आपको संघबद्ध क्यों होना चाहिए?

महिला कामगारों को संगठित करने की जद्दोजहद

चित्रांकन: बेकरी प्रसाद (सिद्धेश गौतम)

एनी राजा नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन विमेन (NFIW) की महासचिव हैं. अपने वजूद में आने के 65 से अधिक सालों में यह फेडरेशन उन मुद्दों के साथ लामबंद होता रहा है जो कामगार के तौर पर महिलाओं के अधिकारों को प्रभावित करते हैं. साथ ही देश में महिलाओं की पूर्ण नागरिकता के सवाल को सामने लाते हैं.

नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन विमेन देश का सबसे बड़ा महिला-केंद्रित दबाव समूह है और बड़े-बड़े शहरों से लेकर दूर-दराज़ के इलाकों तक इसकी पहुंच बेमिसाल है. प्राथमिक तौर पर एकजुटता निर्माण, महिला समूहों के बीच नेटवर्क गठन, ज्ञान-उत्पादन तथा राजनीतिक और नागरिक जुड़ाव पर फेडरेशन सक्रिय है. इसके दायरे में स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास सुरक्षा तथा न्याय के बुनियादी ढांचों की उपलब्धता – जैसे मुद्दे आते हैं. इसके साथ तथ्यों व आंकड़े जुटाने, उनका प्रचार-प्रसार तथा प्रगतिशील, नारीवादी बदलाव के लिए समूहों के बीच अपने हित में पैरोकारी करने के कार्यों में भी महिलाएं जुटी हैं.

इस नेशनल फेडरेशन के साथ अपने जीवनभर एनी राजा का जुड़ाव रहा है. इस जुड़ाव के दौरान वे वर्ग, जाति, धर्म तथा अन्य तबकाई विभाजनों से परे जाकर महिलाओं के कार्य को संगठित और संघबद्ध करती रही हैं. इस साक्षात्कार में एनी उस प्रक्रिया पर रोशनी डालती हैं जिसकी मार्फत महिला कामगारों का कोई समूह संघ-निर्माण की ओर बढ़ सकता है. वे उन चुनौतियों की चर्चा भी करती हैं जिनसे महिलाएं तब हमेशा जूझती हैं, जब वे नवउदारवादी हिंदुस्तान में अपने अधिकारों की रक्षा करने की कोशिश करती हैं.

हम हिन्दुस्तान में आजीविका के अधिकार को कैसे परिभाषित करते हैं? क्या कोई संवैधानिक या कानूनी प्रावधान हैं जिनके तहत कामगार इस अधिकार की मांग कर सकते हैं?

नहीं. हमारे देश में एक नवउदारवादी आर्थिक नीति चल रही है. इसका मूल सूत्र प्रतिस्पर्धा और निजीकरण है और ‘कारोबार करने की सुगमता’ इस नीति का सबसे बड़ा प्रवचन (भाषण) है. इसका असली अर्थ है – कर्मचारियों के हितों के ऊपर मालिकों के हितों को प्राथमिकता देना और इस प्राथमिकीकरण का मतलब है – सभी श्रम कानूनों को कमज़ोर कर देना.

पहली बात तो यह है कि एक कर्मचारी एक कामगार की हैसियत हासिल नहीं कर पाता क्योंकि अगर वह यह हैसियत हासिल करेगी, तब वह श्रम कानूनों के तहत न्यूनतम मेहनताना तथा अन्य प्रावधानों का हकदार होगा.

दूसरी बात यह है कि सरकार श्रम कानूनों के बेहद संगत और मकसदी परिभाषाओं और व्याख्याओं को बदलकर निजी मालिकों को अपनी जवाबदेही से निकल भागने का मौका देता है. उदाहरण के लिए समझें कि अब कहा जा रहा है कि एक कार्यस्थल तब तक कानूनी तौर पर कार्यस्थल नहीं है जब तक वहां मालिक कम से कम 20 लोगों को काम पर नहीं लगाते और जब वहां 20 और उससे ज़्यादा लोग होंगे, तभी मालिक कामगारों को उनका हक देने के लिए बाध्य होंगे. इस तरह जब कोई मालिक किसी एक जगह पर 20 से कम लोगों से काम करवाता है, तब वह उन लोगों को न्यूनतम मेहनताना और अन्य कानूनी हक नहीं देकर अपने पैसे की बचत करता है.

