतीय एवं विदेशी भाषाओं में प्रकाशित साहित्य को ऑडियो रूप में लाने की पहल कर रहे हैं. इस शृंखला की शुरूआत लेखक निशा सुसान की बहुचर्चित किताब ‘विमेन हू फॉरगेट टू इनवेंट फेसबुक’ में प्रकाशित कहानी ‘ट्रिनिटी’ से हो रही है. हिंदी में इस कहानी को निरंतर रेडियो के अंतर्गत हमारी वेबसाइट, स्पॉटीफाई, गूगल एवं एप्पल पॉडकास्ट पर सुना जा सकता है. ट्रिनिटी कहानी कॉलेज में पढ़ने वाली तीन लड़कियों की ज़िंदादिल दोस्ती की कहानी है. एक दिन कॉलेज खत्म हो जाता है. फिर क्या होता है? सुनिए निरंतर रेडियो पर.
इस अंक में जल्द ही आपकी मुलाकात होगी भारत के विभिन्न इलाकों के 12 शानदार एवं अनोखे ‘एड्यू-लोग’ से जो इस अंक में हमारे साथ काम करते हुए इस सवाल का जवाब ढूंढने में मदद करेंगे कि – नारीवादी शिक्षा क्या है?
हमारी वेबसाइट और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के ज़रिए हमारे डिजिटल एजुकेटर्स से आपकी मुलाकात होती रहती है. इस बार भी वे अपने अनोखे अंदाज़ में शानदार प्रस्तुतियों के साथ हाज़िर होंगे.
इस साल बाबासाहेब आम्बेडकर की 131वीं जयंती थी. इस मौके पर हमारे मन में एक ख्याल आया और उसे लेकर हम पहुंच गए अलग-अलग शिक्षण संस्थानों से जुड़े प्राध्यापकों के पास. हमने उनसे एक ही बात पूछी कि – उनके अध्यापन कार्य एवं खुद के जीवन में आम्बेडकर उन्हें कैसे प्रभावित करते हैं? जवाब जानने के लिए पढ़िए हमारा नया शिक्षा अंक!
नए अंक की शुरुआत लेखक एवं दलित सामाजिक कार्यकर्ता रजनी तिलक की कविता साथ-साथ पढ़कर करते हैं –
तू पढ़ महाभारत, न बन कुंती, न द्रौपदी / पढ़ रामायण न बन सीता, न कैकेई / पढ़ मनुस्मृति, उलट महाभारत, पलट रामायण / पढ़ कानून, मिटा तिमिर, लगा हलकार / पढ़ समाजशास्त्र, बन सावित्री, फहरा शिक्षा का परचम.