खेलना भूलना मत! खेलना न भूलना.

खेल हमें रचनात्मक, ग्रहणशील और सचेत बनाते हैं, फिर भी क्या हम उन्हें उतना समय दे पाते हैं?

चित्रांकन: सुतनु पाणिग्रही

“ हम खेलना इसलिए बंद नहीं करते क्योंकि हम बूढ़े हो गए है; हम बूढ़े इसलिए हो जाते हैं क्योंकि हम खेलना बंद कर देते हैं।” – जॉर्ज बर्नाड शॉ

खेल की अपनी ही एक अनोखी दुनिया है. यहां हार–जीत, उत्साह-निराशा, गुस्सा-ख़ुशी और तमाम तरह की चालाकियों का स्वागत है. और लक्ष्य सिर्फ एक, अपना सबसे बेहतरीन खेल खेलना. हमारी ज़िंदगी में यही एक ऐसी जगह है जहां रोमांच और रचनात्मकता का राज चलता है. जब भी हम किसी खेल में रमे होते हैं, मानो आस-पास की दुनिया कहीं गुम हो जाती है, है न? और सबसे ज़्यादा मज़ा भी खेल में ही आता है. 

लेकिन सोचने की बात तो यह है कि इतना मज़ेदार होने के बावजूद, हमारे जीवन में खेल की अहमियत सबसे कम क्यों है? हालांकि आम मुहावरों में सुनाई पड़ता है कि “काम ही काम, न कोई मौज न आराम, फिर कैसे चमके चिपटू राम”.

कई जगह खेल को किसी दूसरे काम की अपेक्षा मामूली माना जाता है, लेकिन मेरी समझ में, यह खेल को देखने का बेहद साधारण और बेरंगी तरीका है! जैसे खेल न हुआ, कोई उपकार हो गया. जैसे बचपन में मां कहती है “होम वर्क ख़तम करने के बाद ही खेलने जा सकते हो”, यहां हम खेलने निकले नहीं कि वहां वापस आने का आदेश मिल जाता है. और फिर स्कूल में तो खेल, पढ़ाई का छोटा भाई बनकर रह जाता है.

मैं जानती हूं कि हमारे दिमाग में वो एक आवाज़ है जो हमें हमेशा कहती है, “हां, तो? इस दुनिया में काम ज़रूरी है! हम सब राहुल द्रविड़ थोड़ी न हैं जो खेल से ही पैसा कमा लेंगे!” लेकिन खेल को सिर्फ “स्पोर्ट्स” या व्यायाम से जोड़ कर देखना भी तो समस्या का एक हिस्सा ही है. खेल को सिर्फ शरीर से जोड़कर देखना उन तमाम गुणों को अनदेखा कर देता है जिनसे हमारे मन, भावनाओं और आत्मा को पोषण मिलता है. आज के ज़माने में इस पोषण की हमें सख़्त ज़रुरत है और यह अक्सर पैसों से नहीं ख़रीदा जा सकता.

बचपन में खाने-पीने के अलावा, हमारा सबसे महत्त्वपूर्ण काम होता है खेलना. खेल के ज़रिए ही हम धीरे-धीरे हमारे आस-पास की दुनिया को समझना शुरू करते हैं. मनोविज्ञान के कुछ अध्ययन बताते हैं कि ‘छुप्पन छुपाई’ का खेल दुनिया भर में बच्चों के साथ खेला जाता है और इस आसान से खेल का उनकी ज़िंदगी पर एक बड़ा असर पड़ता है. इस खेल से उनको ‘जुदाई’ और ‘वापसी’ जैसी मुश्किल भावनाओं को समझने में मदद मिलती है. जैसे-जैसे यह खेल दोहराया जाता है, वैसे ही बच्चा धीरे-धीरे समझने और विश्वास करने लगता है कि अगर उनके पालक – जैसे उनकी मां या कोई और जो उनकी देखभाल करता है – किसी एक पल में नज़र न आए, तो भी वो उनको ढूंढते हुए जल्द लौट कर आ जाएंगे.