तीसरी बात यह है कि सरकार कोर्पोरेट समूहों को ढेर सारी सहुलियतें देकर उन्हें देश में कहीं भी कारोबार करने के लिए न्योता देती है. उन्हें सस्ती दर पर ज़मीन, पानी, बिजली तथा अन्य संसाधन देती है. आम लोगों के संसाधनों को हड़पकर जनता के हितों की कुर्बानी दी जाती है. यहां तक कि व्यक्तियों के निजी संसाधनों को भी ले लिया जाता है और उन्हें कोर्पोरेट घरानों को दे दिया जाता है ताकि वे अपनी एक और कंपनी खड़ी कर लें. यही तो है ‘कारोबार करने की सुगमता’.

बहिष्करण, यानी लोगों को अलग-थलग कर देना इस नव-उदारवाद का मूल चरित्र है. सबके विकास के बारे में कोई कितनी भी बात करे, सच्चाई यही है कि आज जो कुछ भी हो रहा है, वह इसके बिलकुल विपरीत है. सरकार स्वास्थ्य और शिक्षा के सामाजिक क्षेत्रों से अपना पल्ला झाड़ रही है और हर जगह निजीकरण हो रहा है.

यह सब पिछले 20-25 सालों में हुआ है. बच्चे-बच्चियों की शिक्षा और आमजन के स्वास्थ्य की बहाली करने की चाभी निजी क्षेत्र के लोगों के हाथों में दे दी गई. अब वही लोग तय करते हैं कि उन्हें इन क्षेत्रों में कैसे काम करना है, क्या-क्या प्राथमिकताएं रखनी हैं और किन तक शिक्षा और स्वास्थ्य पहुंचाना है. वे काम की शर्तों को तय करने के लिए आज़ाद हैं. ज़्यादा से ज़्यादा कामगारों को असंगठित क्षेत्र में ढकेल दिया गया है. हज़ारों-हज़ार लोग कामगार के तौर पर मिलने वाले अपने अधिकारों को खो चुके हैं. इसके साथ-साथ संगठित क्षेत्र की सुरक्षा ही खतरे में है. कामगारों का विश्वास हिल गया है. महिलाओं की 96 फीसदी आबादी की ज़िंदगी और रोज़ी-रोटी के सवालों से अगर आप मुख़ातिब होना चाहते हैं, तो आपको एक बड़े ही कठिन रास्ते पर चलना होगा.

बेहतर मेहनताने और अपनी सेवाओं के नियमन के लिए प्रदर्शन करती आंगनवाड़ी कार्यकर्ता। फोटो साभार: sabrangindia.in

तब आखिर संघीकरण या यूनियन बनाने का क्या असर होता है?

सरकार को इन आवाज़ों को सुनना ही पड़ता है, लेकिन अगर मैं अकेले बाहर निकलकर घरेलू कामगारों के पक्ष में नारे लगाती हूं, तब कोई भी मेरी आवाज़ को नहीं सुनेगा. मगर जब दस समूह एकजुट होते हैं और एक सौ लोग आवाज़ उठाते हैं, तब वह आवाज़ ज़्यादा दमदार हो जाती है.

देश की संसद में बैठे लोगों में 60-70 फीसदी लोग कारोबारी हैं. उनके अपने-अपने उद्योग हैं. क्या हम-आप कल्पना कर सकते हैं या उम्मीद कर सकते हैं कि वे घरेलू कामगारों या खेतिहर मज़दूरों के बारे में बात करेंगे? नहीं. उनकी दिलचस्पी इसी में होगी कि कैसे नीतियां बदलें ताकि उनके अपने-अपने मुनाफे और भी बढ़ें.

