“आदिवासी बचेंगे तो जंगल बचेंगें”

जंगल को देखने के ‘भीतरी’ और ‘बाहरी’ नजरिए पर एक कलाकार और एक पर्यावरण सर्वेक्षक से बातचीत

चित्रांकन: द बिग फैट बाओ (@thebigfatbao)

‘नक्शा-ए-मन’, हमारे ‘ट्रैवल-लोग’ के सफ़रनामे को एक कलाकार की नज़र से सामने लाने का प्रयास है. द थर्ड आई ट्रैवल फेलोशिप में भारत के विभिन्न इलाकों से चुने हुए 13 लेखक, अलग-अलग डिजाइनर के साथ मिलकर काम करते हैं ताकि नारीवादी नजर से शहर की कल्पना को शब्द-चित्रों में सजीव कर सकें. हर एक फेलो के साथ मिलकर एक डिजाइनर-कलाकार लेखक के मन में बसे गांव, कस्बे और शहर के नक्शे को उभारने का प्रयास करते हैं.

ट्रैवल फेलो प्रकाश रणसिंह पेशे से एक सर्वेक्षक हैं और तोरणमल, महाराष्ट्र के जंगलों के सर्वेक्षण प्रोजेक्ट से जुड़े हुए हैं. उनके नक्शा ए मन को महाराष्ट्र की कलाकार ‘द बिग फैट बाओ’ (@thebigfatbao, सोशल मीडिया में इसी नाम से प्रचलित) ने सजीव बनाया है. बाओ, जाति एवं महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर मुख़र होकर अपनी बात रखती हैं. दलितों के खान-पान एवं उसके इतिहास, बहुजन कला, साहित्य एवं संस्कृति का दस्तावेजीकरण करने में उनकी विशेष रुचि है. फिलहाल वे जर्मनी में अपनी पढ़ाई पूरी कर रही हैं.

नक्शा ए मन शृंखला की इस दूसरी कड़ी में प्रकाश और बाओ एक विकृत दुनिया और उसकी उलटबासियों को समझने की कोशिश कर रहे हैं जो आदिवासियों को ‘बाहरी’ समझती हैं.

प्रकाश की चिट्ठियों को पढ़कर आपको कैसा लगा?

बाओ : प्रकाश ने अपनी यात्राओं और उससे जुड़े अनुभवों के बारे में बहुत सी बातें बताईं. जंगल के गांवों में किन रास्तों से गुजरे, वहां कैसा महसूस किया, लोगों के व्यवहार और गांव के वातावरण पर हमने बहुत सारी बातें कीं. प्रकाश की चिट्ठियों को पढ़ते हुए यही ख़्याल आता है कि राष्ट्र और राष्ट्रवाद की समझ, जिसे हम सीमाओं, संस्कृतियों, धार्मिकता और सामाजिकता में खांचाबद्ध कर देखते हैं, वो जंगल के जीवन से बिलकुल अलग हैं. जंगल का जीवन ठीक उसके उलट है. वहां रहने वाले आदिवासियों, जन-जातियों एवं आसपास के समुदायों के लिए ये परिभाषाएं अबूझ पहेली है.

प्रकाश की चिट्ठी की अंतिम दो पंक्तियां तो मेरे लिए धुंध के छटते ही पहाड़ियों पर पड़ने वाली धूप की गर्माहट का अहसास कराती है. एक समय ऐसा था जब कोविड की दूसरी लहर के समय ऐसा लगता था कि मेरे दिमाग के आगे किसी ने एक बड़ा पत्थर रख दिया हो, कुछ करने का मन नहीं होता था, तब मैं प्रकाश की चिट्ठियों को पढ़ती और वे शब्द मेरे लिए रास्ता बनाने का काम करते. मैं बेइंतहा बेसब्री से इस नक्शा-ए-मन के प्रकाशित होने का इंतजार कर रही थी. अक्सर चहकते हुए अपनी मां और अपने दोस्तों को भी प्रकाश की चिट्ठियों के बारे में बताती रहती हूं.

