कोविड-19 और लॉकडाउन के बीच की ग़ायब कड़ी

विकलांगता अधिकारों के लिए काम करने वाली जीजा घोष ने कोविड-19 के कारण राष्ट्र स्तर पर हुए लॉकडाउन के दौरान विकलांग समुदाय के लोगों से बातचीत की. उन्होंने पाया कि इन समूहों को सभी तरह की नीतिगत बहस और फैसलों से बाहर रखा गया है.

कोविड-19 और लॉकडाउन
चित्रांकन: मंदीप सिंह मनु, अमृतसर

दिल्ली की एक 35 वर्षीय महिला ने कहा : “मेरे कुछ दोस्तों ने मुझे बताया कि सब बंद है. मुझे पता ही नहीं था समस्या क्या थी, बाद में आई एस एच न्यूज़ (बहरे लोगों के लिए न्यूज़ चैनल) से जानकारी मिली. मुझे बोला गया मैं घर पर ही रहूं…उन्होंने कहा कि अगर तुम बाहर गईं तो मर जाओगी.”

लॉकडाउन में इस समुदाय के बहुत से लोगों ने अचानक अपने आप को मुश्किल में पाया. भ्रामकता के शुरुआती दिनों में, सूचना अधिकारों के बारे में, ख़ासकर संवेदित क्षतित (sensory impairments) लोगों के सूचना अधिकारों के बारे में किसी को याद नहीं रहा. सामाजिक विचारकों के अनुसार कोविड-19 ने एक प्रकार की समानता और समता प्रदान की है. एक नज़र में ऐसा लगता है कि इस महामारी ने सबको समान रूप से प्रभावित किया है’ लेकिन हक़ीक़त कुछ और ही है.

हालांकि, मैं इसे एक ऐसी आंधी की तरह देखती हूं जिसने निसंदेह वैश्विक स्तर पर लोगों की ज़िंदगी और ज़िंदगी जीने के तरीकों कोको अपनी चपेट में लिया, लेकिन इससे हुई बर्बादी को सभी के लिए बराबर का नहीं माना जा सकता.

हमेशा की तरह, हाशिए पर रहने वाली जनता का संकट ख़ासतौर पर बढ़ गया है. प्रवासी मज़दूरों के अलावा, एल जी बी टी क्यू समुदाय, विकलांग जन, और सेक्स वर्कर्स भी इसमें शामिल हैं. विकलांगता के अनुभव एक समान नहीं होते. अलग-अलग विकलांगताओं की शारीरिक, मानसिक व इन्द्रियों से संबंधित खास समस्याएं होती हैं. यहां तक कि दो लोग जिन्हें एक ही तरह की विकलांगता है, उनकी सहायता की आवश्यकताएं भी अलग-अलग होती हैं.

जानकारी का अभाव

24 मार्च 2020 को जब अखिल भारतीय स्तर के लॉकडाउन को सिर्फ चार घंटो में लागू करने की घोषणा हुई तो सभी लोग घबराहट, चिंता और भ्रम की स्थिति में पड़ गए. अचानक अलग-थलग और अकेले पड़ जाने से विकलांग वर्ग की मुश्किलें और भी गहरी हो गईं. राइज़िंग फ्लेम और साइटसेवर नामक संस्थाओं द्वारा किए गए अध्ययन में पाया गया कि वे महिलाएं जिन्हें अंधेपन, अंधे-बहरेपन व कम सुनाई देने की समस्याएं हैं, उन्हें काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. जानकारी, स्वास्थ सेवाएं, रहने की जगह, भोजन, डिजिटल शिक्षा आदि सभी आवश्यक सेवाओं के बारे में जानकारी प्राप्त करने और उन इन तक पहुंच बनाने में अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा.

बहरे लोगों को संवाद के लिए होठों को पढ़ना होता है. ऐसे में मास्क पहनना अनिवार्य हो जाने से उन्हें भी आवश्यक सेवाओं को प्राप्त करने में कई समस्याएं आईं.

वहीं अंधे लोगों के लिए आरोग्य सेतु जैसी मोबाइल एप्लिकेशनस के यूज़र फ्रेंडली न होने के कारण समय पर जानकारी पाना कठिन रहा.

