छेड़खानी

हिंसा और उल्लंघन से परे लड़कियां अपने जीवन में आनंद के साथ कैसे तालमेल बिठाती हैं, एक नारीवादी कार्यकर्ता की डायरी से कुछ पन्ने

चित्रांकन: सुतनु पाणिग्रही
दिल्ली की गर्मी में अप्रैल महीने की एक सुबह हम एक पुनर्वास कॉलोनी में इकट्ठा हैं. यहां हम इस कॉलोनी की लड़कियों के साथ चल रहे ‘ब्रिज कोर्स’ में विभिन्न सत्रों का आयोजन करते हैं. निरंतर संस्था द्वारा तैयार किया गया ‘ब्रिज कोर्स’ उन लड़कियों के लिए है जिन्होंने या तो स्कूल छोड़ दिया है या कभी स्कूल में दाखिला ही नहीं लिया. इस कोर्स का पाठ्यक्रम नियमित रूप से स्कूल में पढ़ाए जाने वाले विषयों से जुड़ा होता है ताकि आगे जाकर वे मुख्यधारा की पढ़ाई से जुड़ सकें. यहां जेंडर और यौनिकता से जुड़े प्रश्नों पर भी ध्यान दिया जाता है. थियेटर वाले सत्र यौनिकता से जुड़ी बातचीत को आगे बढ़ाते हैं.

हमारे पहले दो सत्र खेलकूद के साथ एक दूसरे को जानने की कोशिश थे. पहले सत्र में, बहुत सारे खेल खेलने के बाद जब हम बातचीत के लिए बैठे, तो टोली की एक 18 या उससे कम उम्र की लड़की ने झट से कहा कि इस सत्र ने उसे उसके बचपन की याद दिला दी. बचपन की याद, मतलब? उसने समझाया कि अब वह ‘जवान’ हो गई है. यानी उसका बचपन अब खत्म हो गया है. मानो जवानी का मतलब है सारी खेलकूद बंद, खुद के शरीर पर नियंत्रण और उससे जुड़ी रोकटोक.

हम असल में जवान कब होते हैं? इस बात पर कोई आम सहमति नहीं बन पाई. एक साथी, जिसकी गोद में एक बच्चा था, बोलीं कि उनके घरवालों ने उनकी नौ साल की बेटी के सड़क पर खुले आम खेलने पर रोकटोक लगा दी है. एक कार्यकर्ता के रूप में, इन चर्चाओं को सुनकर मैंने महसूस किया कि हमें गतिशीलता या खुले आम चलने–फिरने की आज़ादी पर एक सत्र करने की ज़रूरत है.

अगले दिन, हम फिर सेंटर पहुंचे. लेकिन उस दिन सिर्फ चार लड़कियां ही सत्र के लिए आई थीं. इसके अलावा चार बड़ी उम्र की कार्यकर्ता वहां मौजूद थीं. एक बार तो हमारे दिमाग में यह ख्याल आया कि हमारी गतिविधियों का वर्कशॉप पर कैसा असर होगा. लेकिन फिर हमने गति से जुड़ी हमारी एक्टिविटी को करना शुरू किया. हम सभी अलग-अलग स्थानों से शुरू करते हुए, अपनी-अपनी गति के अनुसार, कमरे के चारों ओर घूमने लगे, ऐसा करते हुए कार्यकर्ताओं के निर्देशों का जवाब देना और उन्हें ध्यान से सुनना ज़रूरी था.

अब, जब हम उस जगह को लेकर आराम महसूस कर रहे थे, तो उसके बाद हमने एक ‘अलग से चलने’ वाली गतिविधि शुरू की. यह कल्पना करते हुए कि हम सभी किसी और जगह पर हैं. इस अभ्यास में हमने साथियों को कमरे के चारों ओर घूमने के लिए कहा. अपनी कल्पनाओं की उड़ान में हम पहले हरे खेतों में थे, फिर एक शहर में, बारिश में, मेट्रो में, एक ऐसी जगह जहां सिर्फ महिलाएं थीं, और अंत में पुरुषों और महिलाओं से भरी हुई एक जगह थी.