हालांकि हमें उनके बीच भी ऐसे लोगों की तलाश करनी होगी जो संवेदनशील व रहम-दिल हैं. हमें कोशिश करनी हेागी कि वे हमारे पक्ष में आएं. हमें उनके साथ सूचनाओं को साझा करना होगा और उन्हें बताना होगा कि आखिर हो क्या रहा है. हमें सत्ता में बैठे लोगों की राजनीतिक इच्छा को जगाना होगा.

उदाहरण के तौर पर – आप जानते हैं कि 2005 में सरकार ने किस रूप में ‘नरेगा’ को पारित किया था. चूंकि हम लोग काफी वर्षों से समाज के सभी तबकों की महिलाओं के साथ काम करते रहे हैं, इसलिए हम जानते थे कि जिस रूप में वह कानून लाया गया था, वह कारगर नहीं होगा.

तब हमने कानून में संशोधनों, नए प्रावधान तथा बदलावों के लिए सरकार के साथ ‘लॉबिंग’ (अपने पक्ष में जनमत-निर्माण की कार्रवाई) की और हमारे द्वारा उठाए गए मुद्दों पर सरकार को विचार करना पड़ा. हम जो कह रहे थे, सरकार ने उसकी जांच-परख की और कानून में बदलाव किया.

यही सहभागी शासन-व्यवस्था है. इस तरह की व्यवस्था फले-फूले, इसके लिए ज़रूरी है कि सरकार ‘नागरिक भागीदारी’ की प्रक्रिया को समझे और उसका सम्मान करे. हमें पूछना ही होगा कि क्या सरकार जो कानून बना रही है, वह देश की श्रम शक्ति के फायदे के लिए है या वह कानून पहले से कायम कानूनों को ध्वस्त करने के लिए लाया गया है? हमें समझना होगा कि क्या सत्ता में बैठे लोग नागरिकों, नागरिक संगठनों और विकास क्षेत्र के कार्यकर्ताओं की आवाज़ सुनते हैं या उनकी आवाजों को अनसुना कर उन्हें प्रताड़ित करने में ही लगे रहते हैं?

नवउदारवादी दुनिया में युनियन/संघ की क्या भूमिका है? किस तरह इसे बदलते वक्त के साथ ढलना है?

अव्वल तो यह कि अभी भी यूनियन/संघ का मतलब संगठित क्षेत्र के संदर्भ में ही समझा जाता है. यूनियनों को चिंतन-मनन की एक लंबी प्रक्रिया से गुज़रना ही पड़ता है क्योंकि नवउदारवादी व्यवस्था ने एक विशाल असंगठित क्षेत्र और ठेके पर रखे जाने वाले कामगारों की एक बड़ी जमात को सामने ला दिया है. ऐसी स्थिति में आज यूनियनों को उन मुद्दों से भी टकराना है जो अन्य क्षेत्र के कामगारों के हैं.

(अगर कहीं) आंगनवाड़ी यूनियन है, तो उसे उन मुद्दों पर भी बोलना होगा जो अब तक ‘आशा’ या ‘मिड डे मील’ कर्मचारियों व कार्यकर्ताओं के रहे हैं.

एक दूसरी बात जो महसूस करने और समझने की है कि अभी अनेक ऐसे क्षेत्र या जगहें हैं जहां यूनियन बनाने की अनुमति नहीं दी जाती. नए क्षेत्रों, मसलन स्पेशल इकोनोमिक ज़ोन, में यूनियन का गठन प्रतिबंधित है. ऐसा पहले कभी नहीं रहा. पहले कभी संभव ही नहीं था. मगर अब अगर आप आईटी क्षेत्र में हैं, तब आप अपने भवन के सामने अपने यूनियन का झंडा तक नहीं फहरा सकते.

और हां, अगर लोग दस्तूर पर सवाल खड़े करने और दबाव बनाने में सक्षम हो भी जाएं और यूनियन बनाने की अनुमति भी मिल जाए, तब भी आपको याद रखना होगा कि सरकार (मैं राजनीतिक दलों का नाम नहीं ले रही, उस सरकार की बात कर रही हूं जो नवउदारवादी विचारधारा के साथ चलती है) कामगारों के साथ नहीं, कंपनी के साथ ही खड़ी रहेगी.