बच्चों के लिए यह जानकारी सबसे ज़्यादा तब काम आती है जब उनके आस-पास कोई नहीं होता. उस पल में बच्चे अपनी बेचैनी को संभालना सीखते हैं क्योंकि इस खेल से उनका भरोसा बनता है कि घबराने की कोई बात नहीं है, अभी कोई आता होगा.

उम्र के साथ हमारे खेल भी बदलते हैं, वे हमें हम पर बीत रही चुनौतियों और सवालों से जूझने में मदद करते हैं. एक और खेल जो दुनिया भर में बड़े मज़े से खेला जाता है वह है ‘घर घर’. इस खेल में अक्सर बच्चे अपने घर के माहौल और कहानियों की नक़ल करते हुए नज़र आते हैं. अपने घर के बड़ों का पात्र खेलकर बच्चे खुद उन परिस्थितियों को समझने और अपने शरीर में अनुभव करने की कोशिश करते हैं. साथ ही यह खेल बच्चों को अपनी खुद की भावनाओं से जुड़ने का अवसर देता है. यह खेल हमारे व्यक्तित्व की आधारशिला है.

आज भी अगर आप उन खेलों के बारे में सोचेंगे तो याद आएगा कि जिन चीज़ों से आप तब जूझते थे, आज भी लगभग वैसी ही भावनाओं से जूझ रहे हैं. फर्क सिर्फ इतना है कि खेल में उनके बारे में बात की जा सकती थी या उपाय ढूंढे जा सकते थे. लेकिन वास्तव में यह इतना आसान नहीं है.

जब हम और बड़े होते हैं तो अचानक हमारे खेल हमारे साथ बढ़ना बंद कर देते हैं. वे खेल से चुनौती बन जाते हैं और हमारा पूरा ध्यान स्पर्धा और जीतने की तरफ होता जाता है. खेल अब खोज और सहयोग के बजाए प्रतियोगिता की जगह बन जाते हैं, जहां हम सीखते हैं सिर्फ अपने या अपनी टीम के बारे में और किसी भी चीज़ पर ध्यान नहीं देते.

अब खेल के इर्द-गिर्द सख़्त नियम बंध जाते हैं और नियमों में भी कड़े दंड लागू होने लगते हैं. किसी भी हाल में हार मंज़ूर नहीं. और सबसे पेचीदा होते हैं लोगों को खेल में शामिल करने या बाहर करने के मानदंड – जैसे लड़के यह खेल, खेल सकते हैं, लड़कियां नहीं. उम्र के साथ मानदंड कुछ और बदलते हैं और फिर, पलक झपकते ही हम इतने बड़े हो जाते हैं कि वो खेल, खेल ही नहीं सकते. हमें कहा जाता है कि “अब खेलना कूदना बंद, बस पढ़ाई पर ध्यान दो!”

हम सब के पास खेल से जुड़ी अनेक कहानियां होंगी. क्या आपको अपनी कहानी याद है? मेरी यह है कि जब मैं बड़ी हो रही थी तब मेरे आस-पास मेरी उम्र का कोई नहीं था. मैं अक्सर अकेली रहती थी और जब खेलने के लिए कोई मिल जाता तो मैं सबसे ज़्यादा खुश होती लेकिन ऐसे मौके कम ही आते थे. बाकी समय, मैं बेचैन रहती कि कब दोस्तों के साथ खेलने को मिलेगा? फिर मैंने खुद के साथ खेलना सीखा – अपने ही दिमाग और सपनों की दुनिया में.

मेरे शिक्षक हमेशा शिकायत करते कि ये क्लास में ध्यान नहीं देती, बस अपने सपनों की दुनिया में रहती है, लेकिन ये मेरा मनोरंजन का तरीका था. जब थोड़ी बड़ी हुई तब, स्कूल की छुट्टियों के दौरान थिएटर की कार्यशाला में जाने लगी. थिएटर में सब कुछ खेल है और यहां मेरी कहानियों को एक मंच मिला. यहां पहली बार मैं अपने आप से और अपनी आवाज़ से मिली और यह जाना कि खेल से कितनी सारी चीज़ें खोजी जा सकती हैं. यह मेरे लिए, मेरे आत्मविश्वास के लिए ज़रूरी था क्योंकि इसके बाहर – स्कूल और पढ़ाई में, मैं काफी कमज़ोर थी.

