क्या आपको वह आखिरी फिल्म याद है जिसे आपने देखा था? आपके द्वारा देखी गई वह कौन-सी अंतिम फिल्म थी जिसका निर्देशन किसी महिला ने किया था? अगर आप बॉलीवुड के दिलकश मुरीद हैं, तब भी हो सकता है किसी एक फिल्म को इस तरह याद करना आपके लिए मुश्किल हो. इसमें आपकी कोई गलती नहीं है.
साल 2019 में बनी 122 फिल्मों में महज़ 14 फिल्में ही ऐसी थीं जिनका निर्देशन महिलाओं ने किया था. आखिर क्यों इतनी कम महिलाएं हैं जो फिल्मों का निर्देशन कर रही हैं? और क्यों यह ज़रूरी है कि ज़्यादा से ज़्यादा महिलाएं फिल्मों के ज़रिए अपनी कहानियां सामने लाएं.
मैंने अपनी किताब ‘एफ-रेटेड: बीइंग ए वुमन फिल्ममेकर इन इंडिया’ में इन सवालों की तह में जाने की कोशिश की है. मेरा मकसद था कि मैं पहले इन सवालों का जवाब भारतीय फिल्म उद्योग में अपनी हैसियत बनाने वाली चंद महिलाओं के किस्से-कहानियों को सावधानी से सुनते हुए खोजूं.
मेरी किताब में उन फिल्मकारों के बारे में बात की गई है जिन्होंने महिला केंद्रित फिल्में बनाई हैं. उन्होंने ऐसी फिल्में किसी राजनीतिक दृष्टि या किसी एजेंडे से प्रभावित होकर नहीं बनाईं. उन्होंने ऐसी फिल्में केवल इसलिए बनाईं क्योंकि वे महिलाओं के अपने अनुभवों से कहानी को रचने में ज़्यादा सहज महसूस कर सकीं.
वे महिलाओं के बारे में लिखने लगीं क्योंकि उनमें अपने रचे किरदारों के साथ जुड़कर दुनिया के समंदर को खेने का अनुभव था. उन्होंने अपने आस-पास मौजूद दुनिया के जीवित लोगों को किरदारों के रूप में ढाल दिया. मगर अभी भी आम धारणा बनी हुई है कि सिनेमाघरों में फिल्म देखने वाले अधिकतर पुरुष होते हैं, इसलिए यह मान लिया जाता है कि वे ऐसी फिल्में ही देखना चाहते हैं जिनके नायक पुरुष हों.
मेरी किताब महिला फिल्मकार तनुजा चंद्रा और मेघना गुलजार के अनुभवों पर भी बात करती है. वे बताती हैं कि 1990 के दशक और 2000 के बाद के शुरूआती सालों में बतौर निर्देशक महिला प्रधान फिल्म बनाना कितना मुश्किल था. इन मुश्किलों में कई ऐसे समझौते शामिल थे जिन्हें महिला फिल्मकारों को करना पड़ता था, मसलन पुरुष नायक के लिए एक भारी-भरकम भूमिका लिखना, रोमांटिक अंदाज़ में कहानी की बुनावट, नायिका या महिला किरदार की अहमियत को नज़रंदाज़ करना और बार-बार इस बात की पुष्टि करना कि फिल्म नायिका प्रधान अथवा नायिका केन्द्रित नहीं बन सके. इन सबके बावजूद छोटे बजट में फिल्म का निर्माण करना क्योंकि बॉक्स ऑफिस पर कामयाबी की कोई गारंटी नहीं.
‘महिलाओं को केंद्र में स्थापित करने’ की जद्दोजहद में लगी फिल्मकार
ऐसा क्यों है कि हम मान बैठे हैं कि धरती की आधी आबादी मानी जाने वाली महिलाओं की कहानियां सार्वभौम न होकर महिला-प्रोत्साहन और महिला केंद्रीकरण के रूप में ही देखी जाती हैं? इस सवाल का कोई सरल जवाब नहीं है.
ऐतिहासिक तौर पर साहित्य और सिनेमा के क्षेत्रों में पुरुष लेखकों और निर्देशकों का ही प्रभुत्व रहा है. वे ज़्यादातर पुरुषवादी नज़रिए से ही अपनी कृतियों की रचना करते रहे हैं. नतीजतन पुरुष किरदार ही हमारा केंद्रीय बिंदु बन जाता है और इस किरदार की निगाहें ही हमारी निगाह बन जाती है. उसकी दुनिया हमारी दुनिया हो जाती है.