चिट्ठियों में जो छोटी लड़की है, वो मुझे चंद्रपुर, नागपुर, ताडोबा, अंधारी जैसी जगहों की याद दिलाता है जब मैं वाइल्डलाइफ कंजर्वेशन ट्रस्ट (WCT) के साथ एक संरक्षणकर्ता के बतौर काम कर रही थी. मुझे याद है कैसे नवंबर की ठंड में छोटे बच्चों के साथ, परिवार के सभी लोग पैदल चलकर जंगल से बाहर जाते थे.

विकास और संरक्षण की जिस जमीन पर खड़े होकर हम जंगलों को देखते हैं, उनके लिए यह नजरिया बिलकुल अलग है. प्रकाश की चिट्ठियों ने मुझे उन आदिवासियों - जनजातियों की जिंदगियों से रू-ब-रू करवाया. हमारी पूरी राजनीति और हमारी सोच, आदिवासियों की जिंदगी, उनकी विचारधारा एवं संस्कृति से कोसों दूर है.

प्रकाश: सच कहूं तो माइंड-मैप क्या होता है मुझे इसके बारे में लेश मात्र जानकारी भी नहीं थी. बाओ के साथ दो-तीन बार की बातचीत में उन्होंने मुझसे कई सवाल किए कि मैं खुद अपनी चिट्ठियों को कैसे देखता हूं? मैं शब्द बांचता हूं और उसी के रास्ते मैं अपने मन को सामने रख सकता हूं. लेकिन शब्दों के बीच में जो शांति होती है दरअसल वही सबसे ज्यादा भावों को खोलने वाली होती है. बाओ के चित्रों ने जैसे इन खामोशियों को पढ़ लिया और रेखाओं और रंगों के जिस अद्भुत मेल को, नक्शा ए मन के जरिए सामने लेकर आईं, मेरे लिए वो जीवन के जैसा है – जिंदा, धड़कता हुआ…

इस प्रक्रिया में मैं बीच-बीच में बाओ को स्थानीय परिवेश से जुड़ी कुछ बातों को लेकर सुझाव देता रहता था जैसे वे किस तरह के कपड़े पहनते हैं, जंगलों में बच्चे किस तरह के खेल खेलते हैं, कैसे बच्चों के साथ-साथ बंदर भी उछलकूद कर रहे होते हैं, कोई किसी से नहीं डरता, सब साथ-साथ होते हैं.

प्रकाश, अपनी बात कहने के लिए चिट्ठियों को माध्यम क्यों बनाया?

प्रकाश: मुझे चिट्ठियां लिखना पसंद है. वे बहुत ही आत्मीय और स्वच्छंद होती हैं, दिल के क़रीब. अकादमिक या व्यवहारिक लेखन की एक सीमा और गरिमा होती है. वहां दिल के लिए जगह कम होती है. लेकिन चिट्ठियां तो जैसे अपना दिल खोलकर ही लिखी जाती हैं. तोरणमाल में रहते हुए मैं ख़ूब सारी चिट्ठियां लिखा करता था. खासकर मैं चिट्ठी के जरिए अपने दोस्तों से संवाद करना चाहता था. वे जो शहरों में दफ्तरों और शो रूम में काम करते हैं औऱ राजनीति में बहुत दिलचस्पी रखते हैं लेकिन उन्हें भारत के केन्द्र में बसे जंगलों के बारे में कुछ मालूम नहीं हैं. मैं उन्हें अपने शब्दों के जरिए वहां के जीवन से रूबरू करवाना चाहता था.

मैं, भारत ही नहीं विदेशों में रह रहे दोस्तों, राजनीतिज्ञों, कार्यकर्ताओं, को बताना चाहता हूं कि विकास और आदिवासियों की भलाई के नाम पर चलाई जा रही सरकारी योजनाएं न केवल जंगल का विनाश कर रही हैं बल्कि यहां रहने वाले लोगों एवं जानवरों के जीवन को भी खतरे में डाल रही हैं.

माइंड मैप की प्रक्रिया के बारे में थोड़ा विस्तार से बताएं. कैसे आपने इस विषय को रेखाचित्रों और रंगों के जरिए समेटने की कोशिश की…

बाओ: मुझे ये तो पता था कि महाराष्ट्र के जंगल कैसे दिखते हैं. जैसे सितंबर-अक्टूबर के महीने में ये एकदम हरे-भरे होते हैं, वहीं नवंबर आते तक ठंड बैठने लगती है, हरा रंग थोड़ा मध्यम होता जाता है और फिर पत्तियां टूटकर गिरने लगती हैं. हवा की खुशबू भी बदलने लगती है. गर्मियों के महीने में तेज धूप में जंगल का रंग फिर से बदलने लगता है. मुझे याद है चंद्रपुर की तरफ से चलने वाली हवा अपने साथ कोयला खदानों से निकलने वाली धूल भी लेकर आती थी जो पूरी नाक में भर जाती थी.

