दुकानदारी

बेटी की कहानी पिता के लिए

चित्रांकन: ऐश्वर्या अइयर

‘आती हुई लहरों पर जाती हुई लड़की’ कॉलम को अंकुर संस्था के साथ साझेदारी में शुरू किया गया है. इसमें हर महीने हम आपके सामने लाएंगे ऐसी कहानियां जिन्हें दिल्ली के श्रमिक वर्ग के इलाकों/ मोहल्लों के नारीवादी लेखकों द्वारा लिखा गया है.

मैंने एकदम से पीछे सड़क पर देखा, लाल और नीली बत्ती बजाती एक बड़ी जीप हमारी तरफ़ आ रही थी. लोगों में उथल-पुथल मच गई. शोर-शराबे के बीच भागते हुए सभी इधर-उधर बिखर गए. उनमें से हम भी थे. कोई अपनी झुग्गी में भागा तो कोई अपनी दुकान में जा घुसा. पापा ने मुझे भी हाथ पकड़ कर तक़रीबन खींचते हुए काउंटर के नीचे बैठा दिया.

यह सब देख-सुन मैं हड़बड़ा गई, चकित सी रह गई. मैं बाहर कुछ देख नहीं पा रही थी क्योंकि पापा मास्क पहने सामने डटकर खड़े थे. तभी मेरी नज़र उस होल पर पड़ी जो काउंटर के ठीक साइड में था. मैंने उसमें से झांकने की कोशिश की. सामने से जीप निकल रही थी.

जीप के निकलते ही मैंने सांस ली और उठने की कोशिश की. पापा ने मेरी बांह पकड़ मुझे नीचे कर दिया और होंठो पर उंगली रख ली. मैंने फिर से उसी होल में देखा. एक, दो, तीन, चार… एक-एककर उस जीप के साथ पुलिस की कई गाड़ियां निकल गईं सब शांत दिखने पर मैं उठी.

दुकान में टंग रहे कुछ मास्क में से एक पापा ने मुझे दिया और कहा, “अब जब भी तुम बाहर आओगी तो यह मास्क लगा लेना, वरना पुलिस दुकान का शटर लगा देगी. थोड़ी-बहुत हो रही कमाई भी बंद हो जाएगी.” दुकान से एक मीटर की दूरी पर बंधी रस्सी से निकलते हुए मैं घर की तरफ़ चल दी.

पुलिस के जाते ही बुजुर्ग से लेकर बच्चे तक अपने घर से बाहर की ओर आ गए. कोई घर पर मन न लगने के कारण, तो कोई सड़क के कोने में लगे सरकारी वाईफाई का मज़ा लूटने के लिए.

चीन, अमेरिका, इटली के लोग पल-पल तड़प रहे हैं, घर से बाहर निकलने में उन्हें मौत दिखाई दे रही है, पर यहां किसी को कोई फ़र्क ही नहीं पड़ रहा है. मेरे कानों में मेरे नाम की आवाज़ टकराई, “नंदनी, नंदनी इधर आओ!” देखा तो पापा हाथों का इशारा करते हुए मुझे बुला रहे थे. दुकानदारी के कारण पापा के अंदर बढ़ रहे खौफ़ को देखकर मैं परेशान हो रही थी.

अगले दिन मैं धीरे-धीरे चलकर उनके पास गई. पापा ने कहा, “थोड़ी देर तुम दुकान पर बैठ जाओ, मुझे कुछ सामान लाने जाना है. दुकान में सामान ख़त्म हो रहा है.” दुकान को देखते हुए मैंने पापा से कहा, “बचा ही क्या है दुकान में?” यह सुन पापा ने दुकान को मुड़-मुड़कर देखना शुरू किया और बोले, “बात तो तुम्हारी सही है, पर करें भी तो क्या? कहां से लाऊं पैसे? उपर से लोग आजकल उधार भी मांग रहे हैं.” पापा का उदास चेहरा देख मैं फिर से भावुक हो उठी. उनके कंधों पर हाथ रखते हुए बोली, “कोई बात नहीं पापा, सब ठीक होगा.”

जाते-जाते पापा ने कहा, “दुकान पर कोई भी सामान लेने आए, तो सबसे पहले देखना कि उसने मास्क पहना है या नहीं? और उन्हें इस रस्सी के बाहर ही खड़ा करना; और हां, सामान देकर जब पैसे लो तो उन्हें सैनेटाइज़ ज़रुर कर लेना.” ये सब सावधानी के नुस्खे बताकर वे बाइक से चले गए.

“बेटा तंबाकू है क्या?”, एक बुजुर्ग हाथ में छड़ी लिए मुंह पर गमछा बांधे मुझसे पूछने लगे. न में जवाब देते हुए मैंने नज़र घुमा ली, क्योंकि गुटखा, तंबाकू सब बंद हो चुके थे. मैं बाहर खड़े उन लोगों को देख रही थी,जो पुलिस के आने पर धक्का-मुक्की करते हुए घरों में जा घुसे थे. अब वे फिर से बाहर आ गए थे. तभी पुलिस एक राउंड मारने फिर से आ गई, सब फिर से अंदर की ओर भागे जा रहे हैं. मैं भी दुकान में घुस गई.अब हर जगह शांति छा चुकी है, कोई बाहर नहीं है. पूरी सड़क पर कार, बाइक का डेरा-सा बना है.

अपने कंधों पर किसी का हाथ महसूस होते ही मैं डर गई. पीछे मुड़ी तो पापा सांस फुलाते हुए थैले को नीचे रख रहे थे. सामान रखते हुए बोले, “क्या हुआ? क्या सोच रही है?” “कुछ नहीं.” सामने रखे स्टूल को सरकाकर मैंने पापा को कहा, “आप बैठ जाओ.” जितनी जगह पर पापा ने मास्क लगाया हुआ था, वहां से वे पसीने-पसीने हो गए थे. थैले को खोलते हुए मैंने पूछा, “क्या-क्या लाए हो?” “कुछ नहीं. आज सिर्फ़ लाल और काली दाल ही मिली है, बाकी दालें कल मिलेंगी. आज चावल भी नहीं थे और आटे के दाम तो आसमान छू रहे हैं. आटा लेना तो नामुमकिन-सा है इसलिए अभी आटा नहीं, बस दाल, चावल, बच्चों की खाने-पीने की चीज़ें और नमकीन ही लाउंगा.” पापा बोले.

छह फुट के पापा पहले हट्टे-कट्टे हुआ करते थे, उन्हीं को आज दुकान की और पैसों की टेंशन ने आधा-सा कर दिया है. पापा की सूर्खलाल आंखें देख ऐसा लग रहा था कि उन्हें नींद आ रही है.

पापा ने घड़ी की ओर नज़र दौड़ाई, “अरे बाप रे, सात बज चुके हैं, चलो-चलो खड़े हो, दुकान का सामान अंदर करो! पुलिस के आने का समय हो चुका है.” “पापा मुझे जीप की आवाज़ आ रही है”, जैसे ही मैंने यह कहा वैसे ही पापा ने झट से दुकान का शटर नीचे कर दिया और काउंटर के नीचे बैठ गए, साथ में मुझे भी बैठा लिया.

नंदनी, छह सालों से अंकुर की नियमित रियाज़कर्ता हैं. उन्होंने अभी दसवीं का बोर्ड इम्तेहान दिया है. वे खिचड़ीपुर , दिल्ली में रहती हैं. अभी पिताजी की दुकान में वक़्त दे रही हैं.

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