कतरनों से सपने बुनती बुंदेलखंड की औरतें

एक लघु फ़िल्म जो शादी में हिंसा झेल रही औरतों के दिमाग को पढ़ने की कोशिश करती है

केसवर्कर्स द्वारा तैयार की गई ‘हिंसा कि शब्दावली’ में ऑनलाइन ज़ूम पर चलने वाले साप्ताहिक ‘शनिवार अड्डा’ की भूमिका खास है. इसमें 12 केसवर्कर्स और हम जुड़ते थे और शनिवार अड्डे में एक दूसरे के साथ लंबी-लंबी बातें करते थे. कभी स्क्रीन पर पसरी खामोशी में एक-दूसरे का हाथ थामें पास होने के अहसास को महसूस किया तो कभी हमारे ज़ोरदार ठहाकों ने आसपास के लोगों को सकते में डाल दिया कि कहीं हम बावले तो नहीं हो गए हैं! हमने कही गई कहानियों को संजोया, घटनाओं को दस्तावेज़ किया, इन्हें ज़ोरों-शोरों से कलमबंद किया, इस तरह हमने स्मृतियों को नारीवादी उपक्रम में बदल दिया.

फिर एक दिन साप्ताहिक शनिवार अड्डा की सारी रिकॉर्डिंग्स हमने फ़िल्ममेकर हंसा थपलियाल को सौंप दी.

हंसा कहती हैं, “इस सबने मुझे इतने गहरे रूप से छुआ था कि मैं भीतर खामोशी से भर गई. उन औरतों को जब पहली बार बोलते हुए सुना तो, बस उन्हें सुनती ही चली गई. वो एक बहुत बड़ी दुनिया के दरवाज़े खोल रही थीं. मुझे पता था कि मुझे इसपर एक फ़िल्म तैयार करनी है और मैं लगातार यही सोच रही थी कि क्या मैं उस मुकाम पर पहुंच पाऊंगी जहां वो मुझे लेकर जाना चाहती हैं. वीडियो में हर एक महिला, उनकी बातें, उनके जवाब बहुत अलग और बहुत ही व्यक्तिगत थे. मेरे ख्याल से मेरे भीतर डर था कि क्या मैं इस काम को पूरा कर पाऊंगी? और क्या फ़िल्म में मैं उनके अनुभवों के नज़दीक तक पहुंच पाऊंगी? उनके अनुभवों में बहुत विविधिताएं थीं क्योंकि वे सभी एक-दूसरे से बहुत अलग हैं.”

ज़ूम रिकॉर्डिंग्स को देखते हुए हंसा अपने नोट्स लिखतीं और उन जगहों की पहचान करती जातीं जिन्हें आगे चलकर एक ऐसी फ़िल्म का हिस्सा बनना था जो अपनी फॉर्म में ही विविधता लिए हुए है.

“उनकी जगहें, वातावरण, छत, बड़ी उम्र की महिलाओं का युवा महिलाओं के साथ बराबरी पर आकर खुलकर बातें करना, उनसे जुड़ने की कोशिश करना… किसी का यह कहना कि उसे सड़कों पर घूमना कितना पसंद है! यह सब मुझे खुद की पुरानी यादों की तरफ बहा कर ले जाते हैं. मुझे याद है जब मैं इंटर्न के रूप में बैंडिट क्वीन फ़िल्म की एडिटिंग से जुड़ी थी और फ़िल्म की एडिटर रेणु सालुजा, एडिट के दौरान नुसरत फतेह अली खान का विदाई गीत गाने लगीं, वही उदासी मैंने वापस एक बार फिर से महसूस की जब महिलाएं ‘बाबुल का घर’ गीत गाती हैं जिसमें नैहर द्वारा अलग-थलग कर दिए जाने का दर्द शामिल है.

हंसा, एक फिल्ममेकर, लेखक, डिजिटल आर्काइविस्ट (अभिलेखविद्) और एनिमेटर हैं. वे छोटी-छोटी गुड़ियाओं को अपने काम में शामिल करती हैं – कभी सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में, कभी भावों को व्यक्त करने के लिए तो कभी अपनी कलाकृति को सामने रखने के लिए. यही वजह है कि ‘क्या है यह समझौता’ सिर्फ़ एक फ़िल्म नहीं बल्कि एक लघु–दृश्य कथा है जिसमें कई तरह के भावों का मिश्रण है जो शब्दों से छन कर आपस में घुलते जाते हैं. हंसा कहती हैं, “कई तरह की चीज़ें एकसाथ सामने आ रही थीं. लेखक शोधकर्ता वीना दास, मेघा शर्मा सचदेवा को पढ़ना, छोटे-छोटे हाथों की तस्वीरें, कोई औरतें अपने लिखे को काट-छांट कर ठीक कर रही हैं, कहीं उनके बनाए चित्र हैं, दिल्ली के ग्रेटर कैलाश बाज़ार से कपड़े की कतरनों को इक्ट्ठा करना, यहां तक कि मैंने घर पर बबूल का एक टूथपेस्ट भी अपने पास रखा हुआ है क्योंकि इसे देखकर मुझे मायके से जुड़ी बातें, हिंसा, बबूल… ये सब याद आते थे.” एक और मज़ेदार बात जो इस फ़िल्म को खास बनाती है वो है फ़िल्म में काम कर रहे युवा कलाकारों का समर्पण, सभी ने पूरे जी-जान से इस फ़िल्म को तैयार करने का काम किया है. “इस फ़िल्म की मुख्य किरदार की भूमिका निभाने के साथ-साथ केसवर्कर्स ने अपनी बातचीत की रिकॉर्डिंग हमसे साझा की जो इस वीडियो की रीढ़ की हड्डी है. कला-निर्देशक कोशी द्वारा सुझाई गई हरी साड़ी और उसपर बनाए गए चित्र, ये फ़िल्म को एक अलग ही ताकत देते हैं और साथ ही कई तरह की यादों को पिरोते हैं. असल में कैमरा, साउंड, लाइट पर काम करने वाले सभी कलाकारों ने मिलकर इस फ़िल्म को तैयार किया है.”

