मंजिमा भट्टाचार्य एक नारीवादी शोधकर्त्ता, लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. आप दो दशकों से अधिक समय से भारतीय महिला आंदोलन का हिस्सा रही हैं. आपने महिला सरपंचों, फैशन उद्योग में काम करने वाली महिलाओं तथा यौनिकता और इंटरनेट के बीच संबंधों पर शोधकार्य किया है. अपनी 2021 में प्रकाशित पुस्तक, ‘इंटिमेट सिटी’ में भट्टाचार्य ने वैश्वीकरण और तकनीक ने कैसे यौन वाणिज्य (सेक्सुअल कॉमर्स) को बदला है, इसकी तहकीकात की है. ऑनलाइन डेटिंग एप्प ‘टिंडर’ जैसे अन्य एप्स के आगमन से कुछ ही पहले, डिजिटल आत्मीयता और निजी रिश्तों (इंटिमेसी) को इंटरनेट कैसे बदल रहा था. यह किताब एक दिलचस्प अंतर्दृष्टि प्रदान करती है. यह सब मुम्बई की पृष्ठभूमि के बरक्स है. मुम्बई, जिसने उद्यम, नारीवाद, सेक्सवर्क और शहरी जीवन (रहन-सहन) की लोकप्रिय (और अक्सर अकादमिक समझ) को आकार दिया है. पेश है उनसे हुई बातचीत का पहला भाग.
मंजिमा, हम बातचीत की शुरुआत, आपकी किताब ‘इंटिमेट सिटी’ के शुरुआती वाक्य से करना चाहते हैं. आपने लिखा है कि “वैश्विक स्तर के शहर अक्सर लाक्षणिक और शाब्दिक रूप से आकर्षण या प्रलोभन के ठिकाने होते हैं.”
मैंने जब मॉडलिंग उद्योग से जुड़ी महिलाओं पर मैनिक्विन किताब लिखी, उसमें एक कड़ी थी कि कैसे शहर का आकर्षण युवा महिलाओं को बहुत सी बाधाओं को पार करने और शहर का सफर तय करने के लिए प्रेरित करता है. उन्हें ऐसा लगता है कि शहर उन पिंजरों से आज़ाद होने में मददगार साबित होगा, जिनमें वे खुद को फंसा हुआ महसूस करती हैं. कि उन्हें शहर में आज़ादी और गतिशीलता (मोबिलिटी) मिलेगी. जबकि हम शहरों के बुनियादी ढांचे – फ्लाईओवर, मॉल, हाईवे, हवाई अड्डे और ऐसी ही दूसरी चीज़ों के बारे में सोचते हैं – वास्तव में यह लोगों की इच्छाओं और भावनाओं का एक पलायन है. शहर के प्रति आकर्षण कुछ हद तक भावनात्मक है और मैं इसी दिशा की तरफ इशारा करने की कोशिश कर रही थी. वैश्विक नगर कई इच्छाओं का प्रतीक है और यह एक ऐसी जगह है जहां लोग सोचते हैं कि उनके दिमाग की बत्ती भक्क से जल उठेगी और वे एक नई धारा से जुड़ जाएंगे, एक नए प्रवाह में शामिल हो जाएंगे. तो, इस वाक्य की शुरुआत दरअसल वहां से होती है.
अन्वेषी संस्था ने (हैदराबाद शहर की ओर पलायन करने वाली महिलाओं पर) एक बहुत ही दिलचस्प रिपोर्ट साझा की है, जिसे ‘मेट्रोपोलिस एज़ पैट्रिआर्क’ नाम दिया गया है. मुझे यह शीर्षक बहुत पसंद आया.
यहां आने के बाद जब महिलाओं को पता चलता है कि हॉस्टल में नियत समय पर वापस आना है, और कार्यस्थलों पर भी उन्हें एक खास तरीके से पेश आना है, तब जाकर महिलाओं को अहसास होता है कि शहर में भी पितृसत्ता है.
अन्य बहुत सी संस्थाओं की तरह ही शहर भी महिलाओं की निगरानी और प्रबंधन करने की कोशिश कर रहा है. लेकिन यह भी है कि अभी भी सम्भावनाएं बची हुई हैं, कहीं-कहीं कोई दरारें हैं और यही वह ढांचा है जिसमें मैं प्रवेश करना चाहती थी और यौन इच्छाएं उसी का हिस्सा है.
