‘तन मन जन’ – द थर्ड आई के इस ‘जन स्वास्थ्य व्यवस्था’ संस्करण में हम, भारत में सार्वजनिक स्वास्थ्य के संभावित भविष्य पर स्वास्थ्य कर्मचारियों, अर्थशास्त्रियों, कम्यूनिटी लीडर और चिकित्सकों की व्यापक सोच एवं विचारों को प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं.
अशीष कोठारी को हम एक पर्यावरणविद के रूप में जानते हैं. लेकिन एक पंक्ति के परिचय में उनके काम के विस्तार को नहीं समेटा जा सकता. अशीष, नर्मदा बचाओ आंदोलन और बीज बचाओ आंदोलन के साथ लंबे समय से जुड़े हैं. समाजशास्त्र विषय में स्नातक अशीष, पर्यावरण एवं सामाजिक मुद्दों पर आधारित संस्था ‘कल्पवृक्ष’ के संस्थापक सदस्य हैं. ‘कल्पवृक्ष’, विकास के नव उदारवादी मॉडल एवं पर्यावरण पर इससे होने वाले नुकसान के खिलाफ़ आवाज़ बुलंद करती आ रही है.
इस संस्करण के ज़रिए अशीष कोठारी ने हमें ‘विकल्प संगम’ के अपने अनुभवों और ज्ञान के आधार पर उन समुदायों के बारे में बताया, जिन्होंने जीवन और स्वास्थ्य के वैकल्पिक मॉडलों के ज़रिए महामारी के प्रकोप को शहरों के मुक़ाबले ज़्यादा बेहतर तरीके से संभालने का काम किया है.
आप दशकों से भिन्न समुदायों के साथ काम करते आए हैं और विकास के नव-उदारवादी मॉडल के विकल्पों का दस्तावेज़ीकरण भी किया है. आपने जब कोविड 19 की दूसरी लहर को देखा तो आपके लिए सबसे आश्चर्यजनक क्या था?
वर्तमान में, विकास और वर्चस्व को चुनौती देने के संबंध में जो विचार हमारी सोच के मूल में है, वे हैं – मौलिक विकल्पों की तलाश! इसमें कोविड महामारी में आजीविका और भोजन, ये दोनों शामिल हैं, जिसपर पिछले डेढ़ साल में सबसे ज़्यादा आघात पहुंचा है.
हमने देखा कि जिन समुदायों ने सामूहिक रूप में अपने निर्णय ख़ुद लेने और अपने संसाधनों पर स्वंय के अधिकार को हासिल किया उन्होंने इस बीमारी में ख़ुद को बचाने में लगभग हर तरह से सफलता पाई है. वहीं, इनकी तुलना में, जो लोग अपनी हर तरह की ज़रूरतों के लिए पूरी तरह से सरकार या कॉर्पोरेट पर निर्भर हैं यहां तक कि स्वास्थ्य संबंधित बुनियादी ज़रूरत के लिए भी, उनकी स्थिति बहुत ख़राब थी.
क्या आप कुछ सामुदायिक स्वास्थ्य मॉडल के बारे में बता सकते हैं जिन्होंने आपको प्रभावित किया?
मैं आपको दो गांवों का उदाहरण दे सकता हूं, जिनका हमने दस्तावेज़ीकरण भी किया है. गुजरात में भुज के नज़दीक कच्छ में एक कुनरिया नाम का गांव है. फरवरी 2020 की शुरुआत में, जब उन्होंने पहली बार कोविड 19 बीमारी के बारे में सुना, तो फौरन एक स्थानीय आपदा प्रबंधन समिति का गठन किया, जिसे पंचायत की सहायता से बनाया गया. जल्द ही इस समिति ने अपना काम शुरू कर दिया. कोविड की चपेट में आने से पहले ही, वर्तमान सरपंच ने सरकारी विभागों और गांव के नागरिकों के बीच की खाई को पाटना शुरू किया. कुनरिया ने क्षेत्र में पंचायतों को आपस में जोड़ने का भी बीड़ा उठाया है. इस गांव में सभी निर्णय लेने में महिलाओं की 50 प्रतिशत भागीदारी है, जो सामूहिक है.