लड़कियों को शुरुआत में एक-दूसरे के साथ बातचीत किए बिना चुपचाप चलना था, जैसा उन्होंने किया. फिर कार्यकर्ता ने कहा कि ऐसे चलो जैसे कि तुम अपनी बस्ती में बाकी मर्दों और औरतों के साथ चल रही हो. टोली की एक लड़की ने तुरंत एक लड़के की तरह चलना शुरू किया और बाकी लड़कियों को छेड़ना शुरू कर दिया. सभी हंसने लगीं और फिर बारी-बारी से एक दूसरे को छेड़ने लगीं. मस्ती का समा सा बन गया.

थोड़ी देर में ये खेल खत्म हुआ और हम बातचीत के लिए बैठे. ‘छेड़खानी’ पर सबसे पहले चर्चा होनी थी. एक कार्यकर्ता ने पूछा, “तुम्हें यहां तो छेड़खानी में बहुत मज़ा आ रहा था, लेकिन सड़क पर जब लड़के तुम्हारे साथ ऐसा करते हैं, तब तुम्हें अच्छा नहीं लगता, है ना?”

उन्होंने थोड़ा सोचा, फिर एक लड़की बोल पड़ी,

“अगर लड़के, सड़क पर हमसे तमीज़ से बात करें, तो उससे हमें कोई दिक्कत नहीं है.”

कार्यकर्ता ने आगे पूछा, “तो क्या आप में से किसी के साथ ऐसा कुछ हुआ है?”

इस सवाल के बाद लड़कियों ने इश्कबाज़ी के किस्से सुनाने शुरू कर दिए. उनके किस्सों को सुन हम दंग रह गए. एक लड़की ने बताया की छोटी उम्र में जब वह अपने गांव गई हुई थी वहां एक लड़का उसे चाहने लगा. (उसकी बातें सुन बाकी लड़कियां एक दूसरे से ठिठोली भी करती जा रही थीं) लड़का कई दिनों तक, बस यूं ही, उसके घर आता-जाता रहा और उसके घरवालों के साथ उठता-बैठता रहा. एक दिन अचानक, उसने घर के पास एक गली के बीच में उसका हाथ पकड़ लिया. हाथ पकड़ना एक बड़ी बात थी. आखिर में दोनों दोस्त बन गए और आज वह उनके शहर के घर में उनके साथ रहता है. लड़के को, एक मज़दूर की नौकरी मिल गई है और जल्दी ही दोनों शादी करने वाले हैं. अपनी कहानी कहते हुए भी वह लड़की बहुत उत्तेजित महसूस कर रही थी.

टोली की एक और लड़की के पास भी कुछ ऐसी ही कहानी थी. जब वह अपने गांव में थी, तो एक लड़का उसे पसंद करने लगा. उन्होंने कभी बात नहीं की, क्योंकि उसे मालूम था कि घरवाले और समाज के अनुसार यह गलत था. लेकिन दोनों के बीच नैन-मटक्का जारी रहा. जिस दिन वह गांव से वापस आ रही थी, उस दिन वह लड़का उसके और उसके भाई के पीछे-पीछे बस स्टैंड तक पहुंच गया. दिलेरी दिखाते हुए वह बस में लड़की की सीट के ठीक पीछे बैठ गया. वह बस के चलने से पहले तक लड़की की सीट के पीछे बैठा रहा. लेकिन पूरे समय उन दोनों ने एक दूसरे से बात नहीं की. कुछ समय बाद लड़के ने लड़की के चचेरे भाई से उसका फोन नंबर मांगकर उसे फोन किया.

“अगर तुम्हारे पास फोन होता, तो क्या तुम अपना नंबर देतीँ?” हमने पूछा. लड़की ने कहा, “हां, मुझे उससे बात करने में मज़ा आता.” उसे अच्छा लगा कि वह लड़का बस चलने तक उसके पीछे बैठा रहा.

हमने सोचा था कि हम सीमाओं के उल्लंघन से बातचीत की शुरुआत करेंगे. लेकिन यहां तो इश्कबाज़ी के किस्से शुरू हो गए. कहानियों का दौर चलता रहा.