प्रकाश के खत ने जंगल को देखने के दो नजरिए मेरे सामने रखे – जंगल में रहने वाले और जंगल के बाहर रहने वाले – ‘भीतरी’ और ‘बाहरी’ नजरिया. मैंने नक्शा ए मन में इन दोनों नजरियों को सामने लाने की कोशिश की है. बाहरी नजरिया किसी आदर्शलोक के बिलकुल विपरीत विकास के नाम पर विनाश का प्रतीक है. मुझे यकीन नहीं होता कि सच में हम अपने जल, जंगल और जमीन से इतने दूर हो चुके हैं! हम भूल गए हैं कि ये आपस में जुड़े हुए हैं, और इसलिए इन्हें अलग-अलग करने की विकासवादी नीतियां जंगल के मूल निवासियों की जान तक लेने को तैयार हैं. दूसरी तरफ,

मैं जंगल में रह रहे लोगों के संसार को सामने लाना चाहती थी. एक छोटी बच्ची के मन की निश्छलता को दिखाना चाहती थी, जहां पेड़-पौधे उसके परिवार का अभिन्न हिस्सा हैं, जहां जानवर दुश्मन नहीं, दोस्त या रक्षक होते हैं. मेरा मकसद है कि जब कोई इन दोनों नजरियों को साथ देखे तो इन दुनियाओं के अंतर को समझ सके.

इसलिए शुरूआत में मैंने कई अलग-अलग चित्र बनाए और फिर उन्हें आपस में कढ़ियों की तरह जोड़ती गई.

नक्शा ए मन को अगर आप देखें तो ‘बाहरी’ डिस्टोपियन दुनिया में सबकुछ बिखरा-बिखरा या अनगढ़ है – कि सच में पृथ्वी पर जीव एवं जीवन के बारे में हमें कुछ नहीं पता. वहीं जंगल में पेड़ों की पत्तियों से लेकर वनस्पति, जानवरों एवं दूसरे समुदायों के लोगों के बीच एक परस्पर जीवन का संबंध है. वे सभी एक-दूसरे के साथ होने से पूरे होते हैं. इसलिए वहां एक-एक पत्ता भी मैंने बहुत ज्यादा बारीकी से बनाया है.

माइंड मैप में एक लड़की पेड़ को जोर से बांहों में भरती हुई दिखाई दे रही है. इस चित्र के पीछे आपकी सोच क्या पर्यावरण से जुड़े आंदोलनों की पृष्ठभूमि से है या कुछ और?

बाओ: पहली नजर में शायद ये चिपको आंदोलन का प्रतिरुप लगे, लेकिन मेरे लिए उस लड़की का अपने परिवेश में होने का प्रतिरुप है. उसके लिए यही सामान्य जीवन है, पेड़ उसके दोस्त, गार्जियन है. जंगल में आसपास सभी वनस्पति, जन-जीवन आपसी रिश्तों में बंधे होते हैं. उन्हें पता है कि जीवन के इस चक्र में किसी एक का भी नष्ट हो जाना बाकियों के लिए खतरा है.

वे जानते हैं कि अगर नदी सूख गई तो बाघ हमारे और नजदीक आ जाएगा. नदी में पानी होने से हिरन उसी तरफ जाएंगे और फिर बाघ भी उनकी गाय-भैसों पर हमला नहीं करेंगे. प्रकाश ने बताया था कि ठाणे, महाराष्ट्र और दूसरे इलाकों में बाघों की पूजा की जाती है. जब उन्होंने गांववालों से इसके बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि हम बाघ से नहीं डरते, बाघ के सामने आने पर हम उन्हें प्रणाम करते हैं और बाध चले जाते हैं. ये लोग बाघ का कभी शिकार नहीं करेंगे.