अपनी किताब की शुरुआत में आपने लिखा है कि सेक्सवर्क पर शोध के साथ आपके जुड़ाव के दो दशकों में कई बदलाव हुए हैं. क्या आप हमें इन बदलावों का संक्षिप्त विवरण देना पसंद करेंगी?
भारत में 60 और 70 के दशक में, सेक्सवर्क पर होने वाली बहसें, कई मायनों में अंतरराष्ट्रीय विवादों का ही अनुसरण कर रही थीं. और वैश्विक स्तर पर नारीवादियों के बीच इसे लेकर विचार पूरी तरह से दो भागों में बंटे हुए थे जिसे ‘सेक्स वॉर (यौन युद्ध),’ ‘द फेमिनिस्ट सेक्स वॉर (नारीवादी यौन संग्राम)’ कहा जाता था.
नारीवादियों में एक पक्ष का मानना था कि वेश्यावृत्ति यौन-दासता या फिर यौनिक गुलामी है, इसका अस्तित्व पुरुष वर्चस्व की अभिव्यक्ति है और महिलाएं कभी भी इस तरह की यौन दासता के लिए सहमत नहीं हो सकती हैं. उनका मानना था कि वेश्यावृत्ति को खत्म करने का मतलब पुरुष वर्चस्व को समाप्त कर देना है. इस तरह की मूल विचारधारा, सेक्सवर्क को पूरी तरह समाप्त कर देने के पक्ष में थी.
दूसरे पक्ष का मानना था कि कुछ परिस्थितियां होती हैं जिनमें महिलाएं अपनी मर्ज़ी से सेक्सवर्क अथवा यौनकर्म का चुनाव कर सकती हैं और यही वह लॉबी है जिसने इस काम को ‘सेक्सवर्क’ नाम दिया. उनका मानना था कि वेश्यावृत्ति वस्तुतः यौन श्रम का गठन करती है और महिलाओं में इसके बारे में सोचने और इसके लिए सहमति देने की क्षमता या सलाहियत होती है. तो, ये दो महत्त्वपूर्ण पक्ष अथवा धड़े थे.
कुछ ऐसा ही भारतीय नारीवादियों के बीच भी चल रहा था. यहां इसमें कुछ और भी जटिलताएं थीं. हमारे यहां गांधीवादी नारीवादियों का भी इतिहास रहा है जिनके नैतिक ढांचे में यौनिकता को सहज विषय नहीं माना जाता है कि उसपर ज़्यादा चर्चा की जा सके, इसलिए वहां संयम को अधिक महत्त्व दिया जाता है. फ़िर उपनिवेशीकरण का भी हमारा अनुभव था, जिसका अर्थ था कि ये कानून औरतों की तस्करी और विदेश से आने वाली यौनकर्मियों के बीच स्पष्ट सीमाओं को ध्यान में रखते हुए बनाए गए थे. उदाहरण के लिए, कमाठीपुरा में, एक ‘सफेद गली’ थी जिसमें विदेश से पलायन कर आने वाली महिलाओं को रखा जाता था और फिर जो बाक़ी इलाके थे, वह भारतीय महिलाओं के लिए अधिकृत थे जहां वे भारतीय मूल के सैनिकों को यौन सेवाएं प्रदान करती थीं. इतिहास के इस हिस्से ने भी सेक्सवर्क को लेकर होने वाले विचार-विमर्शों में कुछ योगदान दिया.
हाल के दिनों में, यौनकर्मियों के अधिकारों को लेकर होने वाले आंदोलन के कारण उक्त दोनों विचार-पक्ष और अधिक जटिल हो गए. जब एचआईवी जागरूकता अभियान शुरू हुआ तो यौनकर्मियों को समूहों में संगठित किया जाने लगा ताकि उन्हें कंडोम दिया जा सके और वे ग्राहकों से कंडोम आदि के उपयोग को लेकर बातचीत अथवा मोलभाव करने में सक्षम हो सकें. इससे यौनकर्मियों के अधिकारों के लिए आंदोलन और इस वैचारिक बदलाव का मार्ग प्रशस्त हुआ.
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तो क्या इससे पहले यूनियनीकरण का कोई इतिहास नहीं था?
