क्या आपको लाइब्रेरी का पता मालूम है?

समुदायों को जोड़ती सामुदायिक लाइब्रेरी एवं उनकी उपस्थिति से होने वाले बदलाव पर एक रिपोर्ट

फोटो साभार: जूही जोतवानी

भोपाल में रहने वाली सबा का मानना है कि “शिक्षा के बारे में स्कूल के बाहर बात की जानी चाहिए, स्कूल के बाहर स्टुडेंट होना ज़्यादा आसान है.” सबा भोपाल में 2010 से शिक्षक साथियों (पुस्तकालय के भूतपूर्व सदस्य) की मदद से ‘सावित्री बाई फुले फ़ातिमा शेख पुस्तकालय’ चला रही हैं. यहां सबा पुस्तकालय के एक शैक्षणिक संस्थान में तब्दील होने की क्षमता का उल्लेख कर रही थीं. शायद एक ऐसी जगह जो कि एक स्कूल की तुलना में अधिक समावेशी है.

ज्ञान ताकत है. लेकिन अक्सर यह शक्तिशाली लोगों के हाथों और अलमारियों में बंद होता है. इसे कांच की अलमारियों या ताला लगे लोहे के दरवाज़ों के पीछे रखा जाता है. मनुस्मृति में संकलित कई जातिवादी और स्त्री विरोधी छंदों में से, दो श्लोक “शूद्रों और महिलाओं” को शिक्षा के लिए अयोग्य घोषित करते हुए, इसे न मानने वालों के लिए नर्क में जगह मिलने की बात करते हैं. यहां तक कि बौद्ध धर्म में भी शुरुआत में स्त्रियों को मुक्ति के योग्य नहीं समझा गया. यही कारण है कि उन्हें धार्मिक शिक्षा से वंचित रखा गया. बाद में, ब्रिटिश उपनिवेशों में बहुत सावधानी के साथ सार्वजनिक पुस्तकालयों की शुरुआत की गई, जैसा कि नीचे की तस्वीर में देखा जा सकता है:

द यूज़ ऑफ पब्लिक लाइब्रेरी (सार्वजनिक लाइब्रेरी का इस्तेमाल), मेलबर्न पंच, अगस्त 2, 1855,153. साभार : https://trove.nla.gov.au/newspaper/article/171430414

यह तथ्य सिर्फ भारत के लिए ही लागू नहीं होता. लेखक वर्जीनिया वुल्फ ने अपनी चर्चित किताब ‘ए रूम ऑफ वंस ओन’ (अपना कमरा) में इस बात की चर्चा की है कि किस तरह ब्रिटिश ‘मातृभूमि’ में कॉलेज लाइब्रेरी में एक महिला का प्रवेश कई शर्तों पर आधारित था. जैसे- औरतें किसी कॉलेज फेलो के साथ ही लाइब्रेरी में प्रवेश कर सकती थीं, या उन्हें लाइब्रेरी में प्रवेश करने से पहले परिचय पत्र साथ रखना होता था. ऐतिहासिक रूप से, पुस्तकालय न सिर्फ पुरुष के काम की जगहें होते थे बल्कि महिलाओं के लिए “खतरनाक” भी माने जाते थे.

लेकिन, किताबों को इतनी आसानी से ताले में बंद और ‘खाली बैठकर समय व्यतीत करने वालों’ की पहुंच से दूर नहीं रखा जा सकता था. हाशिये पर रहने वाले समुदायों ने समय के साथ इन तालों को तोड़कर ज्ञान और ज्ञान की जगहों व संस्थानों में अपनी दावेदारी पेश की है. चाहे वह औपनिवेशिक बॉम्बे में ‘मिल वर्कर्स पुस्तकालय’ रहा हो या दलित-बहुजन- आदिवासी और विधवा लड़कियों को पढ़ाने की फुले और फ़ातिमा शेख की पहल-कदमियां रही हों.

कम्युनिटी लाइब्रेरी की राजनीति एवं उसकी ताकत ज्ञान के इतिहास में निहित है, जहां किताबें न केवल जगह-जगह पहुंची हैं बल्कि किताबों ने उन्हें भी सशक्त बनाया है जो इन्हें छूने की कभी कल्पना भी नहीं कर सकते थे.

इस लेख को लिखने के दौरान पिछले छह हफ्तों में मैं, मुंबई और दिल्ली के अलग-अलग 6 सामुदायिक पुस्तकालयों में गई. साथ ही मध्य प्रदेश व बिहार में सामुदायिक पुस्तकालय चलाने वालों और शिक्षकों से बातें की. मुंबई में वाचा चैरिटेबल ट्रस्ट ने बस्तियों में रहने वाली छोटी लड़कियों के लिए कई पुस्तकालयों की शुरुआत की है. वे बस्ती में ही संसाधनों को जुटाते हैं और किताबों का इंतज़ाम करते हैं. रहनुमा लाइब्रेरी एंड रिसोर्स सेंटर, स्वंयसेवी संस्था आवाज़-ए-निस्वान द्वारा संचालित पुस्तकालय है. मुम्बई के मुस्लिम बहुल इलाके मुमबरा में स्थित यह लाइब्रेरी, मुंबई और थाणे में घरेलू हिंसा की शिकार मुस्लिम महिलाओं को कानूनी सलाह और मदद भी मुहैय्या कराती है.