उन्होंने सभी स्तर पर चौकसी दिखाई जैसे: कौन आ रहा है? कौन जा रहा है? बाहर से लोग वापस आ रहे हैं तो उनका टेस्ट किया गया है या नहीं? सबके घर जाना और सुनिश्चित करना कि बीमारी से संबंधित सुरक्षा और सावधानियों से वे अवगत हैं या नहीं. बच्चों युवाओं और बूढ़ों के साथ अलग-अलग समूहों में बातचीत करना. जागरूकता फैलाने में सोशल मीडिया का भरपूर इस्तेमाल किया गया और स्वास्थ्य सर्वेक्षण भी किए गए. तयशुदा व्यापारियों/उत्पादकों को ही गांवों के भीतर जाकर अति-आवश्यक सामानों को बेचने की अनुमति दी गई.
पंचायत द्वारा लगभग 316 ज़रूरतमंद परिवारों को भोजन की सहायता प्रदान की गई; संपन्न परिवारों और कई किसानों ने एक महीने के लिए 87 ग़रीब परिवारों के भोजन की व्यवस्था करने में योगदान दिया. दृष्टिबाधित एवं अन्य शारीरिक अक्षमता से ग्रसित लोगों, एकल महिलाओं और हाशिए पर पड़े परिवारों को भोजन की सहायता, आवश्यक दवाएं, ज़रूरी और बुनियादी चीज़ें प्रदान की गईं. यह भी सुनिश्चित किया कि स्वास्थ्य केंद्र आपात स्थिति के लिए पूरी तरह से सक्षम हों.
इसके साथ उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि आर्थिक गतिविधियों में रूकावट न आए . नरेगा के भीतर 106 लोगों को तुरंत रोज़गार प्रदान किया गया क्योंकि ज़्यादातर लोग रोज़ कमाने-खाने वाले घरों से हैं. दरअसल, हम सभी जानते हैं कि ये बीमारी कुछ महीनों की या साल- दो साल की हेल्थ इमरजेंसी नहीं है बल्कि ये हेल्थ के साथ वेल्थ क्राइसिस भी है. अब तक लाखों-करोड़ों लोग आर्थिक परेशानियों से गुज़र रहे हैं. ये संकट धीरे-धीरे और गहराता जा रहा है.
दूसरा उदाहरण, एक ट्राइबल हैल्थ इनीशिएटिव (THI) का है जो तमिलनाडु के धर्मपुरी ज़िले में सित्तिलिंगी घाटी में स्थित एक एनजीओ (NGO) है. साथ ही यह संस्था द्वारा स्थानीय आदिवासियों के प्रति समर्पित 35 बिस्तरों वाला आधुनिक अस्पताल भी है.
टीएचआई, इस क्षेत्र के स्थानीय समुदाय, मालेवासी आदिवासियों के कल्याण के लिए काम करती है. इसकी शुरुआत 1993 में केरल के एक युवा डॉक्टर दंपत्ति, रेगी जॉर्ज, (एनेस्थेसियोलॉजिस्ट) और ललिता रेगी (स्त्री रोग विशेषज्ञ) द्वारा की गई थी जो गांधीवादी मूल्यों से प्रेरित थे.
शुरुआत मिट्टी की ईंटों से बने एक कमरे के छोटे से झोपड़ें में बतौर क्लिनिक और प्रसुति केन्द्र के रूप में हुई. फ़िलहाल, यह आईएसओ (ISO) प्रमाणित पूर्ण अस्पताल में विकसित हो चुका है, जिसमें छह डॉक्टर और 30 नर्स हैं जो एक साल में औसतन 1 लाख रोगियों की देखभाल करते हैं.
