यह भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थानों (आईआईटी) में सक्रिय छात्र समूहों पर तैयार की गई रिपोर्ट का एक अंश है. वे समूह जो कि प्रतिष्ठित शैक्षिक संस्थानों, विशेष रूप से इंजीनियरिंग संस्थानों में जाति आधारित भेदभाव के बारे में छात्रों को शिक्षित करने और उनमें जागरूकता पैदा करने का काम करते हैं. ये समूह व्यापक आम्बेडकर स्टडी सर्किल के संरक्षण में काम करते हैं, जो परिसरों के बाहर भी क्रियाशील हैं.
गोपनीयता के लिए सभी नामों को बदल दिया किया गया है.
जिन छात्र समूहों का साक्षात्कार लिया गया, वे हैं – आईआईटी चेन्नई का आम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्किल (एपीएससी), आईआईटी मुम्बई का आम्बेडकर फुले पेरियार स्टडी सर्किल (एपीपीएससी) और आंबेडकराइट स्टूडेंट्स कलेक्टिव (एएससी).
“वास्तव में, राजनीतिक आंदोलनों की शुरुआत किताबों से होनी चाहिए. शिक्षा प्राथमिक और प्रारंभिक सरोकार है. तभी हम संगठित हो सकते हैं. किताबों से ही हम शुरुआत कर सकते हैं.”
– श्रीनी, आम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्किल, आईआईटी चेन्नई.
आईआईटी चेन्नई में आम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्किल की स्थापना सन् 2014 में हुई थी. स्थापना के बाद ही से यह सर्किल अपनी विचारधारा के कारण विवादों में रहा है और इस वजह से इसे मीडिया अटेंशन भी खूब मिली. यही कारण है कि लोग इससे बखूबी परिचित हैं. इसके सदस्यों ने आईआईटी चेन्नई, जिसे बोलचाल की भाषा में ‘अगहरा’ या ‘अय्यर अयंगर इंस्टीट्यूट ऑफ़ टेक्नोलॉजी’ भी कहा जाता है, कैंपस में आम्बेडकरवादी विचारों के प्रचार-प्रसार में अहम भूमिका निभाई है.
शुरुआती वर्षों में उनकी साख और लोकप्रियता कितनी थी, इसका अंदाज़ा इसी से नहीं लगाया जा सकता है कि बहुत लम्बे समय तक एपीएससी की सदस्य संख्या चार तक ही सीमित रही और इसकी बैठकें भी छात्रावास के कमरों में हुआ करती थीं. आईआईटी मुम्बई (IIT Mumbai) में सन् 2014 में स्थापित आम्बेडकर पेरियार फुले स्टडी सर्किल के मूल संस्थापकों में से एक रहे अधीबन का कहना है, “इस कहानी को बार-बार बताने कि ज़रूरत है… उस समय, [ऐसे दिन थे कि] उच्च शिक्षा में जाति को खुलेआम स्वीकार करना इतना आसान नहीं था.”
ऐसे ही परिवेश में, भीम जयंती के दिन (14 अप्रैल, 2014) आईआईटी चेन्नई में आम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्किल का जन्म हुआ था. यह किसी भी आईआईटी में स्थापित अपनी तरह का पहला जाति-विरोधी समूह था. श्रीनी, जो कि संस्थापक सदस्यों में से एक हैं, कहते हैं कि “हमारी योजना वास्तव में एक ज़मीन तैयार करने की थी. मुझे लगा कि युद्ध का समय आ रहा है.” उनके अनुसार, जब इस बात पर चर्चा हो रही थी कि स्टडी सर्किल का क्या नाम रखा जाए, तब “ब्राह्मणवादी आधिपत्य के खिलाफ बिना झुके ज़मीनी संघर्ष का नेतृत्व करने वाले आम्बेडकर और पेरियार के नामों के अलावा किसी के दिमाग में कोई दूसरा विचार आया ही नहीं. जैसा कि अपेक्षित था, प्रशासन को आम्बेडकर और पेरियार के नामों पर आपत्ति थी, लेकिन छात्र भी झुकने या समझौता करने को तैयार नहीं थे.”