जब कैमरा एक पुरुष की निगाह पर ठहरता है, तब वहां मौजूद महिला किरदार एक अति-लैंगिक ‘स्टॉक-कैरेक्टर’ (रुढ़ चरित्र) के रूप में पेश की जाती है. उसका काम ही फिल्म के निर्धारित चरित्रांकन की ज़रूरतों को पूरा करना होता है. वहां विरले ही एक महिला विविध मनोभावों को जीने वाली पात्र के रूप में पेश की जाती है.
इसके ठीक विपरीत ऐसी महिला फिल्मकार हैं जिनके किरदार मानवीय गतिविधियों और जज़्बातों के एक बड़े फलक पर जीते हैं. दूसरे शब्दों में कहें, तो ये ऐसे पात्रों को गढ़तीं हैं जो पूरी तरह इंसानी हैं, न कि कार्डबोर्ड पर चिपकाए गए कटआउट.
हमें साफ-साफ समझना होगा कि एक ‘जटिल’ और ‘मज़बूत’ महिला चरित्र - एक नहीं होते, न ही उनके मायने एक होते हैं . ‘जटिल’’ किरदार अच्छे, साधारण या बुरे तक हो सकते हैं.
निर्देशकों के रूप में मां
जब मैंने हिंदुस्तान में महिला फिल्मकारों के बारे में किताब लिखने की शुरूआत की, तब मुझे अंदाज़ा नहीं था कि यह किताब कामकाजी महिलाओं के बारे में भी एक दस्तावेज़ बन जाएगी. इस किताब को लिखकर मेरी कई धारणाएं टूटीं और बदलीं. जिनमें कलाकार और मां को अलग-अलग खानों में रखकर देखने की अभ्यस्तता शामिल है.
मैंने जिन 11 महिला फिल्मकारों के बारे में लिखा, उनमें 8 माएं हैं. सबसे पहले तो मैं अपनी कुछ पसंदीदा निर्देशकों के विषय में जानकर चकित हुई जो ‘अभिभावक’ के तौर पर अपनी ज़द्दोजहद और संघर्षों की विस्तार से चर्चा कर रही थीं. उनका काम करने का तरीका – उन मिथकों से जुड़ाव नहीं रखता था जिन्हें मैंने अपने दिमाग में गढ़ लिया था.
मेरे दिमाग में गहराई से बैठा हुआ था कि एक कलाकार को दुनियादारी से अलहदा होना चाहिए. जब आप मां हैं, तब आप कला-कर्म और उसके धर्म का निर्वाह नहीं कर सकते. अपने कला-कर्म को अपने बच्चे की जरूरतों के इर्द-गिर्द ही घूमने दीजिए. अगर आप एक ख़ास तरह के एकांत की चाहत रखती हैं, तब आपको, उस वक्त जगना पड़ेगा जब आपका शिशु सोया हुआ है. देर रात या सुबह के वक्त का इस्तेमाल पटकथा को लिखने में करना होगा. जब आपको कहीं बाहर जाकर फिल्मांकन करना हो और उस प्रक्रिया में दिन, रात और सप्ताह के अंतर धुंधले हो जाने वाले हों, तब आपको अपने परिवारजनों और मित्रों की मदद लेनी पड़ती है.
मैं जानती हूं एक महिला को फ़िल्म बनाने के लिए एक पूरे कुनबे, आस-पड़ोस यहां तक कि एक पूरे गांव तक की ज़रूरत होती है. पुरुषों को भी इस काम में भारी भरकम सहयोग की ज़रूरत होती है, लेकिन आप किसी पुरुष को ऐसी बात कहते नहीं सुनेंगे.
मैंने कल्पना तक नहीं की थी कि मेरी पसंदीदा फिल्मकार मीरा नायर की बहुप्रशंसित फिल्मों में एक ‘मॉनसून वेडिंग’ का ‘होम-वीडियो-शॉट’ तब तय किया गया था जब उनके बेटे के स्कूल की छुट्टी थी.