नोट करने वाली बात यह थी कि दोनों ही मुद्दों पर मूल विषय ‘छेड़खानी’ था.

मैंने गौर किया कि टोली में एक शादीशुदा लड़की, चुपचाप, सिमटी हुई बैठी थी. हमने सोचा कहीं उसे अलगाव तो महसूस नहीं हो रहा. लेकिन अगले ही पल उसने कहा कि उसे अपनी कहानी सुनानी है. उसने गोले में अपनी जगह बनाई और कहा, “मेरी मम्मी मेरी शादी अपनी बहन के बेटे से कराना चाहती थीं.”

उसने बताया कि वे एक-दूसरे को पसंद भी करते थे और सब सही चल रहा था. लेकिन लड़की के पिता इसके खिलाफ थे. बाद में, उसकी शादी किसी और के साथ हो गई. इस बीच पहले वाले लड़के ने उससे मिलना बंद नहीं किया. वह उसे पति को छोड़कर उससे शादी करने के लिए मनाने लगा. लड़की के बार-बार मना करने के बाद आखिर लड़के ने भी किसी और से शादी कर ली. “शादी के बाद वह अपनी पत्नी के साथ मुझसे मिलने आया. उस वक्त लगा कि उसने हमारे रिश्ते को इज्ज़त दी है, जबकि हमारी शादी अलग-अलग लोगों से हुई है.”

इस बातचीत के बाद हम हैरान तो थे. छेड़खानी की जिस भाषा का प्रयोग हम सीमाओं का उल्लंघन करने के लिए करते हैं, उसका इस्तेमाल यहां मस्ती-मज़े के संदर्भ में हो रहा था. हम अपने सवाल पर वापस आए, “क्या ‘छेड़खानी’ तुम्हें पसंद है?” “हर तरीके से नहीं”, एक लड़की ने बोला, “बाज़ार में एक लड़के ने मुझे अजीब तरीके से देखा जिससे मुझे डर लगा.” फिर

एक ने कहा, “अगर सलमान खान मुझे सड़क पर ‘छेड़े’, तो मुझे कोई दिक्कत नहीं होगी.” इसे सुनकर दूसरी लड़की बोल पड़ी, “तुझे पता है, सलमान जैसे ‘शरीफ़’ मर्द’ औरतों को सड़क पर नहीं छेड़ते.”

बातचीत से समझ आया कि चिंता सड़क पर खड़े होकर लड़कों से बात करने की नहीं है. बल्कि इसकी है कि अगर परिवार के लोग अपनी बेटी को लड़कों से बात करते हुए देखेंगे तो क्या करेंगे? समाज में बातें बहुत तेज़ी से फैलती भी हैं. लड़कियों के लिए पिता और भाइयों के हाथों से होने वाली हिंसा सड़क पर खड़े आदमी की तुलना में ज़्यादा घातक है. इश्कबाज़ी के इर्द-गिर्द जो डर लड़कियां/ महिलाएं महसूस करती हैं, असल में वह उस पितृसत्ता से भरी सामाजिक संरचना का खौफ है, जो उन्हें उनके लिए खींच दी गई लकीर की सीमा को लांघने पर दंडित करती है.

बातचीत में ऐसा लगा कि लड़कियों के लिए लड़के चिंता का सबसे मामूली विषय हैं.

सड़कों पर ऐसी स्थितियों से निपटना रचनात्मक रूप भी ले लेता है. यह चुपचाप अनदेखा करने या सड़क के दूसरी ओर चलने से लेकर, ज़्यादा ताकतवर पुरुष – शायद एक भाई या घरवालों को बता देने – की धमकी देने तक हो सकता है.

एक अलग संदर्भ में, एक लड़का कुछ दिनों से टोली की लड़कियों में से एक का पीछा कर रहा था, लेकिन वह उसे तबतक भाव नहीं दे रही थी, जबतक सही मौका नहीं आता. एक दिन, जब वह अपनी बहनों और सहेलियों के साथ गली में खड़ी थी, तो लड़के ने उसे गली के बाहर बुलाया और कहा कि वह उसे कोल्डड्रिंक के लिए बाहर ले जाना चाहता है. लड़की मान गई और उसने अपने साथ अपनी सारी सहेलियों को आमंत्रित कर लिया. उसने उस लड़के से अपनी सारी सहेलियों को कोल्डड्रिंक पिलवाई!