स्थानीय लोगों के सहयोग एवं संस्था के निरंतर प्रयास ने सित्तिलिंगी ज़िले में शिशु मृत्यु दर जो 1993 में 157/1000 था, से घटाकर लगभग 20/1000 तक पहुंच गया. पिछले एक दशक में मातृ मृत्यु दर का कोई मामला सामने नहीं आया है और बच्चों में कुपोषण के स्तर में 70 प्रतिशत की कमी आई है. टीएचआई, का ध्यान स्वास्थ्य तक ही सीमित नहीं है; इसने समुदायों से जुड़े रहने के दूसरों प्रयासों पर भी काम किया है. सामूहिक जैविक खेती को प्रोत्साहन दिया गया है तो शिल्प से जुड़े कई कामों की पहल भी की गई हैं. इसका उद्देश्य लम्बाडी कढ़ाई को फिर से लोगों के सामने लाना है. इस संस्था ने महिला उद्धमियों को एकजुट करने का कार्यक्रम भी शुरू किया है.
2020 में कोविड 19 के आने से ठीक पहले, मालेवासी समुदाय की एक महिला जिसने टीएचआई के अस्पताल से ही नर्स का प्रशिक्षण प्राप्त किया था, सित्तिलिंगी की सरपंच बनी.
जब कोविड शुरू हुआ तो सरपंच- माधेश्वरी, के साथ टीएचआई और पंचायत सभी ने मिलकर सारे ज़रूरी कदम उठाए जो वहां के लोगों के लिए आवश्यक थे. उन्होंने मास्क बनाने के काम को आर्थिक उपयोगिता के काम में भी शामिल कर लिया, हर जगह सैनिटाइज़र उपलब्ध करवाना और सोशल डिस्टेंसिंग के पालन पर विशेष ध्यान दिया गया. ऑटोरिक्शा द्वारा बार-बार अनाउंसमेंट किए जाते थे. सार्वजनिक सभा के सभी स्थानों पर शारीरिक दूरी का पालन किया गया और किराना दुकानों को छोड़कर, होटल एवं अन्य सभी दुकानें बंद कर दी गईं.
घर लौटे प्रवासियों को क्वारंटाइन किया गया और अस्पताल में अलग से ओपीडी की सुविधा कर दी गई. आर्थिक सहायता के रूप में स्थानीय दर्ज़ी को ग्रामीणों के लिए थोक में मास्क सिलने के लिए कहा गया. राशन वितरण में टोकन सिस्टम लागू किया गया और भीड़ को रोकने के लिए और कुछ क्षेत्रों में हाथ धोने के नियमों का पालन नहीं करने पर जुर्माना भी लगाया गया . यही कारण है कि ये दोनों गांव इस बीमारी से कम से कम प्रभावित हुए.
हां, हम सभी ने महाराष्ट्र के नुंदुरबार, आदिवासी क्षेत्र के बारे में भी सुना है कि कैसे ज़िला कलेक्टर की दूरदर्शीता और लोगों की भागीदारी की वजह से उन्होंने दूसरी लहर के दौरान शहर की तुलना में बेहतर तरीके से तैयारी की.
नुंदुरबार मॉडल, सिस्टम और नागरिक भागीदारी का एक बेहतरीन उदाहरण है. मुम्बई में धारावी ने भी कुछ इसी तरह के मॉडल पर काम किया…
धारावी, वास्तव में बहुत दिलचस्प उदाहरण है. ज़ाहिर है, प्रशासनिक मदद और जागरूकता भी इसकी सफलता के लिए उत्तरदायी हैं. लेकिन सबसे महत्त्वपूर्ण है वहां के लोगों का अपना नेटवर्क. जनसंख्या के इतने ज़्यादा घनत्व के बावजूद, वे यह सुनिश्चित करने में सक्षम थे कि सभी के पास पूरी जानकारी हो, नियमित टेस्टिंग हो. लोग एक-दूसरे की मदद कर रहे थे, बुजुर्गों की मदद कर रहे थे. मतलब,
एक ऐसी जगह जिसे हम झुग्गी-झोपड़ी के रूप में ख़ारिज करते रहे हैं, उन्होंने आश्चर्यजनक काम किया. मुझे लगता है, इससे हमें बहुत कुछ सीखने को मिलता है.