रहनुमा, एक महिला पुस्तकालय है, सभी उम्र की महिलाएं/ लड़कियां इससे जुड़ सकती हैं. कई महिलाओं ने पहले अपनी बेटियों को रहनुमा की कंप्यूटर और अंग्रेज़ी बोलने की कक्षाओं में भेजना शुरू किया. बाद में वे खुद भी पुस्तकालय का हिस्सा बनीं. यहां वे हर तरह की चीज़ें सीखती हैं. जैसे, मसाला बनाने से लेकर महिलाओं के कानूनी अधिकार तक.

अध्वान फाउंडेशन कई संस्थानों में पुस्तकालय केंद्रित काम करता है. इस विषय पर अपने शोध के दौरान मैंने मुंबई के मजगांव में स्थित ‘आशा सदन रेस्क्यू होम’ में उनके एक पुस्तकालय सत्र में भाग लिया. इसके अलावा, द कम्युनिटी लाइब्रेरी प्रोजेक्ट (TCLP) एक ट्रस्ट है जिसने 2014-15 में दिल्ली में अपने पहले सामुदायिक पुस्तकालय की स्थापना की. इस लाइब्रेरी प्रोजेक्ट का उद्देश्य समुदायों द्वारा संचालित मुफ्त पुस्तकालयों को बच्चों एवं व्यस्कों के लिए उपलब्ध करवाना है. वर्तमान में, उनके पास दिल्ली एवं उसके आसपास (एनसीआर) इलाके में तीन सामुदायिक पुस्तकालय हैं. देश भर में पुस्तकालय आंदोलनों में टीसीएलपी का अग्रणी स्थान है.

यदि सामुदायिक पुस्तकालय नहीं, तो कौन?

सामुदायिक पुस्तकालय (ऐसे पुस्तकालय जो समुदायों द्वारा संचालित होते हैं या जिनमें समुदाय प्राथमिक हितधारक होते हैं) कैसे सामने आए?

इसका एक कारण राज्य द्वारा संचालित पुस्तकालयों की बुरी दशा हो सकती है.

भारत में सार्वजनिक पुस्तकालय राज्य का विषय हैं. लेकिन केवल अठारह राज्यों ने इस संबंध में कानून पारित किया है. इंडियन इंस्टिट्यूट फॉर ह्यूमन सेटलमेंट (IIHS) द्वारा 2018 में किए गए एक अध्ययन ‘ए पालिसी रिव्यु ऑफ पब्लिक लाइब्रेरीज़ इन इंडिया’ के अनुसार, ऐसे राज्य जहां साक्षरता दर कम है, वहां पुस्तकालय कानून नहीं है.

आमिर-उद-दौला सार्वजनिक पुस्तकालय, लखनऊ. फोटो साभार: शिवम रस्तोगी

सच यही है कि ‘कानून से लेकर नीयत’ तक कारणों की विविधता की वजह से राज्य द्वारा चलाए जा रहे सार्वजनिक पुस्तकालय जगह, फण्ड और पाठकों की कमी से जूझ रहे हैं. इसका परिणाम यह है कि भारत की अधिकांश जनसंख्या जिसके पास प्राथमिक अध्ययन सामग्री तक उपलब्ध नहीं है उनके बीच “सूचनाओं का अकाल” है.

एक तरफ सार्वजनिक पुस्तकालयों की कल्पना एक सामुदायिक संस्थान के रूप में की गई थी जो समुदायों के उत्थान में मदद करते, वहीं, आईआईएचएस के अध्ययन के अनुसार पिछले 70 सालों में, संस्कृति मंत्रालय द्वारा देश की सार्वजनिक पुस्तकालय प्रणाली को विकसित करने के लिए कोई ठोस प्रयास नहीं किए गए हैं.

इसका दूसरा कारण भारत में सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली के ग्राफ का लगातार गर्त में गिरना है. 2020 में पुस्तकालयों और भारत में शिक्षा के साथ उनके संबंधों पर टाटा ट्रस्ट से जुड़े पराग इनिशिएटिव द्वारा लिए गए साक्षात्कारों की एक शृंखला में, शिक्षाविद कृष्ण कुमार ने कहा कि सार्वजनिक/सामुदायिक पुस्तकालय स्कूल/विश्वविद्यालय पुस्तकालयों की सफलता को सुगम बनाने के लिए थे. पुस्तकालय जो जनता के लिए खुले और सुलभ रहे हैं, वे बड़े पैमाने पर वयस्कों के बीच पढ़ने की संस्कृति को प्रोत्साहित करते हैं. जो आगे बढ़कर पढ़ने की आदत को बच्चों में भी डाल सकते हैं. इसके अलावा, बच्चे छुट्टियों के दौरान अपनी पढ़ाई को आगे बढ़ाने के लिए इसका प्रयोग कर सकते हैं.