अगर नौजवान प्रतिवाद भी करते हैं और यूनियन बनाने पर ज़ोर डालते हैं, तब भी बदलते कानून की वजह से इन बनने वाले यूनियनों पर सैंकड़ों तरह की शर्तें थुपी रहेंगी. उन यूनियनों को बने रहने के लिए सैंकड़ों तरह की ज़रूरतों को पूरा करना और परिचालन संबंधी प्रक्रियागत (ऑपरेशनल) दिशा-निर्देशों का पालन करना होगा. इस तरह ऐसे यूनियन पर हमेशा ही यह खतरा बना रहेगा कि कहीं उसे ‘गैर-अनुपालन’ के नाम पर या किसी अन्य वजह से बंद न कर दिया जाए.

ऐसी हालत में ऐसा कोई क्रियाशील यूनियन हो ही नहीं सकता जो अपने कर्मचारियों/कामगारों के लिए बेहतर कामकाज की स्थितियों और बेहतर मेहनताना की मांग खुलकर कर सके.

प्रदर्शन पोस्टर पर ‘ग्रंविक डिस्प्यूट’ लीडर जयाबेन देसाई, ये डिस्प्यूट लंदन में 1976 से 1978 तक चला। फोटो साभार: phmmcr.wordpress.com

यूनियनों को क्रियाशील और गतिशील बने रहने ओर ज़्यादा से ज़्यादा मज़बूत होने के लिए लोगों की ज़रूरत पड़ती है. उन्हें अन्य क्षेत्रों, ख़ाससकर असंगठित क्षेत्र के कामगारों के हितों से जुड़े मुद्दों को लेकर चलना है. एक अन्य चुनौती यह है कि उन्हें अपने लोगों के हित में कुछ हासिल कर पाने में सक्षम बनना पड़ता है. अगर यूनियन यह नहीं दिखा पाता कि उसने अपने लोगों के लिए अमुक चीज़ हासिल की है, तब कोई भी यूनियन में भागीदारी करने से बचेगा.

जिंदगी इतनी दिक्कत भरी है कि हर किसी को कुछ पाने की ज़रूरत होती है. इसलिए यूनियन को बताना ही है कि देखो, हमारी वजह से कामगारों के मेहनताना में एक सौ रुपये या इतने रुपये की बढ़ोत्तरी हुई है. और, हां, इसके लिए तबकागत यानी अपने सैक्टर के संघर्षों की ज़रूरत है. आज यूनियनों को तबकागत संघर्षों में लगना पड़ता है, मगर एक साथ बहुतेरे मोर्चों पर.

क्या आप हाल के समय में किन्हीं ख़ास महिला यूनियनों के बारे में बताएंगी जिन्हें आप कामयाबी की कहानियां रचने वाली मानती हैं, ख़ासकर समाज के मकसदी किरदारों की तबज्जो हासिल करने में कामयाब होने वाली?

घरेलू काम को ‘कार्य’ की औपचारिक परिभाषा के दायरे में लाकर, उसे सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) और जनगणना के आकलन में शामिल करवाना एक कामयाबी है और हमने इसमें एक बड़ी भूमिका निभायी. अभी आंगनवाड़ी महिलाओं के मामले को देखिए, इन महिलाओं के अनेक स्थानीय समूहों ने एकजुट होकर अपने ‘संयुक्त मांग-पत्र’ के साथ अभियान चलाया. वे अपने-अपने स्तर पर समय-समय पर धरना और रैलियां कर अपनी मांगों को जीवंत बनाए हुए हैं.

हाल ही में केंद्र सरकार को उनके वेतन में इज़ाफा करना पड़ा, मगर यहां मैं फिर कहूंगी कि यह मामला भी इस बात पर ज़ोर देता है कि आज के इस खास सांस्कृतिक मोड़ पर अकेले लड़ना और कुछ हासिल कर पाना बेहद मुश्किल है. आज का हमारा वक्त संयुक्त व साझे प्रयास की मांग करता है.