दार्शनिक, सैद्धांतिक या आध्यात्मिक आधार पर देखें तो आपको क्यों लगता है कि कम्यूनिटी मॉडल काम कर सकते हैं?
सरल शब्दों में कहूं तो समुदाय की भावना बहुत मज़बूत होती है. बोलने में ये जितना हल्का लग रहा हो लेकिन ये अपने आप में बहुत महत्त्वपूर्ण और गहरा है. क्योंकि विकास का जो मॉडल हम लोगों ने अपनाया है, ख़ासकर पश्चिमि विकास का मॉडल, वह लोगों को बहुत व्यक्तिवादी बनाता है. हम में से हर किसी को अमीर बनने, अधिक शक्तिशाली, और प्रसिद्ध बनने के अपने स्वार्थी लक्ष्यों का पीछा करना है . तीनों का नहीं तो कम से कम किसी एक के पीछे तो भागना ही है. ऐसे में हम अपने को एक कम्यूनिटी के रूप में नहीं सोच पाते.
जैसे स्कूल में हमेशा यही सिखाया जाता है कि आप कैसे फर्स्ट आओ, ये नहीं सिखाते की पूरी क्लास कैसे आगे बढ़े.
लेकिन संकट के समय में समुदाय की भावना या तो कायम रहती है या पुनर्जीवित हो जाती है, जैसाकि हमने इन वैकल्पिक मॉडलों में देखा है. जब लोग यह महसूस करने लगते हैं कि उनका व्यक्तिगत फायदा उनके समुदाय के फायदे से जुड़ा है, तो आप एक निश्चित प्रकार का परिवर्तन देखते हैं.
दूसरी बात, और सबसे महत्त्वपूर्ण भी,
जब संसाधनों पर समुदायों का पूरा हक़ होता है, तो वह खेल को बदल देते हैं. आदिवासियों के लिए ये जंगल हो सकता है, मछुआरों के लिए समंदर और शिल्प समुदाय के लिए, शिल्प तैयार करने के उपकरण हो सकते हैं. मतलब, किसी भी प्रकार के उत्पादन में, उसके साधनों पर किसका अधिकार है? क्या उसपर समुदायों का अधिकार है या वो सरकार या बड़ी कंपनियों द्वारा नियंत्रित है? क्योंकि अगर सरकार या कॉर्पोरेट द्वारा नियंत्रित है तो इसका मतलब है कि हमारे जीवन की मूलभूत चीज़ों पर भी हमारा अधिकार नहीं है.
एक उदाहरण देता हूं. मेरे लिए ये पिछले 25 सालों में सबसे ज़्यादा प्रोत्साहित करने वाला उदाहरण भी है : दलित महिला किसान समूह (डेक्कन डेवलेप्मेंट सोसाइटी).
दलित महिला किसान समूह, ने पिछले ढाई से तीन दशकों में, तेलंगाना के ज़हीराबाद ज़िले की कई हज़ार ग्रामीण दलित और आदिवासी महिलाओं के साथ मिलकर कृषि क्रांति की शुरुआत की. 70 से अधिक गांवों में महिला समूहों ने, दलित महिला किसान समूह के साथ मिलकर पारंपरिक बीज और पशुधन विविधता (विशेष रूप से बाजरा) को पुनर्जीवित किया. जैविक और स्थानीय उपकरणों द्वारा अपनी बंजर ज़मीनों को पूरी तरह बदल कर मिश्रित एवं बहु-फसली खेती को फिर से चलन में लेकर आईं. हर एक गांव के लिए अनाज-बैंक का निर्माण किया जहां सभी की पहुंच हो और महिलाओं के लिए भूमि के अधिकारों की लड़ाईयां लड़ी.