शिक्षाविद् कृष्ण कुमार की तरह ही भारत की शिक्षा नीतियों ने भी ऐसे पुस्तकालयों की कल्पना की जो औपचारिक शिक्षा प्रणाली के प्रोत्साहित करने के लिए एक पूरक की भूमिका निभाते हैं.

कृष्ण कुमार का कहना है कि “स्कूल की आत्मा उसके पुस्तकालय में बस्ती है.”

यदि कृष्ण कुमार की बात सही है, तो भारत के कई स्कूल अपनी आत्मा से गंभीर रूप से वंचित हैं.

ताले और चाभियों में बंद

“हमें लाइब्रेरी के घंटे में ही स्कूल की लाइब्रेरी में ले जाया जाता है. इसके अलावा ऐसे मौके बहुत ही कम होते हैं जब हम लाइब्रेरी जा सकते हैं. अगर आपको ज़रूरी संदर्भ में किसी खास किताब की ज़रूरत है तभी आप वहां जा सकते हैं. टीचर्स न तो हमें लाइब्रेरी में बैठकर उपन्यास पढ़ने देते हैं और न ही घर ले जाकर पढ़ने की इजाज़त देते हैं.” वाचा के एक पुस्तकालय में सामूहिक चर्चा के दौरान एक किशोरी लड़की ने बताया.

जब उनसे अपने स्कूल पुस्तकालयों के बारे में बोलने के लिए कहा गया, तो सभी ने पुस्तकालयों के बाहर लटकते ताले के बारे में बात की.

या तो पुस्तकालय के दरवाज़े पर ताला होता है या फिर किताबें कांच की अलमारियों के पीछे बंद रहती हैं, जिन्हें सिर्फ किसी विशेष अवसर पर ही लाइब्रेरियन द्वारा खोला जाता है. कारण? यही कि बच्चे किताबें खराब कर देते हैं इसलिए उन्हें उनकी पहुंच से दूर रखा जाना चाहिए. यहां तक की लाइब्रेरी की किताब लौटाना भूल जाने पर बच्चों के लाइब्रेरी न जाने या स्कूल की छुट्टी कर लेने की कहानियां आम हैं.

प्राची, जो टीसीएलपी में पाठ्यक्रम निर्माता है, बताती हैं, “कुछ बच्चे महीनों पुस्तकालय के बाहर खड़े रहते हैं क्योंकि उनके भीतर पुस्तकालय को लेकर डर भरा होता है. क्या होगा यदि गलती से लाइब्रेरी की कोई किताब उनसे खो जाए या फट जाए? हमारे लिए भी किताब की गुणवत्ता मायने रखती है. लेकिन हम गरीब बच्चों के लिए कमज़ोर पुस्तकालय में विश्वास नहीं रखते बल्कि सबके लिए एक समान भव्य पुस्तकालय चाहते हैं.”

तो क्या इसका मतलब है कि सामुदायिक पुस्तकालय, एक ऐसी जगह है जहां कोई भारतीय शिक्षण प्रणाली की भेदभाव पूर्ण प्रकृति से बचने के लिए जाता है.

शोध के दौरान टीसीएलपी के दिल्ली स्थित खिड़की पुस्कालय की लाइब्रेरियन ने बताया कि क्यों वे अपने स्कूल के पुस्तकालय को पसंद नहीं करती थीं, क्योंकि वे अपनी कक्षा में सबसे लंबी थी और हमेशा उन्हें लाइन में पीछे खड़ा होना पड़ता था. इस वजह से उन्हें अक्सर बची-खुची किताबों से ही काम चलाना पड़ता. अध्वान के पुस्तकालय सत्र में भाग लेने वाली एक छात्रा ऋतु ने अपने स्कूल लाइब्रेरी के अनुभवों को साझा करते हुए बताया कि यदि किताब गलती से थोड़ी सी भी क्षतिग्रस्त होती है, तो यह बात उसके कैलेंडर में लिख दी जाएगी जिससे उसके ग्रेड प्रभावित होंगे. कईयों के लिए स्कूल के पुस्तकालय के अनुभव ऐसे हैं कि जबरन उन्हें एक किताब लेनी है (भले उसमें उनकी रूचि न हो) और क्लास मॉनिटर की निगरानी में उसे चुपचाप पढ़ना होता है.

एक घुमंतू पुस्तकालय संचालक और टीसीएलपी छात्र परिषद् के प्रमुख, सुमित ने कहा, “किताब कागज़ है, कागज़ तो फटेगा ही. अगर कोई किताब आसानी से क्षतिग्रस्त हो रही है, तो हमें नई किताबें खरीदनी चाहिए न.”