खेल से ही मैंने पहली बार अपना जेंडर समझा, मैंने देखा कि लड़के खुल कर, जब मन चाहे, पूरे स्कूल में कहीं भी भाग सकते हैं और लड़कियां सिर्फ पी. टी. की क्लास में या किसी स्पर्धा में भाग ले सकती हैं. और जब मुझे यह कहा गया कि “लड़कों के साथ ऐसे खेलना बंद करो, तुम अब बड़ी हो गई हो” तब पहली बार यौनिकता का सवाल मन में आया - “अब आखिर लड़कों के साथ खेलने में हर्ज क्या है?”

यह शायद देश भर की लड़कियों के लिए सच होगा कि, जैसे ही हम बड़ी हुईं, हम मैदान से हटकर दर्शक बन गईं जिनका काम था लड़कों को खेलते हुए देखना, और आपस में ही चुहलबाज़ी करना कि ‘देखो – देखो, लड़के खेलते हुए कितने अच्छे दिखते हैं.’ स्कूल के बाद खेल और थिएटर दोनों मेरी ज़िंदगी से गुम हो गए.

लगभग 10 साल के अंतराल के बाद – एफ्फी मेकपीस और अक्षय खन्ना ने थिएटर को रिसर्च प्रणाली के रूप में फिर से मेरी ज़िंदगी में जगह दी. उन्होंने ‘निरंतर’ के साथ एक तीन दिन की कार्यशाला आयोजित की, जहां हमने कई खेल खेले और उनसे उभरते मुद्दों पर लंबी चर्चा भी की.

उस दौरान ‘निरंतर’ एक “एक्शन रिसर्च” प्रोजेक्ट करने की सोच रहा था, जिसमें युवाओं के साथ जेंडर, यौनिकता और शादी जैसे मुद्दों पर कैसे बात की जाए, इस पर विचार किया जा रहा था. यह एक बड़ा सवाल था. एफ्फी और अक्षय की बनाई रिसर्च प्रणाली यहां एकदम ठीक बैठ रही थी.

अगले चार साल में इस प्रोजेक्ट में हमारे साथ 4 प्रदेशों से 6 अलग संस्थाएं जुड़ी. हमने युवाओं और कार्यकर्ताओं के साथ कई कार्यशालाएं आयोजित कीं. हमने देखा कि कैसे हर कार्यशाला में खेल के द्वारा कोई नया विचार उभर कर आने लगा, जिसे आम ज़िंदगी में आराम से मुद्दों से जोड़कर समझा जा सकता था.

यह रिसर्च प्रणाली ब्राज़ील के ऑगुस्टो बॉल और अन्य लोगों के काम से प्रेरणा लेती है. इसका प्रयोग करके हमने जाना कि अब तक हमने या हमारी साथी संस्थाओं ने जिन साधनों का उपयोग किया है, यह उनसे अलग है. एक सुरक्षित माहौल बनाने में और एक-दूसरे के साथ आत्मीयता बनाने में यह कार्य प्रणाली हमारे खूब काम आई.
हां, यह सच है कि इस प्रणाली को समझना और समझाना आसान नहीं था और शायद इसको समझने के लिए पहले खुद अनुभव करना ज़रूरी था. लेकिन फिर भी इस प्रणाली की कुछ अलग ही बात थी!

करते-करते हमें समझ आया कि चंचलता एक बहुत ही ज़रूरी चीज़ है जो युवाओं के साथ थिएटर के इस्तेमाल में भी ज़रूरी है. इसका मतलब सिर्फ यह नहीं है कि कार्यकर्ता खेलने के लिए उत्साहित हों. चंचलता का मतलब यह भी है कि कार्यकर्ता अपनी धारणाओं को परे रखकर नए विचारों के लिए जगह बना सकें.