आपकी नज़र में क्यों जनगणना में महिलाओं की सीमित नुमाइंदगी है?

क्योंकि हम सोचते ही नहीं!

घरेलू कामगार अप्रत्यक्ष ढंग से इस देश में हर उत्पादन प्रक्रिया को मुकाम तक पहुंचाने में मददगार हैं. अगर मैं आपके घर आकर आपके घर के कामकाज को पूरा करती हूं, तभी आपको अपने दफ्तर जाने और वहां से धन कमाने का वक्त मिलता है. दफ्तर में आपका काम अन्य दस कर्मचारियों के कामकाज को मुमकिन बनाता है और इस तरह अंतिम तौर पर हम सबका काम राष्ट्रीय आय का हिस्सा बन जाता है.

मैं लोगों को वक्त मुहैय्या कराती हुई खुद कमाती हूं और आय-सृजन करते हुए परोक्ष तौर पर राष्ट्रीय उत्पादन को भी बढ़ाती हूं. (आप ही बताएं), जब मैं अपना श्रम और समय दोनो देती हूं, तब क्यों नहीं इसकी गिनती होनी चाहिए?

दरअसल दुखद बात यह है कि हमारे कार्य को आय या धनके रूप में गिना ही नहीं जाता और इस वजह से राष्ट्रीय आय के आकलन की प्रक्रिया में हमारे कार्य की गणना नहीं होती. जब तक हमारे काम को ‘कार्य’ के रूप में मान्यता नहीं मिलती हम कैसे सरकारी योजनाओं और विकास कार्यक्रमों का फायदा ले सकते हैं?

(मैं एक घटना के बारे में बताती हूं) – केरल के वायनाड ज़िले में एक जगह महिलाओं ने तय किया कि वे एक दिन खाना नहीं पकायेंगी. सभी पुरुषों को होटल जाना पड़ा और रुपए खर्च करने पड़े. मै नहीं समझ पाती कि क्यों पुरुष महिला से कहते हैं कि ‘‘मैं कमाता हूं और रुपये घर लाता हूं और तुम खर्च कर देती हो”.

एक पुरुष जो भी कुछ कमाकर घर लाता है, एक महिला सुबह से लेकर रात तक उसका दोगुना बचत करती है. इसलिए एक महिला अपने श्रम और समय की बदौलत राष्ट्रीय आय सृजन और अर्थनीति की महत्त्वपूर्ण हिस्सेदार है. हमारे नेशनल फेडरेशन ऑफ इंडियन विमेन का यही तर्क-विमर्श है.

अखिल भारतीय हड़ताल में औरतों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, 26 नवम्बर। फोटो साभार: www.workers.org

कुछ ऐसी खुद देखी गई घटनाओं के बारे में बताएं जहां हाल ही में बने यूनियनों के बीच तकरार व विरोध हुए हैं?

पहली बात तो यह है कि आप जिस विरोध-प्रतिरोध की बात कर रहे है, वे पहले से कायम यूनियनों की तरफ से हुए हैं. पुराने यूनियन जितना भी प्रगतिशील होने का दावा करें, वे नहीं चाहेंगे कि एक ही कार्यस्थल पर कोई दूसरा यूनियन खड़ा हो. सारे यूनियन किसी अन्य नए का विरोध करने के लिए एक साथ आ जाएंगे.

अगर हम असंगठित क्षेत्र की बात कर रहे हैं, तो हमें समझना होगा कि ये एक विशाल क्षेत्र है. मुझे नहीं लगता कि इसका 1 फीसदी हिस्सा भी संघबद्ध हो रहा है. यह एक बड़ी चुनौती है.