एस.आर. रंगनाथन, जिन्हें भारत में पुस्तकालय आंदोलन के पिता के रूप में जाना जाता है, ने पुस्तकालय विज्ञान के पांच नियम बताए हैं. जिसमें प्रमुख है, “किताबें इस्तेमाल करने के लिए बनी हैं.” जब टीसीएलपी के किसी सदस्य से गलती से कोई किताब कट-फट जाती है, तो वे उसे लाइब्रेरियन के पास ले जाते हैं. फिर लाइब्रेरियन और वे सदस्य दोनों क्षति को ठीक करने की दिशा में काम करते हैं. वास्तव में,

अध्वान के लाइब्रेरी सत्र में, एक “बुक हॉस्पिटल” है जहां पाठक खुद से कटी-फटी हुई किताबों को ठीक करते हैं. दरअसल, किसी किताब का खो जाना या उसका कट-फट जाना इतना महंगा नहीं है कि उसकी वजह से किसी पाठक की पढ़ने की यात्रा ही रूक जाए.

टीसीएलपी खिड़की के लाइब्रेरियन ने मुझे बताया कि लाइब्रेरी के कई सदस्यों के घर बहुत छोटे हैं. काम के सिलसिले में जब उनके माता-पिता घर से बाहर जाते हैं तो अक्सर उनसे अपेक्षा की जाती है कि वे अपने छोटे भाई-बहनों की देखभाल करें. ऐसे में, यदि उनके छोटे भाई-बहन उनकी किताब फाड़ देते हैं या कभी पानी बरसने से किताब गीली हो जाती है तो सदस्य लाइब्रेरी आना छोड़ देते हैं. उन्हें डर रहता है कि उन्हें सज़ा दी जाएगी. पुस्तकालय के कर्मचारियों की ओर से सदस्यों को यह समझाने में समय लगा कि कोई भी क्षति ऐसी नहीं है कि उसे ठीक न किया जा सके.

पुस्तकों को एकदम सजा-धजा कर साफ रखना और हर कीमत पर क्षति से बचाना ब्राह्मणवादी विचारों जैसा है, जो ज्ञान को विशिष्ट बनाते हैं. शायद इसी वजह से सामुदायिक पुस्तकालय आम्बेडकर आंदोलनों के केंद्र में रहे हैं. आम्बेडकरवादी कार्यक्रमों में बुकस्टाल एक आम दृश्य हैं और उन्हें प्रत्येक कार्यक्रम का एक आवश्यक घटक माना जाता है.

टीसीएलपी पुस्तकालयों का मंत्र है ‘प्यार से’ जो लाइब्रेरी के भीतर सभी बातचीत और गतिविधियों के मूल में समाहित है और उनका मार्गदर्शन करता है. यहां पढ़ने और कुछ सीखने आने वाले सदस्य (ज़्यादातर मिडिल स्कूल और हाई स्कूल के स्टुडेंट) ने इसके बारे में शौक से बात की और इसे अपने स्कूल में मिलने वाले शारीरिक दंड के साथ जोड़ा. उनका कहना था कि यहां कोई भी स्टुडेंट्स को गलती करने पर पीटता नहीं है. उनके लिए उनके स्कूल और टीसीएलपी के पुस्तकालय के बीच यह एक बड़ा अंतर है. दंड की अनुपस्थिति का मतलब पाठ्यक्रम की अनुपस्थिति नहीं है.

ये कहना अतिशयोक्ति नहीं कि राज्य द्वारा संचालित सार्वजनिक और स्कूल पुस्तकालयों द्वारा छोड़े गए रिक्त स्थान को, सामुदायिक पुस्तकालयों ने बचाने की ज़िम्मेदारी ली है.

ये पुस्तकालय सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में सीखने वालों की गहरी खाई को पाट रहे हैं.

इसके अलावा, कई पुस्तकालयों की शुरुआत राज्य द्वारा कुछ निश्चित समुदायों को व्यवस्थित रूप से छोड़ देने की प्रतिक्रिया स्वरुप हुई. ये पुस्तकालय मुस्लिम, दलित आदिवासी बहुल बस्तियों के भीतर स्थित हैं.

साक्षरता और पुस्तकालय

ये पुस्तकालय इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हैं क्योंकि यहां लिखित शब्दों के प्रति आकर्षण का रास्ता सुगम बनाने की कोशिश की जाती है. शोध के दौरान मैं जिन भी सामुदायिक पुस्तकालयों में गई वहां आधिकारिक या अनौपचारिक रूप से हिंदी और अंग्रेज़ी, दोनों भाषाओं की धाराप्रवाह पढ़ाई होती है. जनवरी 2021 में, अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय द्वारा एक सैम्पल अध्ययन के अनुसार, कक्षा 2 से 6 में औसतन 92 फीसदी बच्चों ने पिछले वर्ष की तुलना में कम से कम एक विशिष्ट भाषा क्षमता खो दी है. इन विशिष्ट क्षमताओं में एक तस्वीर या उनके अनुभवों का मौखिक रूप से वर्णन करना, परिचित शब्दों को पढ़ना, और एक तस्वीर के आधार पर एक साधारण वाक्य लिखना शामिल हैं.
फोटो साभार: द कम्युनिटी लाइब्रेरी प्रोजेक्ट (टीसीएलपी) / फेसबुक