हां, यूनियनीकरण निश्चित रूप से एचआईवी-विरोधी अभियान का एक अप्रत्याशित परिणाम था. इसका मकसद यौनकर्मियों के जीवन में हस्तक्षेप करना था क्योंकि उन्हें रोग को फैलाने वाले के रूप में देखा जाता था. लेकिन फिर इसने उन्हें स्वंय में जागरूकता के एक और स्तर की ओर अग्रसर किया. फिर भारत का श्रमिक इतिहास उसमें उभर कर सामने आया, काम करने का, स्वतंत्र होने का गौरव… मुझे याद है जब 1997 में कोलकाता के साल्ट लेक स्टेडियम में पहली बार यौनकर्मियों का राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ था. दरबार महिला समन्वय समिति ने हज़ारों यौनकर्मियों को संगठित किया था. सम्मेलन में, उन्होंने कहा, “यह एक काम है. हम जो करते हैं वह काम है.” उनके पास एक नारीवादी घोषणापत्र था जिसे सशक्तीकरण और प्रतिनिधित्व (एजेंसी) संबंधी बहुत ही गम्भीर विचारों और समझ के साथ असाधारण रूप से तैयार किया गया था. यह एक नई नारीवादी आवाज़ थी और बहुत ही महत्त्वपूर्ण थी. इससे वैसी बहुत सी नारीवादियों को मदद मिली जो सेक्सवर्क को यौनकर्म के रूप में स्वीकार करने को लेकर असंमजस अथवा अनिर्णय की स्थिति में थीं.
फिर, एक और मोड़ आया जब नारीवादी आंदोलन ने पहचान को लेकर एक पैनी सोच और दृष्टि विकसित की. दलित नारीवादियों ने पूछा,
"भारत में यौनकर्मी कौन हैं? वे मुख्य रूप से दलित महिलाएं हैं. लिहाज़ा उनकी मर्ज़ी वास्तव में कोई मर्ज़ी नहीं है. इसका सम्बंध जाति आधारित श्रम से है.”
जब नारीवादियों ने वर्ष 2005 में, मुम्बई में बार डांस पर प्रतिबंध लगाने वाले अदालती आदेश को चुनौती देते हुए बार डांसरों का समर्थन किया तो मुम्बई और देशभर के नारीवादी समूहों ने बार डांसरों की लामबंदी को अपना पूरा समर्थन दिया. उन्होंने बार डांस को आजीविका के साधन के रूप में पेश करते हुए, यह साबित करने में महिला डांसर्स की मदद भी की कि प्रतिबंध उनकी आजीविका को कैसे प्रभावित करने वाला था. इसका कई दलित नारीवादियों ने खुला विरोध किया, उनका मानना था कि ऐसा करना सिर पर मैला ढोने की प्रथा का समर्थन करने के समान होगा, जो कि बहुत ही अपमानजनक प्रकार का जाति-आधारित श्रम है जिसे नारीवादी कभी भी समर्थन या बढ़ावा नहीं देंगीं. लिहाज़ा, उन्होंने सवाल उठाया कि फिर नारीवादी भला ऐसा क्यों कर रही हैं, उन्होंने बार डांस या सेक्सवर्क की मांग पर सवाल उठाया क्योंकि यह काम भी जाति आधारित श्रम था.
सबसे अहम बदलाव खुद यौनकर्मियों का अपने हक के लिए आवाज़ बुलंद करना रहा है. जब वे बात करती हैं तो वे हमेशा बेहद प्रभावी होती हैं. वह अपनी बात मज़बूती के साथ रखती हैं, कोई सनसनी नहीं फैलातीं. क्योंकि यही उनकी हकीकत है.
कई यौनकर्मियों का इस पेशे में प्रवेश शोषण के माध्यम से होता है तो कई स्वेच्छा से इस पेशे में आती हैं. कई इस पेशे में बने रहने का फैसला करती हैं तो कई इस पेशे को छोड़ने और कोई दूसरा पेशा अख़्तियार करने का फैसला करती हैं. केवल उनके जीवन के संदर्भ में ही हम उनके फैसलों को सही ढंग से समझ सकते हैं.
लेकिन, इसके साथ-साथ, उन्मूलनवादी लॉबी का अस्तित्व भी बना हुआ है, जो महिला तस्करी और यौनकर्म को उलझाने वाले तस्करी के विमर्श से और मज़बूत हुई है. उनके अनुसार, सभी प्रकार के यौनकर्म को ट्रैफिकिंग मान लिया जाता है और इस लॉबी की निगाह में सभी महिला यौनकर्मियों को इस पेशे से बाहर निकालने की ज़रूरत है, जैसे कुछ उद्धारकर्ता संगठनों को ही देख लें.
रेड एंड रेस्क्यू मॉडल, यानी रेड मारो और यौनकर्मियों को छुड़ाओ, यही न?