मेरे दिमाग में यह तस्वीर आ ही नहीं सकती थी कि कैसे मशहूर निर्देशक अपर्णा सेन को अपनी पहली फिल्म ‘36 चौरंगी लेन’ के निर्माण के दौरान अपनी दो साल की बेटी (जी हां, मशहूर अदाकारा कोंकणा सेन शर्मा) को खाना खिलाने के लिए दुलारने-पुचकारने का काम भी करना पड़ता था और उसी वक्त अपने कैमरामैन से ‘शॉट्स’ के बारे में भी बात करनी पड़ती थी. मुझे फिल्मकार शोनाली बोस ने बताया कि कैसे उन्होंने एक फिल्म का निर्देशन उस वक़्त किया, जब उनका बेटा महज छह सप्ताह का था.
इन सभी महिलाओं ने स्वीकार किया कि वे माता-पिताओं, सगे-संबंधियों, पतियों और मित्रों समेत विभिन्न लोगों के मज़बूत सामाजिक सहयोग के बिना अपनी फिल्में बना नहीं सकती थीं. इनमें से कुछ को भारी तनख्वाह पर देखभाल करने वाली अन्य महिलाओं की सेवा तक लेनी पड़ी.
महिलाओं को किसी फिल्म प्रोजेक्ट को अपने हाथों में लेने से पहले अनेक तरह के आकलन करने पड़ते हैं ताकि उनकी ‘देखभाल करने वाली’ भूमिकाओं तथा ‘पेशेवर’ कार्य के बीच संतुलन बना रहे. दूसरी तरफ पुरुष ज़्यादा ‘पेशेवर’' और ‘निपुण’ दिख सकते हैं क्योंकि उन्हें मातृत्व-संबंधी भूमिकाओं का निर्वाह नहीं करना पड़ता.
महिला फिल्मकारों ने पेशेवर/कामकाजी महिला के ग्लानि-बोध के बारे में भी बात की. उदाहरण के लिए मेरी किताब के इस अंश पर नज़र डालिए:
‘‘मशहूर फिल्मकार नंदिता दास लगातार चलती रहने वाली उस कशमकश को स्वर देती हैं जिससे पेशेवर माओं को टकराना पड़ता है. ग्लानि-बोध की यह दोधारी तलवार इन महिलाओं को यह महसूस करने के लिए विवश करती है कि वे हमेशा ही कार्यस्थल, घर या इन दोनों जगहों पर अपनी भूमिका के निर्वाह में पीछे रह जाती हैं.
हमारा समाज भी इस ग्लानि-बोध को गहराने देता है. वह हमेशा संदेश देता है कि अगर एक महिला कारगर तरीके से अपने जीवन का संचालन और प्रबंधन करती है, तो वह सब कुछ हासिल कर सकती है. मगर यह संदेश समाज के उन ढांचों पर गहरा पर्दा डाल देता है जो महिलाओं के खिलाफ खड़े हैं.
सच तो यह है कि कोई भी महिला जो काम और मातृत्व के बीच संतुलन बनाने की कोशिश में लगी रहती है, उसे कामयाबियों और सुकून के लम्हों के साथ-साथ बहुतेरे समझौते और खो गए अवसरों का दंश झेलना पडता है.
…नंदिता दास कहती हैं, ‘‘अगर मुझे एक खुशदिल मां बनना ही है, तो पहले मुझे खुशदिल इंसान बनना होगा. खुशी तो उस काम को करने से आती है जो मेरी खुद की ज़िंदगी को मुकम्मल मकसद के मायने देती है.’’ यह एक पटकथा लिखने जैसी कोई चीज़ हो सकती है.
नंदिता ने उर्दू अदब के मशहूर किस्सागो सआदत हसन मंटो की ज़िंदगी पर एक ‘पीरियड फिल्म’ बनाने के लिए अपनी दूसरी पटकथा पर लंबे समय तक काम किया… नंदिता बताती हैं, ‘‘हर कोई कहता रहा कि आप अभी तक लिख ही रही हो! मगर, यक़ीन कीजिए… घर पर बैठे रहना और काम करना.