ध्वान के पुस्तकालय सत्र में, सीखने के लिए आतुर, अक्षर-ज्ञान से वंचित रहे बच्चों को शुरुआत में चित्रों से भरी किताबें दी जाती हैं या अन्य दूसरी किताबों में केवल चित्र देखने के लिए कहा जाता है. इसके बाद उनसे चित्रों की व्याख्या करने और उन कहानी, कथानक और पात्रों का सृजन करने का आग्रह किया जाता है. इस तरह यह प्रक्रिया उन्हें पढ़ने, लिखने और सीखने के लिए प्रेरित करती है. जल्द ही वे पढ़-लिख सकने वाले विद्यार्थियों की कक्षाओं में आसानी से घुसने के लिए तैयार हो जाते हैं.

साक्षरता और कहानियां सुनाना दोनों एक दूसरे के पूरक हैं. बच्चे शिक्षित हो सकें बस इसलिए उन्हें किताबें पढ़ने और उन्हें घर ले जाने पर ज़ोर नहीं दिया जाता. बल्कि उनके भीतर जो किताबें पढ़ने की नींव जाग गई है, वे उन्हें खुद से किताबों के प्रति आकर्षित करती है और साक्षरता की ओर लेकर जाती है.

नारीवादी पुस्तकालय

“हम सभी के लिए बोलने के अवसर पैदा करने का प्रयास करते हैं. कभी ऐसा भी होता है कि आम बैठकों में, एक बारह साल का लड़का अपने दोनों हाथ उठाकर पहले बोलने की ज़िद करता है. लेकिन, शिक्षक उसकी ज़िद के आगे झुकते नहीं. वे क्रम से ही वक्ताओं को बोलने का मौका देते हैं. मुझे लगता है कि लड़कियों को धैर्य रखने की आदत होती है, इसलिए वे चुपचाप बैठकर अपनी बारी का इंतज़ार करती हैं. एक लड़का उठकर जा भी सकता है क्योंकि वह इंतज़ार नहीं करना चाहता. लेकिन हम कोशिश करते हैं कि इसको लेकर चिंतित न हों, न ही उसे वापस लाने में ऊर्जा नष्ट करते हैं.” – सबा, सावित्री बाई फुले फ़ातिमा शेख लाइब्रेरी, भोपाल.

वैसे किसी लाइब्रेरियन या शिक्षक ने यह नहीं कहा कि उन्हें लाइब्रेरी में लड़कों को बुलाना पसंद नहीं है. वास्तव में, रहनुमा के लिए ऐसे क्षेत्र में, जहां युवा मुस्लिम लड़के भी किताबों और दूसरी पाठ्य सामग्रियों में बेहद दिलचस्पी रखते हैं और लाइब्रेरी का हिस्सा बनना चाहते हैं, सिर्फ लड़कियों के लिए पुस्तकालय चलाना एक कठिन राजनीतिक विकल्प था. वे जानते हैं कि अगर बहुत सारे लड़के लाइब्रेरी आने लगे तो लड़कियों को यह जगह छोड़नी होगी. या तो अपनी खुद की वजह से या परिवार की वजह से परेशानी होगी.

मेरे लिए इस लेख पर काम करते हुए सबसे जानदार बात यह थी कि मैं जिस भी सामुदायिक पुस्तकालय में गई वहां कम से कम एक बार तो यह किसी लड़की या महिला से ज़रूर सुना कि “पहले, मैं बड़े लोगों से बात ही नहीं कर पाती थी, पर अब, मैं किसी से भी बात कर सकती हूं.” यहां “बोलना” साक्षरता से बहुत अलग है, दरअसल ये आत्मविश्वास, साहस और अभिव्यक्ति एवं सही संयोजन का प्रतीक है. यह सिर्फ बोलना नहीं है, बल्कि अपने लिए बोलना है, बड़े लोगों से बहस करना, दोस्त बनाना, व्यक्तिगत अनुभव साझा करना और ज्ञान और अनुभव के बीच बिंदुओं को जोड़ना है.

समाज में एक लड़की कैसे बोलना सीखती है जहां हर वक्त उसे ताना मारकर बोला जाता है कि “बहुत ज़्यादा बोलने लग गई है”?

रहनुमा पुस्तकालय का एक नियम जिसका अर्थ है,

“जो पुस्तकालय में कहा जाता है, वह पुस्तकालय तक ही रहता है.”