संवेदी क्षतिग्रस्त लोगों को भी सूचना का अभाव रहा. विकलांग लोगों की एक संस्था के प्रमुख ने बताया कि गांवों में हालात और भी बुरे रहे क्योंकि असाक्षरता जानकारी के अभाव को और बढ़ा देती है. मार्च 2020 में दिव्यांगजन सशक्तिकरण विभाग ने यह विश्वास दिलाया था कि कोविड-19 संबंधित सभी जानकारी सांकेतिक भाषा, ब्रेल, ऑडियो और वीडियो में सबटाइटल्स के साथ सभी विकलांग लोगो को उपलब्ध कराई जाएंगी. यह गृह मंत्रालय द्वारा कोविड-19 के लिए दिए गए दिशा-निर्देशों में दोहराया भी गया था. विकलांग व्यक्तियों के अधिकारों की धारा 8, (2016) इन स्थितियों में विकलांग व्यक्तियों के लिए समान सुरक्षा की गारंटी भी देती है. यह डिज़ास्टर मैनेजमेंट अथॉरिटीज को डिस्ट्रिक्ट / स्टेट / नेशनल लेवल पर डिजास्टर मैनेजमेंट एक्टिविटीज़ में विकलांग व्यक्तियों को शामिल करने के उपाय करने और उन्हें इनके बारे में कानूनी तौर पर जानकारी रखने के लिए अनिवार्य करता है.

हालांकि, विकलांगता राज्यों के अधीन विषय बना रहा. राज्यों का भीतरी मामला होने के कारण विकलांगता के संबंध में जो दिशानिर्देश जारी किए गए थे उनका पालन पूरे देश में नहीं हुआ. कोविद-19 की जानकारी में सांकेतिक भाषा का समावेश केवल तीन राज्यों- नागालैंड, केरल और तमिलनाडु में किया गया था. विभिन्न सरकारी नीतियों के तहत हक़ सुरक्षित होने के बावजूद लॉकडाउन के दौरान ज़्यादातर राज्यों में विकलांग लोगों तक सूचना व अन्य सेवाएं पहुंचाने का कार्य बेहद ढीला-ढाला या फिर असफल रहा.

सोशल डिस्टेंसिंग

सामाजिक दूरी बनाए रखना विकलांग लोगों के लिए काफी कठिन साबित हुआ.

अंधे व अंधे-बहरे लोगों के लिए स्पर्श उनके घर से बाहर जाने, बातचीत करने और जानकारी पाने के लिए बहुत आवश्यक होता है.

ऐसे ही जो लोग चल फिर नहीं सकते उनके लिए भी यह जीने का सवाल है. जो लोग ए डी एल के लिए और दूसरे लोगों की सहायता पर निर्भर होते हैं उनके लिए सामाजिक दूरी रख पाना बिलकुल असंभव है. इन सभी लोगों के लिए घर से बाहर अनजान लोगों की मदद बहुत काम आती है. ऐसे में सोशल डिस्टेंसिंग के कारण सड़क पर मिलने वाली मदद पर ख़ास असर पड़ा है :

“मैं राशन ख़रीदने गई थी और मेरी बैसाखी फिसल जाने की वजह से मैं गिर गई. आम तौर पर ऐसा कुछ होने पर कोई न कोई आ कर मेरी मदद कर ही देता था, पर उस दिन कोई नहीं आया. मैंने दुकानदार को जब अपने बैग में से सैनिटाइज़र निकाल कर दिया तभी उस ने मुझे उठने में मदद की.”

अकेले सफ़र करते वक़्त भी विकलांग लोगों को अजनबियों से मदद लेनी पड़ती है. ऐसे में सामाजिक दूरी का नियम दोनों, मदद करने वाले और लेने वालों को दुविधा में डाल देता है. सहकर्मियों और दोस्तों से दूरी और अकेलापन लोगों को तनाव में भी डाल देता है.

एक थोड़े अंधे-बहरे क्वियर आदमी ने बताया:

“मेरे माता-पिता को मेरी क्वियर पहचान के बारे में नहीं पता है. मैं अपनी पीड़ा उनके साथ नहीं बांट पाता और घर की चार दीवारों में अपने आप को कैद महसूस करता हूं.”.