लेकिन सारी कहानियां इतनी सुखद नहीं थीं. टोली की एक लड़की के घर के हालात अच्छे नहीं थे तो इश्कबाज़ी और लड़कों से दोस्ती उसके लिए उन हालातों से बचने का सहारा बन गए. ये दोस्त उसके लिए उपहार लाते. ज़रूरत पड़ने पर पैसे उधार देते. मुश्किल हालातों में उसके मददगार भी बनते. इस चक्कर में कभी-कभी उसे शारीरिक समझौते भी करने पड़े. इस लड़की ने सत्र के दौरान हमसे कोई बात नहीं की थी. उसने बाद में अपनी बात एक कार्यकर्ता से की, जिसने बाकी टीम के साथ यह कहानी साझा की. उसके हवाले से हमने यौनिकता और इश्कबाज़ी के इस लेन-देन वाली प्रक्रिया पर बात की.

हम अपने नज़रिए से उसकी कुछ हरकतों को गलत भी मान सकते थे लेकिन क्या ऐसी गतिविधियों में अपने तरीके से काम लेना उसका अधिकार नहीं है? एक नारीवादी संगठन के आधार पर हमारे लिए यह एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न था. दुनिया भर में, महिलाओं के हित में हो रहे आंदोलनों का यही संघर्ष है जहां यौनिकता, यौन हिंसा या यौनिक इच्छाएं अपना मतलब तलाश रहे हैं. हाल ही में हो रही सामाजिक गतिविधियों के कारण इन उलझनों को समझना ज़रूरी है – यौनिक अभिलाषाएं, इश्कबाज़ी के बदलते रूप और उनसे जुड़े अनुभव जो हमारी संस्थाओं से लेकर सड़कों तक घटित होते हैं.

जब बातचीत यौन उत्पीड़न की होती है तो युवाओं के साथ ऐसी चर्चा में गहराई में उतरना और भी मुश्किल हो जाता है. वहीं, यौनिकता और उससे जुड़ी मंशाओं पर आधारित बातचीत और उसके निष्कर्ष किसी संगठन के लिए बहुत बहुमूल्य होते हैं. पर, बाहर अगर यह पता चल जाए कि कंप्यूटर ट्रेनिंग, खेलकूद या शिक्षा से जुड़ी इन वर्कशॉप में हम इन मुद्दों पर बातचीत करते हैं तो, यहां जो लड़कियां इकट्ठी हुई हैं वे भी गायब हो जाएंगी.

युवाओं के साथ यौनिकता पर बात करते समय, संगठनों को हर कदम फूंक-फूंक कर रखना पड़ता है. बातचीत की मंशा, शायद दोनों तरफ से है. लेकिन यौन शिक्षा से जुड़े प्रतिबंध और तरह-तरह की रोक-टोक के कारण ऐसी बातचीत को बिना किसी आलोचना के करना, बहुत मुश्किल है.

एक ऐसी दुनिया जहां बातचीत करना ही मुश्किल है वहां किसी भी तरह की बातचीत का होना बेहतर है, है ना? क्या लड़कियां अपने शरीर, गर्भ-निरोध, सेक्स, इच्छाएं और अपनी अभिलाषाओं की बात एक सुरक्षित जगह में बेहतरी से कर पाएंगी? जी हां, ज़रूर. मगर हम यौनिकता और सेक्स से जुड़े यौनिक संयम और खतरों की बातों पर ज़्यादा ध्यान देते हैं. सेक्स से जुड़े खतरों पर ज़ोर देना – रोग, संक्रमण, गर्भावस्था की संभावना जैसी बातें हमारे समाज के लोगों के लिए बातचीत के सही मुद्दे माने जाते हैं.