इससे महिलाओं और लड़कियों को बेझिझक अपने व्यक्तिगत अनुभवों को साझा करने की ताकत मिलती है. वे अपने घर, कॉलोनी, स्कूल और कॉलेज में होने वाली घटनाओं के बारे में पुस्तकालय में बात करती हैं, और हर तरह की बात करने की कोशिश करती हैं. रहनुमा की एक बुज़ुर्ग महिला ने बताया, “दिल की बात भी बता देते हैं, हल्का हो जाता है मन. एक साथ अपना दुखड़ा रो लेते हैं.”

महामारी के दौरान इन पुस्तकालयों ने क्या किया?

लॉकडाउन प्रतिबंधों के कारण 2020 में 15 लाख स्कूल लगभग 2 वर्षों के लिए बंद हो गए. इससे प्राइमरी और माध्यमिक में पढ़ रहे 2 करोड़ 47 लाख विद्यार्थियों की शिक्षा प्रभावित हुई. देखते-देखते ऑनलाइन शिक्षा ने ज़ोर पकड़ा लेकिन भारत में चार में से केवल एक बच्चे की डिजिटल उपकरणों और इंटरनेट कनेक्टिविटी तक पहुंच थी.

प्रथम फाउंडेशन द्वारा जारी की गई 16वीं एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (ASER) ने पाया कि कोविड महामारी के दौरान जब 2020 में स्कूल बंद थे, तब सभी नामांकित बच्चों में से बमुश्किल एक-तिहाई बच्चे अपने स्कूलों से पढ़ने या उससे जुड़ी गतिविधियों को पाना चाहते थे. यह संख्या एक साल बाद 2021 में भी बनी रही. प्राइवेट स्कूलों की तुलना में सरकारी स्कूलों में अनुपात काफी नीचे था. इसका अर्थ है कि अभाव एवं गरीबी से जूंझ रहे परिवारों के बच्चों के लिए शिक्षा काफी महंगी हो गई थी.

(इसी रिपोर्ट में पाया गया कि लगभग चालीस प्रतिशत बच्चे सशुल्क निजी ट्यूशन का लाभ उठाते हैं.)

इस अवधि के दौरान, स्कूल और सार्वजनिक पुस्तकालय भी बंद हो गए लेकिन सामुदायिक पुस्तकालयों ने समुदाय की ज़रूरतों को पूरा करने और अपने सदस्यों से जुड़े रहने की पूरी कोशिश की. जब छात्र स्कूलों तक नहीं पहुंच पा रहे थे, तो पुस्तकालय अपने सदस्यों तक पहुंचने में कामयाब रहे.

जतिन ने टीसीएलपी में स्वेच्छा से भाग लिया और दिसंबर 2020 में उत्तर प्रदेश के हरदोई ज़िले के अपने गांव बांसा में एक सामुदायिक पुस्तकालय खोलने का फैसला किया. कोविड-19 महामारी के बीच ऐसा कर पाना एवरेस्ट चढ़ने से कम साहसिक नहीं था. पहली लहर के दौरान घर लौटने वाले प्रवासी मज़दूरों के बच्चों के साथ-साथ गांव के सीखने के लिए उत्साही बच्चों के बीच डिजिटल की खाई बहुत गहरी थी. ‘बांसा कम्युनिटी लाइब्रेरी और रिसोर्स  सेंटर’ के सामने बड़ी चुनौती थी कि वे इस खाई को कैसे कम कर सकते हैं. बच्चे अपने स्कूलों से वंचित थे और प्रतियोगी परीक्षा के उम्मीदवारों को इलाहबाद और कानपुर जैसे बड़े शहरों में कमरा लेकर रहना और पढ़ाई करना मुश्किल हो रहा था. जतिन ने बताया, “यहां, शहरों के विपरीत, पुस्तकालय की अवधारणा, विशेष रूप से एक शैक्षणिक संस्थान के रूप में, बहुत नई है. शिक्षा का मतलब यहां अभी भी स्कूल और कॉलेज है. कोविड के दौरान, शहरों में कक्षाएं व्हाट्सएप्प और गूगल मीट के माध्यम से तो चल भी रही थीं, लेकिन यहां, कुछ नहीं हो रहा था. छात्रों और अध्यापक के बीच किसी भी तरह का संपर्क नहीं रह गया था. इसलिए, हमें कक्षाएं पुस्तकालय में शुरू करनी पड़ीं.”

टीसीएलपी दिल्ली ने भी एक अनोखी पहल की शुरुआत करते हुए ‘दुनिया सबकी’ कार्यक्रम चलाना शुरू किया. इसके तहत पुस्तकालय ने अपने सदस्यों को व्हाट्सएप्प के ज़रिए से किताबें भेजना शुरू किया. जो अक्षर-ज्ञान में असमर्थ थे उनके लिए कहानियां रिकॉर्ड कर तैयार की जातीं और उन्हें ऑडियो के ज़रिए भेजा जाता ताकि वे कहानियां सुनना जारी रख सकें.