इतने सालों के अथक प्रयासों से इन्होंने, खाद्य असुरक्षा और कुपोषण की समस्या को पूरी तरह से पलटकर पौष्टिक एवं पर्याप्त भोजन की उपलब्धता में तबदील कर दिया है.
इसके साथ कोविड 19 के दौरान उन्हें पिछले एक साल में किसी भी तरह के अनाज की कमी नहीं हुई क्योंकि वे कहती हैं कि हमने अपनी ज़मीन, अपने बीज, अपना पानी और अपने ज्ञान का उपयोग किया. यही वजह है कि वे अपने भोजन के लिए बाहरी किसी पर भी निर्भर नहीं. वे अपना अनाज ख़ुद उगाते हैं जिसे वे ‘अन्न स्वराज’ मॉडल कहते हैं.
कल्पना कीजिए कि ये बातें दलित, महिला, छोटे किसान समूह की औरतें बोल रही हैं. मतलब हमारी सोसाइटी में तीनों तरह से पिछड़ा वर्ग! पितृसत्ता में महिलाओं के रूप में, जातिवाद में दलित के रूप में और फिर छोटे किसान के रूप में. लेकिन पिछले 20-25 वर्षों में उन्होंने जो हासिल किया है, वह चमत्कार से कम नहीं. उन्होंने अपनी सफलता खुद से कमाई है. वे अपने भोजन और पानी के मालिक होने पर ज़ोर देती हैं.
ये वे महिलाएं हैं जो 25 साल पहले खुद भूखी सो रहीं थीं. अब वे ज़हीराबाद ज़िला स्तर पर नगरपालिका, पुलिस, स्वास्थ्य कर्मचारियों को रोज़ अनाज की 1000 बोरियां बांट रही हैं और दूसरों की मदद कर रही हैं.
आपने पावर या सत्ता के इर्द-गिर्द बहुत कुछ लिखा है. क्या इस नए नव-उदारवादी मॉडल के बाहर पावर को देखने का कोई वैकल्पिक तरीका है?
इसे समझने के दो पहलू हो सकते हैं. एक है पावर यानी – हावी होने की शक्ति. पितृसत्ता में पुरुषों द्वारा महिलाओं पर दबदबा, पूंजीवाद में हमारे आर्थिक जीवन पर हावी होने वाले नियम, राज्यसत्ता द्वारा नागरिक पर हावी होना और भी बहुत कुछ. दूसरा पहलू है शक्ति या पावर के साथ, यानी हम एक-दूसरे के साथ मिलकर अपने जीवन को बदलने की शक्ति रखते हैं. ये सत्ता या पावर की दो बिल्कुल अलग धारणाएं हैं. पहला वाला असमानता और वर्चस्व का निर्माण करता है. दूसरा हमें समानंतर, एक ज़्यादा लोकत्रांतिक परिवेश की ओर बढ़ाता है.
महाराष्ट्र में, 30 साल पहले, गांव मेंढा लेखा के लोग एक हाइड्रो इलेक्ट्रीक प्रोजेक्ट के खिलाफ़ आंदोलन कर रहे थे, जिसे बाद में रोक दिया गया क्योंकि इससे 300 गांव विस्थापित हो जाते. उसी वक़्त गांव में इस बात पर भी चर्चा ज़ोर पकड़ रही थी कि ऐसा क्यों है कि बाहर से आकर लोग हमारे जीवन के संबंध में निर्णय ले रहे हैं? साथ ही युवाओं और महिलाओं ने कहा कि यह केवल बाहरी-अंदरूनी सत्ता के बारे में नहीं है. हमारे अपने समुदाय के भीतर भी सत्ता में असमानताएं हैं. जैसे, पुरुष सभी निर्णय लेते हैं.