यौनिकता और उससे जुड़े खतरों की कहानी दरअसल एक बड़े पैमाने पर, पितृसत्ता से ग्रस्त मानसिकता की ही एक निशानी है जहां औरतें कमज़ोर मानी जाती हैं और उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए ‘ताकतवर मर्दों’ की ज़रुरत है.

इसी धारा में, हालिया राज्य चुनावों के बाद, उत्तर-प्रदेश में ‘एंटी-रोमियो स्क्वॉड’ का जन्म हुआ. ये दस्ते ज़ाहिर तौर पर महिलाओं के साथ घट रहे सड़क उत्पीड़न पर रोक लगाने के लिए बनाए गए हैं. लेकिन वास्तव में, वे नैतिक पुलिस के रूप में काम करते हैं जहां महिलाओं के पुरुष दोस्तों पर ‘नज़र रखी जाती है’.

इस तरह महिलाओं के लिए अपनी इच्छाओं को व्यक्त करने, अपनी इच्छानुसार सड़कों पर घूमने, और अपनी यौनिक मंशाओं को व्यक्त करने की जगह खत्म हो जाती है. इसी के साथ अंत होता है अंतरजातीय या अंतरधार्मिक मिलन की संभावनाओं का. हर साल, वेलेंटाइन डे पर इस तरह के ‘स्व’ नैतिक पुलिस सड़कों पर अपना कब्जा जमा लेते हैं. उस दिन उनका काम उन प्रेमियों को सबक सिखाना होता है जो भारतीय संस्कृति को ‘प्रदूषित’’ कर रहे हैं. कुछ साल पहले तो उन्होंने वेलेंटाइन डे पर सड़कों पर घूमते हुए पाए जाने वाले जोड़ों की शादी करा देने की धमकी तक दी थी.

महिलाओं के आंदोलन में यौनिकता, सेक्स से जुड़ी सकारात्मकता और यौनिक उत्पीड़न की बहस को कैसे आगे कैसे बढ़ाया जाए, यह हमारे समय के सबसे महत्त्वपूर्ण सवालों में से एक है.

हम दर्द और आनंद के बीच होने वाले इस पेचीदा रिश्ते के बारे में कैसे बात कर सकते हैं? दो दशक पहले लेखक बेल हुक्स ने, ‘पैनिस पैशन’ (लिंग के प्रति उत्साह) नाम के एक लेख में इस समस्या को समझाने का प्रयास किया. वह सेक्स, विशेषकर पुरुषों के ‘लिंग’ के बारे में बात करते हुए हमारी खुद की भाषा में एक समझ का अंतर होने की बात करती हैं. उनका तर्क है कि पुरुष के लिंग को अभी भी मुख्य रूप से एक हथियार के रूप में देखा जाता है, जिसका इस्तेमाल अपरिष्कृत और दर्दनाक होता है.

बेल हुक्स, नाओमी वुल्फ और उनके दोस्तों के लड़कपन के यौन अनुभवों के हवाले से बात करती हुई कहती हैं, “हम जुनूनी थे. पेनिस को देखकर इतना नहीं बल्कि उनकी सुंदर विचित्रता, जिस तरह से वे अजीब तरह से अपनी इच्छा से खड़े हो जाते हैं और अजीब तरह से गुरुत्वाकर्षण को चुनौती देते हैं, उनकी अथाह संवेदनशीलता को लेकर.” हुक्स आगे बताती हैं, “महिलाओं द्वारा लिंग के प्रति आकर्षण के बारे में बात करना अक्सर लड़कपन और जवानी की यादों पर ही थम जाता है. इसलिए नहीं कि उसने चमत्कार करना बंद कर दिया, बल्कि इसलिए कि लिंग के अद्भुत आश्चर्य पुरुष वर्चस्व की रणनीतियों से जुड़े होने पर अपना आकर्षण खो देते हैं.” बेल हुक्स इस द्वंद के बारे में 1970 में लिख रही थीं. लेकिन इसे पढ़कर लगता है कि ये हमारे वर्तमान की बात है. वे कहती हैं, “ हममें से जो लोग लिंग के प्रति उत्साह का मज़ा लेते है, वे अक्सर चुप रहना पसंद करते हैं क्योंकि अक्सर अपनी भावनाओं को व्यक्त करने पर ऐसा मान लिया जाता है कि हमारा आनंद एक प्रकार की नमकहरामी है और ये कि हम पुरुष प्रधानता और पितृसत्ता के समर्थक हैं.”