पिछले साल से हम घर पर काम करने वाली महिला कामगारों के साथ काम कर रहे हैं. कुछ दिनों पहले हमने दिल्ली में एक ‘जन सुनवाई’ आयोजित की. पैनल में अर्थशास्त्री और विशेषज्ञ भी शामिल हुए. हमारा लक्ष्य था कि इसमें 70 महिलाएं भागीदारी करें. वहां 100 कुर्सियां लगा दी गईं. मैंने कहा कि 30 कुर्सियां हटा ली जाएं, मगर महिलाएं आती गईं. और 10 कुर्सियां लगीं, फिर 10 और. अंततः सभागार पूरी तरह भर गया और लोग-बाग फर्श पर बैठे. औरतें अपनी गवाही दे रही थीं.

हमने पहले से कुछ भी नियोजित नहीं किया था. हमने महिलाओं से यह भी नहीं कहा था कि ‘आपको आकर अपनी कहानी बतानी है’. उस ‘जन सुनवाई’ में 138 महिलाएं शरीक हुईं. उनमें से एक ने कहा कि वह घर के हर कामकाज को पूरा कर लेने के बाद रात में छह घंटे काम करती है और वह रोज़ तीन रुपए कमाती है. यह उसके जीवन के संकट की आपबीती थी. पैनल के लोग हैरान और अचंभित थे.

मगर केवल हम या पैनल में शामिल लोग ही नहीं, उन कहानियों को सुनने के लिए उतनी सारी महिलाएं आई थीं. वे पहली बार एक दूसरे से मिल रही थीं और एक-दूसरे की आपबीती को सुन रही थीं.

इसीलिए मेरा एक सुझाव है कि हर वह इंसान जो इस क्षेत्र में काम करते हैं या इन महिला कामगारों के साथ काम करने की शुरूआत कर रहे हैं, उन्हें चाहिए कि वे इन महिलाओं को संगठित करें. यूनियन-निर्माण बाद ही चीज़ है. पहले इन महिलाओं को अपने ऊपर विश्वास हासिल करने में मदद कीजिए और उसके बाद आपके ऊपर.

उन्हें यह विश्वास करने की ज़रूरत है कि आप उन्हें मदद करने आए हैं, इसलिए महज़ उनकी बात को सुनकर और वहां से निकल जाने का कोई मतलब नहीं है.

(और तो और, यह मत भूलिए कि) जब महिलाएं पहली बार किसी बैठक में आती हैं, तो वे वहां अपना समय दे रही होती हैं. वे इस समय का उपयोग अपने किसी अन्य ऐसे काम में कर सकती हैं, जिनकी उन्हें बहुत ज़्यादा ज़रूरत है.

(हमें समझना होगा कि) यह महिलाएं अपना काम छोड़कर आपके पास आ रही हैं. हो सकता है कि पहली बैठक में दस ही महिलाएं आएं और अन्य यह कहने लगे कि ‘क्यों हम समय बर्बाद करें, उतने समय में तो पांच रुपये और ज़्यादा कमा लेंगे. लेकिन, यह आपके ऊपर है कि कैसे आप बैठक में आने वाली दस महिलाओं का विश्वास हासिल करते हैं? जब आप उनका विश्वास प्राप्त कर लेंगे, तब यही दस महिलाएं वापस जाकर अन्य महिलाओं से बात करेंगी.

और, हां, आपका रवैया भी सही होना चहिए. ऐसा नहीं कि आप अपने को उनका रहनुमा मान लें. आप रहनुमा नहीं, महज़ उनके लिए ज़रिया हैं. स्वाभाविक तौर पर रहनुमा तो उन महिलाओं के भीतर से ही उभरेंगी. आपकी भूमिका तो परदे के पीछे की ही है, एक मददगार और बदलाव के सूत्रधार की.

एक बार ज्योंही वे यकीन करने लगेंगी, तब वे आपके कहे पर भरोसा रखना शुरू करेंगी और खुद ही जाकर बैठक में ज़्यादा महिलाओं को ला पाएंगी. तब आपको घर-धर जाकर संभावनामय सदस्यों को जोड़ने की ज़रूरत नहीं होगी. जब आपको लगे कि हमारे पास एक हज़ार या पांच सौ भी लोग हैं, तब आप उन सब की सहमति लीजिए कि ‘क्या हम अब यूनियन की तरफ बढ़ें’’ और लड़ाई को आगे बढ़ाएं ताकि सरकार, अधिकारी, पुलिस और अन्य हमें सुनें?’