एक आदिवासी समाज, जो गैर-आदिवासी समाज की तुलना में अधिक समतावादी है, वहां भी राजनीतिक निर्णय लेने का काम कोई मुखिया करता है या ज़्यादातर बढ़े-बूढ़े पुरुषों के समूह द्वारा किया जाता है, है ना? तो, 30 साल पहले, गांव की महिलाओं के नेतृत्व में, उन्होंने ग्राम सभा को पुनर्जीवित किया और कहा कि इस गांव में सभी निर्णय सर्वसम्मति से लिए जाएंगे.
कोई पंचायत नहीं, कोई मुखिया नहीं, कोई बाहर का नौकरशाह या नेता नहीं. बल्कि गांव से संबंधित हर फैसला, पूरी ग्राम सभा में सभी लोगों की आम सहमति से लिया जाएगा. उन्होंने अपना एक नारा भी तैयार किया “बम्बई या दिल्ली में सरकार जो हम चुनते हैं, लेकिन हमारे गांव में हम ही सरकार…”
इसे ही हम स्थानीय लोकतंत्र या स्वराज कहते हैं.
आप स्वराज की धारणा को ही देख लीजिए, ये बिलकुल यही है. ग्राम सभा में 13 साल की चर्चा के बाद, उन्होंने फैसला किया कि गांव की सभी निजी भूमि गांव की जन-सभा को दान कर दी जाएगी , ताकि कोई निजी कृषि भूमि न हो, और भूमि पर सभी का सामूहिक रूप से अधिकार हो. जिससे बड़ी कंपनियों के लिए लगभग असंभव हो गया कि वे गांव में ज़मीन ख़रीद सकें.
उससे सीख लेकर अब उसी ज़िले के 90 गांव के लोगों ने स्वशासन की घोषणा की है. उन्होंने एक महाग्राम सभा का गठन भी किया है.
गांधी जी ने स्वराज के बारे में कहा था कि स्वराज सिर्फ़ मेरी आज़ादी के बारे में नहीं है बल्कि मेरी आज़ादी के साथ-साथ सामने वाले की आज़ादी का सम्मान और बराबरी, स्वराज है.
अगर मैं किसी एक जगह पर हूं जहां पानी की धारा प्रवाहित हो रही है और नीचे एक गांव है. मैं स्वराज का दावा कर ये नहीं कह सकता कि मैं धारा को बांध दूंगा और कोई पानी नीचे की ओर नहीं जाएगा. लेकिन हां, मैं अपनी ज़रूरत के हिसाब से पानी का उपयोग कर सकता हूं और यह सुनिश्चित कर सकता हूं कि पर्याप्त पानी नीचे भी जाए.
मैं ऐसा कुछ नहीं करूंगा जिससे नीचे की ओर पानी प्रदूषित हो. लेकिन अब इस तरह की सोच, विकास को लेकर हमारी मानसिकता में बिल्कुल भी नहीं है. और न ही शहरों की मानसिकता में है. शहरी नागरिक होने के नाते हम इसे अपना अधिकार मानते हैं कि हम गांवों से जितना चाहें उतना ले सकते हैं और बदले में हमारा कचरा उन्हें वापस भेज दें. फिर उनको गाली भी देंगे और उनको गंवार कहेंगे.
दरअसल, इसके लिए एक तरह से क्षमताओं को विकसित करना भी है. पिछले 200 साल से हमें कहा जा रहा है कि, आप बैठो हम आपके लिए सबकुछ करेंगे. जैसे महिलाओं को कहा जाता है कि तुम्हें कुछ करने की ज़रूरत नहीं हम तुम्हारे लिए कर देंगे. सरकार कह रही है कि आप बैठो हम कर देंगे, हम आपके स्वास्थ्य का काम करेंगे, हम नहीं करेंगे तो कॉरपोरेट कर देंगे. और आज इसका नतीजा हम देख रहे हैं.