आखिरकार कपड़ों ने इस फ़िल्म का स्टेज या यूं कहें कि उसकी पृष्ठभूमि को तैयार करने, उसकी नाटकीय शैली विकसित करने के साथ ही फ़िल्म के नायकों को परिभाषित करने में अहम भूमिका निभाई है, “मुझे लगा इसके लिए कपड़ा ही सही माध्यम है क्योंकि महिलाएं सच में कपड़ों के साथ जीती हैं.”

यह फ़िल्म समझौता शब्द को बहुत ही पास और व्यक्तिगत स्तर पर खड़े होकर देखती है. फ़िल्म सवाल पूछती है कि क्या आप अपनी शर्तें खुद बनाती हैं? क्या अपने खुद के समझौतों से समझौता कर पाती हैं?

‘क्या है यह समझौता’, असल में रोज़मर्रा के जीवन के बीच से आकार लेती है. जुटाए गए कपड़ों की कतरनें, सुई-धागे, ढोलकी की ताल में घुली आवाज़ें और इन सबके साथ इन सवालों की पड़ताल करना. असल में कपड़ों की ये कतरनें, महिलाओं की आवाज़ों को जीवंत करती हैं. (केसवर्कर्स की आवाज़ों से ही गुड़ियाएं हरकत करती हैं, और यह दस्तावेज़ीकरण का हिस्सा भी है) ये घरेलू हिंसा का सामना कर रही महिलाओं द्वारा चुने हुए विकल्पों के बारे में बताती हैं.

हंसा थपलियाल एक ऐसी फ़िल्ममेकर हैं जो अपनी छवियों के ज़रिए स्पर्श का अहसास दिलाने की कोशिश करती हैं. इसके लिए वे कई तरह की सामग्रियों के साथ काम करती हैं. पिछले कई सालों से, वे एक पारंपरिक थिएटर समूह के साथ जुड़ी हैं और उनके साथ नई बारीकियों को आत्मसात करने का काम कर रही हैं. उन्होंने गुड़िया बनाने वाले दो कलाकरों पर एक फ़िल्म (द आउटसाइड इन) भी बनाई है. साथ ही वे गुड़िया बनाने की प्रक्रिया पर कार्यशाला भी लेती हैं. हंसा, को विभिन्न भाषाओं में काम करना पसंद हैं. लंबे अरसे से वे एजेंट ऑफ़ इश्क के साथ बतौर हिंदी अनुवाद पमार्शदाता के रूप में काम कर रही हैं. वे फ़िल्म निर्माता कमल स्वरूप के प्रोजेक्ट ट्रेसिंग फालके पर लंबे समय तक काम कर चुकी हैं. साथ ही वे कलाकार मल्लिका तनेजा की नाट्य प्रस्तुति डू यू नो दिस सॉन्ग की नाटककार भी हैं.

फिलहाल यह फ़िल्म महोत्सवों में भाग ले रही है, जल्द ही इसे द थर्ड आई की वेबसाइट पर प्रकाशित किया जाएगा.

पिछले एक साल में द थर्ड आई टीम ने उत्तर-प्रदेश के बांदा, ललितपुर और लखनऊ से जुड़ी 12 केसवर्करों के साथ मिलकर लेखन, थियेटर एवं कला आधारित शिक्षाशास्त्र (पेडागॉजी) पर काम किया. इस गहन प्रक्रिया से कुछ शब्द निकले और उनपर चर्चा करते-करते हिंसा की शब्दावली ने जन्म लिया. यह शब्दावली केसवर्करों द्वारा तैयार की गई है और यह उनके काम, अनुभव और ज़िंदगी के प्रति उनकी समझ और ज्ञान को समेटे हुए है.

इस लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है.

द थर्ड आई की पाठ्य सामग्री तैयार करने वाले लोगों के समूह में शिक्षाविद, डॉक्यूमेंटरी फ़िल्मकार, कहानीकार जैसे पेशेवर लोग हैं. इन्हें कहानियां लिखने, मौखिक इतिहास जमा करने और ग्रामीण तथा कमज़ोर तबक़ों के लिए संदर्भगत सीखने−सिखाने के तरीकों को विकसित करने का व्यापक अनुभव है.

ये भी पढ़ें

Skip to content