ये नए विचार किसी भी संदर्भ में हो सकते हैं जैसे अपने शरीर के साथ क्या-क्या किया जा सकता है, या ख़ुद अपने आप को अपनी किसी ठोस धारणा के परे, कैसे देखा जा सकता है.

एक तरह से देखा जाए तो यह चंचलता हमारे बाकी काम से बिलकुल अलग है. बाकी काम में हमसे यह उम्मीद होती है कि हमें सब कुछ अच्छे से पता हो. इसलिए अपने भीतर चंचलता ढूंढने के लिए मेहनत करनी पड़ती है.

कभी इसका मतलब हो सकता है कि अब तक जो सिखाया गया है उसको पूरी तरह से पलटना कभी इसका मतलब अपनी उन वृत्तिओं को जगाना हो सकता है जो बचपन से कहीं धूल खा रही हैं – जैसे कि कुछ नया जानने की जिज्ञासा, या कुछ नया ‘ट्राई’ करने का उत्साह.

मेरी यात्रा कुछ ऐसी रही कि हमारे प्रोजेक्ट के अंत में मैंने निर्णय लिया कि मैं एक साल काम छोड़कर थिएटर सीखने जाउंगी. हां, पहले पहले यह काफी अजीब लगा, एक 30 साल की युवती एक क्लास में जहां बाकी सबकी उम्र लगभग 25 या उससे कम थी. लेकिन थिएटर की यही खूबी है कि यहां सब खेल सकते हैं!

एक विद्यार्थी के तौर पर ऐसे लोगों के साथ घुलना-मिलना जो मुझसे उम्र में कम और अनुभव में विपरीत थे, काफी फायदेमंद रहा. इस अनुभव ने मुझे अपनी धारणाओं पर सवाल उठाने और उन्हें बदलने का अवसर दिया. इस अनुभव से मैं अपने उन बंधनों से रूबरू हुई जो मुझे अपनी चंचलता से दूर रख रहे थे और मुझे शारीरिक और मानसिक रूप से बांध रहे थे.

डोनाल्ड विन्निकोट एक मनोवैज्ञानिक थे जिनके अध्ययन का केंद्र बच्चों की मानसिकता थी. उनका कहना था कि “खेल मरहम है.” काफी हद तक मेरे अपने अनुभवों से मैं इस सच की गवाही दे सकती हूं - पहले एक छोटी शर्मीली लड़की की तरह, फिर एक अध्ययनकर्ता के रूप में और अंत में एक थिएटर कोर्स के विद्यार्थी की तरह.

किस चोट का मरहम आप पूछेंगे? तो शायद मैं कहूंगी कि इलाज उन चोटों का जो हमारे टूटे हुए समाज, अर्थशास्त्र और राजनीति के झूठे तथ्य हम पर छोड़ जाते हैं. यह घाव छोटी-छोटी चीज़ो से शुरू होते हैं जैसे “ठीक से बैठो”, “रोना बंद करो” “ये करो वो नहीं”, “ये सही है, तुम ग़लत हो” इत्यादि.

जहां बाकी समाज हमें काटने को दौड़ता है, वहां एक ऐसी जगह मिलना जहां आप जैसे चाहो रह सकते हो, जो सोचना हो सोच सकते हो मानसिक तुष्टि के लिए बहुत ज़रूरी है. आप एक पल के लिए ग़लत भी हो सकते हैं, गलती करना सीखने देने की जगह देना है, यह विश्वास अपने आप में व्यक्ति को मज़बूत बनने का अनुभव देता है.