हाँ, बिल्कुल सही, छापेमारी, उद्धार और पुनर्वास. लेकिन इस लॉबी में भी ऐसी बारीकियां हैं जिनकी और अधिक छानबीन करने की ज़रूरत है. उदाहरण के लिए, कुछ महिला तस्करी-विरोधी समूह हैं जो केवल यौनकर्मियों के बच्चों के लिए काम करते हैं. वे यौनकर्मियों के पुनर्वास की कोई कोशिश नहीं कर रहे हैं. सेक्सवर्क से जुड़ी महिलाओं का पेशा बदलने के बजाय यौनकर्मियों के लिए अवसरों के विस्तार पर ध्यान दिया जा रहा है. यह मामला इतना भी सीधा नहीं है; ये संस्थाएं ट्रैफिकिंग विरोधी तो हैं लेकिन यह नहीं कहतीं कि धंधा बंद करो.
दूसरा बड़ा हस्तक्षेप वास्तव में उन पुरुषों के इर्द-गिर्द केंद्रित संवाद था, जो पुरुषों के साथ यौन संबंध बनाते हैं, जिन्हें पुरुष यौनकर्मी, और हिजड़ा यौनकर्मी कह सकते हैं, वे भी एचआईवी विमर्श का हिस्सा थे, लेकिन ज़रा हाशिए पर थे. फिर भी, इनके साथ बातचीत बहुत महत्त्वपूर्ण थी क्योंकि यह इस तथ्य पर रौशनी डालता है कि यौन सेवाएं प्रदान करने वालों में पुरुष, ट्रांस और गैर-बाइनरी वाले लोग भी शामिल हैं. और ऐसा सिर्फ रेड-लाइट एरिया या वेश्यालयों में ही नहीं, बल्कि कई जगहों पर होता है.
आपने अपनी किताब में लिखा है कि जब आप इसे लिख रही थीं, उस वक्त भी इंटरनेट की दुनिया तेज़ी से बदल रही थी और इससे यौन वाणिज्य की दुनिया में और अधिक बदलाव दिखाई दे रहे थे. क्या आपका मतलब है कि छोटे समय में भी वहां बहुत तेज़ी से बदलाव आ रहे थे?
किसी ने मुझसे कहा, “मुझे यह भी याद नहीं है कि टिंडर से पहले चीज़ें कैसी थीं,” और मैंने कहा, “बहुत बढ़िया. मेरे पास बस किताब है.” मेरी किताब दरअसल इंटरनेट का टिंडर से पहले का इतिहास है. जब तकनीक की बात आती है तो चीज़ें बहुत जल्दी इतिहास बन जाती हैं.
टिंडर 2015 में आया था. अब तो इतने सारे ऐप आ गए हैं कि डेटिंग बहुत सामान्य सी बात हो गई है. मैंने लोगों को कहते सुना है कि ये ऐप्स बिल्कुल बकवास हैं पर आप किसी नए व्यक्ति से और कैसे मिल सकते हैं? टिंडर (Tinder), हिंज (Hinge), और बम्बल (Bumble) जैसे ऐप्स और उनसे जुड़े पूरे संदर्भ ने यौन इच्छाओं से जुड़े व्यवसाय (कमर्शियल सेक्सुअल एंकाउन्टर्स) को कैसे बदल दिया है? मैं इसका निश्चित रूप से उत्तर नहीं दे पाऊंगी क्योंकि मैंने इसपर शोध करने में वर्षों नहीं बिताए हैं लेकिन बहुत सारी चीज़ें जो मैंने किताब लिखने के दौरान खोजी थीं, शायद अब उन प्लेटफार्मों से हट गई होंगी, जहां वे उस समय थीं, उनमें से ज़्यादातर गोपनीय विज्ञापन की वेबसाइटों पर थीं. यहां तक कि एस्कॉर्ट सेवा के प्रावधान भी शायद अब बदल गए होंगे.
पहले, एस्कॉर्ट सेवा वेबसाइट के लिए ग्राहकों को यह समझाना काफी ज़रूरी था कि साइट पर जो महिलाएं हैं, अपनी मर्ज़ी से हैं, जबकि रेड लाइट एरिया में जाने वाले ग्राहकों के सामने ये चीज़ें स्पष्ट ही नहीं थीं और वहां ऐसी कोई समस्या भी नहीं थी. अकेली या आत्मनिर्भर एस्कॉर्ट को ज़्यादा तरजीह दी जाती थी क्योंकि इससे पुरुष इस चिंता के बोझ से मुक्त हो जाते हैं कि वे ऐसे काम का हिस्सा नहीं हैं, जहां महिलाओं को मजबूर किया जा रहा है या फिर उन्हें हानि हो रही है. अब टिंडर जिस तरह एक समान तरीके से समान वरीयता के साथ सेवाएं दे रहा है इससे एस्कॉर्ट सेवाओं के लिए ग्राहकों में कटौती हुई है, साथ ही क्रेगलिस्ट जैसे विज्ञापन प्लेटफॉर्म से डेटिंग ऐप और टिंडर जैसे प्लेटफॉर्म की ओर झुकाव बढ़ा है.