आईआईटी मुम्बई में आम्बेडकर पेरियार फुले स्टडी सर्किल का गठन 4 सितंबर 2014 को हुआ था. उस समय दोहरी डिग्री इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष के छात्र अनिकेत अम्भोरे की संस्थागत हत्या से कैंपस में ज़बर्दस्त उबाल था. अनिकेत की उम्र 19 साल थी और आईआईटी जेईई क्लियर करने के अलावा वह एक प्रतिभाशाली गिटारवादक भी था, और हाई-स्कूल परीक्षाओं में उसने बहुत अच्छे अंक प्राप्त किए थे.
दलित छात्र अनिकेत अम्भोरे का नामांकन अनुसूचित जाति कोटे से हुआ था.
उसकी मौत की छानबीन करने के लिए जांच समिति गठित की गई लेकिन उसकी जांच रिपोर्ट को आज तक सार्वजनिक नहीं किया गया. आज भी वह रिपोर्ट सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं है.
आईआईटी प्रशासन का दावा था कि यह संस्थागत हत्या जैसी कोई बात नहीं थी, बल्कि अनिकेत की मौत खराब मानसिक स्वास्थ्य के कारण हुई. प्रशासन की इसी गलतबयानी का विरोध करने के लिए एपीपीएससी के संस्थापक सदस्य पहले-पहल एकजुट हुए थे. ज़बर्दस्त विरोध प्रदर्शनों और मीडिया में काफी हो-हंगामे के बावजूद, प्रशासन और सरकारी एजेंसियों ने इसको व्यक्तिगत मामला बनाने की पूरी कोशिश की और इसमें जातिगत भेदभाव की जो प्रेरक भूमिका थी, उसको जानबूझकर दरकिनार और नज़रअंदाज़ कर दिया. दूसरे शब्दों में कहें तो यह दावा किया गया कि आईआईटी जैसे संस्थान में पढ़ाई का जो स्तर होता है, उसके लिए जिस मेधा की ज़रूरत होती है, उसका अनिकेत में अभाव था. वह एक अयोग्य छात्र था, जो अकादमिक दबाव नहीं झेल सका. उसकी मौत इसी दबाव का दुर्भाग्यपूर्ण परिणाम था.
भारत के सर्वोत्कृष्ट संस्थानों ने वैज्ञानिक विवेक, प्रगति और विकास के बल पर जितनी प्रतिष्ठा और ख्याति अर्जित की है, नीति और दैनिक प्रशासन में उसके विपरीत आचरण के लिए उन्हें उतनी ही कुख्याति भी मिली है. विश्व स्तर पर मान्यता प्राप्त भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी, IIT) भी कोई अलग नहीं हैं. जहां के प्रशासकों द्वारा शाकाहारी और मांसाहारी छात्रों के लिए धार्मिक आधार पर अलग-अलग वॉश बेसिन और डाइनिंग हॉल की व्यवस्था जैसी मांगों को गंभीरता से लिया गया और ऐसी व्यवस्था भी की गई.
इन संस्थानों में व्यापक और प्रणालीगत भेदभाव, उत्पीड़न और दुर्व्यवहार की बहुत सी रिपोर्टें हैं, जिनकी शोध एवं अध्ययनों, अकादमिक ग्रन्थों, फैक्ट-फाइंडिंग कमीशन और राउंड टेबल इंडिया के लेखों में पुष्टि की गई है.
उनका दस्तावेज़ीकरण भी किया गया है जो कि आईआईटी नेटवर्क में जाति के आधार पर उत्पीड़ित किए गए छात्रों और संकाय सदस्यों के जीवंत अनुभवों की अभिव्यक्ति द्वारा प्रति-संदर्भित हैं.
आम्बेडकर और पेरियार की “गैर-समझौतावादी” राजनीति और सदाबहार प्रासंगिकता से प्रेरणा लेते हुए एपीएससी ‘जातिवाद की जकड़बंदी’ का विरोध करती है. श्रीनी अपनी बात पर ज़ोर देते हुए कहते हैं, “एक बात यह है कि लोगों को पता होना चाहिए कि हमारे पास छिपाने जैसा कुछ भी नहीं है. हम राजनीतिक हैं. हम तटस्थ नहीं हैं. हमारा एक स्टैंड है [जो यह है कि] भारतीय राजनीति और भारतीय समाज का मुख्य अंतर्विरोध ब्राह्मणवादी आधिपत्य है.”