वे अपनी नदियों को कभी सूखने नहीं देते क्योंकि ये सभी उनसे अलग नहीं है उनके लिए यह उनका घर परिवार है. वे पेड़-पौधों से पूछते हैं कि तुम कैसे हो? ज़रा देखो तुम्हें, तुम कितने बढ़े हो गए हो! आशा है कि तुम्हें पर्याप्त पानी मिल रहा होगा. (तू कशी आहेस? बघ, तू कित्ती मोठी झाली! तुला नीट पाणी मिळतं का ग?)

इसके साथ ही मैं ‘तुम्हें कुछ नहीं पता, तुम्हारा भला हम तुमसे ज्यादा जानते हैं’ जैसी धारणा में फंसकर जंगलों को नहीं देखना चाहती थी.

सीखने-सिखाने को लेकर ज्ञान की जिस मुख्यधारा की अवधारणा पर हम चलते हैं, वे आदिवासियों के पारंपरिक और प्राकृतिक ज्ञान से बहुत उलट है. उन्हें ये बताने की जरूरत नहीं होती कि पेड़ हमारे लिए कितने जरूरी हैं या मिट्टी से हमें क्या मिलता है.

उन्हें किताबों के जरिए ये बताने कि जरूरत नहीं कि पेड़ों में भी जान होती है. उनके लिए पेड़ उनके घर-परिवार, दोस्त-रिश्तेदार की तरह है. वे उसके साथ जीते हैं.

प्रकाश: यहां मैं बाओ की बात से सहमत होते हुए इसमें जोड़ना चाहता हूं कि असल में हमेशा चैरिटि या कुछ देने की बात होती है, लेकिन अधिकारों की कोई बात नहीं करता. आदिवासियों के अधिकार, जल-जंगल-जमीन के अधिकारों, स्वास्थ्य के अधिकारों की बात कोई नहीं करता. महाराष्ट्र में कई समाज-सुधारक रहे हैं जिन्हें राष्ट्रीय सम्मानों से भी नवाजा गया है, जैसे- बाबा आमटे, अभय और रानी बंग, इन्होंने लोगों की सेवा की लेकिन एक भी आदिवासी नेता नहीं तैयार किया. अक्सर होता यही है कि सेवा करने वाले लोग बड़े हो जाते हैं लेकिन समुदायों को इसका ज्यादा फायदा नहीं मिलता. असल में

आदिवासियों की बातें खुद उनके भीतर से निकल कर आनी चाहिए, उनका लीडर उनके बीच से आना चाहिए.

2019 में कई पर्यावरणविदों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की कि जंगल में रहने वाले लोगों के कारण वहां की वनस्पतियों और जानवरों को हानि पहुंच रही है, इन लोगों को जंगल से निकाला जाए. सच यही है कि अभी जितने भी जंगल बचे हुए हैं वे इन्हीं आदिवासियों की वजह से बचे हुए हैं जो उनके लिए लड़ रहे हैं. नहीं, तो कॉर्पोरेट हितों औऱ विकास के नाम पर हमने कितना कुछ खो दिया है इसका हमें अंदाज़ा भी नहीं.

माइंड मैप के दौरान किस तरह की चुनौतियां आईं? साथ ही एक डिजाइनर के बतौर माइंड मैप किसी अन्य प्रोजेक्ट से कैसे अलग है?

बाओ: मेरे लिए सबसे बड़ी चुनौती थी कि प्रकाश ने जो कुछ भी देखा है वो वैसा का वैसा माइंड मैप में दिखना चाहिए. जंगल भी लगातार बदलते रहते हैं. मैंने जिस जंगल को देखा और प्रकाश अभी जिस जंगल को देख रहे हैं उसमें भी बहुत अंतर है. तो मैं प्रकाश के जंगल को हू-ब-हू सामने लाना चाहती थी.

यहां प्रकाश को पता था कि हमें क्या चाहिए. दूसरे क्लाइंट तो पता नहीं होता कि जंगल में अर्जुन का पेड़ कैसा दिखता है, या महूए या साल का पेड़ किस तरह का होता है. उनेक लिए जंगल का मतलब सब हरा-हरा, सब खुश-खुश है. सच्चाई ये है कि

जंगल भी बाहर की दुनिया की तरह बहुत सारी दुश्वारियों से घिरा है. फर्क इतना है कि शहरों की तरह यह धर्म, जाति, वर्ग जैसे खांचों में नहीं बंटा. यहां एक केचुएं से लेकर इंसान तक सभी के लिए समान अधिकार हैं जीवन जीने के.