इस किताब में जो मेरी पसंदीदा पंक्ति है, अब मैं उसके बारे में पूछना चाहती हूं जहां आप कहती हैं कि “हाल के लेखों से पता चलता है कि कुछ व्यावसायिक यौन समागम (कमर्शियल सेक्सुअल एंकाउन्टर) अव्यावसायिक यौन समागमों को प्रतिबिम्बित करते हैं.” अव्यावसायिक यौन समागम जैसे कि डेट पर जाने वाले अविवाहित युगल या विवाहित युगल के बीच सेक्स, ये व्यावसायिक सेक्स समागमों को कैसे दर्शाते हैं?
क्योंकि हमने गृहिणियों या प्रेमिकाओं के यौन श्रम को न देखने या उसकी अनदेखी करने को तरजीह दी है. पुराने मार्क्सवादी नारीवादियों ने इसका कुछ ढांचा सा तैयार किया था जिसके अनुसार हाउसवाइफ एक पेशा है जिसमें यौन श्रम भी शामिल है. एक हाउसवाइफ के रूप में आप यह सुनिश्चित करती हैं कि जब आपका पति काम से घर लौटे तो आप अच्छी दिख रही हों, सेक्स अथवा प्रेम-क्रीड़ा के लिए तैयार हों, यह भी श्रम है जिसे कानूनी भाषा में हम ‘वैवाहिक अधिकार’ के रूप में जानते हैं. हाउसवाइफ को अवैतनिक घरेलू श्रम, बच्चों और बुज़ुर्गों की देखभाल के साथ-साथ यौन श्रम भी करना पड़ता है.
समय के साथ, घर के कामकाज पर अधिक फोकस किया गया है. अर्थशास्त्रियों और नारीवादियों ने घरेलू कामगारों और हाउसवाइफस के श्रम के बीच समानताओं को चित्रित करके वास्तव में बहुत ही अच्छा काम किया है, लेकिन जहां तक हाउसवाइफ और यौनकर्मी के बीच तुलना की बात है तो वास्तव में इस दिशा में अधिक काम नहीं हुआ है.
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हालांकि यह समानता लोक-प्रचलित बोध में मौजूद है. मुझे लगता है कि यह तुलना फिल्म अर्थ में है (मुझे स्टारडस्ट कवर पर छपा महेश भट्ट का उद्धरण याद है) जिसमें शबाना आज़मी स्मिता पाटिल से कहती हैं (पाटिल दूसरी महिला हैं, आज़मी नशे में हैं, दोनों एक पार्टी में हैं), “हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि एक अच्छी पत्नी वह है जो सुबह में अपने पति की मां, दिन में बहन और रात में बिस्तर पर वेश्या की भूमिका निभाती है,” अब मुझे यह नहीं पता कि यह शास्त्र में है भी या नहीं या इस उद्धरण का श्रेय महेश भट्ट को दिया जाना चाहिए, जो भी हो, लोकप्रिय संस्कृति में हाउसफाइफ द्वारा किए जाने वाले यौन श्रम की समझ है और यह एक ऐसा दिलचस्प पहलू है जिसके बारे में हम बात नहीं करते हैं – एक काम के रूप में यौन क्रिया करना.
हाल की में आई आलिया भट्ट की फिल्म गंगूबाई काठियावाड़ी (संजय लीला भंसाली द्वारा निर्देशित) में एक सीन है जहां मुम्बई के आज़ाद मैदान में आलिया भट्ट एक शानदार भाषण देती है और लोगों को बताती है कि सेक्सवर्क एक काम है, वाणिज्य है, श्रम है. वो कहती है कि पुरुषों की शारीरिक ज़रूरत को पूरा करते हुए सेक्सवर्कर्स न सिर्फ पुरुषों के लिए काम कर रही हैं बल्कि हाउसफाइफ के काम को भी कम करती हैं.