वाचा ने अपने सदस्यों में से उन सभी लड़कियों के लिए स्मार्ट मोबाइल फोन के साथ इंटरनेट की भी व्यवस्था की, जिनके पास कक्षाओं से जुड़ने के लिए कोई दूसरा रास्ता नहीं था. इससे कई विद्यार्थी अपनी ऑनलाइन कक्षाओं में भाग ले सके और यहां तक कि रहनुमा में बैठकर अपनी परीक्षाएं भी दीं क्योंकि उनके घरों में जहां फोन के नेटवर्क सिग्नल में परेशानी होती है वहां इंटरनेट के डंडे को ढूंढना भूंसे के ढेर में सूई ढूंढने की तरह था.

इसके अलावा रहनुमा उन विद्यार्थियों के लिए ‘एक अपनी जगह’ और अनौपचारिक शिक्षा का केंद्र बन गया है जिन्हें आर्थिक या धार्मिक कारणों से पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी या जिनकी छुड़वा दी गई. कुछ लड़कियां रहनुमा में पढ़ते हुए स्वतंत्र रूप से बोर्ड परीक्षा में भाग लेने के तैयारी भी कर रही हैं.

इस महामारी के बीच, डिजिटल इंडिया के वादे के तहत, ये सामुदायिक पुस्तकालय ही थे जिन्होंने विद्यार्थियों और डिजिटल शिक्षा के बीच पुल का काम किया.

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रोज़मर्रा की ज़िंदगी में पुस्तकालय

वाचा के पुस्तकायल में कॉलेज में पढ़ने वाली एक लड़की ने कहा, “हमारे दोस्त हमारे घरों के बहुत नज़दीक रहते हैं लेकिन हम उनसे मिल नहीं पाते. इसलिए, हम सभी यहां मिलते हैं और खूब बातें करते हैं. घर पर रहते हुए हम इतनी ज़्यादा बातें नहीं कर सकते. यहां तो मन हुआ तो हम लड़ाई भी कर लेते हैं. लगभग हम सभी अलग-अलग स्कूलों में पढ़ते हैं. शायद ही ऐसा होता है कि दो दोस्त एक ही स्कूल या एक ही क्लास में साथ पढ़ते हों.”

लेख के दौरान मैं जिन भी पुस्तकालयों में गई उनमें से टीसीएलपी के तीन ऐसे पुस्तकालय हैं जो सह-शिक्षण को बढ़ावा देते हैं. यहां लड़का और लड़की साथ बैठ सकते हैं. अन्य पुस्तकालय सिर्फ लड़कियों के लिए थे. टीसीएलपी सिकंदरपुर के पुस्तकालय में, सामूहिक परिचर्चा के दौरान लड़कों ने मुझे बताया, कि उन्हें अपनी लड़की दोस्तों के साथ यहां के अलावा कहीं और घूमने की अनुमति नहीं मिलती है. एक लड़की का दोस्त होना अच्छा नहीं माना जाता. एक बार एक लड़के के पड़ोस के अंकल ने उसे एक लड़की के साथ बातें करते देख उसे चांटा मार दिया. ऐसी परिस्थितियों में पुस्तकालय ही एकमात्र सुरक्षित स्थान होता है, जहां वे बातें कर सकते हैं, बिना इस फ़िक्र के कि कोई देख लेगा तो क्या कहेगा. वे दोस्तियां कर सकते हैं. जो अपनी बाहर की दुनिया में वे बिल्कुल नहीं कर सकते.

रहनुमा लाइब्रेरी की सदस्य इकरा ने बताया कि उसे लेकर उसके माता-पिता बहुत ज़्यादा सख्त हैं. इकरा को घर से स्कूल जाने और स्कूल से घर लौटने में 11 मिनट का समय लगता था. किसी दिन वो 11 से 12 मिनट हो गया तो दोनों उससे जवाब मांगने लगते थे कि ऐसा कैसे हो गया? इकरा के कॉलेज जाने पर भी यही स्थिति बनी रही. लेकिन रहनुमा में आने के बाद से अगर वो दो-तीन घंटे देर से भी घर लौटती है तो उससे कोई नहीं पूछता कि वो कहां थी. मैंने इकरा से पूछा कि क्या ऐसा इसलिए है क्योंकि ये लाइब्रेरी सिर्फ लड़कियों और महिलाओं के लिए है? “ऐसा नहीं हो सकता. क्योंकि मैं तो स्कूल से लेकर कॉलेज तक सिर्फ लड़कियों के स्कूल में पढ़ी हूं.” अब, इकरा भी सोच में पड़ गई कि ऐसा क्यों है!

इसका यह मतलब भी नहीं कि इन पुस्तकालयों को सभी परिवारों से बिना शर्त समर्थन हासिल है. जो आत्मविश्वास और ज्ञान लड़कियां/महिलाएं किताबों और पुस्तकालय के वातावरण से हासिल करती हैं उससे परिवार में बहुत तरह की आलोचना भी उन्हें झेलनी पड़ती है. पुस्तकालय आने वाली कई सदस्यों का कहना है कि उन्हें घरवाले कहते हैं कि जब से वे पुस्तकालय जाने लगी हैं, “बहुत बहस करने लग गई हैं”.