हमें उनसे ही सहमति लेना है और उनकी भागीदारी बढ़ानी है. अगर हम सदस्यता भर्ती अभियान चला रहे हैं, तो हम उनसे ही सदस्यता शुल्क के बारे में पूछें कि यह कितना रखा जाए? दो रुपए या पांच रुपए? महीने का रखा जाए या साल भर का? कब बैठकों में मिला जाए? हर सप्ताह या हर महीने? उन्हें निर्णय की प्रक्रिया में हिस्सेदार बनाना चाहिए.

छह महीने या कुछ ऐसे ही समय तक उनसे घनिष्ठता बनानी चाहिए. आपको हमेशा याद रखना होगा कि आप जो कुछ भी कर रहे हैं, वह महिलाओं को समूहबद्ध करने में मदद करने के लिए ही है.

अपने यूनियन को पंजीकृत करवाने में उन्हें किन-किन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा?

श्रम कार्यालय पूरी श्रम विरोधी हैं. हर वह कोई जो उन्हें संगठित करने या संघबद्ध करने का प्रयास कर रहा है, उसे श्रम कार्यालयों में जाकर वहां के मुलाज़िमों से बात करना चाहिए. कभी-कभी बड़े यूनियनों की मदद भी लेनी चाहिए. हमने ऐसा ही किया था.

अब हम घरों में काम करने वाली महिला कामगारों को संघबद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं. यह क्षेत्र समुद्र के जैसा है. इन कामगारों को संगठित कर समूहीकृत करने के लिए अब तक किसी ने वास्तविक प्रक्रिया ही शुरू नहीं की थी.

आप उन ज़मीनी कार्यकर्ताओं को क्या सुझाव देना चाहेंगी जो अनौपचारिक आर्थिकी के क्षेत्र की महिलाओं के साथ काम कर रहे हैं?

इन ज़मीनी कार्यकर्ताओं को एक बड़े विमर्श का हिस्सा बनना चाहिए. उन्हें प्रतिरोध की प्रणाली में बदलाव लाना होगा. सामान्य तौर पर ट्रेड यूनियन एक हद तक इन कार्यकर्ताओं की मांगों को अपनी मांगों के साथ जोड़ लेने में खुशी महसूस करते हैं, लेकिन कभी-कभी ज़मीनी कार्यकर्ताओं को ट्रेड यूनियनों को सोचने के लिए बाध्य करने की भी ज़रूरत है. जब आप अपनी मांगों को उनकी मांगों में शामिल करते हैं, तब आपके अपने विमर्श में एक बड़े विमर्श का रूप दिखने लगता है.

सबसे अहम तो यह है कि यूनियन का एक सदस्य होना ही बुनियादी तौर पर सशक्त होने की एक मज़बूत प्रक्रिया है. जब हम किसी से जुड़ते हैं, तब इसका अर्थ हमेशा रुपये-पैसे या कानूनी फायदे से जुड़ा हुआ नहीं होता. इस जुड़ाव के बहुत से आयाम होते हैं. दोस्ती अपने आप में एक बड़ी एकजुटता है. यह अहसास है कि हमारे पास कोई है. यहां तक कि दोस्ती का अहसास हमें ताकत देता है और हमें हमेशा ही ज़्यादा से ज़्यादा ताकत की ज़रूरत होती है.

द थर्ड आई की पाठ्य सामग्री तैयार करने वाले लोगों के समूह में शिक्षाविद, डॉक्यूमेंटरी फ़िल्मकार, कहानीकार जैसे पेशेवर लोग हैं. इन्हें कहानियां लिखने, मौखिक इतिहास जमा करने और ग्रामीण तथा कमज़ोर तबक़ों के लिए संदर्भगत सीखने−सिखाने के तरीकों को विकसित करने का व्यापक अनुभव है.

इस लेख का अनुवाद रंजीत अभिज्ञान ने किया है.

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