दवाइयां और चिकित्सा

कुछ विकलांग लोगों को मल्टीपल स्केलेरोसिस (एमएस), मिर्गी, और रक्त संबंधी समस्याएं भी होती हैं. ऐसे लोग लॉकडाउन के कारण ज़रुरत की दवाइयां व अन्य स्वास्थय सेवाओं तक नहीं पहुंच पाए. रक्त दाताओं और अस्पतालों तक पहुंचना मुश्किल हो गया. एमएस के साथ लोगों ने अपनी शारीरिक स्थिति में गिरावट का अनुभव किया. वे आवश्यक चिकित्सा प्राप्त करने में सक्षम नहीं थे. एक 40 वर्षीय महिला ने बताया:

“मुझे इन दिनों थकावट और उनींदापन रहा और कुछ समय के लिए आंखों के आगे अंधेरा सा छा जाता था … मैं अपनी मुख्य चिकित्सा – क्रानियोसेराल थेरेपी और फिजियोथेरेपी – लॉकडाउन की वजह से प्राप्त करने में असमर्थ हूं.”

यह मिर्गी-रोधी दवाएं लेने वाले लोगों के लिए भी उतना ही ख़तरनाक था. अचानक लॉकडाउन ने लोगों को दवाइयों के स्टॉक के बिना छोड़ दिया था. लॉकडाउन के दौरान, कई दवा की दुकानों ने डॉक्टर का पर्चा मांगा, जो उन्हें नहीं मिले. सेरेब्रल पाल्सी वाले व्यक्तियों के लिए काम करने वाले एक संगठन (जो विशेषाधिकार प्राप्त पृष्ठभूमि से छात्रों को मिर्गी-रोधी दवाएं प्रदान करते हैं) ने कोलकाता के विभिन्न इलाकों और मलिन बस्तियों में दवाओं के वितरित कीं.

भोजन और आवश्यकताएं

लॉकडाउन में देश भर में खाद्य संकट और गहरा गया. विकलांग वर्ग इस संकट से गंभीर रूप से प्रभावित हुआ. शहरी और ग्रामीण दोनों क्षेत्रों में संकट देखा गया. यह संकट, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय और केंद्र सरकार के तहत विकलांग व्यक्तियों के विभाग द्वारा दिए गए विकलांगता समावेशी जनादेश के बावजूद है. विकलांग व्यक्तियों को आवश्यक भोजन, पानी, दवा और संभव हद तक, सभी ऐसी वस्तुओं तक पहुंचा दी जानी चाहिए जो उनके लिए आवश्यक हैं. यह सब उनके निवास या उस स्थान पर वितरित किया जाना चाहिए जहां वे संगरोध (Quarantine) किए गए हैं. पर जो वास्तविकता सामने आई वह अलग थी. मथिवानन, चेन्नई के एक विकलांग व्यक्ति ने 10 दिनों तक भोजन खोजने का संघर्ष किया:

“अम्मा उनवगम से लेकर गैर-सरकारी संगठन तक पके हुए भोजन और आपूर्ति की मदद के लिए मैंने सभी संभव विकल्पों की कोशिश की. कुछ संगठनों ने मुझे बताया कि हमारे लिए पर्याप्त प्रावधान नहीं हैं. कन्नगी नगर में हम 150 लोग विकलांग हैं. ”

ऑनलाइन डिलीवरी हमेशा विकलांग व्यक्तियों के लिए एक उपयोगी विकल्प नहीं है. ऑनलाइन एप्लिकेशन ज़्यादातर अंधे व्यक्तियों को ध्यान में रख कर नहीं बनाए जाते. इसके अलावा, भौतिक तौर से विकलांग लोगों के लिए सामान को अपने घरों में वापस ले जाना एक मुश्किल काम साबित हुआ.