वर्तमान में पर्यावरण बचाने से जुड़ी कई तरह की बातें होती हैं, कई विचारधाराएं हमारे सामने हैं. आपके ख्याल में क्या ये जंगल और वहां रहने वाले लोगों के हित में बात करती हैं? नक्शा ए मन के बारे में सोचते हुए आपने इसे कैसे सामने लाने का प्रयास किया.

प्रकाश: बाढ़, सूखा, अति-भीषण गर्मी और ठंड ये सब प्रकृति के साथ किए बाहरी लोगों के असंतुलित व्यवहार का नतीजा है. अब बात खुद के अस्तित्व पर बन आई तो पर्यायवरण बचाओ का नारा लगाकर पर्यावरणविद कहते हैं कि जंगल को यहां रहने वाले लोगों से ही खतरा है. फॉरेस्ट प्रोटेक्शन एक्ट के तहत कोई भी जंगलवासी एक पत्ता तक नहीं तोड़ सकता. जिनका जीवन और संस्कृति ही जंगल है वे इसे कैसे नुकसान पहुंचा सकते हैं!

नम्बुरदार के जंगल बहुत घने हैं. मैंने वहां रहते हुए देखा कि कैसे पूरा सरकारी तंत्र और सरकारी दफ्तरों में काम करने वाले लोग, वहां के लोगों को इज्जत नहीं देते, उनकी बात नहीं सुनते. आदिवासी इन दुत्कारों को ही हकीकत मानने लगते हैं. उन्हें विश्वास है कि उनके साथ जो बुरा हो रहा है, ये ऐसा ही होता है. वे पुलिस या सरकारी कर्मचारी को बड़ा बाबू कहकर इज्जत से उनके सामने सिर झुकाते हैं या डर के मारे किसी सिपाही के आने की खबर से गांव खाली कर जंगलों के भीतर चले जाते हैं. आज के समय में जो थोड़ा पढ़े-लिखे हैं उनके भीतर इस पूरे माहौल के प्रति गुस्सा है. असल बात यह है कि अगर जंगल से आपका भावनात्मक रिश्ता नहीं है तो आप जंगल बचाने की लड़ाई नहीं लड़ सकते.

9 दिसंबर को आदिवासी दिवस मनाने के पीछे यही आधार है कि जंगल को बचाना है तो आदिवासियों को बचाना होगा, उनका हक उन्हें देना होगा.

क्या कुछ ऐसा खास है जो आप अपने चित्रों में शामिल करती हैं?

बाओ: जब भी मैं किसी महिला का चित्र बनाती हूं उसमें प्रकृति से उसका किसी न किसी तरह का संबंध जरूर होता है. क्योंकि

मेरा मानना है कि सिर्फ महिलाएं और हाशिए पर रहने वाले लोगों के पास ही ये ताकत है कि वे गैरबराबरी, अमानवीय एवं क्रूरता से भरे इस समय को पलट सकते हैं. अगर हमने अब भी इनकी तरफ ध्यान नहीं दिया तो ये नवउदारवादी, नवपूंजीवादी समाज का खोखला चेहरा सब कुछ बर्बाद कर देगा.

इनके बीच से निकला पर्यावरण बचाओं ठीक वैसा है जैसे सफ़ेद कमीज पर एक छोटा हरा दाग.

हमारे आसपास रोज इतना कुछ बदल रहा है कि नक्शा ए मन में लगातार बदलाव की संभावना बनी रहेगी. आज जल, जंगल, जमीन को लेकर देश और विदेशों में समझ का अंतर बहुत बिखरा हुआ और सीमित है. एक नक्शा ए मन के भीतर इसे समेट पाना असंभव है. भारत में रहते हुए हमें लगता है कि ये सिर्फ हमारे देश का मामला है लेकिन किसी विदेशी जमीन पर खड़े होकर देखने से पता चलता है कि यह वैश्विक लड़ाई है.

सुमन परमार द थर्ड आई में सीनियर कंटेंट एडिटर, हिन्दी हैं.

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