हाल तक मेरा बेटा दोपहर साढ़े बारह बजे स्कूल से लौटता रहा. सुबह का वक्त केवल ई-मेलों के जवाब में गुज़र जाता था. जब लिखने का वक्त आता, तब तक स्कूल से बेटे के लौटने का वक्त भी हो जाता. घर आने के बाद वह मुझे कुछ सुंदर चीज़ दिखाने या मेरे साथ खेलने की चाह रखता. स्वाभाविक ही है कि मैं भी वह सब करना चाहती. क्या मैंने अफसोस या ग्लानि की अनुभूति की? जरूर की, मगर मैं अपनी ज़िंदगी में इस बदलाव के मुहाने पर थी कि कैसे इस आत्मग्लानि या अपराध की भावना को ख़ुशी में बदल सकूं.’ (नंदिता दास, ‘द एक्टिविस्ट फिल्ममेकर’, पृष्ठ संख्या 175-176)
इसी तरह अव्वल दर्जे की कोरियोग्राफर और ‘ओम शांति ओम’ तथा ‘हैप्पी न्यू ईयर’ जैसी फिल्मों की निर्देशक फराह ख़ान याद करती हैं कि उन्हें एक वज़नी रकम के विज्ञापन की पेशकश को छोड़ना पड़ा क्योंकि वह उनके बेटे के स्कूल के सालाना उत्सव से टकरा रहा था.
वह हमेशा ही इस सवाल से जूझती हैं कि क्या वह अपने तीन बच्चों – ज़ार, दीवा और अन्या को भरपूर समय दे रही हैं. जब फराह लंबे समय के लिए बाहर जाती हैं तो उन्हें बच्चों को घर पर छोड़ना अच्छा नहीं लगता. मगर उन्हें बच्चों को फिल्म शूट की जगहों पर साथ-साथ ले जाना भी नहीं जंचता. वह इसे ‘दोहरी ज़िम्मेवारी’’ बताते हुए कहती हैं कि ‘‘ आपको एक निर्देशक के तौर पर सैंकड़ों चीज़ों के बारे में चिंता करनी है, लेकिन साथ ही आपको इस बात से भी बेचैन होना पड़ता है कि बच्चे सही समय पर अच्छे से खाना खा पाए हैं या नहीं’’.
महिला निर्देशक: अदम्य वेग और अडिग साहस की हस्तियां
आज जब नेतृत्व के महिलावादी प्रतिमान अथवा मॉडल के रूप में ‘ममता’ के गुणों को वैधता दिलाना काफी दिलचस्प हो गया है, तो हमें इससे जुड़े जोखिम को भी समझना होगा. हमें समझना होगा कि इस तरह की सोच केवल और केवल सांस्कृतिक तौर पर मान्यता प्राप्त उस मॉडल को ही बरकरार रखने का काम करती है जहां माना जाता है कि नेतृत्वकारी महिलाओं को ममतामयी होना चाहिए. ‘हनीमून ट्रेवल्स प्राइवेट लिमिटेड’, ‘तलाश’ और ‘गोल्ड’ जैसी फिल्मों की निर्देशक रीमा कागती का उदाहरण गौर करने लायक है.
रीमा मानती हैं कि अब बॉलीवुड में महिलाओं की कोई कमी नहीं है, मगर ठोस सवाल यह है कि क्या आप प्रतिभाशाली हैं और अपनी प्रतिभा का बेहतर प्रदर्शन कर सकती हैं? क्या कभी रीमा को उनके जेंडर की वजह से किसी भेदभाव का सामना नहीं करना पड़ा है? रीमा कड़ी आवाज में कहती हैं, ‘नहीं’. उनका कहना है कि ‘मैं आपको अन्य महिलाओं की कहानियां सुना सकती हूं, लेकिन मेरे साथ इस तरह की चीज़ें कभी नहीं घटीं. मुझे लगता है कि लोग जानते हैं कि उन्हें किसको तंग करना है.
रीमा का यह आखिरी वाक्य साफ तौर पर इस तथ्य की ओर एक इशारा है कि बॉलीवुड में काम करने के रीमा और अन्य महिलाओं के अनुभवों में ख़ासा अंतर है. यह वाक्य फिल्म उद्योग के इस सुविख्यात तथ्य को बताता है कि रीमा ऐसी फ़िल्मकार हैं जिनसे उलझना नहीं है. उनके व्यवहार के किस्से लोगों ने ख़ूब सुने हैं. वह पल में तोला पल में माशा हैं और लोगों के साथ गैर-यकीनी और हमलावर रवैयों के लिए जानी जाती रही हैं. अपनी टीम के सदस्यों के साथ उनकी बदसलूकी की कहानियां प्रायः फैलती रहती हैं.