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लोकप्रिय संस्कृति में, दूसरी बात यह है कि हाउसवाइफ और यौनकर्मी, दोनों एक ही ग्राहक अर्थात विवाहित पुरुष को अपनी सेवाएं प्रदान करने के लिए प्रतिस्पर्धा में खड़ी होती हैं.
जब मैं अपना शोध कर रही थी तो यह बिल्कुल स्पष्ट था. मैंने उन गृहिणियों के बारे में सुना जो कभी-कभार फन-प्लस-अर्न मॉडल (मज़ा भी पैसा भी वाला मॉडल) पर यौनकर्म कर रही थीं. वे एनआरआई आदि को यौन सेवाएं प्रदान करती हैं. वहां हाउसवाइफ एक यौन सेवा प्रदाता भी है. फिर, हमारे सामने ऐसे मामले भी आए जिसमें हाउसवाइफ ग्राहक की भूमिका में थी. या यूं कहिए कि हाउसवाइफ भी सेवाओं की एक श्रेणी है जो एस्कॉर्ट सर्विस उपलब्ध करवाने वाले आपको देते हैं
और व्यावसायिक यौनकर्मी भी एक पारिवारिक इकाई है, नहीं?
बिल्कुल है.
जब हम देखते हैं कि व्यावसायिक और गैर-व्यावसायिक यौन समागम है यानी वे एक दूसरे में मिल रहे हैं और दोनों को एक ही स्थान पर होता देखते हैं, तो आपको क्या लगता है कि इसने सहमति, श्रम और अन्य मुद्दों के बारे में नारीवादी विमर्श को प्रभावित किया है?
मैं इसको जनरलाइज़ नहीं कर सकती इसलिए मैं अपनी बात करूंगी.
जिस तरह से मैं दूसरी चीज़ों के बारे में सोचती हूं. उदाहरण के लिए, मुझे लगता है कि क्या व्यावसायिक है और क्या व्यावसायिक नहीं है का जो मसला है बड़ा ही पेचीदा है. मुझे लगता है कि जो कभी-कभी तरह-तरह के आदान-प्रदान होते हैं, ज़रूरी नहीं कि पैसे में ही हों, बल्कि छुट्टियों, उपहारों, भोजन, यहां तक कि दोस्ती में भी हो सकते है. यौन सेवा देने वाले पुरुषों में से एक ने इस बारे में बात की कि कैसे उसके लिए सबसे बड़ी चीज़ दोस्ती थी. उसके लिए शहर में अकेलेपन के बोध को कम करना कितना अहम है. वैसे वह वास्तविक मित्रता नहीं, बल्कि सहचर्य अथवा सोहबत थी.
ये लंबे चलने वाले संबंध नहीं हैं. ये अक्सर अपने असली नामों का इस्तेमाल तक नहीं करते हैं. इसका उनके वास्तविक जीवन से कुछ खास लेना-देना नहीं है. यह एक गुप्त जीवन है और यह कई तरह से लेन-देन करता है लेकिन उस संदर्भ में दोस्ती का इनाम या भरपाई इसमें सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण है.
दूसरी बात जिसके बारे में [अपने शोध के बाद] मैंने बहुत सोचा वह यह थी कि हमारी इच्छाएं सांस्कृतिक रूप से इतनी बंधी कैसे हैं. मैं यौन सेवा देने वाले एक पुरुष को जानती थी जिसने मुझे अपने पसंदीदा अनुभवों में से एक के बारे में बताया था कि वह एक ऐसी महिला के साथ यात्रा कर रहा था जो सुहागरात का अनुभव चाहती थी. वह एक सिंगल वुमन (एकल महिला) थी और चाहती थी कि होटल का कमरा हो, बिस्तर फूलों से ढका हो, वह दुल्हन की साड़ी में सजी हो, वह (पुरुष) कुर्ता पायजामा पहने, और वे सुहागरात मनाएं. यह उसकी फंतासी थी.
फिर एस्कॉर्ट वेबसाइटों के माध्यम से उच्च जाति की महिलाओं तक पहुंच का खास आकर्षण भी होता है. यहां पर सभी के नाम भी ऐसे ही होते हैं, मसलन, नताशा ओबरॉय, सोनिया मिश्रा आदि. ये लड़कियां ‘आस-पड़ोस’ की भी हो सकती हैं लेकिन ये ज़रूर लिखा होगा कि ये "अच्छे परिवार" उर्फ उच्च जाति की हैं.
शेष अगले भाग में…
इस लेख का अनुवाद अकबर रिज़वी ने किया है.