हाल ही में #मीटू आंदोलन और उसके आसपास हो रही गतिविधियों ने औरतों के लिए अपने साथ हुए अनैतिक और चोटिल यौनिक अनुभवों के बारे में बोलने की जगह बनाई. औरतों ने विभिन्न कारणों से अपने अनुभवों को सबसे बांटा है – हम अपने काम को खतरे में नहीं डालना चाहते, हम अपने लिए नए अवसर खोलना चाहते हैं, हम अपने साथियों के साथ रहना चाहते हैं और अपने रिश्तों को बनाए रखना चाहते हैं, हम ऐसा महसूस नहीं करना चाहते थे कि हम उस व्यक्ति को संतुष्ट नहीं कर पा रहे हैं जिसके साथ हमारा यौनिक रिश्ता है, हमें किससे बात करनी है ये मालूम नहीं था, कौन लोग हमें गंभीरता से लेंगे पता नहीं था लेकिन सबसे अधिक, शायद इसलिए क्योंकि हमने खुद से भी स्वीकार नहीं किया था कि हम बेहतरी के हकदार हैं.

एक बार फिर हम दिल्ली की उन चार युवा लड़कियों की बात पर वापिस आते हैं. सड़कों पर इश्कबाज़ी के किस्सों को सुनते हुए, हमें अहसास हुआ कि यौनिकता से जुड़ी हमारी अपनी चिंताएं, यौन इच्छाओं और उनसे जुड़े खतरे के अनुभव हमारी सोच को कितनी गहराई से प्रभावित करते हैं. हम उन्हीं से जुड़ी बातें सुनने की उम्मीद भी करते हैं. हम यौनिकता और उससे जुड़े मज़ेदार अनुभवों को देखने के बजाय उसके उल्लंघन से बचने पर अपना सारा ध्यान लगाते हैं.

अपनी यौन इच्छाओं को समझना और ये जानना कि किन चीज़ों से हमें खुशी मिलती है, दरअसल, एक अच्छा तरीका है यह कहने का कि

‘हम इससे बेहतर की अधिकारी हैं’

और ये बताने का कि हमें किन चीज़ों से दिक्कत है. हमें यह भी स्पष्ट हो गया कि हमारी बातचीत में आनंद/मज़ा/मस्ती के लिए एक भाषा का अभाव है, या वास्तव में, शायद इसके लिए कोई जगह ही नहीं है. इसकी सबसे बड़ी विडंबना यह है कि यह उसी पितृसत्ता को मज़बूत बनाता है जिससे हम लड़ना चाहते हैं. यह इस विचार को मज़बूत बनाता है कि पुरुषों के साथ बातचीत, विशेष रूप से यौन संबंधों वाली, हमेशा शक्ति और सत्ता से भरी होगी, जिससे वे हमें गहरी चोट दे सकते हैं. यह स्वीकार करने में हमारी खुद की इच्छा का हनन भी होता है कि हम कई कारणों से यौनिक संबंधों में लेन-देन कर सकते हैं और उन सभी संभावनाओं को भी खत्म कर देते हैं. जहां हमें सेक्स या उससे जुड़ी बाकी चीज़ें आनंद दे सकती हैं.

यौनिकता और उससे जुड़े सब तरीके के संबंधों के बारे में खुले रूप से बात करना ही इस गुत्थी का तोड़ता है. यह बातचीत निरंतर होती रहेगी. जहां भी यौनिकता की बात होगी तो उल्लंघन और मर्यादा से परे, आनंद और मस्ती की बातें भी हो सकेंगी.

अपेक्षा एक स्वतंत्र अध्ययनकर्ता, थिएटर रचनाकार, और एक्टिविस्ट हैं. वे मुंबई में रहती हैं.

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