पराई वादन
आम्बेडकर स्टडी सर्किल ने कई साधनों का उपयोग किया. संस्कृति उनमें से एक है जो न सिर्फ इसमें हस्तक्षेप करती है बल्कि इसको पुनर्संदर्भित भी करती है.
जबकि फ़िल्म स्क्रीनिंग और पुस्तक चर्चा कैंपस ऐक्टिविज़्म का एक प्रमुख हिस्सा हैं. एपीपीएससी के सदस्यों ने महसूस किया कि उन्हें अपनी राजनीति और असहमति के मूल्यों को व्यक्त करने के लिए एक अलग किस्म के सांस्कृतिक कार्यक्रम या आउटलेट की ज़रूरत है. इसलिए, उन्होंने पराई वादन सीखने और साथ बजाने का फैसला किया.
पराई दरअसल तमिलनाडु के सबसे प्राचीन ताल वाद्यों में से एक है, जिसके तार संगम युग से जुड़ते हैं. यह नीम की लकड़ी के खोखले फ्रेम पर गाय का चमड़ा मंढ़ कर बनाया जाता है. पराई बजाने के लिए चोब अर्थात बांस की पतली छड़ी का उपयोग किया जाता है. चंग, डफ या डफली भी पराई जैसा ही वाद्य है. विद्वान आमतौर पर यह स्वीकार करते हैं कि पहले महत्त्वपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक और आध्यात्मिक कार्यों में पराई बजाने का चलन था. लेकिन ब्राह्मणवादी वर्चस्व के अधीन, पराई को एक अंत्येष्टि वाद्य बना दिया गया. अंत्येष्टि वाद्य, अर्थात ऐसा वाद्य जिसे अंतिम संस्कार के समय बजाया जाता है. और, पूरे तमिलनाडु में पराईआट्टम (पराई लोकनृत्य) की प्रस्तुति को जबरन कुछ दलित जातियों का जातिगत पेशा बना दिया गया. मृत्यु और दलित समुदायों के साथ इसका संबंध और इसको बनाने के लिए इस्तेमाल की जानेवाली सामग्री, जाति आधारित हिंदू समाज की नज़र में इस कलारूप और इसके कलाकारों को अधम और नीच बनाती है.
मुम्बई के धारावी में सक्रिय जाति-विरोधी सांस्कृतिक मंडली नीलम कलाई कुझू वहां के लोगों को पराई बजाना भी सिखाती थी. सन् 2018 में एपीपीएससी के सदस्यों ने भी धारावी वासियों के साथ पराई वादन सीखना शुरू किया. अधीबन अपनी बात रखते हुए कहते हैं, “…हम उस प्रतिरोध की संस्कृति को कैंपस में लाना चाहते हैं. हमने बहुत सोच-समझकर ही पराई का चुनाव किया था, …इसका जो इतिहास है… उस तरह की संस्कृति, जिसका हम हिस्सा बनना चाहते हैं, और हम चाहते हैं कि हमारा संगठन भी उस बड़े समूह का हिस्सा बने.”
असहमति, असंतोष, मुक्ति, समानता, आम्बेडकरवादी-पेरियारवादी आदर्शों और श्रम की राजनीति से जुड़े, और अधिकार और आक्रोश की भावना से लबरेज़ गीतों के साथ, सामाजिक कार्यकर्ताओं और दलित समुदाय के सदस्यों के हाथों में पराई देखते ही देखते संघर्ष और बदलाव का एक सशक्त हथियार बन गई. कैंपस के मैदान में हर हफ्ते पराई बजाने का अभ्यास किया जाता था. यह साप्ताहिक अभ्यास सत्र सामुदायिक भावना के निर्माण में बहुत ही उपयोगी साबित हुआ, क्योंकि अभ्यास के बाद लोग एकसाथ चाय पीने जाते, आपस में बातें करते और इस तरह एक-दूसरे के साथ जुड़ाव महसूस करते थे.