जब खेल को ऐसे देखें तो खेल अपने आप में एक प्रक्रिया होने के बजाए किसी काम को करने का तरीका हो सकता है. इस तरीके से चीज़ों को करने का मतलब होगा अपनी निश्चितताओं को रद्द करके अपने आप को “शायद” की दुनिया में उतरने देना, जहां कुछ भी मुमकिन है. इसका मतलब है किसी भी चीज़ की अनेक व्याख्याओं के लिए जगह बनाना. इसका मतलब है अपने शरीर और विचार में तरलता लाना. इसका मतलब है कि वास्तव में जो हो रहा है उस पर ध्यान देना और अपने अनुभवों को तवज्जो देना.

आप जो भी करते हैं उसमें खेल लाया जा सकता है. मुमकिन है कि वह आपके काम के तरीके को ही बदल दे. काम के भीतर खेल के लिए जगह बनाने का मतलब हो सकता है कि काम में ज़्यादा रचनात्मकता की जगह बनाना. हर महीने मैं अपने लेख “खेल खेल में” कुछ ऐसे ही विचार और उनसे जुड़े थिएटर के खेल पेश करूंगी. यह आपके अपने लिए भी होंगे और आपकी कार्यशाला के लिए भी.

दरअसल मेरे अगले लेख में मैं काम की ही संकल्पना के साथ खेलने वाली हूं जल्द ही मिलते हैं.

कार्यशाला

सोचने वाला सवाल:

हमने अभी खेल के बारे में एक लंबी चर्चा की. इसे पढ़ते वक़्त आपको खेल से जुड़ी कौन-सी कहानियां याद आईं? क्या आपको याद है कि खेल की चंचलता आपने आख़िरी बार कब महसूस की थी?

सत्र के लिए सुझाव:

चंचलता के बारे में सोचना और चंचल होने में बड़ा अंतर हैं. इस पहली कार्यशाला में हम चंचलता के बारे में सोचने से चंचल होने तक का सफर तय करेंगे. “थिएटर” में खेल की अहम भूमिका है – पहल करने, अपने शरीर में खुलापन लाने, एक-दूसरे को करीब से जानने और सभी साथियों में एक सामूहिक भावना लाने के लिए. खेल ज़रूरी है ताकि हम अपने दिमाग से निकल कर शरीर में उतरें. यह आसान नहीं है. ख़ासकर तब जब हमारे पूरे वयस्क जीवन में हमें इससे विपरीत चीज़े सिखाई गई हैं.

खेल में यह जादू है कि खेलते-खेलते अपने अंदर कुछ बदलता हुआ महसूस होता है. लेकिन सच्चाई तो यह है कि हमारे पास खेलते रहने का वक्त नहीं होता. हमारे काम में, हर कार्यशाला में, हमसे जो अपेक्षित है वह हमें पूरा करना पड़ता है. लेकिन हर कार्यशाला की शुरुआत में खेल के लिए थोड़ा वक्त देकर इस प्रक्रिया को धीरे-धीरे अपना काम करने की जगह दी जा सकती है.

किसी अच्छे “पहले सत्र” में बस अलग-अलग खेल हो सकते हैं. हमारे अध्ययन के दौरान, इस तरह की कार्यशालाओं में ऐसे तमाम मुद्दे उठने लगे जिनसे जेंडर को बाआसानी समझा जा सकता था – जैसे उम्र की बात या खेलने की आज़ादी.

कैसे वह पहली आज़ादी है जो बालिग़ होने के नाम पर छीनी जाती है. इसके साथ ही कुछ और चर्चाएं भी हुईं जैसे – खेलने में भी हमारा जेंडर क्या गुल खिलाता है – क्या हमारा सभी जेंडर के लोगों के साथ खेल पाना उतना ही आसान है? इस तरह देखें तो एक सरल खेल से भरी कार्यशाला में कुछ गहरी चर्चाओं तक जाने के रास्ते खुलते और मिलते जाते हैं.

हमारे आस-पास सरल खेल की कोई कमी ही नहीं है – हम सबने पकड़म पकड़ाई, छुप्पन छुपाई या ताला और चाबी जैसे खेल खेले या देखे हैं. ऐसे खेल के साथ हमारी कई यादें भी जुड़ी हुई हैं, जैसे – हम पिछली बार कब खेले थे, खेले हुए कितना समय हो गया, जब हम खेलते थे तब कैसा होता था, और हमने खेलना कब और क्यों छोड़ दिया.

