राजम अक्का

काम के बंटवारे और घरों में औरतों के लिए बनाए गए जेंडर ढांचों को चुनौती देता एक संस्मरण.

राजम अक्का
चित्रांकन: श्रीजा यू

ज़्यादातर लोग अपने आपको स्त्री-पुरुष के दो खानों में बंटे जेंडर की पहचान से जोड़ते हैं. वे या तो स्त्री की पहचान रखते हैं या पुरुष की. कुछ लोगों ने इन पहचानों को लांघने की कोशिश की है. फिर भी यह माना जाता है कि एक श्रेणी की सीमा लांघने का मतलब है, दूसरी श्रेणी में प्रवेश करना. मगर क्या सच में सब कुछ इतना काला-सफेद है? ये विचार श्रृजा. यू. के मन में आया जब वह पहली बार राजम अक्का से मिलीं.

पिछली गर्मी मेरे घर के पास ही एक नया मकान बन रहा था. मकान बनाने के शोर-गुल के बीच कई मर्द आते-जाते दिखाई देते रहते थे – कामगार, इंजीनियर, मज़दूर. इस शोर-शराबे और धूल-मिट्टी से भरी मेरी गली चाहे मुझे उस समय जितनी भी नापसंद हो, इसमें राजम अक्का की मौजूदगी इसे मेरे लिए खुशनुमा बनाए रखती थी.

मैंने पहली बार उसे अपने सिर पर बोरी रखकर, लंबे-लंबे कदम भरते अपने घर के सामने से गुज़रते देखा था. मैं उस समय अपनी साइकिल की पीछे की सीट पर बैठी थी और उसकी उतरी चेन ठीक करने की कोशिश कर रही थी. तभी मुझे पीछे से आवाज़ आई,

“चेन मेटल की तार के नीचे से जाती है.”

मैं उसको शुक्रिया कहते हुए, काली चिकनाई से भरे अपने हाथों को रगड़ते हुए दोबारा अपनी जद्दोजहद में लग गई.
“पीछे हटो, मुझे कोशिश करने दो”, कहते हुए उसने बोरी नीचे रख दी.

मैं खड़ी होकर उसे देखती रही और उसने बिना इस बात की परवाह किए कि कितनी काली चिकनाई उसके हाथों पर लगती जा रही है, मेरी साइकिल की चेन एक मिनट में ठीक कर दी.

राजम अक्का के बाल लड़कों के जैसे बिलकुल छोटे-छोटे कटे थे. उसने स्लेटी रंग की चेक वाली कमीज़, नीली लुंगी के साथ पहनी हुई थी. ये लुंगी देखने में लंबी स्कर्ट जैसी लग रही थी. “चेन पर तेल लगा लेना, वरना ज़ंग आ जाएगा”, अपनी लुंगी से हाथ पोंछते हुए वह मुझे बोली. “हां, ज़रूर लगा लूंगी, शुक्रिया”, मैंने कहा और इससे पहले कि मैं कुछ और बोलती उसने बोरी उठाई और अपनी राह चल दी.

मैंने अगले तीन दिन तक राजम अक्का को नहीं देखा. चौथे दिन मैंने उसे किसी से उधार न चुका पाने पर लड़ते देखा. वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रही थी. मैं दौड़ी हुई अपने घर गई, मां के बटुए से कुछ पैसे निकाले और दरवाज़े के पास आकर खड़ी हो गई. जब वह मेरे पास से गुज़री, तो मैंने उसे रोका और पैसे उसके हाथ में पकड़ाती हुई बोली,

“ये उस दिन मेरी साइकिल की चेन ठीक करने के लिए हैं.”

वह खींजकर बोली, “वो झगड़ा इसलिए हो रहा था, क्योंकि उसने मेरा उधार नहीं चुकाया, इसलिए नहीं कि मुझे उसके पैसे देने थे. वैसे भी, मैंने तुम्हारा काम पैसों के लिए नहीं किया था, बल्कि अपने लिए किया था. मेरे पति ने अपनी साइकिल का पहिया तोड़ दिया था, सिर्फ इसलिए कि उसे मैंने ठीक कर दिया था. मुझे साइकिल ठीक करने नहीं दी जाती थी. असल में, कुछ भी ठीक करने नहीं दिया जाता था.”

“क्यों?” मैंने पूछा, और फौरन ही मुझे इस सवाल पर पछतावा हुआ, क्योंकि कुछ हद तक मैं इसका जवाब जानती थी.

“पता नहीं, शायद इसलिए कि मैं उससे बेहतर थी. वैसे भी, वह क्यों चाहेगा कि एक औरत उससे बेहतर हो?” उसने जवाब दिया.

“क्या हमेशा से तुम्हारे छोटे बाल रहे हैं?” जवाब में, बागीपन की उम्मीद के साथ मैंने पूछा.