रेगिस्तानी फूल
“ब्राह्मण राज से प्रभावी ढंग से लड़ने” और लोगों को “शिक्षित करने के इरादे से” आम्बेडकर के सन् 1936 के ब्लूप्रिंट का अनुसरण करते हुए एपीएससी “तार्किकता, व्यावहारिकता और आधुनिक विज्ञान” को बढ़ावा देने का काम करता है. इसलिए, एपीएससी के योजनाबद्ध कार्यक्रमों से पहले के दिनों में, इसके सदस्य पर्चे लिखा करते थे. उन्हें होस्टल के मेस में बांटा करते थे. विभिन्न छात्रावासों में जाते और एक-एक कमरे का दरवाज़ा खटखटाते, छात्रों से बातें करते और अपनी विचारधारा का प्रचार किया करते थे. श्रीनी ने बताया,
"हमने 500 पैम्फलेट छपवाए और उन्हें बांटा. यदि आप एक पैम्फलेट दे रहे हैं और बात कर रहे हैं, तो आमने-सामने बातचीत होगी, सवाल उठाए जाएंगे, और हम जवाब देंगे. 500 पैम्फलेट का मतलब है कि हमने 500 लोगों से बातचीत की."
एपीएससी द्वारा भीम जयंती के अवसर पर 14 अप्रैल, 2015 को एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था, जिसमें डॉ. आम्बेडकर की समकालीन प्रासंगिकता पर व्याख्यान देने के लिए आंध्र प्रदेश के द्रविड़ विश्वविद्यालय में तमिल और अनुवाद अध्ययन विभाग के अध्यक्ष डॉ. आर. विवेकानंद गोपाल को आमंत्रित किया गया था. बाद में यही व्याख्यान विवाद का कारण बन गया. दरअसल, डॉ. गोपाल के व्याख्यान का एक अंश, जिसमें विभाजनकारी राजनीति की आलोचना की गई थी, को पर्चे (पैम्फलेट) के रूप में एपीएससी द्वारा छपवाया गया था, जिसके आधार पर स्टडी सर्किल की गतिविधियों को संदिग्ध करार दिया गया.
24 मई 2015 को, कथित “विवादास्पद” पर्ची और पोस्टर का हवाला देते हुए एपीएससी की मान्यता रद्द कर दी गई. दरअसल आईआईटी चेन्नई में, छात्र समूहों के पास मान्यता हासिल करने का विकल्प होता है. मान्यता प्राप्त छात्र समूहों को सामूहिक ईमेल (बल्क मेल) के माध्यम से अपने आगामी कार्यक्रमों से जुड़ी जानकारी शेयर करने के लिए स्टूडेंट ईमेल सर्वर का ऐक्सेस दिया जाता है. उन्हें अपने पोस्टर लगाने की अनुमति होती है और उनके काम में सहयोग और सहायता के लिए संकाय पर्यवेक्षक भी होते हैं. आईआईटी प्रशासन का कहना था कि एपीएससी ने बिना अनुमति के इन पोस्टरों पर आईआईटी के नाम का इस्तेमाल किया था और वह जिन “विवादास्पद गतिविधियों” में शामिल था, वह वास्तव में “उसको मिले विशेषाधिकारों का दुरुपयोग” था.
एपीएससी ने फौरन आईआईटी प्रशासन के इस फैसले पर अपना विरोध दर्ज कराते हुए कई बयान जारी किए. लेकिन आईआईटी प्रशासन के इस फैसले के खिलाफ़ एकजुटता की ऐसी लहर उठेगी, किसी ने सपने में भी नहीं सोचा था. आईआईटी चेन्नई प्रशासन द्वारा एपीएससी की मान्यता रद्द करने की खबर ने बड़े पैमाने पर मीडिया का ध्यान आकर्षित किया. यहां तक कि मुख्यधारा की मीडिया में भी इस ‘विवाद’ ने ज़ोर पकड़ा और बहस छिड़ गई. संक्षेप में यह कि एपीएससी की मान्यता रद्द किए जाने की घटना को भरपूर कवरेज मिली, और इस तरह आम्बेडकरवादी समूह “देश भर में खिल उठे“. अंतिम गणना में, इंजीनियरिंग संस्थानों में ऐसे लगभग नौ से दस समूह सक्रिय थे.