पुस्तकालय के प्रति विश्वास और उनकी बेटियों और पत्नियों की बदलती आवाज़ से होने वाली उनकी बेचैनी दोनों साथ-साथ चलते हैं.

व्यवस्था को सिखाना

अक्सर ‘मुफ़्त पुस्तकालय’ के पीछे एक सामान्य धारणा होती है कि फ्री होने की वजह से उसकी इज़्ज़त नहीं. आखिर कोई मुफ्त में सेवाएं कैसे दे सकता है? लेकिन, इन पुस्तकालयों के सदस्यों के लिए यह सिर्फ एक सेवा देने वाली जगह नहीं बल्कि ये उनकी अपनी जगह है जिसकी देखभाल वे किसी अपने की तरह करते हैं. वे न सिर्फ पुस्तकालय के एक उपभोक्ता हैं बल्कि अक्सर जिस समुदाय में पुस्तकालय स्थित है ये उसके बीच सेतु बनाने का काम करते हैं.

वाचा के पुस्तकालय में, लड़कियों ने गर्व से मुझे बताया कि उन्होंने स्थानीय नेता को पुस्तकालय के लिए जगह मुफ़्त में उपलब्ध करवाने के लिए पत्र लिखा था. टीसीएलपी में, इच्छुक पुस्तकालय सदस्यों को छात्र परिषद् के नेता बनने और पुस्तकालय के प्रबंधन और कामकाज में भाग लेने का अवसर मिलता है. पुस्तकालय अपने सदस्यों की हर संभव मदद करता है और उन्हें रोज़गार के विभिन्न मार्ग भी उपलब्ध करवाता है.

जिन पुस्तकालयों का मैंने ऊपर उल्लेख किया है, वे प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से स्वंय सेवी संगठनों द्वारा संचालित या लोगों की पहल से शुरू किए गए हैं. जबकि असल में उन्हें राज्य द्वारा संचालित और पोषित होना चाहिए था. यह चिंताजनक है कि जिन संस्थानों से छात्र वास्तव में पढ़ना, बोलना और व्यावसायिक, पारस्परिक कौशल सीख रहे हैं, उन्हें सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त नहीं हैं, केवल समर्थित हैं.

फ्री लाइब्रेरी नेटवर्क टीसीएलपी द्वारा बनाया गया एक प्लेटफॉर्म है जो मुफ़्त पुस्तकालयों को एक-दूसरे से जोड़ता है ताकि पुस्तकालयाध्यक्ष, कार्यकर्ता और शिक्षक एक-दूसरे से सीख सकें और हर क्षेत्र में सुलभ और न्याय संगत पुस्तकालयों के निर्माण की यात्रा में एक-दूसरे का समर्थन कर सकें.

हालांकि इस लेख में विस्तार से वर्णित सामुदायिक पुस्तकालय मुख्य रूप से शहरी क्षेत्रों में स्थित हैं. इसके साथ ही ऐसे कई ग्रामीण सामुदायिक पुस्तकालय हैं जो उन गांवों में पढ़ने की संस्कृति को विकसित कर रहे हैं जहां पुस्तकालय की कोई कल्पना नहीं थी. इनमें से एक सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन है जिसने जनवरी 2021 में बिहार के किशनगंज ज़िले में तीन पुस्तकालय (फ़ातिमा शेख, सावित्री बाई फुले और बेगम रुकैया के नाम पर) खोले. सीमांचल लाइब्रेरी फाउंडेशन के संस्थापक साकिब ने राज्य से किसी भी समर्थन की संभावना से निराश होकर कहा कि फ्री लाइब्रेरी नेटवर्क का हिस्सा होने से वह खुद को कम अकेला महसूस करते हैं.

वाचा में एक लड़की ने चर्चा के बिलकुल अंत में कहा, “अगर मुझे यह बताना है कि इस जगह ने मेरे लिए क्या किया, तो मैं कहूंगी कि मैंने आंतरिक और बाहरी रूप से खुद को पहचानना सीखा. यहां, हमने सीखा कि हम कौन हैं, लोग हमें कैसे देखते हैं और उन्हें हमें कैसे देखना चाहिए.”

इस लेख का अनुवाद दिनेश कुमार ने किया है.

जूही, शहरी अध्ययन में डिप्लोमा के साथ साहित्यिक और सांस्कृतिक अध्ययन में स्नातक की पढ़ाई पूरी कर चुकी हैं. शोध एवं संपादन में गहरी रूचि रखने वाली जूही, फिलहाल वीडियो संपादन एवं रचनात्मक लेखन के साथ-साथ खाना पकाने के कौशल को भी निखारने में निरंतर कार्यरत हैं. वे पिज़्ज़ा को कभी न नहीं कहतीं और प्रेरणा के लिए अपने बिल्ले ‘गब्बर’ के पास जाती हैं.

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