गाज़ियाबाद की एक 54 वर्षीय विकलांग महिला ने कहा:

“ऑनलाइन स्टोर के लोगों ने मेरी सोसायटी के गेट पर किराने का सामान छोड़ दिया. मैं 5 किलोग्राम नहीं उठा सकती, तो मैंने उनसे सामान अंदर लाने का अनुरोध किया. उन्होंने मना कर दिया … मजबूरन मैंने ही वो उठाया और फिर पूरी रात दर्द में बिताई.”

सामाजिक सुरक्षा

अप्रैल की शुरुआत में, केंद्र सरकार ने विकलांग व्यक्तियों के लिए राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम की इंदिरा गांधी राष्ट्रीय विकलांगता योजना के तहत तीन महीने की अग्रिम पेंशन जैसे विभिन्न उपायों के साथ Rs.1000 रू अतिरिक्त समर्थन की घोषणा की. इसका भुगतान तीन महीनो में दो किस्तों में किया जाना होता है. केंद्रीय दिशा-निर्देशों और प्रतिबद्धताओं के बावजूद, ख़ासतौर से विकलांगता समावेशी दिशानिर्देशों में दिए गए कई सामाजिक सुरक्षा और राहत के उपाय, अभी भी विकलांग व्यक्तियों के लिए एक दूर की हक़ीक़त बनी हुई है. ख़ासकर विकलांग महिलाओं के लिए.

इन योजनाओं का लाभ उठाने के लिए पूरे देश में विकलांग व्यक्तियों के मिले-जुले अनुभव थे. राइज़िंगफ्लेम एंड साइटसेवर्स द्वारा किए गए अध्ययन में पाया गया कि पेंशन आदायगी में राज्यवार (state wise) असमानता थी. यह पता चलता है कि:

असम: अप्रैल में 30 वर्षीय महिला प्रतिभागी को अप्रैल में अग्रिम पेंशन (1000 रु प्रति माह) मिली. लेकिन उसे मई महीने की पेंशन नहीं मिली थी.

राजस्थान: पेंशन सामान्य रूप से बहुत अनिश्चित थी. बीकानेर की लोकोमोटर विकलांगता वाली एक महिला ने बताया :

“कि हर अप्रैल में विकलांग व्यक्तियों को अधिकारियों को अपने जीवित होने का प्रमाण देना पड़ता है, जो लॉकडाउन और परिवहन की कमी के कारण नहीं हो सका. इसलिए उस समय तक पेंशन बंदकर दी गई थी, सार्वजनिक परिवहन बंद होने के कारण उसका एकमात्र विकल्प बैंक तक 3 किलोमीटर चलना था, यही वजह है कि वह राशि उन तक नहीं पहुंच पाई.”

शिक्षा

लॉकडाउन में ऑनलाइन कक्षाएं ज़ोर-शोर से चालू हुई हैं. विद्यार्थी और शिक्षक दोनों ही ऑनलाइन पढ़ाई के तरीके सीख रहे हैं. हालांकि, कुछ विकलांग व्यक्तियों के लिए इस डिजिटल प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल कर पाना बहुत कठिन था. दिल्ली विश्वविद्यालय के बधिर छात्र ने बिना किसी संकेत भाषा के व्याख्याता के साथ खुद को पाया:

“ऑनलाइन कक्षाओं में शिक्षक सहित अधिकांश लोग अपने वीडियो को बंद रखना पसंद करते हैं. इससे होंठ पढ़ने की गुंजाईश ख़त्म हो जाती है. चर्चाओं को याद करने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प नहीं है. मुझे बाद में अपने सहपाठियों से अपडेट के लिए पूछना पड़ता है.

ऑनलाइन कक्षा नेत्रहीनों के लिए समान रूप से कठिन है क्योंकि इनमें से अधिकांश प्लेटफ़ॉर्म, स्क्रीन पाठकों के हिसाब से नहीं बने होते हैं. इसके अलावा, अधिकांश – जो काम किया जाता है वह असाइनमेंट पीडीएफ फॉर्मेट में स्कैन किए जाते हैं, जिसके कारण, एक नेत्रहीन व्यक्ति को उन्हें पढ़ने के लिए किसी और की मदद लेनी पड़ती है.