एक हफ्ते बाद ही आईआईटी चेन्नई ने एपीएससी की मान्यता रद्द करने का अपना पुराना फैसला वापस ले लिया. लेकिन करीब
एक साल या इससे थोड़ा ही अधिक समय बीता होगा कि प्रशासन ने आईआईटी कैंपस (चेन्नई) में पर्चे निकालने और बांटने पर प्रतिबंध लगा दिया.
विचार जगत में बाबासाहेब की वापसी
प्रोफेसर वी. गीता जो कि नारीवादी कार्यकर्ता, शिक्षक, अनुवादक और तारा बुक्स की सम्पादकीय निदेशक हैं, आम्बेडकरवादी शिक्षा को पुनर्जीवित करने वाली शक्तियों के लिए कोई अजनबी नहीं हैं. दशकों से, नारीवाद, आम्बेडकरवाद, श्रमिक और द्रविड़ आंदोलनों, और पेरियारवाद के परस्पर गुम्फित (जुड़े) विषयों के प्रति उनके रुझान ने उन्हें स्वाभाविक रूप से आम्बेडकर तक पहुंचाया है. [आम्बेडकर के लेखों का सबसे ज़्यादा अनुवाद तमिल भाषा में हुआ है, यह भी एक कारण है कि वे तमिल पाठकों के लिए इतने सुलभ हैं.]
“गर्मियों के मौसम में सन् 2021 की भयानक महामारी के दौरान जब हम सभी निराश और हताश बैठे थे”, उन्होंने अमेरिका स्थित आम्बेडकर किंग स्टडी सर्कल के बैनर तले लेट्स रीड आम्बेडकर नामक एक ऑनलाइन व्याख्यान शृंखला आयोजित की थी. यह शृंखला आम्बेडकर के लेखन और राजनीति पर आयोजित उन कार्यशालाओं पर आधारित थी, जिनका ऑफ़लाइन आयोजन उन्होंने महामारी से पहले करीब पांच वर्षों तक पूरे तमिलनाडु में किया था. वह बताती हैं कि अपने शैक्षिक उद्यम के एक बड़े हिस्से का लेखन उन्होंने तमिलनाडु के विविध भौगोलिक इलाकों, पृष्ठभूमियों और वर्गों के आम्बेडकरवादी समूहों, रीडिंग सर्किलों, यूनियनों, बुक क्लबों और सामुदायिक कार्यकर्ताओं के अनुरोध पर किया था.
वह कहती हैं, “मेरे लिए, फिर से, हर कदम पर, मैं उतना ही सीख रही हूं, जितना कि मैं कथित तौर पर सिखा या पढ़ा रही हूं, क्योंकि इसी क्रम में मुझे शिक्षण की, और शिक्षा का समर्थन करने वाली इन अद्भुत दलित [और आम्बेडकरवादी] संस्कृतियों की उपस्थिति के बारे में पता चला. मैंने आम्बेडकर में, उनके जीवन और संघर्ष की उस भावना को हमेशा आगे रखने वाली संस्कृति में निवेश किया.”
आईआईटी मुम्बई में एपीपीएससी के कुछ नए और पुराने सदस्यों के बीच मतभेद के बाद सन् 2018 के आसपास आम्बेडकर स्टूडेंट्स कलेक्टिव का जन्म हुआ. उनका यह टकराव दरअसल प्रतिनिधित्व के मसले पर वैचारिक मतभेद से उपजा. एएससी का मानना है कि जाति-विरोधी समूह, विशेष रूप से वैसे समूह जो खुद के आम्बेडकरवादी होने का दावा करते हैं, उन्हें संगठन के स्तर पर भी पूरी तरह से वैसा ही होना चाहिए. जैसा कि समूह के एक सदस्य टी ने बताया, इस तथ्य का संज्ञान लेते हुए कि एपीपीएससी में नेतृत्व के पदों पर सवर्ण सदस्यों को बिठाया जा रहा था, “आंतरिक प्रतिनिधित्व को गंभीरता से लेना” ज़रूरी हो गया था.
एएससी की आलोचनाओं का एपीपीएससी खंडन करता है, क्योंकि वह आम्बेडकरवाद की अपनी समझ को प्रगतिशील राजनीति के लिए एक व्यापक अवधारणा के रूप में परिभाषित करते हैं. वैसे देखें तो यह आम्बेडकरवादी, बहुजन और वामपंथी दलों और छात्र समूहों के बीच चलने वाला बहुत ही पुराना वैचारिक संघर्ष है.