“हां, तभी से जब मैं छोटी थी. मेरे भाई की सड़क दुर्घटना में मौत हो गई और मुझे अपने परिवार के लिए काम करना शुरू करना पड़ा. मेरे पिता मुझे अपने दोस्त की मैकेनिकशॉप पर ले गए, जहां मैंने गाड़ियों को ठीक करना सीखा. मैंने अपने आराम के लिए भाई के कपड़े पहनने शुरू कर दिए.

भला आज़ादी मिलनी किसे बुरी लगती है? चाहे वो मुखौटा लगा लेने पर ही क्यों न मिली हो.

मैंने इस झांसे को बनाए रखा. मेरे माता-पिता को इस बात ने ज़रा भी परेशान नहीं किया, बल्कि इसने उनके बेटे के मरने से बने खालीपन को भर दिया. मगर मेरी शादी के बाद मेरे पति ने मेरे ऐसा होने की वजह से मुझे परेशान करना शुरू कर दिया.”

“मुझे तारीख तो नहीं याद है, मगर मुझे वो उम्र याद है जिसमें मैंने पति के साथ घर छोड़ा. मैं 15 साल की थी, मेरी शादी से 3 दिन पहले मेरे पिता का देहांत हो गया. मेरी मां ने मेरी शादी की. इतनी तकलीफों में मैं अपनी मां को कतई उस शहर में अकेला नहीं छोड़ना चाहती थी, मगर मेरे पति ने मजबूर किया. मैंने सामान बांधा और अपने पति के साथ निकल गई. सारी रात एक ट्रेन में गुज़ारने के बाद मैंने उससे पूछा, ‘हम कहां जा रहे हैं?’ उसने कोई जवाब नहीं दिया. मैं बस एक स्टेशन के बाद दूसरा स्टेशन, दीवारों पर लिखे शब्दों को देखती रही.

अगले हफ्ते मुझे पता चला कि वह मुझे मद्रास ले आया है. मेरी मां मुझे खत लिखती थी, मगर वह कभी-कभी ही इन्हें मुझे पढ़कर सुनाया करता था. शायद उसे लगता था कि मेरी उम्र बहुत कम है और मैं उसे छोड़ कर भाग जाऊंगी. वह काम पर जाने के लिए रोज़ सुबह 8 बजे निकलता था. उसके निकलते ही मैं जल्दी-जल्दी उन खतों को ढूंढती थी और उन्हें पास की किताबों की दुकान में ले जाकर दुकानदार से पढ़वाती थी. उसका नाम दास था या रवि, मुझे याद नहीं है. उसने मुझे मेरा नाम लिखना सिखाया.” हवा में कुछ शब्द बनाती हुई वह आगे बोली. “मैं उसके पास हर रोज़ जाने लगी, तब तक जब तक मैं खत खुद पढ़ना न सीख गई. डर की वजह से, तीन साल तक, मैंने अपने पति को नहीं बताया कि मैं पढ़ना-लिखना सीख गई हूं.”

“मेरे पति को एक दिन मेरे मामा का खत मिला. मैंने देखा उसे पढ़ते हुए उसके चेहरे का रंग बदल गया. उसने खत छुपाया और हमेशा की तरह काम पर चला गया. मैंने उसके जाने के बाद खत पढ़ा तो मालूम हुआ कि मेरी मां का देहांत हो गया है. मैंने उसके घर वापस आने का इंतज़ार किया और उसके आते ही उसके मुंह पर खत मारते हुए बोली, ‘ये ख़बर मुझसे क्यों छुपाई? ’वो कुछ नहीं बोला. मैं बहुत रोई. मैंने उसके लिए खाना बनाने से भी इंकार कर दिया. मगर मैं क्या कर सकती थी? मैं अपने घर से हज़ारों मील दूर रह रही थी.

मेरे पति की 5 साल बाद टी.बी. की बीमारी से मौत हो गई. जबसे मैं अकेली ही रह रही हूं.

मैंने अपने मामा को खत लिखा था, मगर उनका कोई जवाब नहीं आया. मैं कभी-कभी अपने गांव जाने की सोचती हूं, मगर फिर लगता है कि क्या फायदा, वहां मेरा कोई है ही नहीं.

अब, मैं यहां घर बनाने का काम करती हूं. मैं अपने साथ काम करने वालों को काम करने के तरीके पढ़कर बताती हूं कि काम कैसे करना है. वे मुंह नहीं बनाते हैं बल्कि ध्यान से सुनते हैं. शायद इसका ताल्लुक मैं जैसी दिखती हूं उससे है. जो भी वजह है, उन्हें मेरे औरत होने से फर्क नहीं पड़ता.

खैर, तुम अपने पैसे रखो, मैं चलती हूं.” और इस बार पहले से कुछ छोटे कदम लेती हुई, वह आगे बढ़ गई.

श्रृजा. यू. साहित्य की छात्र हैं, जो कभी याद रखने तो कभी भूल जाने के लिए लिखती हैं। उनका ज़्यादातर समय ज़िंदगियों को रूपकों और तस्वीरों में बदलने में जाता है। वे अशोका विश्वविद्यालय मे पढ़ रही हैं।

इस लेख का अनुवाद सादिया सईद ने किया है.

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