इस तरह की निराशा के बीच, एक आशा की किरण भी दिखाई दी एक ऑटिज़्म से पीड़ित 13 वर्षीय लड़के की मां द्वारा साझा किया गया:

“जब लॉकडाउन की घोषणा की गई थी, तो पहला विचार था कि ये सब जानकर मेरे बेटे की क्या प्रतिक्रिया होगी. ऑटिज़्म से पीड़ित व्यक्ति ज़्यादा बदलाव पसंद नहीं करते हैं. वे अपनी दिनचर्या का कड़ाई से पालन करना पसंद करते हैं, यह मेरी जैसी माताओं के लिए सामान्य ज्ञान है. उन्हीं दिनों मेरे बेटे के स्कूल ऑटिज़्म सोसाइटी पश्चिम बंगाल (एएसडब्ल्यूबी) की दक्षिण इकाई ने अपने विशेष शिक्षकों को सभी माता-पिता के पास पहुंचाया. लगभग रात भर, शिक्षकों ने कोरोना वायरस से जुड़ी सामाजिक कहानियों को तैयार किया; लॉकडाउन का मतलब ; घर पर पालन करने के लिए सुरक्षा नियम बताए इन सामाजिक कहानियों को व्हाट्सएप के माध्यम से भेजा गया. लॉकडाउन और इसके संभावित प्रभाव को समझाने के लिए वीडियो और वॉयस मैसेज का इस्तेमाल किया गया. उन्होंने हमें छात्रों के लिए नए व्यक्तिगत कार्यक्रम बनाने के लिए निर्देश दिए, ताकि उन्हें वे इस परिवर्तन के लिए तैयार करने में और अपनी नयी दिनचर्या का पालन करने में मदद मिल सके.

कोविड - 19 और हिंसा

महामारी के चलते आर्थिक तनाव और आय मे हुई कमी से डर और तनाव का माहौल, परिवार में हिंसा और कलह के रुप मे उभरा. अपनी सामान्य दिनचर्या में घर से बाहर जाना प्रमुख था, न कर पाने के कारण, जो लोग बौद्धिक और मानसिक विकलांगता से प्रभावित थे, तनाव के चलते काफ़ी गुस्सा करने लगे. यहां तक कि आक्रामक बन गए चूंकि परिवार में लोग एक-दूसरे के साथ सीमित थे, इसलिए इसने हिंसा होने की स्थिति को पैदा किया. जहां विकलांग व्यक्ति दुर्व्यवहार और अपमान करने वाले दोनों ही थे. उदाहरण के लिए, एक कॉलेज जाने वाली लड़की को अपने बौद्धिक अक्षमता वाले भाई की क्रूरता से बचने के लिए राज्य महिला आयोग से सहायता लेनी पड़ी.

इसके अलावा, देखभाल करने वालों की अनुपस्थिति में देखभाल का बोझ परिवार, विशेष रूप से माओं पर पड़ गया.

राजनीतिक दृष्टिकोण

कोविड-19 और लॉकडाउन का विकलांग समुदाय पर क्या असर रहा ये चर्चा नीतिगत तथा राजनीतिक प्रभाव को जाने बिना अधूरी है. भारत सरकार ने लॉकडाउन में विभिन्न क्षेत्रों पर वित्तीय बोझ को कम करने के लिए मामूली अपराधों को माफ़ कर देने का प्रस्ताव दिया. परिणामस्वरूप, विकलांग व्यक्तियों के सशक्तीकरण विभाग ने एक अधिनियम जारी किया. इस अधिनियम में विकलांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम 2016 के अधीन दंड प्रावधानों को कमज़ोर करने का प्रस्ताव रखा गया. इस प्रस्ताव का विकलांगता अधिकार क्षेत्र से बड़े पैमाने पर विरोध किया गया, जिसने सरकार को प्रस्तावित संशोधन वापस लेने के लिए मजबूर किया.

व्यक्तिगत अनुभव

लॉकडाउन ने पिछले कुछ महीनों से सब उथल-पुथल कर दिया है. जब मैं यह लेख लिख रही थी, मैंने लोगों के और अपने अनुभवों को एक जैसा पाया. आर्थिक अनिश्चितता, काम, यात्रा और सामाजिक जीवन में आए बदलाव ने मुझे दहशत और भावनात्मक अस्थिरता में डाल दिया. सौभाग्य से, संकट के इस समय में मुझे संभालने के लिए लोग थे. मैंने अपना मन हल्का करने के लिए कुछ पंक्तियां लिखीं:
बुलबुले, बाढ़ के पानी में
रेंगते और छुपते-छुपाते,
उठे वो धीरे-धीरे
मानव को निगल जाने के लिए.