जब आप कार्यशाला में प्रतिभागियों के अपने खेल खेलने की जगह बनाते हैं, तब ऐसी चर्चाओं के लिए भी जगह बनती है. यहां हम कुछ ऐसे ही खेलों की चर्चा करेंगे. यदि आप अपने समूह के साथ चंचलता पर एक सत्र चलाना चाहते हैं तो उसका सबसे अच्छा उपाय होगा खेल खेलना!

1. कुछ शुरूआती गतिविधियों यानी ‘वार्म अप’ से शुरू करें (ख़ास कर तब जब समूह के लोग सामान्य तौर पर खेल कूद के आदी न हों.)

2. अपने समूह से पूछिए कि उनके आस-पास या उनके खेले कुछ खेलों के बारे में बताएं. उनमें से कुछ ऐसे खेल चुनें जो सबको पता हों और वे दिल खोलकर खेल सकें! खेल के कुछ उदाहरण हैं:

  • “ताला और चाबी” इस खेल में एक व्यक्ति का “डेन” होता है जो भाग कर सभी को पकड़ने की कोशिश करता है. जो भी पकड़ा जाता है उसपर ताला लग जाता है और वह अपनी जगह से हिल नहीं सकता. बाक़ी खिलाड़ियों में से जब कोई आकर उसको छूता है तब उसको चाबी मिल जाती है और वो फिर से भाग सकता है.
 
  • “चूहा और बिल्ली”: इस खेल में सभी दो-दो के जोड़े में बंट जाते हैं और अपने जोड़ीदार का हाथ पकड़ लेते हैं. यह जोड़े बड़े कमरे या मैदान में फ़ैल जाते हैं ताकि भागने की जगह बने. एक जोड़ी को तोड़ दिया जाता है और उनमें से एक चूहा बन जाता है और दूसरी बिल्ली. चूहा अपनी जान बचाकर भागता है और बिल्ली उसे पकड़ने की कोशिश करती है. बिल्ली को इस काम में दूसरी जोड़ियों से मदद मिलती है, क्योंकि वह जा कर किसी भी एक जोड़ी में से एक व्यक्ति का हाथ पकड़ सकती है. उसने जिसका भी हाथ पकड़ा है, उसके जोड़ीदार को अब बिल्ली बनना होगा. जब बिल्ली चूहे को पकड़ लेती है तो बिल्ली चूहा बन जाती है. ऐसे खेलों के अलग-अलग रूप और अवतार हैं, जो आपके संदर्भ में आपको पता ही होगा.
 
  • बस खेल में खूब सारा भागना – भगाना होना चाहिए. हमारी सिफारिश है कि आप अपने संदर्भ में से ऐसा कोई खेल चुनें जिससे प्रतिभागियों का भी कोई रिश्ता हो ताकि वे झटपट उससे जुड़ जाएं.
 

3. जब सभी खेलकर थक जाएं, या सत्र के ख़त्म होने से आधे घंटे पहले, सभी के साथ एक गोले में बैठें.

4. सब कैसा महसूस कर रहे हैं. इस पर बात करें. आप समूह में लोगों से पूछ सकते हैं कि उन्होंने पिछली बार कोई खेल कब खेला था? या आप उन्हें अपने अलग-अलग खेल के अनुभवों की कहानी बताने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं.

विशेष सुझाव: यदि यह समूह नियमित रूप से मिलता है तो आप उन्हें “होम वर्क” के तौर पर अपना खुद का एक खेल बनाने के लिए कह सकते हैं और अगली कार्यशाला में उनके द्वारा बनाए खेल मिलकर खेल सकते हैं!

अपेक्षा एक स्वतंत्र अध्ययनकर्ता, थिएटर रचनाकार, और एक्टिविस्ट हैं. वे मुंबई में रहती हैं.

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