तो इसलिए ही अपनी क्षमता का निर्माण बहुत ज़रूरी है. महिलाओं के लिए स्वतंत्र रूप से बोलने की क्षमता, अपने समुदायों के लिए निर्णय लेने की क्षमता.
समुदायों द्वारा अपना फ़ैसला ख़ुद लेने की अवघारणा और खाप पंचायत के डायरेक्ट डेमोक्रेसी के विचार में क्या अंतर है? खाप पंचायत को आप कैसे देखते हैं?
यह बहुत ज़रूरी सवाल है. विकल्प संगम की शुरुआत में इस सवाल ने हमें भी परेशान किया था. इसलिए जब हम डायरेक्ट डेमोक्रेसी या स्वराज की बात करते हैं तो हमने – फ्लावर ऑफ़ ट्रांसफॉर्मेशन- पांच पंखुड़ियों वाले एक फूल – की अवधारणा गढ़ी. इसमें हर पंखुड़ी एक घटक है और सभी एक-दूसरे के पूरक हैं. ये पांच पंखुड़ियां समग्र परिवर्तन की ओर ले जाती हैं.
पहली पंखुड़ी है – राजनीतिक लोकतंत्र यानी हमारे गांव में हम ही सरकार. दूसरा घटक है आर्थिक लोकतंत्र, जहां संसाधनों पर स्थानीय सामूहिक नियंत्रण हो. तीसरी पंखुड़ी सबसे महत्त्वपूर्ण सामाजिक न्याय है, जहां ऐसे स्थानीय लोकतंत्र के लिए लैंगिक न्याय, जातिवाद, पितृसत्ता के खिलाफ़ संघर्ष आवश्यक है. दरअसल, इन सब का एक साथ आना भी ज़रूरी है नहीं तो स्थानीय लोकतंत्र निरंकुश हो सकता है. चौथी पंखुड़ी सांस्कृतिक विविधता है, जिसमें भाषाएं, खान-पान, और पारंपरिक ज्ञान शामिल है.
ज्ञान को लेकर हमने जितने भी उदाहरण देखे हैं वहां उन्होंने पारंपरिक ज्ञान में बाहरी ज्ञान का मिश्रण कर उसे स्वीकार किया है, लेकिन इसके साथ ही अपने पारंपरिक ज्ञान की महत्ता को बनाए भी रखा. पांचवां घटक है पर्यावरण के साथ रिश्ता.
परिवर्तन के इस फूल को कुछ मूलभूत मान्यताएं बांधे रखती हैं जैसे- एकजुटता एवं प्रेम की भावना, उदारता, विविधता, स्वायत्तता, सादगी, परस्पर संबंध, पारस्परिकता, इस प्रकार के मौलिक मूल्य इसका केंद्र हैं.
वर्तमान में जो स्वास्थ्य संकट है, क्या इसे देखते हुए हम इन मॉडलों को या इसी से मिलते-जुलते मॉडल सभी जगह लागू किए जा सकते हैं?
एक सफल मॉडल को सभी जगह दोहराना कतई सही तरीका नहीं है. यह किसी चीज़ को करने का बहुत ही कॉर्पोरेट तरीका है.
हमें सीखने की ज़रूरत है. सीखकर उसके साथ कुछ नया करने की ज़रूरत है. आदिवासी महिलाओं और दलित महिलाओं ने जिन सिद्धांतों के साथ सफ़लता हासिल की उसे समझकर उसे अपने एरिया की विविधता के साथ मिलाकर इससे और बेहतर कुछ नया कर सकते हैं.
विकल्प संगम देश भर में लगभग 70 संगठनों और आंदोलनों का एक मुख्य समूह है, जो सामाजिक न्याय के क्षेत्रों में काम कर रहा है.
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लेख का अनुवाद सुमन परमार ने किया है.