‘तलाश’ फिल्म में सहायक निर्देशक के तौर पर काम करने वाले एक शख़्स कहते हैं कि ‘अगर आप रीमा के साथ काम कर रहे हैं, तो आपको अपने प्रदर्शन के सर्वश्रेष्ठ स्तर पर होना होगा. चूंकि वह खुद ही एक सफल सहायक निर्देशक रही हैं, इसलिए वह फिल्म सेट पर हर किसी की भूमिका के बारे में जानती हैं. आप किसी भी तरह सुस्त होकर वक्त ज़ाया नहीं कर सकते’’.
अधिकांश सहायक निर्देशक इस बात की पुष्टि करते हैं कि बॉलीवुड में सहायक निर्देशक के तौर पर काम करने के लिए ‘मोटी चमड़ी’ का होना एक अनिवार्य शर्त है. यह काम कठोर शारीरिक श्रम और मानसिक दृढ़ता की मांग करता है.
सहायक निर्देशकों को अधिकांश समय बिना किसी रचनात्मक संतोष और संतुष्टि के काम करना पड़ता है. लोगों के साथ समन्वय कायम करना, अंत तक पूर्वनिर्धारित योजना के अनुसार फिल्म शूट करवाना और किसी भी कीमत पर तय समय-सीमा के भीतर काम के पूरा होने की गारंटी करवाना. लोग जिस तरह निर्देशक की इज़्ज़त करते हैं, वैसे सहायक निर्देशक के साथ नहीं होता.
जब बीस-एक साल की एक नौजवान महिला रीमा ने सहायक निर्देशक के तौर पर काम करना शुरू किया, तो उनमें आक्रामकता जल्दी ही आ गई. इस आक्रामकता ने उनकी छोटी कद-काठी और औपचारिक हैसियत की कमी की भरपाई की.
रीमा कहती हैं, ‘‘मेरी आक्रामकता की अधिकतर कहानियां उस समय की हैं जब मैं सहायक निर्देशक की भूमिका के शिखर पर थी’’. वह बताती हैं, ‘‘मैंने सहायक निर्देशक के तौर पर जो कुछ किया, उसकी तुलना में निर्देशक के तौर पर काम करना आसान है. जब आप निर्देशक हैं, तब आमतौर पर लोग वही करते हैं जो उनसे करने को कहा जाता है.
रीमा याद करती हैं कि जब ‘तलाश’ फिल्म की शूटिंग चल रही थी, तब कैसे एक मसालेदार छोटे अख़बार में एक निराश करने वाला लेख छपा जिसमें उन्हें एक ‘कुतिया’ के रूप में प्रदर्शित किया गया जो हमेशा ही अपनी टीम के सदस्यों पर चिल्लाती रहती है और गाली देती रहती है. अभिनेता सबके सामने उस लेख को लहराते हुए पूछने लगे कि क्या लोगों ने उसे पढ़ा है. निश्चित ही आमिर इसे मज़ाक़ के रूप में ले रहे थे मगर रीमा को यह सब नागवार गुज़रा.
रीमा अपने ख़ास तल्ख़ अंदाज़ में कहती हैं, ‘‘आप चाहते हैं कि मैं विनम्र और नारी-सुलभ बनूं. मैं इसकी परवाह नहीं करती. वह यह भी कहती हैं, ‘‘कभी-कभी आक्रामकता की वजह से मैं फायदे में भी रहती हूं… लोग मुझसे उलझते नहीं’’. वे कहती हैं, “मगर यह सब मत लिखिए, नहीं तो लोग जान जाएंगे”.
आक्रामकता के साथ रीमा का यह जटिल और असहज रिश्ता बॉलीवुड की एक बड़ी बीमारी की ओर हमारा ध्यान खींचता है. कैसे वहां आक्रामकता को एक मूल्यवान लक्षण के रूप में देखा जाता है और आक्रामक लोगों को उन लोगों से ज़्यादा सक्षम दिखने में मदद करता है, जो विनम्र स्वभाव के होते हैं.