एपीपीएससी की जो वर्तमान जनसांख्यिकी (डेमोग्रैफिक्स) है उसमें सभी गैर-सवर्ण हैं, लेकिन उनका मानना है कि जिस तरह से वे काम करते हैं वह हमेशा व्यावहारिकता और विकेन्द्रीकृत भागीदारी को प्राथमिकता देता है, जिसका अर्थ यह है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कौन आधिकारिक पदों पर है और कौन नहीं, क्योंकि सभी निर्णय गहन विचार-विमर्श और आम सहमति के बाद ही लिए जाते हैं.
एएससी के सदस्य भी अध्ययन, चर्चा, लिखना-पढ़ना आदि सामूहिक रूप से करते हैं, दलित चेतना, बहुजन राजनीति में जेंडर से जुड़े मुद्दे, संविधानवाद, जाति की गतिशीलता पर अकादमिक दृष्टिकोण आदि जैसे विषयों की छानबीन करते हैं. उनके विचार में, प्रतिनिधित्व महत्त्वपूर्ण है क्योंकि वे चाहते हैं कि उनका समूह एक ऐसा मंच बने जहां पर अनुसूचित जाति/जनजाति के छात्र आपस में जुड़ाव महसूस कर सकें, वैचारिक स्पष्टता हासिल कर सकें और कैंपस के बाहर अपने समुदायों में योगदान के लिए साधन की तलाश कर सकें.
कोरोना महामारी से पहले, एएससी के सदस्य पास के रोहित वेमुला शिक्षा केंद्र में स्कूल स्तर का गणित, विज्ञान और अंग्रेज़ी पढ़ाने जाया करते थे. उनके लिए धन भी जुटाया और इससे भी अहम बात यह कि उन्होंने मुख्य संचालकों को सिखाया कि फंड कैसे जुटाया जाता है. महामारी के दौरान फंड जुटाने की यही तरकीब काम आई क्योंकि उस दौरान एएससी के सदस्य उनकी माली मदद नहीं कर सके थे. उस दौरान, आईआईटी मुम्बई के मार्केट एरिया के पास स्थित महात्मा जोतिबा फुले नगर में लगभग बीस से तीस बच्चों के लिए केंद्र संचालकों ने स्वतंत्र रूप से आवश्यक धन और संसाधन जुटाए.
संस्थागत सहयोग की कमी के बावजूद, नालंदा अकादमी की क्षमता निर्माण की भावना, भीम आर्मी ट्यूशन सेंटरों की तात्कालिकता और पारस्परिक सहायता या आपसी चंदे से चलने वाले अन्य शैक्षिक उपक्रमों या पहलों को एएससी साझा करता है, जो प्रोफेसर शैलजा पाइक जिसे ‘आलोचनात्मक दलित शिक्षण या क्रिटिकल दलित पेडगोजी’ कहती हैं, उसकी क्रांतिकारी और परिवर्तनकारी क्षमता को मान्यता प्रदान करता है.
वी. गीता कहती हैं, “बाबासाहेब लोगों को पढ़ने के लिए प्रेरित करने वाले प्रेरणास्रोत थे. आप जानते हैं, वह उन्हें प्रोत्साहित करते थे कि कभी हार मत मानो. यह, मुझे लगता है, एक अद्भुत अनुभव है; यह कुछ ऐसा है जिसके बारे में गैर-दलितों को बिल्कुल भी पता नहीं है… यह एक ऐसी दुनिया है कि, मैं इसे आपको ठीक से समझा भी नहीं सकती… यह एक स्तर पर साहसिक है, लेकिन यह उतना ही लचीला या नरम भी है, है ना? यह बहु-पीढ़ीगत या मल्टी-जेनरेशनल है. यह बाबासाहेब की अपनी पीढ़ी की बात है, न कि अभी की. और इसमें एक निरंतरता है जिसपर शायद ही कभी हमारी या हमारे समय की समकालीन समझ (ज्ञान/बोध) में ध्यान दिया जाता है…?”
अगले भाग में जारी.
इस लेख का अनुवाद अक़बर रिज़वी ने किया है.