साभार:

उन विकलांग व्यक्तियों, उनके माता-पिता और पेशेवरों का शुक्रिया जिन्होंने अपने अनुभव मेरे साथ साझा किए.
संदर्भ:

राइज़िंग फ्लेम्स एंड साइटसेवर्स

नेगलेक्टेड एंड फॉरगौटन: विमेन विद डिसएबिलिटीज़ डियूरिंग द कोविड क्राइसिस इन इंडिया

पर्सन्स विद डिसएबिलिटीज़ बियर द बर्नट ऑफ कोरोना वाइरस लॉकडाउन
https://thefederal.com/states/south/tamil-nadu/persons-with-disabilities-bear-the-brunt-of-coronavirus-lockdown/

ए हार्ट ऑफ गोल्ड, आइरन ग्रिट: मार्जनलाइज़्ड टर्न्स सेवियर्स ड्यूरिंग लॉकडाउन
https://thefederal.com/features/a-heart-of-gold-and-iron-grit-marginalised-turn-saviours-during-lockdown/

घोष एन: फेकटरिंग डिसएबिलिटीज़
https://www.thehindu.com/opinion/open-page/factoring-in-disabilities/article31710301.ece

जीजा घोष का जन्म सेरेब्रल पाल्सी के साथ हुआ. एक ऐसी अवस्था जो गर्भावस्था के दौरान या जन्म के समय बच्चे के दिमाग को ऑक्सीजन न मिलने की वजह से उत्पन्न होती है. उन्होंने अपनी स्कूल की पढ़ाई इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ सेरेब्रल पाल्सी और ला मार्टिनियर फॉर गर्ल्स, कलकत्ता से पूरी की. उन्होंने प्रेसीडेंसी कॉलेज से समाजशास्त्र में बी.ए. किया और दिल्ली स्कूल ऑफ सोशल वर्क, दिल्ली विश्वविद्यालय से एमएसडब्ल्यू (मास्टर ऑफ सोशल वर्क) किया. 2006 में उन्होंने अपनी दूसरी मास्टर्स डिग्री डिसएबिलिटी स्टडीज़ में लीड्स विश्वविद्यालय, यू.के से हासिल की.

जीजा सामाजिक क्षेत्र में दो दशकों से अधिक समय से सक्रिय हैं. वे डिसएबल्ड पीपल्स मूवमेंट का हिस्सा रही हैं, जिसके अंतर्गत उनकी ख़ास रुचि विकलांग औरतों में रही है. जीजा ने 2018 तक कलकत्ता के इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ सेरेबरल पाल्सी में ऍडवोकेसी एंड डिसएबिलिटी स्टडीज़ की प्रमुख के रूप में कार्य किया है. फिलहाल वे मुख्यत: प्रशिक्षण और अनुसंधान के क्षेत्र में जेंडर और विकलांगता पर स्वतंत्र परामर्शदाता हैं.

मंदीप सिंह मनु का जन्म अमृतसर में 1981 में हुआ था. बचपन से ही उन्हें सेरेब्रल पाल्सी है. उनकी कार्यप्रणाली का केंद्र डिजिटल प्रिंट के रूप में चिंतन और अवधारणाओं की खोज-बीन है. उन्होंने इंदिरा गांधी ओपन यूनिवर्सिटी से बी.ए. किया और पंजाब टेक्निकल यूनिवर्सिटी से एम.ए.

पोलैंड, लिथुऐनिया, ईरान और ब्राज़ील में बाइएनीअल और ट्राइएनीअल प्रदर्शनियों समेत उन्होंने 15 देशों से अधिक में कई अंतर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में भाग लिया है. उनका काम तीन पीएचडी का विषय है.

इस लेख का अनुवाद अपूर्वा सैनी ने किया है।

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