काम के एक ऐसे परिवेश में जहां सैंकड़ों लोग, (एक फ़िल्म प्रोडक्शन में हज़ारों लोगों को देखना पड़ता है) अधिकतर पुरुष निर्देशक के अधीन होते हैं, कभी-कभी एक महिला निर्देशक के लिए अपने हुक्म की तामील करवाना मुश्किल हो जाता है. बेशक एक निर्देशक को अनुशासन प्रिय होना ही चाहिए. कभी-कभी हाकिमगिरी बेहतर तरीके से काम करती है जब इसके साथ वह जिस्मानी सख्ती जुड़ जाती है जो परंपरागत तौर पर नेतृत्वकारी हैसियत में रहने वाले पुरुषों के कीमती लक्षण माने जाते हैं.
जब एक महिला निर्देशक इस तरह की हाकिमगिरी पर उतरती है, तब उनकी टीम के लोग उन्हें परंपरागत नेतृत्व कौशल के पुरुषोचित गुणों से लैस ऐसी मर्दानी के तौर पर देखते हैं जिसे किसी भी कीमत पर उकसाना नहीं चाहिए. ऐसा कहने का अर्थ यह नहीं है कि महिलाओं को मुलायम लफ्जों वाली मनभावन होना चाहिए. स्त्रीत्व का कोई ख़ास सांचा नहीं होता. ऐसा कहने का अर्थ यह बताना है कि व्यक्तित्व के लक्षणों से ही हमारी जेंडरीकृत समझ नेतृत्वकारी महिलाओं के प्रति हमारी धारणा को प्रभावित करती है.
यह अफसोसजनक ही है कि महिलाओं को कामयाब होने के लिए आक्रामकता का प्रदर्शन करना होता है, वहीं दूसरी तरफ उन पर ‘कुतिया’ या ‘मदमस्त सनकी’ जैसे ठप्पे भी लगा दिए जाते हैं और कह दिया जाता है कि इनके साथ काम करना मुश्किल है.
रीमा कहती हैं, ‘‘मैं उन निर्देशकों को जानती हूं जो हर वक्त अपने सहकर्मियों पर थप्पड़ चलाते हैं. मैं एक निर्देशक को जानती हूं जो नाकामी से पैदा हुई मायूसी और गुस्से में अपनी अभिनेत्री को चोट पहुंचाते हैं. एक-और निर्देशक हैं जो कुछ गलत कर बैठे टीम के सदस्यों को स्टूडियो के तलों पर मुर्गे की तरह बैठाकर सज़ा देते हैं, मगर आप इन सबके बारे में कहीं पढ़ते नहीं हैं… तब क्यों मेरे बारे में ही लिखा जाता है कि कर्कश हूं और लोगों पर चीख़ती-चिल्लाती रहती हूं’’ (रीमा कागती: बट हाउ शुड ए वुमन बी, पृष्ठ संख्या 131-135).
‘जो भी मैं बनना चाहूं’’ में यकीन रखने वाली महिला निर्देशक
मैंने ‘एफ-रेटेड: बीइंग ए वुमन फिल्ममेकर इन इंडिया’ किताब लिखकर एक चीज़ सीखी कि ये महिलाएं अपने ऊपर ठप्पे पसंद नहीं करतीं. वे बक्सों, ख़ानों और सांचों में फिट होकर यह सुनना नहीं चाहतीं कि एक महिला को ऐसा होना चाहिए या ऐसा नहीं होना चाहिए.
मुझे इन महिलाओं को रज़ामंद करने में काफी मशक्कत करनी पड़ी कि आखिर क्यों मैं महिला फिल्मकारों के ख़ास तजुर्बों (खास अनुभवों) के बारे में किताब लिखना चाहती हूं. मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि मैं उन्हें उनके जेंडर की वजह से मज़लूम और कमज़ोर महिलाओं के तौर पर पेश नहीं करना चाहती, बल्कि यह दिखलाना चाहती हूं कि दुनिया जिन मुद्दों के इर्द गिर्द ढांचाबद्ध है, उनमें एक अहम मुद्दा जेंडर है.
इस लेख का अनुवाद रंजीत अभिज्ञान ने किया है।
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